वर्षा तथा जलाधिशेष
जल संसाधन संभाव्यता, उपयोग एवं विकास की दृष्टि से वर्षा की मासिक एवं वार्षिक विचलनशीलता, वर्षा की प्रकृति एवं गहनता का अध्ययन समीचीन है।
बिलासपुर जिले की 95 प्रतिशत वार्षिक वर्षा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून द्वारा जून से सितंबर के मध्य प्राप्त होती है। शेष वर्षा शीतकालीन चक्रवातों के परिणामस्वरूप प्राप्त होती है। वर्षा की प्रकृति, पर्वतीय एवं मानसूनी विशेषताओं से युक्त है (गुप्ता, 1979, 11)। सामान्यत: जिले में मानसून का आगमन 10 से 15 जून के मध्य होता है। एवं 10 अक्टूबर के आस-पास इसका निवर्तन हो जाता है (दास, 1968, 13)। जिले में जहाँ मानसून का प्रारंभ एकाएक होता है, वहीं इसका निवर्तन क्रमिक होता है। बिलासपुर जिले की औसत वार्षिक वर्षा 129 सेंटीमीटर है, जिसके वितरण में स्थानिक विशेषताएँ विद्यमान हैं।
वर्षा का मासिक एवं वार्षिक वितरण
बिलासपुर जिले के 6 वर्षामापी केंद्र से वर्ष 1956-1986 की अवधि के लिये प्राप्त आंकड़ों के आधार पर जिले की मासिक एवं वार्षिक वर्षा का अध्ययन किया गया है।
चार परम्परागत ऋतुओं में जिले में वर्षा की मात्रा का विवरण सारिणी क्रमांक 12 में दर्शाया गया है।
बिलासपुर जिले में जुलाई एवं अगस्त सर्वाधिक वर्षा के महीने हैं जबकि वार्षिक वर्षा का 60 प्रतिशत से अधिक वर्षा होती है। जिले में इस अवधि में बिलासपुर में वार्षिक वर्षा का 92.4 प्रतिशत तथा मुंगेली में 91.79 प्रतिशत जुलाई एवं अगस्त में प्राप्त होती है।
सितंबर-अक्टूबर में निवर्तन कालीन मानसून से अधिकतम 16 एवं न्यूनतम 4 प्रतिशत वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है। सितंबर में प्राप्त होने वाली वर्षा की मात्रा में अनिश्चितता की स्थिति रहती है। सितंबर माह में जिले की औसत वर्षा 18 सेंटीमीटर से 29 सेंटीमीटर के मध्य रहती है। सितंबर के पश्चात वर्षा की मात्रा तीव्रता से कम होती है। अक्टूबर में औसतन कुल वार्षिक वर्षा की मात्रा का 4 प्रतिशत वर्षा प्राप्त होती है।
शीतकालीन चक्रवातों के प्रभाव में जनवरी एवं फरवरी के महीनों में भी वर्षा हो जाती हैं। यद्यपि इस वर्षा की मात्रा नगण्य है। परंतु यह वर्षा रबी फसलों के लिये लाभकारी है। इस अवधि में सर्वाधिक वर्षा बिलासपुर में होती है (कुल वार्षिक वर्षा का 3.82 प्रतिशत)। इसके पश्चात क्रमश: पेण्ड्रा (3.65 प्रतिशत), मुंगेली (12.95 प्रतिशत), जांजगीर (2.70 प्रतिशत), कटघोरा (2.56 प्रतिशत) तथा सक्ती (1.87 प्रतिशत) आते हैं। पछुवा पवनों का प्रभाव पूर्व की ओर बढ़ने के साथ-साथ क्रमश: घटते जाता है। अत: वर्षा की मात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती जाती है। जिले में मार्च, अप्रैल एवं मई सामान्यत: शुष्क महिने हैं।
वार्षिक वर्षा का वितरण
बिलासपुर जिले में वार्षिक वर्षा की मात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर क्रमश: बढ़ती जाती है। जिले के पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा की न्यूनता के प्रमुख दो कारण हैं -
1. ऊँची मैकल श्रेणी अरब सागरीय मानसूनी पवनों के मार्ग में अवरोध डालकर इस क्षेत्र में वृष्टि छाया का प्रभाव पैदा करती है, तथा
2. बंगाल की खाड़ी की मानसून पवन यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते पूर्वी क्षेत्र की तुलना में क्षीण हो जाती है। फलत: वर्षा की मात्रा कम हो जाती है।
सामान्यत: जिले में अच्छी वर्षा (129 सेमी) होती है तथापि वार्षिक वर्षा की मात्रा में मानसून की अनिश्चिता के कारण भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इसके परिणाम स्वरूप कभी-कभी अकाल की प्रतिछाया दिखाई देने लगती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। जिले में न्यूनतम वर्षा कटघोरा में वर्ष 1978 में 4.3 सेंटीमीटर हुई, जबकि अगले वर्ष 198 सेंटीमीटर वर्षा हुई।
वर्षा की वार्षिक एवं मासिक विचलन शीलता
बिलासपुर जिले की औसत वार्षिक वर्षा की विचलनशीलता 26.2 प्रतिशत है। वर्षा की विचलनशीलता का विस्तार न्यूनतम 22 प्रतिशत (पेण्ड्रा) से अधिकतम 32 प्रतिशत (28.8 जांजगरी) की जिले के अन्य केंद्रों पर वर्षा विचलनशीलता क्रमश: कटघोरा (27.68), सक्ती (22.6), मुंगेली (28.02), बिलासपुर (28.02) है।
सामान्यत: जिले में विचलनशीलता की मात्रा दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमश: बढ़ती जाती है। जिले में सामान्यत: वर्षा व परिवर्तनशीलता का प्रतिलोमी सम्बन्ध पूर्णत: लागू नहीं होता। जिले के कटघोरा, सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र में परिवर्तनशीलता दर अधिक (27.08 प्रतिशत) है। इसका कारण यदि मानसून प्रारंभिक रूप से क्षीण है तो मानसून के प्रवेश के साथ ही आर्द्रता का अधिकांश भाग समाप्त हो जाने के कारण अनावृष्टि की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। यद्यपि वर्षा की मात्रा में यह अंतर संख्यात्मक रूप से अधिक नहीं होता, फिर भी वर्षा की कुल मात्रा से कम होने के कारण प्रतिशत परिवर्तनशीलता अधिक हो जाती है। जिले के मुंगेली बिलासपुर जांजगीर सर्वाधिक विचलनशीलता के क्षेत्र है ऐसे क्षेत्र न्यूनतम वर्षा युक्त क्षेत्र में जिले के अन्य पेण्ड्रा, सक्ती क्षेत्र में वर्षा एवं विचलनशीलता में पूरक सम्बन्ध है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 1300 मिमी से भी अधिक है एवं वार्षिक वर्षा की विचलनशीलता 22 प्रतिशत (न्यूनतम) है।
जिले की सामान्य विचलनशीलता के अनुसार स्पष्ट है कि सामान्यत: सितंबर एवं अक्टूबर के महीने में विचलनशीलता का प्रतिशत सर्वाधिक (70-80 प्रतिशत) है। सितंबर, अक्टूबर में इतनी अधिक ऋण विचलनशीलता सूखे को एवं धन विचलनशीलता कीड़ों को जन्म देती है जो इस क्षेत्र की प्रमुख फसल धान की दृष्टि से अत्यंत नुकसानदेह है।
वार्षिक वर्षा का उतार-चढ़ाव
बिलासपुर जिले के किसी भी भाग में वर्षा के उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति का सामान्यीकृत स्वरूप निर्धारित नहीं किया जा सकता, किंतु यह तथ्य अपेक्षाकृत स्पष्ट है कि सामान्यत: अधिक वर्षा की अवधि न्यून वर्षा युक्त अवधि का अनुसरण करती है। बिलासपुर जिले के विभिन्न केंद्रों में वर्षा अनिश्चितता एवं परिवर्तनशीलता की स्थिति में है। यह क्षेत्र के जल संसाधन के विकास की दृष्टि से घातक है। यद्यपि वर्ष 1980-86 की अवधि में वर्षा अधिक हुई तथापि बिलासपुर, मुंगेली तथा पेण्ड्रा इत्यादि स्थानों पर कुल वार्षिक वर्षा की मात्रा में वर्ष दर वर्ष गिरावट आते जा रही है। जिले के विभिन्न स्थानों पर वर्षा की प्रवृत्ति को दर्शाने वाली ‘‘प्रतिगमन रेखा’’ वर्षा की मात्रा में क्रमश: ह्रास को प्रदर्शित कर रही है। ह्रास की इस दर में सभी स्थानों पर विभिन्नता के कारण ह्रास का स्थानिक स्वरूप निर्धारित नहीं होता है। ह्रास की दर अधिकतम (-1.07 सेमी) मुंगेली में तथा न्यूनतम (0.14 सेमी) कटघोरा में है। जिले के अन्य केंद्रों पर वर्षा की मात्रा की ह्रास दर क्रमश: बिलासपुर में 1.01 सेमी, जांजगीर में -1.29 सेमी, पेण्ड्रा में -0.24 सेमी तथा सक्ती में 0.09 सेमी है। यद्यपि वर्षा की मात्रा में ह्रास की दर कम है तथापि धान उत्पादक क्षेत्र के लिये यह संकट का सूचक है। ह्रास की यह प्रवृत्ति निश्चित रूप से एक चेतावनी है कि क्षेत्र के जल संसाधनों का उचित एवं सही प्रबंधन है। 1956-86 की यह स्थिति यथावत बने रहने की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, परंतु यही प्रवृत्ति रही तो संभव है कि निकट चार दशकों तक यह भाग सूखाग्रस्त हो जायेगा।
जलाधिशेष
जिले के विभिन्न स्थानों की मासिक वर्षा तथा सामान्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन के तुलनात्मक अध्ययन से मासिक वर्षा के संदर्भ में किसी क्षेत्र में जलाभाव एवं जलाधिक्य की स्थिति स्पष्ट होती है। साथ ही वहाँ की जल समस्याओं एवं जलीय आवश्यकता का मूल्यांकन भी किया जा सकता है। जल संतुलन मासिक वर्षा एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन के अंतर्सम्बन्धों का अध्ययन है (सुब्रमण्यम, 1984, 11)।
किसी क्षेत्र अथवा स्थान के जल बजट की गणना सर्वप्रथम सी डब्ल्यू, थार्नथ्वेट (1948, 13) द्वारा की गई। वर्ष 1955 में उन्होंने अपनी संकल्पना को संशोधित किया। उन्होंने अधिकतम वर्षाकाल में जल संग्रहण एवं न्यूनतम वर्षाकाल में जल-आपूर्ति के प्रमुख कारक के रूप में मिट्टी के साथ वर्षण एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए किसी क्षेत्र अथवा स्थान के मासिक जल-संतुलन अथवा जल-बजट की गणना की है।
बिलासपुर, जिले के सभी वर्षा मापी केंद्रों के लिये जल संतुलन की गणना थार्नथ्वैट एवं माथर, द्वारा प्रतिपादित ‘बुक कीपिंग प्रक्रिया’ के आधार पर वर्ष 1956-86 की अवधि के लिये की गई।
सामान्य वाष्पोत्सर्जन
सम्पूर्ण वनस्पति आवरण वाले किसी क्षेत्र से होने वाले जल-उत्सर्जन की मात्रा सामान्य वाष्पोत्सर्जन है (थार्नथ्वेट एवं माथर, 1955, 14)।
बिलासपुर जिले में सामान्य वाष्पोत्सर्जन की गणना के लिये पेण्ड्रा एवं चांपा केंद्रों को चुना गया। इन केंद्रों के लिये सामान्य वाष्पोत्सर्जन की गणना भारतीय मौसम विभाग पूना के डॉ. के.एन राव एवं उनके सहयोगियों ने की है।
जिले में औसत सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा अधिकतम 1480 मिमी दक्षिणी मैदानी क्षेत्र में (चांपा) एवं न्यूनतम 1409 मिमी उत्तरी पर्वतीय तथा वनाच्छादित क्षेत्र (पेण्ड्रा) में हैं। सामान्यत: वाष्पोत्सर्जन की मात्रा उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है। अर्थात दक्षिणी भाग में जल की आवश्यकता उत्तर की तुलना में अधिक है। इसके निम्नलिखित दो कारण है -
1. बिलासपुर जिले के उत्तरी क्षेत्र (पेण्ड्रा) में तापक्रम जनवरी में 10.90 सेल्सियस तथा मई में 300 सेल्सियस होता है, जबकि इन्हीं महीनों में दक्षिणी मैदानी क्षेत्र में (चांपा) तापक्रम क्रमश: 27.50 एवं 450 सेल्सियस रहता है। इस प्रकार उत्तरी क्षेत्र में कम तापक्रम के कारण सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा भी घट जाती है, तथा
2. यदि मिट्टी शुष्क हो जाती है तब सामान्य वाष्पोत्सर्जन हेतु जल की आवश्यक मात्रा में कमी आयेगी। इस प्रकार मिट्टी में संचित आर्द्रता का निवेश जैसे-जैसे घटता जायेगा, सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा भी घटते जाती है (लॉरी, 1957, 152)।
जिले के उत्तरी भाग में आर्द्रता निवेश (148.3 सेमी) दक्षिणी क्षेत्र की तुलना में अधिक है। साथ ही मिट्टी में संचित आर्द्रता की मात्रा भी उत्तरी क्षेत्र में (250 मिमी), दक्षिणी क्षेत्र की अपेक्षा (150-200 मिमी) अधिक है। फलत: उत्तरी क्षेत्र की तुलना में दक्षिणी भाग में सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा अधिक है।
औसत मासिक तापक्रम एवं सामान्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन अंर्तसम्बन्धित है। सामान्यत: अधिकतम सामान्य वाष्पोत्सर्जन अधिक तापक्रम वाले मई-जून के महिनों में तथा न्यूनतम सामान्य वाष्पोत्सर्जन दिसंबर-जनवरी में होता है।
मासिक वर्षा एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन का प्रतिलोमी सम्बन्ध है। मासिक वर्षण एवं सामान्य वाष्पोत्सर्जन के अंतर्सम्बन्धों के परिणाम स्वरूप जलाभाव एवं जलाधिक्य की स्थिति विकसित होती है। मिट्टी में आर्द्रता संचयन की मात्रा भी वर्षण, वाष्पोत्सर्जन के द्वारा कुछ मात्रा में नियमित होती है।
संचित आर्द्रता उपयोग एवं संचित सामान्य जल-हानि
बिलासपुर जिले में मिट्टी में संचित आर्द्रता की मात्रा समस्त मानसून काल में अपनी पूर्ण क्षमता (250-200 मिलीमीटर) से युक्त होती है, क्रमश: अक्टूबर-नवंबर से घटते जाती है। क्योंकि सितंबर के पश्चात वर्षा की मात्रा क्रमश: कम होती जाती है, फलत: जलीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु मिट्टी में संचित आर्द्रता की उपयोग प्रारंभ हो जाता है। संचित आर्द्रता की मात्रा अक्टूबर-नवंबर में क्रमश: मुंगेली में 60 से 100 मिलीमीटर, बिलासपुर में 100 से 150 मिलीमीटर एवं कटघोरा, पेण्ड्रा तथा सक्ती में 120 से 160 मिली मीटर के मध्य रहती है। इसके पश्चात आर्द्रता का मात्रा क्रमश: घटती जाती है। अप्रैल तथा मई तक प्राय: सभी स्थानों पर संचित आर्द्रता की मात्रा न्यूनतम (3 से 10 मिलीमीटर) होती है। यह स्थिति मानसून आगमन तक बनी रहती है जबकि जुलाई एवं अगस्त में वाष्पोत्सर्जन की मात्रा में वर्षा की मात्रा अधिक होती है एवं मिट्टी पुन: आर्द्रता से पूर्ण हो जाती है।
जलाभाव
जिले में जलाभाव की मात्रा में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर क्रमश: वृद्धि होते जाती है। जिले के उत्तर में स्थित कटघोरा एवं पेण्ड्रा में औसत वार्षिक जलाभाव 600-700 मिलीमीटर के मध्य है। जबकि न्यूनतम 300-350 मिमी जलाभाव मुंगेली एवं बिलासपुर में है। जिले की वार्षिक वर्षा एवं जलाभाव में सकारात्मक सम्बन्ध है। प्राय: उन स्थानों पर, यथा- मुंगेली जहाँ वार्षिक वर्षा की मात्रा कम है, जलाभाव अधिक है। इसके विपरीत अधिकतम वर्षायुक्त क्षेत्र में जलाभाव का प्रतिशत कम है। द्वितीय जिले के दक्षिणी भाग में मिट्टी की संचयी आर्द्रता क्षमता कम होने के कारण जलीय आवश्यकता का संभरण नहीं हो पाता फलत: जलाभाव विकसित हो जाता है। जिले के कटघोरा एवं पेण्ड्रा में मिट्टी की संचयी आर्द्रता क्षमता अधिक है साथ ही वार्षिक वर्षा की मात्रा भी अधिक है, फलत: ये क्षेत्र न्यूनतम जलाभाव के क्षेत्र हैं।
जिले के विभिन्न स्थानों पर जलाभाव के मासिक अध्ययन से स्पष्ट है कि एक सामान्य जल वर्ष में जिले में जलाभाव की सामान्यत: दो स्थितियाँ निर्मित होती है -
1. पूर्व मानसून काल (मार्च से मध्य जून) तथा
2. उत्तर मानसून काल (अक्टूबर से फरवरी)
मानसून काल में संचित आर्द्रता से शीतकालीन जलीय आवश्यकता की पूर्ति पूर्ण नहीं हो पाती फलत: शुष्कता की स्थिति निर्मित हो जाती है। मार्च तक मिट्टी में संचित आर्द्रता की अधिकांश मात्रा समाप्त हो जाती है एवं जलाभाव की द्वितीय स्थिति निर्मित हो जाती है, जिसका समापन मानसून के आगमन के साथ ही हो जाता है। जिले के मुंगेली एवं बिलासपुर में अन्य केंद्रों की तुलना में मासिक जलाभाव भी अधिक है।
जलाधिक्य
सामान्यत: जिले के अधिक वर्षा वाले क्षेत्र अधिकतम जलाधिक्य वाले क्षेत्र हैं। औसत अधिकतम वार्षिक जलाधिक्य जिले के उत्तरी क्षेत्र में (700 मिमी) एवं न्यूनतम वार्षिक जलाधिक्य बिलासपुर, मुंगेली (300-350 मिलीमीटर) में है। जिले के अन्य केंद्रों पर जलाधिक्य क्रमश: कटघोरा में 695 मिली मीटर, पेण्ड्रा में 760 मिमी तथा जांजगीर में 516 मिमी है।
जिले के जलाधिक्य वितरण की एक प्रमुख विशेषता यह है कि सामान्यत: अधिक जलाधिक्य वाले कोरबा एवं पेण्ड्रा, अरपा, लीलागर, खारून, बोराई, हसदो एवं मनियारी नदियाँ के लिये जलावाह प्रदान करते हैं।
आर्द्रता पर्याप्तता
किसी क्षेत्र की जलीय आवश्यकता एवं वर्षा के द्वारा आपूर्ति का अध्ययन आवश्यक है। आर्द्रता पर्याप्तता सूचकांक वास्तविक वाष्पोत्सर्जन का आनुपातिक स्वरूप है, जिसके माध्यम से किसी क्षेत्र की जलीय आवश्यकता के अनुपात में जल उपलब्धता की सूचना प्राप्त होती है। आर्द्रता पर्याप्तता सूचकांक की निम्न प्रतिशत क्षेत्र में अपर्याप्त आर्द्रता निवेश की सूचक है। (सुब्रमण्यम एवं सुब्बाराव, 1963, 462)। सुब्रमण्यम के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता पर्याप्तता कृषि के लिये उपयुक्त है।
बिलासपुर जिले की औसत आर्द्रता पर्याप्तता 56.25 प्रतिशत है। आर्द्रता पर्याप्तता का प्रतिशत सर्वाधिक कटघोरा एवं पेण्ड्रा क्षेत्र में क्रमश: 63 एवं 61 प्रतिशत है। वर्षा की लंबी अवधि, अधिक वार्षिक वर्षा, मिट्टी की उच्च जल धारण क्षमता इस क्षेत्र में उच्च आर्द्रता पर्याप्तता के प्रमुख कारण हैं। जिले में न्यूनतम आर्द्रता पर्याप्तता मुंगेली में 45.5 प्रतिशत पायी जाती है। जिले के अन्य भागों में सामान्यत: 50 से 60 प्रतिशत तक आर्द्रता पर्याप्तता की मात्रा रहती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिले की मिट्टियों में आर्द्रता पर्याप्त है एवं सर्वत्र कृषि कार्य किया जा सकता है। तथापि आर्द्रता पर्याप्तता में ऋतुगत विषमताएँ देखी जा सकती है। आर्द्रता पर्याप्तता सर्वाधिक मानसून काल में (90 प्रतिशत तक ) होती है जो अक्टूबर के पश्चात क्रमश: कम होते जाती है।
शुष्कता सूचकांक एवं सूखे की प्रवृत्ति
भूमि में उपलब्ध आर्द्रता से अधिक मात्रा में वाष्पीकरण होना सूखा है। इस संदर्भ में भारतीय मौसम विभाग (रिपोर्ट 1367, स्टेटमेन42) (थार्नथ्वेट, माथर, 1974, 190)। तथा सुब्रमण्यम एवं शास्त्री 1982, 50 के अध्ययन महत्त्वपूर्ण हैं।
थार्नथ्वेट ने शुष्कता सूचकांक से विचलन के आधार पर सूखे की चार श्रेणियों को बताया है। यथा - मध्यम सूखा (विचलन 0-1/2 0), वृहत सूखा (विचलन 1/20-10), भीषण सूखा (विचलन 10-20) तथा भीषणतम सूखा (20 से अधिक विचलन)।
बिलासपुर जिले के विभिन्न केंद्रों के लिये वर्ष 1956-86 की अवधि के लिये सूखे की प्रवृत्ति का अध्ययन किया गया है। इस अवधि में क्षेत्र के कटघोरा में न्यूनतम 11 एवं जांजगीर में अधिकतम 19 वर्ष सूखे के रहे। जिले में सूखे के वर्षों की बारंबारता 1967-78 के दशक में सर्वाधिक रही।
बिलासपुर जिले के उत्तरी भाग में शुष्कता की बारंबारता दक्षिणी क्षेत्र की तुलना में अपेक्षाकृत कम है। पेण्ड्रा, कटघोरा में शुष्कता गहनता 35-45 प्रतिशत है। वहीं जांजगीर, मुंगेली क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक है। जिले का उत्तरी भाग वनाच्छादित है, अत: शुष्क अवधि की बारंबारता कम है जबकि दक्षिण का मैदानी भाग सूखे की चपेट में अधिक आता है। तथापि जिले का कोई भी भाग सूखे में अप्रभावित नहीं है।
सम्पूर्ण अध्ययन अवधि में वर्ष 1961, 1964, 1967 एवं 1986 सूखामुक्त वर्ष थे। जिले का कोई भी क्षेत्र सूखाग्रस्त नहीं रहा। परंतु वर्ष 1950, 1969, 1973, 1976 एवं 1979 में सम्पूर्ण जिला सूखाग्रस्त था। वर्ष 1960, 1974 एवं 1981 में जिले के 90 प्रतिशत क्षेत्र में सूखे की गंभीर स्थिति रही। 1960, 1981 में जिले का सम्पूर्ण दक्षिणी भाग सूखाग्रस्त था परंतु कटघोरा क्षेत्र सामान्य वर्षा वाला क्षेत्र रहा। 1974 में जिले के पश्चिमी भाग को छोड़ सभी क्षेत्रों में सूखे की स्थिति रही।
शुष्कता सूचकांक के आधार पर जिले को तीन प्रमुख शुष्कता क्षेत्र में विभक्त किया जा सकता है -
1. अत्याधिक शुष्क क्षेत्र (शुष्कता सूचकांक 75 प्रतिशत)
2. मध्यम शुष्क क्षेत्र (शुष्कता सूचकांक 40-45 प्रतिशत) तथा
3. निम्न शुष्क क्षेत्र (40 प्रतिशत)।
1. अत्याधिक शुष्क क्षेत्र
जिले के पश्चिमी भाग (मुंगेली) एवं दक्षिणी बिलासपुर तहसील के क्षेत्र इसके अंतर्गत सम्मिलित हैं। मुंगेली एवं बिलासपुर प्रतिनिधि केंद्र हैं। इन केंद्रों पर शुष्कता सूचकांक क्रमश: 51.1 एवं 46 प्रतिशत है।
मुंगेली -
यह न केवल इस क्षेत्र का वरन सम्पूर्ण जिले का सर्वाधिक शुष्क क्षेत्र है। अध्ययन अवधि में इस क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक वर्ष में शुष्कता की स्थिति रही। सम्पूर्ण अवधि की 50 प्रतिशत वर्षों में मध्यम, 15.5 प्रतिशत वृहत, 17 प्रतिशत भीषण एवं 28.3 प्रतिशत भीषणतम अकाल की स्थिति रही। 1956-66 के दशक में 3 मध्यम, 3 भीषण शुष्क वर्ष रहे। द्वितीय दशक सर्वाधिक सूखा वाला दशक रहा। इस अवधि में शुष्कता गहनता 13.3 प्रतिशत रही। शुष्कता सूचकांक 44 से 42 प्रतिशत रहा। वर्ष 1968, 1969, 1973 एवं 1979 भीषणतम शुष्क वर्ष रहे। अंतिम दशक शुष्कता गहनता 6.4 प्रतिशत रही। इस अवधि में 4 मध्यम, 1 भीषण एवं 1 भीषणतम शुष्क वर्ष रहे।
बिलासपुर -
बिलासपुर इस क्षेत्र का दूसरा प्रतिनिधि केंद्र है। सम्पूर्ण अध्ययन अवधि में 53 प्रतिशत काल में सूखे की स्थिति रही। अध्ययन अवधि के प्रथम दशक (1956-66) में 13.1 प्रतिशत शुष्कता गहनता रही। इस अवधि में 3 मध्यम, 3 वृहत एवं 1 भीषणतम शुष्क वर्ष थे। वर्ष 1960 सर्वाधिक शुष्क वर्ष रहा। 1967 से 1976 की अवधि में 9.3 प्रतिशत शुष्कता गहनता रही। वर्ष 1975 सर्वाधिक शुष्क वर्ष रहा। अध्ययन अवधि के अंतिम दशक में 1 मध्यम (1979) भीषण (1980), 1 वृहत्त (1981) शुष्क वर्ष रहे।
मध्यम शुष्क क्षेत्र
जिले के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र का जांजगीर एवं सक्ती तहसील इसके अंतर्गत आते हैं। जांजगीर एवं सक्ती दो प्रतिनिधि केंद्र हैं। इन केंद्रों पर औसत शुष्कता सूचकांक क्रमश: 42.5 एवं 42.2 प्रतिशत है। वर्षा की अनिश्चितता इस क्षेत्र में सूखे की दशा निर्मित करने में विशेष सहायक है।
जांजगीर
वर्ष 1956 से 1986 तक की अवधि में जांजगीर में 48.3 प्रतिशत वर्ष सूखे से ग्रसित रहे। प्रथम दशक में 6.2 प्रतिशत सूखे की स्थिति रही। इस अवधि में 2 भीषण, 2 मध्यम एवं 2 वृहत शुष्क वर्ष रहे। वर्ष 1963 एवं 1965 सर्वाधिक शुष्क वर्ष थे। इन वर्षों में शुष्कता सूचकांक क्रमश: 80.9 एवं 70.6 प्रतिशत रहे।
द्वितीय दशक में शुष्कता सर्वाधिक 14.4 प्रतिशत रही। इस अवधि में 70 प्रतिशत वर्ष शुष्क रहे। इस प्रकार सम्पूर्ण अवधि में 16.5 प्रतिशत वर्षों में वृहत 6.2 प्रतिशत वर्षों में मध्यम एवं 6.2 प्रतिशत वर्षों में भीषण सूखे की स्थिति रही।
सक्ती
1956-86 की अवधि में 45 प्रतिशत वर्षों में शुष्कता की स्थिति रही। इस अवधि में 17.7 प्रतिशत मध्यम 11.1 प्रतिशत वृहत एवं 2.1 प्रतिशत भीषण अकाल के वर्ष रहे। अध्ययन अवधि का द्वितीय दशक (1967-78) अधिकृत शुष्क रहा जिसमें 4 मध्यम, 1 भीषण एवं 1 वृहत सूखे वाले वर्ष रहे। अंतिम दशक में शुष्कता गहनता 2 प्रतिशत रही। इस अवधि में 2 मध्यम एवं 2 वृहत वर्ष शुष्क रहे।
3. न्यूनतम शुष्क क्षेत्र
जिले का उत्तरी पर्वतीय एवं वनाच्छादित क्षेत्र के कोरबा, कटघोरा, पेण्ड्रा तहसील इसके अंतर्गत सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 1300-1400 मिली मीटर है। मिट्टी की आर्द्रता संचयन की क्षमता भी अधिक है। अत: यहाँ पर शुष्कता की बारंबारता अपेक्षाकृत कम है। पेण्ड्रा एवं कटघोरा प्रमुख प्रतिनिधि केंद्र हैं। इन स्थानों पर शुष्कता सूचकांक क्रमश: 39.1 एवं 38 प्रतिशत है।
कटघोरा
यह जिले का अपेक्षाकृत कम शुष्क क्षेत्र है। सम्पूर्ण अध्ययन अवधि में 35.4 प्रतिशत वर्ष सूखे की स्थिति से मुक्त थे। सम्पूर्ण अवधि के 19.7 प्रतिशत वर्ष मध्यम, 2.8 प्रतिशत वृहत, 5.6 प्रतिशत भीषण तथा 2.8 प्रतिशत भीषणतम शुष्क वर्ष रहे। प्रथम दशक में 1960 में भीषणतम सूखे की स्थिति रही। इस क्षेत्र में 1967 से 1976 की अवधि सर्वाधिक शुष्क रही। इस अवधि में शुष्कता गहनता 60 प्रतिशत रही। जिसमें 1 वृहत, 4 मध्यम एवं 1 भीषण शुष्क वर्ष रहे। अंतिम दशक आर्द्र रहा। इस अवधि में वर्ष 1979 से 1982 ही सूखाग्रस्त वर्ष थे।
पेण्ड्रा
यह जिले का एक अन्य क्षेत्र है जहाँ शुष्कता का प्रतिशत अत्यंत न्यून रहा। 1956-86 की अवधि में 21.0 प्रतिशत वर्षों में मध्यम, 21.8 प्रतिशत वर्षों में वृहत एवं 2.6 प्रतिशत वर्षों में भीषण सूखे की स्थिति रही। अध्ययन अवधि के प्रथम दशक में शुष्कता का प्रतिशत अत्यंत न्यून (2.6) रहा। वर्ष 1967-76 की अवधि में सूखे की स्थिति 13.1 प्रतिशत रही। इस अवधि में 4 मध्यम, 1 वृहत सूखे वर्ष रहे। वर्ष 1977-86 की अवधि सर्वाधिक शुष्क अवधि रही। इस काल में सम्पूर्ण शुष्क अवधि का 75.7 प्रतिशत शुष्कता की स्थिति रही। इस अवधि में 4 मध्यम 1 वृहत एवं 1 भीषण शुष्क वर्ष रहे। वर्ष 1982 सर्वाधिक शुष्क वर्ष रहा। इस वर्ष शुष्कता सूचकांक 50 प्रतिशत रहा।
आर्द्रता सूचकांक
आर्द्रता सूचकांक किसी क्षेत्र के आर्द्रता क्षेत्र एवं जलवायु प्रकार के निर्धारण में प्रमुख तत्व हैं। आर्द्रता सूचकांक (सुब्रमण्यम, 1973, 19) की गणना से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर बिलासपुर जिले को निम्नलिखित तीन प्रमुख जलवायु प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है -
1. आर्द्र (बी1) जलवायु प्रदेश
2. नम उपार्द्र (सी2) जलवायु प्रदेश एवं
3. शुष्क उपार्द्र (सी1) जलवायु प्रदेश
1. आर्द्र (बी1) जलवायु प्रदेश
जिले के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र इसके अंतर्गत सम्मिलित हैं। कटघोरा, पेण्ड्रा, सक्ती प्रमुख प्रतिनिधि केंद्र हैं। इन स्थानों पर आर्द्रता सूचकांक क्रमश: 65.2, 53.7 एवं 59.5 प्रतिशत है। यह क्षेत्र सर्वाधिक वर्षायुक्त क्षेत्र है। इस क्षेत्र में अधिकतम वर्षा (1480 मिलीमीटर) कटघोरा में एवं न्यूनतम (1379 मिलीमीटर) पेण्ड्रा में होती है। इसी क्षेत्र में शुष्कता की अवधि न्यून है। सम्पूर्ण अध्ययन अवधि (1956-86) के 12 प्रतिशत वर्ष शुष्क वर्ष रहे। इस क्षेत्र में सामान्य वाष्पोत्सर्जन की मात्रा भी 1409 मिमी वार्षिक है। यह क्षेत्र जिले का सर्वाधिक जलाधिक्य वाला क्षेत्र है। तीन प्रतिनिधि केंद्रों पर जलाधिक्य की मात्रा क्रमश: कटघोरा में 695, पेण्ड्रा में 760, सक्ती में 765 मिलीमीटर है।
2. नम उपार्द्र (सी2) जलवायु प्रदेश
इस प्रकार के आर्द्रता प्रदेश में जलाभाव की मात्रा क्रमश: बढ़ती जाती है तथा जलाधिक्य भी न्यून हो जाती है। बिलासपुर जिले के जांजगीर क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी एवं मध्यवर्ती क्षेत्र में इस प्रदेश का विस्तार है। वार्षिक वर्षा की विचलनशीलता एवं मात्रा में विषमता के कारण जलाभाव एवं जलाधिक्य का प्रतिशत परिवर्तित होते रहता है। औसत वार्षिक जलाधिक्य 576 मिलीमीटर एवं जलाभाव 625 मिलीमीटर (जांजगीर) रहता है। इस क्षेत्र में सम्पूर्ण अध्ययन अवधि के 48 से 50 प्रतिशत वर्ष शुष्क वर्ष रहे। यह क्षेत्र जिले का सर्वाधिक विचलनशीलता युक्त क्षेत्र है अत: यहाँ पर जल संसाधन विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
3. शुष्क उपार्द्र (सी1) जलवायु प्रदेश
इस प्रकार के क्षेत्र में वर्ष दर वर्ष क्रमिक रूप से जलाभाव एवं जलाधिक्य की स्थितियाँ बनी रहती है। बिलासपुर जिले का दक्षिण-पश्चिमी एवं मध्यवर्ती क्षेत्र इस प्रकार के अंतर्गत आता है। मुंगेली एवं बिलासपुर इस प्रदेश के प्रमुख प्रतिनिधि केंद्र हैं। यह क्षेत्र जिले का सर्वाधिक सूखा क्षेत्र है। मानसून काल के लगभग 2-3 महिनों के लिये सूखे की स्थिति नहीं रहती। औसत जलाधिक्य 300-350 मिलीमीटर वार्षिक है।
धरातलीय जल
‘‘जलधाराओं का जल ही सतही जलापूर्ति के रूप में सामान्य उपलब्ध जल है।’’
धरातलीय जल संसाधन संपन्न बिलासपुर जिला मुख्यत: महानदी प्रक्रम की नदियों द्वारा अपवाहित है। शिवनाथ, मनियारी, अरपा, हसदो, महानदी क्रम की प्रमुख नदियाँ हैं। जिले की कुल सतही जल उपलब्धता का 95.04 प्रतिशत (9347 लाख घन मीटर) जल 18694 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में विस्तृत इस क्रम की नदियों द्वारा संग्रहित किया जाता है। गंगा क्रम की सोन नदी जिले के उत्तरी उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में अपवाह का स्वरूप निर्मित करती है। जिले में 964 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तृत इस प्रवाह क्रम के अंतर्गत उपलब्ध धरातलीय जलराशि 5.04 प्रतिशत है।
बिलासपुर जिले के विभिन्न प्रवाह क्रमों में कुल धरातलीय जल उपलब्धता 9829 लाख घनमीटर वार्षिक है। जिले की विभिन्न जलधाराओं में उपलब्ध जलराशि का विवरण सारिणी क्र. 15 में दर्शाया गया है।
हॉफ बेसिन
जिले के पश्चिमी सीमा बनाती हुई हॉफ नदी इस बेसिन की प्रमुख नदी है। मैकल की पहाड़ियों से उद्गमित यह नदी उत्तरी से दक्षिण की ओर 174 किलो मीटर की लंबाई में प्रवाहित होते हुए शिवनाथ नदी में मिलती है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 725 वर्ग किलो मीटर है जो जिले के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3.69 प्रतिशत है। नदी प्रवाह प्रणाली का स्वरूप वृक्षाम है। नदी में उपलब्ध जल राशि 3630 लाख घनमीटर प्रति वर्ष है। जो समस्त जिले की धरातलीय जल का 3.69 प्रतिशत है। यह नदी नियतवाही नदी है। हाफ बेसिन का कुल फसल क्षेत्र 31022 हेक्टेयर है। हॉफ व्ययवर्तन योजना (1978) की नहर प्रणाली द्वारा इस बेसिन के 885 हेक्टेयर (कुल बोये गये क्षेत्र का 3.39 प्रतिशत) क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।
मनियारी बेसिन
शिवनाथ नदी की प्रमुख सहायक नदी मनियारी है। आगर, छोटी-नर्मदा, घोघा नाला आदि इसकी सहायक जल धाराएँ हैं, जो समस्त बेसिन में वृक्षनुमा प्रवाह स्वरूप में उत्तर पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होते हैं। यह नदी बिलासपुर जिले के उत्तरी पश्चिमी लोरमी पहाड़ से निकलकर जोंधरा ग्राम के समीप शिवनाथ नदी में मिलती है। प्रारंभ में यह नदी सर्पाकार प्रवाहित होती है एवं बिलासपुर तथा मुंगेली तहसील की सीमा का निर्धारण करती है। यह एक सतत वाहिनी जलधारा है, जिसकी लंबाई 2885 किलो मीटर है। इसके प्रवाह क्षेत्र का विस्तार 151 वर्ग किलो मीटर है। बेसिन के उत्तरी भाग में प्राचीन आर्क्रियन क्रम की ग्रेनाइट एवं नीस, दक्षिणी क्षेत्र में कड़प्पा क्रम की चूने का प्रस्तर एवं शैल प्रमुख चट्टानें हैं जो बेसिन के घनत्व को प्रभावित करते हैं। उत्तरी क्षेत्र में बेसिन का घनत्व 4 से 6 किमी प्रति वर्ग किलो मीटर है। वहीं दक्षिणी क्षेत्र की चट्टानें सघन एवं कठोर होने के फलस्वरूप यहाँ अपेक्षाकृत बड़ी जलधाराएँ ही प्रवाहित होती हैं। अत: प्रवाह घनत्व न्यून है। उत्तरी क्षेत्र में प्रथम श्रेणी की जलधाराएँ अधिक हैं, जो जल प्रवाह के निर्धारण में निर्धारित अथवा प्रमुख तत्व हैं। आगर नदी मनियारी नदी की प्रमुख सहायक नदी है, जो मैकल श्रेणी से निकलती है एवं मनियारी नदी के समानांतर दक्षिणी पूर्वी ढाल का अनुसरण करते हुए मिल जाती है। सम्पूर्ण प्रवाह बेसिन के उत्तरी क्षेत्रों में मानसून काल की अवधि में संग्रहित जलावाह उपलब्धता के संग्रहण एवं उपयोग हेतु मनियारी जलाशय का निर्माण वर्ष 1936 में किया गया जिससे इस क्षेत्र के 40486 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचित किया जा सका है। इस प्रवाह बेसिन में मनियारी नदी की एक सहायक घोंघा नाले पर भी एक जलाशय का निर्माण किया गया है। इस प्रकार इन सिंचाई परियोजनाओं से इस प्रवाह बेसिन के मुंगेली, तखतपुर, लोरमी में सिंचाई की सुविधा प्राप्त हो सकती है।
वर्तमान में इस प्रवाह बेसिन के कुल कृषि क्षेत्र 8211035 हेक्टेयर है जिसे 42289 हेक्टेयर भाग पर सिंचाई की जाती है, जो कुल बोये गये क्षेत्र का 19.3 प्रतिशत है।
ऊरपा नदी बेसिन
शिवनाथ नदी की सहायक अरपा नदी जिले के खोडरी गाँव के उत्तर में 9.66 किमी की दूरी पर समुद्र सतह से लगभग 621.45 मीटर की ऊँचाई से निकलती है। उद्गम से धावनपुर ग्राम तक यह उत्तर-दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है। उसके पश्चात इसकी प्रवाह दिशा दक्षिणी-पूर्व की ओर हो जाती है। यह लोफंदी ग्राम के पास पहाड़ी क्षेत्र को छोड़कर मैदानी क्षेत्र में उतरती है। इस नदी की कुल लंबाई 97.38 किमी है मैदानी क्षेत्र में इसकी लंबाई 47,44 किमी है। मति नाला, मलहनिया नाला, दाहिने किनारे पर एवं खारूण नदी, ज्वाली नाला बायें किनारे पर इसकी प्रमुख सहायक जलाधाराएँ हैं। नदी का अधिकतम मासिक जल प्रवाह अगस्त में 130.9 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड एवं न्यूनतम मई में 0.45 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। सम्पूर्ण प्रवाह क्षेत्र में प्रवाह घनत्व 0.2 किमी प्रति वर्ग किमी है अरपा बेसिन का कुल क्षेत्र 7521 वर्ग किमी है जो जिले की कुल भौगोलिक क्षेत्र 6.87 प्रतिशत है। ग्रेनाइट, नीस, हार्न ब्लैंड, शीस्ट (उत्तरी एवं मध्य क्षेत्र) एवं कड़प्पा युगीन चूना प्रस्तर, डोलोमाइट, दक्षिणी क्षेत्र की प्रमुख चट्टानी संरचना है। सम्पूर्ण प्रवाह बेसिन में लाल-पीली मिट्टी का विस्तार है।
प्रवाह बेसिन में कुल उपलब्ध जल 37650 लाख घनमीटर है जो सम्पूर्ण जल उपलब्धता का 38.3 प्रतिशत है। खारून नदी, अरपा नदी की प्रमुख सहायक नदी है जो कोरबा के उच्च क्षेत्र (पालम पहाड़) से निकल कर ग्राम गतौरा के समीप अरपा नदी में मिल जाती है।
प्रवाह बेसिन का कुल बोया गया क्षेत्र 114925 हेक्टेयर है। इस प्रवाह बेसिन में जल संसाधन के विकास हेतु अरपा की सहायक खारून नदी पर खारंग जलाशय (खूंटाघाट नामक स्थान पर) बनाया गया है, जिसकी जल संग्रहण क्षमता 28.34 लाख घन मीटर है। इसकी सिंचाई क्षमता 41500 हेक्टेयर है। सम्पूर्ण प्रवाह बेसिन के 28105.05 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की जाती है।
जल उपलब्धता की पर्याप्त संभावनाओं के फलस्वरूप अरपा नदी पर सिंचाई परियोजना प्रस्तावित है। जिसके पूर्ण होने पर 40000 हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की जा सकेगी।
लीलागर नदी बेसिन
कोरबा पर्वतीय क्षेत्र से निकलकर उत्तर-दक्षिण दिशा में प्रवाहित यह नदी शिवरीनारायण के समीप शिवनाथ नदी में मिलती है। नदी की कुल लंबाई 97 किमी है। प्रवाह बेसिन का कुल विस्तार 1373 वर्ग किमी है। इस प्रवाह बेसिन का कुल फसली क्षेत्र 835773 हेक्टेयर है। इस बेसिन का अधिकांश भाग खारंग जलाशय एवं हसदो बांगों परियोजना के लाभान्वित क्षेत्र के अंतर्गत है। सम्पूर्ण प्रवाह बेसिन का 39147.7 हेक्टेयर भूमि सिंचित है जो बेसिन के निरा बोये गये क्षेत्र का 50.4 प्रतिशत है।
हसदो-मांद बेसिन
जिले के अधिकांश पूर्वी भाग के विस्तृत इस प्रवाह बेसिन का क्षेत्रफल 3500 वर्ग किलोमीटर है। हसदो एवं उसकी सहायक अहीरन, तान, गज नाला द्वारा निर्मित यह संग्रहण प्रणाली जिले के 17.80 प्रतिशत भाग में अपवाहित है।
हसदो नदी महानदी की प्रमुख सहायक नदी है जो जिले की देवगढ़ की पहाड़ियों से निकल कर बिलासपुर जिले के चट्टानी एवं सर्वाधिक वनाच्छादित मातीन एवं उपरोरा क्षेत्र से होते हुए चांपा के मैदान में उभयाकार स्वरूप में प्रवाहित होती है। अंत में शिवरीनारायण से 13 किमी की दूरी पर यह नदी महानदी में मिलती है। उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में यह नदी अत्यंत गहरी एवं सकरी घाटी में प्रवाहित होता है। तान नदी के मिलने के पश्चात नदी का तल चौड़ा, रेतीला एवं द्वीपयुक्त हो गया है। हसदो एवं उसकी सहायक नदियाँ गोंडवाना चट्टानी संरचना की संधियों एवं निमंगों का अनुसरण करती है। अत: प्रवाह प्रणाली आयताकार स्वरूप की है। कहीं-कहीं पर वलयाकार एवं वृक्षनुमा प्रवाह प्रणाली भी दिखाई देती है।
नदी बेसिन में उत्तरी भाग में प्रवाह घनत्व मध्यम एवं दक्षिणी भाग में अत्यंत न्यून 0-3 प्रति वर्ग किमी है। इसका प्रमुख कारण दक्षिणी क्षेत्र में कठोर शैल एवं चूना प्रस्तर का विस्तार है। यही कारण है कि दक्षिणी भाग में सहायक जल धाराओं की संख्या अपेक्षाकृत न्यून है। प्रवाह गठन अत्यंत विरल है। नदी प्रौढ़ एवं मोड़युक्त है एवं निवकोण वक्र बनाती हुई प्रवाहित होती है। नदी की सामान्य प्रवाह दिशा उत्तर से दक्षिण है।
अहिरन बायें तट की एंव गज तथा धनगर दायें तट की सहायक जलधाराएँ हैं। हसदो नदी प्रवाह बेसिन अधिकतम वर्षायुक्त क्षेत्र है, सघन वन, कठोर चट्टानी संरचना, उत्तरी क्षेत्र में प्रथम श्रेणी की जलधाराओं की अत्याधिक संख्या आदि ऐसे कारण है, जो नदी जल प्रवाह वृद्धि का कारण है।
हसदो बेसिन जिले का वृहत बेसिन है। बेसिन की जल उपलब्धता 1758 लाख घन मीटर वार्षिक है। जो समस्त जिले की कुल जल उपलब्धता का 17.04 प्रतिशत है। प्रवाह बेसिन का कुल फसली क्षेत्र 264,176 हेक्टेयर है जो निरा बोये गये क्षेत्र का 27.3 प्रतिशत है।
हसदो बेसिन के जल संसाधन के उपयोग हेतु हसदो नदी पर हसदो बांगों वृहत सिंचाई परियोजना का निर्माण किया जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत हसदो बैराज दर्री ग्राम के निकट निर्मित किया गया है, जिसका अधिकतम जलस्तर 286.51 मीटर है। इस योजना के दो चरण पूर्ण हो चुके हैं। संप्रत्ति इसके प्रवाह क्षेत्र के जांजगीर, अकलतरा, चांपा विकासखण्डों में सिंचाई की जा रही है। सिंचित क्षेत्र 72316.74 हेक्टेयर है।
बोराई नदी बेसिन
74 किमी लंबी बोराई नदी उदयपुर की पहाड़ियों से निकलकर हसौद ग्राम के समीप महानदी में मिलती है। यह एक छोटी एवं अल्पकालीक नदी है। नदी का प्रवाह स्वरूप वृक्षनुमा प्रणाली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसकी अनेक छोटी-छोटी सहायक नदियाँ है जो क्रमिक रूप से इसमें मिलती है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 1810 वर्ग किलोमीटर है जो सम्पूर्ण जिले के भौगोलिक 985 लाख घन मीटर है जो समस्त जिले की जल उपलब्धता का 5 प्रतिशत है।
प्रवाह बेसिन का कुल फसली क्षेत्र 42561 हेक्टेयर है जिसमें 14465.25 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है जो निरा बोये गये क्षेत्र को 12.24 प्रतिशत है। नदी प्रवाह क्षेत्र में उपलब्ध जल के विकास हेतु वर्ष 1976 में बोराई परिवर्तन योजना निर्माण किया गया जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण प्रवाह क्षेत्र के 26400 क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकेगी।
नदियों का मासिक एवं वार्षिक जलावाह
जलावाह अथवा सतही प्रवाह नदियों में जल प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। अन्य शब्दों में जलावाह जलाधिशेष की वह राशि जो नदियों एवं धाराओं के रूप में सतही प्रवाह स्वरूप का निर्माण करता है।
धरातलीय संरचना, वर्षा की मात्रा एवं गहनता, जल हानि, मिट्टी की प्रकृति, वनस्पति आवरण, नदी जल प्रवाह आदि ऐसे तथ्य हैं जो नदियों के जलावाह को प्रभावित करते हैं।
बिलासपुर जिले के विभिन्न नदियों के जलावाह की गणना मुख्यत: ‘‘केंद्रीय जल संसाधन एवं शक्ति संगठन’’ द्वारा जिले के विभिन्न नदियों पर स्थापित जलप्रवाह मापी केंद्रों के लिये प्राप्त किए गए आंकड़ों के आधार पर किये गये हैं। विभिन्न जलप्रवाह मापी केंद्रों के लिये वर्ष 1979-86 की आबादी से जल प्रवाह का आकलन किया गया है।
कुल जल प्रवाह की मात्रा में समयावधि के साथ-साथ पर्याप्त क्षेत्रीय विषमताएँ एवं परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। इन परिवर्तनों को समयावधि के संदर्भ में जलीयग्राफ के माध्यम से दर्शाया जाता है। जलीय ग्राफ एक लंबी अवधि के जल प्रवाह के आंकड़ों अथवा औसत मासिक जल प्रवाह अथवा दैनिक जल प्रवाह के आंकड़ों के आधार पर निर्मित किये जा सकते हैं (मार्डनर, 1977, 172)।
नदियों का मासिक एवं वार्षिक जल प्रवाह
बिलासपुर जिले की सभी नदियों में अधिकतम एवं न्यूनतम जल प्रवाह में अत्यधिक विषमताएँ हैं। उदाहरणार्थ हसदो नदी का उच्चतम मासिक जल प्रवाह 714.14 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है जबकि न्यूनतम 4.06 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। शिवनाथ नदी का अधिकतम जल प्रवाह 1,129.7 लाख घन मीटर प्रति सेकंड एवं न्यूनतम 4.3 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। अरपा नदी का न्यूनतम जल प्रवाह 0.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड जबकि अधिकतम 130.6 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड तक है।
शिवनाथ एवं अरपा नदियों का 95 प्रतिशत जल प्रवाह जुलाई से सितंबर की अवधि में होता है। वहीं हसदो नदी में यह अवधि जून से अक्टूबर एवं महानदी के लिये जून से नवंबर तक है। हसदो एवं महानदी के प्रवाह बेसिन में वर्षा की अवधि लंबी होने के कारण जलावाह की अवधि भी लंबी है।
औसत मासिक वर्षा एवं औसत मासिक जलावाह अन्योन्याश्रित है। सामान्यत: जून से सितंबर के मध्य अधिकांश स्थानों पर अधिकतम जल प्रवाह रहता है। क्योंकि मानसून काल में वर्षा की मात्रा वाष्पीकरण की तुलना में अधिक होती है। मिट्टी भी अपनी पूर्ण आर्द्रता से युक्त होती है अत: इस अवधि में अतिरिक्त कुछ भाग जलावाह के रूप में उपलब्ध रहता है। सितंबर के पश्चात जबकि वर्षा की मात्रा न्यून होते जाती है, जलावाह घटता जाता है। ग्रीष्मावधि में वर्षा की अत्यंत कम मात्रा न्यूनतम जलावाह का प्रमुख कारण है। इस अवधि में जिले की नदी जल प्रवाह की मात्रा अधिकतम 9.6 लाख घन मीटर (महानदी) से न्यूनतम 0.45 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड (अरपा) के मध्य रहता है। जिले की सभी नदियों के प्रवाह क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा में भिन्नता होने के कारण जलावाह वितरण में भी एकरूपता नहीं है।
नदियों का वार्षिक जलावाह
जिले के विभिन्न नदी जल प्रवाह मापी केंद्रों पर विभिन्न नदियों के वार्षिक जलावाह में भी पर्याप्त विभिन्न है। औसत वार्षिक जलावाह की अधिकतम मात्रा 6,882.5 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड बसंतपुर (महानदी) में है। शिवनाथ एवं हसदो का जलावाह क्रमश: 3146 एवं 1685 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड है। न्यूनतम वार्षिक जलावाह गतौरा में 316.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। वार्षिक जलावाह में विभिन्नता का कारण द्वितीय जिले के दक्षिणी भाग में चूना बस्तर एवं शैल के अत्यंत कठोर एवं सघन चट्टानी संस्तर है जिससे प्रवाह घनत्व कम हो जाता है क्योंकि मुख्य धारा ही अपने प्रवाह को बनाए रखने में समर्थ हो पाती है। किंतु इन नदियों के प्रथम श्रेणी बेसिन काफी बड़े हैं, अत: नदी में जलावाह में वृद्धि होती है।
बिलासपुर जिले की नदियों का वार्षिक जल प्रवाह भी मुख्यत: वार्षिक वर्षा की उपलब्धता पर निर्भर है। वर्ष 1979, अध्ययन अवधि का सर्वाधिक न्यूनतम वार्षिक जलावाह का वर्ष रहा। इस अवधि में सम्पूर्ण जिले में वर्षा की न्यूनता के कारण सूखे की स्थिति निर्मित हो गयी थी। इस समय जांधरा (शिवनाथ) में न्यूनतम वार्षिक जलावाह 1611.6 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड, बम्हनीडीह में 5064 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड, गतौरा में 35.8 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड एवं बसंतपुर में 332.7 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड अंकित किया गया है। वर्ष 1986 उच्चतम जलावाह का वर्ष रहा। इस वअधि में वार्षिक जलावाह गतौरा में 356.3, जांधरा में 4669, बसंपुर में 9707 तथा बम्हनीडीह में 1986.91 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड है।
वार्षिक वर्षा की भांति औसत वार्षिक जलावाह की मात्रा में भी अत्यधिक विचलनशीलता है। विचलनशीलता का मुख्य कारण प्रवाह क्षेत्र की अनियमितता एवं प्राप्यता में भिन्नता है। वार्षिक विचलनशीलता का यह प्रतिशत बम्हनीडी में 32.5, जोंधरा में 32.5, गतौरा में 44.5 तथा बसंतपुर में 30.5 प्रतिशत है।
जिले के विभिन्न नदी जलावाह मापी केंद्रों पर जलवाह की प्रवृत्ति का विवरण निम्नानुसार है -
बम्हनीडीह
बिलासपुर जिले में हसदो नदी के तट पर स्थिति इस नदी के जल प्रवाहमापी केंद्र पर नदी का औसत वार्षिक जलावाह 1684.4 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। मासिक जलावाह अधिकतम अगस्त में 714.14 लाख घनमीटर एवं न्यूनतम 4.06 लाख घनमीटर मई में रहता है। कुल वार्षिक जलावाह का 35 प्रतिशत जुलाई से सितंबर के महीने में प्राप्त होता है। सितंबर के पश्चात जलावाह क्रमश: कम होते जाता है। नवंबर-दिसंबर में औसत मासिक जलावाह 20-25 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड रहता है।
गतौरा
अरपा नदी के तट पर स्थापित इस नदी जल प्रवाहमापी केंद्र पर अरपा नदी का औसत वार्षिक जलावाह 316.37 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। इस प्रकार बेसिन में जलावाह की न्यूनता का प्रमुख कारण वार्षिक वर्षा की न्यूनता एवं नदी की अंत: प्रवाही प्रवृत्ति है। मानसून की अवधि में उच्चतम औसत जलावाह 63.9 से 137.9 लाख घनमीटर रहता है। जबकि ग्रीष्मावधि में नदी प्राय: सूख जाती है। इस अवधि में जलावाह मात्र 0.45 लाख घन मीटर रहता है। नदी का वार्षिक जलावाह एवं वर्षा की परिवर्तनशीलता का प्रभाव है। वर्ष 1979 में वार्षिक वर्षा 490.70 मिलीमीटर दर थी वहीं वार्षिक जलावाह मात्र 35.8 लाख घनमीटर रहा। अधिकतम जलावाह वर्ष 1985-86 में 418.4 लाख घनमीटर प्रति सेकेंड था।
जोंधरा
शिवनाथ नदी के तट पर स्थित इस जलवाहिनी केंद्र पर नदी का प्रवाह क्षेत्र 29.645 वर्ग किमी है। जिले की अन्य नदी प्रवाहनायी केंद्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी औसत अधिकतम जलावाह मानसून अवधि में (1133.6 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड) एवं औसत न्यूनतम मई के महीने में (4.325) लाख घन मीटर प्रति सेकेंड होता है। वर्षा की मात्रा के घटते जाने के साथ-साथ जलावाह की मात्रा क्रमश: घटते जाती है। अक्टूबर, नवंबर एवं दिसंबर में क्रमश: 251.7, 67.86 एवं 26.5 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड जलावाह रहता है। औसत वार्षिक जलावाह 3146.2 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है।
बसंतपुर
बसंतपुर जिले के दक्षिणी सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित महानदी का जल प्रवाहमापी केंद्र है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ क्षेत्र का जल इस केंद्र से होकर प्रवाहित होता है। इस केंद्र पर महानदी का प्रवाह क्षेत्र 57780 वर्ग किमी है। जल प्रवाह अधिकतम जुलाई में 1273.6 अगस्त में 2072.25 तथा सितंबर में 2955 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड है। वर्षा के समय जलावाह क्रमश: कम होते जाता है अक्टूबर में जल प्रवाह की मात्रा 630.78, नवंबर में 355.65 दिसंबर में 67 तथा जनवरी में 40.15 लाख घन मीटर प्रति सेकेंड रहता है। इसके पश्चात जलावाह की मात्रा अत्यंत न्यून रहती है।
जलाधिशेष एवं जलावाह
बिलासपुर जिले की सभी प्रमुख नदी प्रवाह बेसिन हेतु मासिक एवं वार्षिक जलावाह की गणना सुब्बाराव एवं सुब्रमण्यम (1971, 50) की विधि के आधार पर की गई है।
बिलासपुर जिले की विभिन्न नदी बेसिन में जलावाह भिन्न-भिन्न है। सामान्यत: अधिक वर्षायुक्त एवं कठोर संरचनायुक्त क्षेत्र में नदियों का जलावाह अधिक है। इसके विपरीत जिन स्थानों पर औसत वार्षिक वर्षा न्यून है, वहाँ जलावाह की मात्रा भी न्यून है। इसके अतिरिक्त सामान्य वाष्पोत्सर्जन, मिट्टी की जल ग्रहण क्षमता भी जलावाह भिन्नता के कारण है।
बिलासपुर जिले में वार्षिक जलावाह की मात्रा भी वर्षा की भांति उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर घटते जाती है। अधिकतम जलावाह कटघोरा में 1056 मिलीमीटर एवं न्यूनतम मुंगेली में 489 मिलीमीटर है। अन्य स्थानों पर जलावाह क्रमश: चांपा में 801 मिलीमीटर, कोरबा एवं सक्ती में 751 मिलीमीटर, बिलासपुर में 644 मिलीमीटर तथा खुडिया 635 मिलीमीटर है।
सम्पूर्ण जिले में मानसून काल ही उच्च जलावाह की अवधि है। जून से सितंबर के 4 महिनों में वार्षिक जल प्रवाह का 90 प्रतिशत प्राप्त होता है। शेष महिनों में जलावाह न्यूनतम रहता है। जिले के विभिन्न केंद्रों पर मानसून काल में औसत जलावाह की मात्रा क्रमश: कटघोरा में 814 मिलीमीटर, सक्ती में 763 मिलीमीटर, जांजगीर में 686 मिलीमीटर, पेण्ड्रा में 569 मिलीमीटर, बिलासपुर में 540 मिलीमीटर एवं मुंगेली में 500 मिलीमीटर प्राप्त होती है। पूर्ण मानसून काल में जिले के सभी क्षेत्रों में जलावाह न्यून रहता है।
तालाब एवं जलाशय
धरातलीय जल कुछ मात्रा में तालाबों एवं जलाशयों में संग्रहित होता है। तालाब ग्रामीण भू-दृश्यों के प्रमुख अंग हैं। सामान्यत: भारतीय ग्रामों में तालाब दैनिक जल आपूर्ति के प्रमुख स्रोत है। प्राय: प्रत्येक ग्राम में एक या दो तालाब होते हैं, जिनका उपयोग निस्तार के लिये किया जाता है।
प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र की अधिवासीय दृश्यावली में तालाबों का विशेष स्थान है किंतु वर्तमान में इनकी जल ग्रहण क्षमता एवं महत्ता धीरे-धीरे घटते जा रही है। प्रारंभिक समय में तालाब गहरे थे एवं उनके रख-रखाव तथा निर्माण प्रबंधन की दृष्टि से सुदृढ़ व्यवस्था थी। वर्तमान में ग्रामों में सामूहिकता की भावना का कमी के कारण तालाबों के प्रति गैर जिम्मेदारी की प्रवृत्ति शुरू हो गई है। साफ-सफाई एवं देख-रेख की कमी के कारण इन तालाबों में जलीय वनस्पतियाँ एवं कीचड़ जमा हो गये हैं फलस्वरूप तालाबों की क्षमता घट गई। तथापि जिले में बड़े तालाब हैं, जिनमें पंप से आस-पास के क्षेत्रों में सिंचाई की जाती है। ऐसे तालाबों की संख्या कम है। बिलासपुर जिले में गहरे, छिछले एवं अधिक फैले हुए तालाबों (डबरी) की संख्या अधिक है। कम वर्षा की स्थिति में इन तालाबों से छोटी-छोटी नालियों की सहायता से ढाल में स्थिति खेतों में खरीफ फसलों की सिंचाई हेतु जल उपलब्ध कराया जाता है।
जल संसाधन विकास की दृष्टि से सिंचाई के लिये उपयुक्त तालाबों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है -
1. 40 हेक्टेयर से अधिक सिंचाई क्षमता युक्त तालाब एवं
2. 40 हेक्टेयर से कम सिंचाई क्षमता युक्त तालाब
बिलासपुर जिले में 40 हेक्टेयर से अधिक सिंचाई क्षमता युक्त तालाबों की संख्या 466 है। तालाबों का विवरण सर्वाधिक मध्यवर्ती मैदानी क्षेत्र के विकासखण्डों में अत्यधिक है। ऐसे तालाबों की संख्या बिल्हा विकासखण्ड में 42, मस्तुरी विकासखण्ड में 60, अकलतरा विकासखण्ड में 30, बम्हनीडीह विकासखण्ड में 35, पामगढ़ विकासखण्ड में 46 एवं तखतपुर विकासखण्ड में 54 है। जिले के पश्चिम में मुंगेली, लोरमी, पंडरिया एवं पथरिया विकासखण्डों एवं उत्तरी पर्वतीय घन वनाच्छादित क्षेत्र में तालाबों की संख्या अत्यंत कम 0.4 है।
40 हेक्टेयर से कम सिंचाई क्षमता युक्त तालाबों का सर्वाधिक वितरण अरपा-लीलागर दोआब में है। इस क्षेत्र में तालाबों की संख्या लगभग 4827 है। द्वितीय सघन वितरण का क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी मैदानी क्षेत्र के जांजगीर, चांपा, मालखरौदा एवं जयजयपुर विकासखण्ड है। इन क्षेत्रों में तालाबों की संख्या 3711 है।
जल संसाधन विकास की दृष्टि से तालाबों का वितरण महत्त्वपूर्ण है। सामान्यत: जिले के दक्षिणी मध्य एवं पूर्वी मैदानी क्षेत्र में तालाबों के सघन वितरण से इस क्षेत्र में तालाब द्वारा सिंचाई की अतिरिक्त सुविधा हुई है। लगभग 6702 तालाबों द्वारा 15107 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है जो सम्पूर्ण जिले के संचित क्षेत्र का 8.5 प्रतिशत है।
प्रति 100 हेक्टेयर पर तालाबों का वितरण घनत्व जल उपलब्धता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जिले में प्रति 100 हे. पर सर्वाधिक तालाबों का घनत्व मालखरौदा विकासखण्ड में 2.9 है। पामगढ़, अकलतरा तथा मस्तुरी में प्रति 100 हेक्टेयर पर तालाबों की संख्या 2.00 से 2.3 है। जिले के पश्चिमी एवं उत्तरी विकासखण्डों में प्रति 100 हेक्टेयर पर तालाब की संख्या 0 से 10 है तालाबों का न्यूनतम घनत्व कोरबा विकासखण्ड में 0.2 प्रति 100 हेक्टेयर है।
सामान्यत: जिले के प्रत्येक ग्राम में कम से कम एक तालाब अवश्य है। जिले में प्रति गाँव तालाबों की संख्या 4.3 है। तालाबों की प्रति ग्राम संख्या में पर्याप्त विषपमाएँ हैं। ऐसे ग्राम जहाँ तालाबों की संख्या 10-15 है मुख्यत: दक्षिण मध्य क्षेत्र में केंद्रित विकासखण्ड जांजगीर, अकलतरा, सक्ती, पामगढ़ एवं चांपा विकासखण्ड है। 5-10 तालाबों की संख्या वाले ग्राम जिले के बिल्हा, मस्तुरी, जांजगीर, डभरा एवं मालखरौदा विकासखण्ड में है। इन विकासखण्डों में तालाबों की संख्या क्रमश; 5.0, 8.07, 7.62, 6.76, 8.69 है। जिले के कोरबा, करतला, मुंगेली, तखतपुर कटघोरा एवं पौडी उपरोरा विकासखण्डों में प्रति ग्राम तालाबों की संख्या अत्यंत न्यून (10.5) है। अत्यंत धरातलीय उच्चावच की विषमता, वनाच्छादित भूमि, कठोर संस्तर इसके कारण हैं।
जलाशय
देवनपुर जिले में सतही जल के संग्रहण हेतु निर्मित जलाशय महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक भू-दृश्य है। जिले में उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों से ही जलाशयों के निर्माण पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। जिले में ये मानव निर्मित जलाशय है जिनके माध्यम से न केवल विभिन्न उपयोग के लिये जल सुलभ है वरन उपलब्ध जल संसाधन का संग्रहण एवं समुचित उपयोग होता है। इन जलाशयों का विवरण सारिणी क्रमांक 18 में दर्शाया गया है।
बांगो जलाशय
हसदो नदी पर कटघोरा-कोरबा मार्ग पर स्थित दर्री नामक ग्राम के निकट इस जलाशय का निर्माण किया गया है। इस जलाशय का जल अधिग्रहण क्षेत्र 7,720.4 वर्ग किमी है तथा जल संग्रहण क्षमता 3476.9 लाख घनमीटर है। इसका अधिकतम जलस्तर 286.01 मीटर है। इस जलाशय से 40486 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होती है एवं 110 लाख घनमीटर जल औद्योगिक कार्यों में उपयोग होता है।
खारंग जलाशय
अरपा नदी की सहायक खारून नदी पर खूंटाघाट नामक स्थान पर सन 1930 में इस जलाशय का निर्माण किया गया। इस जलाशय का जल अधिग्रहण क्षेत्र 13.6 वर्ग किमी तथा जल संग्रहण क्षमता 28438 लाख घनमीटर है। इस जलाशय का अधिकतम जलस्तर 296.98 मीटर है। इस जलाशय से 44534 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।
मनियारी जलाशय
जिले के पश्चिम में मुंगेली तहसील में मनियारी नदी पर खुड़िया नामक स्थान पर इस जलाशय का निर्माण वर्ष 1931 में किया गया। इसका जल अधिग्रहण क्षेत्र 802.60 वर्ग किमी है। इसकी जल संग्रहण क्षमता 147.01 लाख घन मीटर एवं कुल जल उपलब्धता 291.26 लाख घनमीटर है। इस जलाशय से मुंगेली, लोरमी एवं तखतपुर विकासखण्ड के 40812 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की जाती है।
घोंघा जलाशय
घोंघा नाला पर निर्मित इस जलाशय का जल अधिग्रहण क्षेत्र 111 वर्ग किमी है। इसमें जल का संग्रहण मानसून काल में 53.02 लाख घनमीटर होता है। इसकी वर्तमान में जलसंग्रहण क्षमता 30.09 लाख घनमीटर है। जलाशय का अधिकतम जलस्तर 320 मीटर है। इस जलाशय से तखतपुर कोटा विकासखण्ड के 8200 हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की जाती है।
जलांर्गत क्षेत्र
बिलासपुर जिले के 15664 तालाबों, 4 जलाशयों एवं नदी नालों के रूप में सम्पूर्ण जिले की लगभग 53949 हेक्टेयर भूमि जलांतर्गत है जो सम्पूर्ण जिले के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 27.4 प्रतिशत है। जलांतर्गत भूमि का सर्वाधिक प्रतिशत डभरा एवं जांजगीर में क्रमश: 7.22 एवं 6.9 प्रतिशत है। चांपा, जयजयपुर, मरवाही, पेण्ड्रा, गौरेला एवं पंडरिया विकासखण्डों में 0 से 2 प्रतिशत भूमि जलांतर्गत है एवं शेष विकासखण्डों में 4-6 प्रतिशत भूमि जलांतर्गत है।
भू-गर्भ जल
भूगर्भीय संरचना एवं प्रकृति भूगर्भ जल की उत्पत्ति एवं वितरण का प्रमुख तत्व है। भूगर्भ जल प्राचीन चट्टानों अथवा पूर्व कैंब्रीयन युगीन चट्टानों से नवीनतम चट्टानी संरचना में विद्यमान रहता है। सामान्यत: नवीनतम चट्टानी संरचना में प्राचीन चट्टानें संरचना की तुलना में अधिक जल धारण क्षमता होती है। भूगर्भ जल उपलब्धता मुख्यत: चट्टानों की सरंध्रता, चट्टानों की जलवहन क्षमता, चट्टानी कणों की विभिन्नता, चट्टानी कणों का परस्पर संगठन एवं जुड़ाव पर निर्भर है।
बिलासपुर जिले के विभिन्न भूगर्भ जल प्रक्षेत्र की प्रमुख चट्टानी संरचना एवं उनकी विशेषताएँ भिन्न-भिन्न हैं। जिले की प्रमुख जल धारक संरचनाएँ निम्नलिखित हैं।
आर्कीयन, ग्रेनाइट एवं नीस
ग्रेनाइट बिलासपुर जिले की प्राचीनतम चट्टान है तथा सघन है। सरंध्रों के मध्य रिक्त स्थान के अभाव में इन चट्टानों में प्राथमिक सरंध्रता एवं परगम्यता अत्यंत कम है। केवल ऊपरी सतह में अपक्षय की क्रियाओं के फलस्वरूप द्वितीय सरंध्रता निर्मित हो गयी है। अत: ये एक जलागार के रूप में कार्य करते हैं। बिलासपुर जिले में ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानों के अपक्षायित तहों की मोटाई 15 मीटर गहराई तक है। जिले के उत्तरी विकासखण्डों, पेण्ड्रा, लोरमी एवं कोटा में इन चट्टानों का विस्तार है।
कडप्पाकालीन चूना प्रस्तर
बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग में पूर्व से पश्चिम इन चट्टानों का विस्तार है।
चारमुरिया चूना प्रस्तर
चारमूरिया चूना प्रस्तर कठोर सघन एवं सिलिकायुक्त है। सामान्यत: भूगर्भ जल संधियों, अपरदित कंदराओं युक्त चूने के प्रस्तर अच्छे जलागर हैं। जिले के चारमूरिया चूना प्रस्तर के अपरदित तहों की मोटाई 3 से 13 मीटर तक है। इन क्षेत्रों में भू-गर्भ जल उपलब्धता केवल संधियों एवं अपरदित क्षेत्र तक ही सीमित है।
स्टेटोमेटालिक चूना प्रस्तर
यह प्रस्तर जिले के अकलतरा विकासखण्ड में विस्तृत है। इस चूना प्रस्तर में भी प्राथमिक सरंध्रता के अभाव में द्वितीयक सरंध्रता संधियों, अपरदित सतहें, दरारें ही भू-गर्भ, जल उपलब्धता को सुगम बनाते हैं। इस क्षेत्र में अपरदित सतह की गहराई 15 से 30 मीटर तक है।
गुण्डरदेही शैल
अत्याधिक अपरदित शैल एवं संधियों के कारण इनकी गहराई 15 मीटर तक है। इस प्रकार जल उपलब्धता की पर्याप्ता सम्भावनाएँ प्रदत्त करते हैं।
तालचिर शैल
गौरेला विकासखण्ड में इस प्रकार के शैल का विस्तार है। ये न्यूनतम स्तर के जल संग्राहक शैल है।
गोंडवाना-बालुका प्रस्तर
बिलासपुर जिले के बलौदा तथा पोंडी उपरोरा विकासखण्डों के अधिकांश क्षेत्र में गोडवाना युगीन बालुका प्रस्तर का वितरण है। भू-गर्भ जल विकास की दृष्टि से ये चट्टानें बहुत उपयुक्त हैं। पोंडी-उपरोरा विकासखण्ड में भू-गर्भ जल की मात्रा अधिक है तथा यह गुणवत्ता की दृष्टि से भी अच्छा है।
बालुका प्रस्तर
मरवाही विकासखण्ड में बालुका प्रस्तर का विस्तार है। यह मध्यम रवेदार, संरचनायुक्त एवं रेतीले चट्टानीकरण, मृत्तिका जैसे पदार्थों से आपस में अंर्तसंबंधित हैं। इन चट्टानों में औसत भू-गर्भ जल गहनता 20 मीटर तक है।
कांप
भू-गर्भ जल विकास की दृष्टि से कांप सर्वोत्कृष्ट भू-गर्भिक संरचना है। बिलासपुर जिले में इसका विस्तार नदी तटों के सहारे है। हसदो एवं महानदी के तटवर्ती क्षेत्र एक अच्छा जलागार है। जल की औसत गहराई 3-15 मीटर है।
भूगर्भ जल प्रक्षेत्र
बिलासपुर जिले को भू-गर्भ जल उपलब्धता तथा भूगर्भिक संरचना के आधार पर निम्नलिखित प्रक्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है -
1. प्रीकेम्ब्रियन रवेदार चट्टानी प्रक्षेत्र,
2. प्रीकेम्ब्रियन परतदार चट्टानी प्रक्षेत्र
3. फेनरोजाइट परतदार चट्टानी प्रक्षेत्र
4. दक्कन ट्रेप प्रक्षेत्र तथा
5. कोयल चट्टानी प्रक्षेत्र
प्रीकेम्ब्रियन रवेदार चट्टानी प्रक्षेत्र
प्रीकेम्ब्रियन रवेदार प्रक्षेत्र की जल धारक चट्टानों का विस्तार मुख्यत: जिले के उत्तरी भाग में है। पूर्व में मैकल श्रेणी से पश्चिम में हसदो मांद के मैदान एवं 300 मीटर की समोच्य रेखा के उत्तर से जिले की उत्तरी सीमा तक इनका विस्तार है।
इस प्रक्षेत्र के प्रमुख विशेषता बेसाल्ट एवं रवेदार चट्टान है। इन चट्टानों में आर्कीयन एवं प्रीकेम्ब्रियन काल की नीस आदि प्रमुख चट्टानें हैं। इस प्रक्षेत्र की प्रमुख चट्टानी प्रकारों में हार्नब्लेड शिष्ट, चोलोराइट शिष्ट, चार्नोकाइट, कांग्लोमरेट आदि हैं।
उपर्युक्त चट्टानी संरचना में प्राथमिक चट्टानी सरंध्रता अत्यंत न्यून है, अत: भू-गर्भ जल संग्रहण भी न्यून है। चट्टानी संरचना में अपक्षयित विभंगयुक्त क्षेत्रों में ही द्वितीय सरंध्रता विकसित होने के कारण जल का संग्रहण होता है। जिले में इस प्रकार की चट्टानी संरचना में अपरदन एवं अपक्षय के द्वारा अपरदित परतों की मोटाई अधिकतम 70 से 100 मीटर तक है। इन क्षेत्रों में साधारण उथले कुरूं एवं नलकूप के खनन के माध्यम से भू-गर्भ जल का विकास हुआ है। कुएँ की जल उत्पादन क्षमता का प्रसार 0-5 से 25 घनमीटर प्रति घंटा है।
इस प्रक्षेत्र की चट्टानी संरचना एवं भूगर्भ जल की गुणवत्ता उत्तम है जिसमें कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 100 प्रति लाख/प्रति लीटर है तथा पेय जल सिंचाई एवं अन्य सभी उपयोग हेतु उपयुक्त है।
प्रीकेम्ब्रियन परतदार चट्टानी संरचना प्रक्षेत्र
प्रीकेम्ब्रियन से पूर्व पेल्योजाइक युग की चट्टानी संरचना में छत्तीसगढ़ क्षेत्र की कड़प्पा चट्टानी क्रम संरचनाएँ संग्रहित हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख चट्टानें क्वार्टजाइट चूना प्रस्तर, बालुका प्रस्तर, शैल, स्लेट तथा कांगलोमरेठ है। जिनका विस्तार मुख्यत: जिले के मुंगेली, तखतपुर, पथरिया कोटा, बिल्हा, मस्तुरी, बलौदा, जांजगीर, अकलतरा, चांपा, सक्ती, जयजयपुर, डभरा एवं दक्षिणी कोरबा एवं करतला विकासखण्डों में है। इस प्रकार जिले के 7921 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 40 प्रतिशत है।
प्रीकेम्ब्रियन परतदार चट्टानी प्रक्षेत्र
अत्यंत संगठित एवं सघन संरचनायुकत इन चट्टानों में प्राथमिक सरंध्रता का प्रतिशत न्यूनतम रहता है। बिलासपुर जिले में चूना प्रस्तर (चारमुरिया) कई स्थलों पर अपरदित हैं।
प्रीकेम्बियन परतदार चट्टानों में जल की गुणवत्ता अपेक्षाकृत निम्न स्तर की है। इन क्षेत्रों के जल में कुल घुलनशील ठोस पदार्थ 100 प्रति लाख है। बालुका प्रस्तर एवं चूना प्रस्तर में निहित जल अपेक्षाकृत उत्कृष्ट प्रकार है। यह जल पीने के लिये एवं सिंचाई करने की दृष्टि से उत्तम हैं।
फेनरोजोइट परतदार प्रक्षेत्र
फेनरोजोइट परतदार चट्टानों के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की जलीय एवं सागरीय चट्टानें जो अर्धसंगठित से संगठित संरचनायुक्त है तथा पेल्योजइक से टर्शरी युग की हैं, आती हैं। प्रमुख चट्टानें, बालुका प्रस्तर, शैल, मुत्तिका, चूना प्रस्तर, डोलोमाइट और कांग्लोमरेट है। इस प्रक्षेत्र की चट्टानों का प्रमुख विस्तार गौरेला, पेण्ड्रा, मरवाही, लोरमी, कोटा, पोंडी-उपरोरा, कटघोरा उत्तरी कोरबा, करतला एवं पाली विकासखण्डों में है। इन प्रक्षेत्र में भूगर्भजल सामान्यत: उथले जलागार में एवं सीमित क्षेत्रीय स्थिति में गहरे जलागार में पाया जाता है। गॉडवानयुगीन (फेनरोजाइट परतदार) सामान्यत: सघन एवं अपेक्षाकृत जल गुणवत्ता की दृष्टि से सिंचाई एवं पेयजल के लिये उपयुक्त हैं।
दक्कन ट्रेप
क्रीटेर्शियस एवं इयोसीन बेसाल्ट लावा प्रवाह से यह क्षैताजिक श्रृंखला निर्मित हुई। ट्रेप की मोटाई 2000 मीटर एवं प्रकृति कठोर है। दक्कन ट्रेप अपरदित है एवं यत्र तत्र संधियों एवं दरारें हैं। दक्कन ट्रेप में भूगर्भजल मुख्यत: दो स्थितियों में निर्भर करता है। प्रथम कितना अपरदित है, द्वितीय यह कितना कठोर है। जिले के उत्तरी पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्र में इसका विस्तार है। इस क्षेत्र में भूगर्भजल सामान्यत: उथले अपरदित क्षेत्र में उपलब्ध है। जल गुणवत्ता की दृष्टि से उत्तम है।
भूगर्भ जल तल की गहनता
बिलासपुर जिले की भूगर्भ जल तल की औसत गहनता के अध्ययन हेतु सम्पूर्ण जिले की 100 निरीक्षण कूपों का अध्ययन किया गया है। सभी उथले हैं। इन निरीक्षण कूपों में भूगर्भ जलतल का परीक्षण प्रथम जून में, मानसून विस्फोट के समय एवं पुन: अक्टूबर में, मानसून निवर्तन के समय किया जाता है।
बिलासपुर जिले के विभिन्न भागों में भूगर्भ जलस्तर गहनता में पर्याप्त विभिन्नताएँ हैं। ये विभिन्नताएँ मुख्यत: भूगर्भिक संरचना, धरातलीय उच्चावच, जलवायु आदि की विभिन्नता के कारण है। बिलासपुर जिले के 60 प्रतिशत निरीक्षण कूपों में औसत भूगर्भ जलतल की गहनता 0-5 मीटर है। जिले के दक्षिण-पश्चिम एवं पूर्वी मैदानी क्षेत्र में भूगर्भजलतल की गहराई 5-10 मीटर के मध्य में है। बिल्हा विकासखण्ड में अनेक स्थानों- बेलतरा, बिल्हा, चक्रभाटा पर भूगर्भजल 10 मीटर से अधिक गहरा है।
बिलासपुर जिले के विभिन्न वर्षों के भूगर्भ जलतल गहनता के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जिले में जलतल के उतार एवं उत्तरोत्तर चढ़ाव आदि की स्थिति यथावत है। न्यूनतम भू-गर्भ जलस्तर (0-3 मीटर) मुख्य रूप से अपक्षयित चूना प्रस्तर एवं कामयुक्त नदीतटीय क्षेत्रों में है।
भूगर्भ जल का स्थानिक प्रतिरूप एवं ऋतुगत उतार-चढ़ाव
भूगर्भजल सतह वस्तुत: मिट्टी की जल संतृप्ता की ऊपरी सीमा को प्रकट करता है (माथुर, आर. एन. 1969, 81)। भूगर्भजल में जलागमन एवं जल निस्तरण के कारण जलस्तर परिवर्तित होते रहता है। जलागमन की मात्रा जल निस्सरण की मात्रा से अधिक होने के कारण भूगर्भजल सतह में वृद्धि होती है, अर्थात जल सतह ऊपर उठ जाता है। भूगर्भजल की निकासी की मात्रा जलागमन की मात्रा से अधिक होने की दशा में जल सतह न्यून हो जाता है। जिले के निरीक्षण कूपों के जल सतह के अध्ययन से विदित होता है कि जिले के उत्तर एवं दक्षिण मध्य भाग में भूगर्भ जल सतह का उतार-चढ़ाव सर्वाधिक है। जिले के अन्य भागों में यह परिवर्तन 0-4 मीटर के मध्य है।
पूर्व मानसून अवधि में औसत जलसतह की गहराई 14-59 मीटर एवं औसत न्यूनतम गहराई 4.45 मीटर तक रहती है। मानसूनोत्तर अवधि में जलतल की औसत गहराई 8 मीटर से न्यूनतम 1 मीटर रहती है।
औसत अधिकतम एवं न्यूनतम जल तल का उतार-चढ़ाव क्रमश: 10.81 मीटर बेलतरा में (बिल्हा विकासखण्ड) एवं न्यूनतम 0.4 मीटर काठाकोनी (तखतपुर विकासखण्ड) में पाया गया। वर्ष 1972-1986 की अवधि में न्यूनतम उतार-चढ़ाव 0.04 मीटर कुरदुर (मालखरौदा विकासखण्ड) में एवं रावोली (पथरिया विकासखण्ड) में अधिकतम 21.11 मीटर पाया गया है। औसत भगर्भजल उतार-चढ़ाव 4.45 मीटर है। शैल चट्टानों संरचना वाले क्षेत्रों में भूगर्भ जलस्तर का उतार-चढ़ाव चूना प्रस्तर क्षेत्र की तुलना में अधिक है।
भूगर्भ जलस्तर का स्थानिक प्रतिरूप
संपृक्त स्थिति में भूगर्भ जल का तल भूगर्भ जलस्तर कहलाता है। भूगर्भ जलस्तर सामान्यत: सतही स्तर है। यद्यपि इनके द्वारा उच्चावचीय स्वरूपों का प्रदर्शन होता है। भूगर्भ जल की गहनता में विभिन्नता में, भूगर्भिक उच्चावच का ही प्रभाव है। इस प्रकार भूगर्भ जलस्तर वस्तुत: भू सतह का ही प्रतिरूप है। भूगर्भ जलस्तर कूपों के स्थित तल की स्थिति को प्रदर्शित करता है। भूगर्भ जलस्तर का उतार-चढ़ाव मुख्य रूप से भूगर्भ जल संचरण एवं निस्सरण पर निर्भर होता है। अत: भूगर्भजलस्तर सामान्यत: भूगर्भ जल संमरण की दर एवं भूगर्भ जल निस्सरण के आनुपातिक स्थिति को प्रदर्शित करता है।
पूर्व मानसून भूगर्भ जलस्तर
बिलासपुर जिले में पूर्व मानसून काल में भू-गर्भ जलस्तर की गहराई का विस्तार न्यूनतम 3.71 मीटर (गनियारी) से अधिकतम 14.59 मीटर (चक्रभाटा) के मध्य रहता है। जिले के 67 कूपों में जलस्तर की गहराई 0-5 मीटर, 60 प्रतिशत कूपों में 5-10 मीटर, 24 प्रतिशत कूपों में 10-15 मीटर एवं 4 प्रतिशत कूपों में 15 मीटर से अधिक है। बिलासपुर जिले में केवल दो ही छोटे-छोटे क्षेत्र कोटा एवं बिल्हा विकासखण्ड में है, जहाँ जलस्तर की गहराई न्यून (0-5 मीटर) है। इनका प्रमुख कारण कांप के रूप में एक उत्कृष्ट जलागार सुलभ होना है। बिलासपुर जिले की कडप्पा क्रम की डोलोमाइट चट्टानी क्षेत्र में जलस्तर अधिकतम है। इन क्षेत्रों में चक्रभाटा (14 मीटर), बिल्हा (14.08 मीटर), सरगाँव (12.85 मीटर) तथा सेमरताल (14.12 मीटर) प्रमुख हैं।
जिले के उत्तरी गोंडवाना बालुका प्रस्तर एवं आर्कीयन, नीस के क्षेत्र में स्थित ग्रामों में भूगर्भ जलस्तर की गहराई 10-15 मीटर के मध्य है। शैल कड़प्पा बेसिन की चूनास्तर एवं शैल युक्त चट्टानी क्षेत्र में जलस्तर 5-10 मीटर के मध्य रहता है।
मानसूनोस्तर भूगर्भ जलस्तर
वर्षा भूगर्भजल संमरण का प्रमुख स्रोत है। अत: मानसून की अवधि के पश्चात जिले के सभी भागों में भूगर्भ जलस्तर न्यून रहता है। मानसूनोत्तर काल में अधिकतम भूगर्भ जलस्तर 9 मीटर (लोरमी) एवं न्यूनतम 1.44 मीटर (बेलगहना) के मध्य रहता है। जिले के 2 प्रतिशत कूपों में भू-गर्भ जलस्तर 2 मीटर से कम, 43 प्रतिशत कूपों में 2-4 मीटर, 20 प्रतिशत कूपों में 4-6 मीटर, 8 प्रतिशत कूपों में जलस्तर की गहराई 6-8 मीटर तक है। जिले के उत्तरी मध्यवर्ती क्षेत्र के पाली, कोरबा, कटघोरा, उत्तरी तखतपुर, मध्य मंगेली, डभरा, विकासखण्ड में न्यून भूगर्भजलस्तर है। इन क्षेत्रों में भूगर्भ जलस्तर की अधिकतम गहराई 2-4 मीटर है। सघन वन, वर्षा वाला क्षेत्र, अपर्याप्त बालुका प्रस्तर, कांप इत्यादि न्यून भूगर्भ जलस्तर होने के कारण हैं। पुन: जिले के डोलोमाइट चट्टानी क्षेत्र भी इस अवधि में भी जलस्तर अधिक रहता है जो चक्रभाटा में 9.87 मीटर, चंद्रखुरी में 7.36 मीटर, सरगाँव में 6.35 मीटर तथा करगीकला में 7.71 मीटर है। इसके अतिरिक्त लोरमी (9.25 मीटर) एवं कोटा (9.19 मीटर) में भी भूगर्भ जलस्तर अधिक रहता है। भूगर्भ जलस्तर भूवैज्ञानिक संरचना का स्पष्टतया प्रभाव होता है जिले के विभिन्न चट्टानी क्षेत्रों में स्थित कूपों में मानसूनोत्तर काल में भूगर्भ जलस्तर का विवरण सारिणी क्रमांक 19 में दर्शाया गया है।
बिलासपुर जिले में सामान्यत: सतही समोच्च रेखीय मूल्यों की भाँति जलस्तर समोच्च रेखाओं के मूल्य में भी उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमश: ह्रास होता गया है। जिले में जलस्तर समोच्च रेखाओं की अधिकतम ऊँचाई सुदूर उत्तर में 580 मीटर की समोच्च रेखा से एवं न्यूनतम ऊँचाई 190 मीटर की समोच्च रेखा से प्रदर्शित है।
बिलासपुर जिले के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्रों में जलस्तर की समोच्च रेखायें पूर्व से पश्चिम लगभग समानांतर है जबकि दक्षिण क्षेत्रों में इनमें अत्यंत अनियमितताएँ हैं। इनके द्वारा इन क्षेत्रों में क्रम प्रवणता की घाटियां, छोटी बेसिन आदि स्वरूपों का निर्माण हुआ है। इस क्षेत्र में सामान्य जलीय प्रवणता अत्यंत कम है। विभिन्न चट्टानी संरचनाओं में प्रवणता का विवरण (सारिणी क्रमांक-20) में दर्शाया गया है -
उत्तरी क्षेत्रों में जलीय प्रवणता अत्यंत तीव्र है। यह प्रवणता 30-40 मीटर प्रति मिमी तक आंकी गयी है। यह प्रवणता सतह के दक्षिण ढाल के साथ-साथ कम होते जाती है।
जल प्रवाह की दिशा मुख्यत: धरातलीय स्वरूपों एवं चट्टानी संरचना की जलीय विशेषताओं पर निर्भर होती है। बिलासपुर जिले में सामान्य जल प्रवाह की दिशा दक्षिण, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण पश्चिम की ओर है। यह समान्यत: अपवाह तंत्र का अनुकरण करती है एवं अंतत: प्रवाह महानदी की ओर अर्थात दक्षिण पूर्व दिशा में रहता है। प्रवाह दिशा में विषमताएँ एवं विभिन्नताएँ मुख्यत: चूना प्रस्तर, शैल, बालुका, प्रस्तर, क्षेत्र में मुख्यत: भ्रंशन एवं चट्टानों की संरचना के अंतर के कारण दृष्टिगत होती है।
भूगर्भ जल स्वरूप
बिलासपुर जिले के भू-गर्भ जलस्तर के सम्मान रेखाओं द्वारा निर्मित स्वरूपों के आधार पर जिले को दो प्रमुख प्रदेशों में बाँटा जा सकता है -
1. शिवनाथ पार, अरपा-मनियारी क्षेत्र, एवं
2. हसदो-मांद क्षेत्र
शिवनाथ पार, अरपा-मनियारी क्षेत्र
हॉफ, मनियारी एवं अरपा नदियों का यह क्षेत्र जिले का पश्चिमी भाग है। इस क्षेत्र में समतल भूगर्भ जल पठार एवं जल घाटी का नदियों के नीचे निर्माण होता है। इस क्षेत्र में प्रथम घाटी मनियारी नदी के नीचे विकसित हुई, जिसकी न्यूनतम गहराई 300 मीटर की सममान रेखा से प्रदर्शित है। द्वितीय घाटी अरपानदी तल के नीचे विकसित हुई इन दोनों घाटियों के मध्य समतल तल वाले ऊँचे कटकों का निर्माण हुआ है। नदी घाटी से दूरस्थ क्षेत्रों में जलतल में वृद्धि होती है। मनियारी क्षेत्र में अपने समीपस्थ अंग की तुलना में जल तल जहाँ समुद्र सतह से 249 मीटर है, वहीं पठारी भाग में भूगर्भ जल तल की ऊँचाई 30-40 मीटर अधिक है। पठारी एवं कटकीय भागों के ढाल मंद है किंतु नदी घाटी की ओर ढाल तीव्र है। अरपा नदी घाटी के दोनों किनारों पर तीव्र ढाल, भूगर्भ जल कटकों का निर्माण करता है। नदी घाटी के पूर्व क्षेत्र में स्थित कटकों का ढाल अत्यंत तीव्र है, वहीं पश्चिमी कटक अपेक्षाकृत मंद ढाल युक्त है। इस क्षेत्र के उत्तरी भाग में भूगर्भीय जलीय प्रवणताएँ अधिक हैं जबकि दक्षिणी भागों में कम प्रवणता है।
हसदो-मांद क्षेत्र
इस क्षेत्र में हसदो एवं इसकी सहायक नदियों लीलागर, बोराई के प्रवाह क्षेत्र एवं मांद का कुछ भाग सम्मिलित है। इस क्षेत्र में भूगर्भ जल सतह का सामान्य स्वरूप पूर्व वर्णित भाग की भाँति ही है। उत्तरी भाग में समोच्च रेखाएँ समानांतर एवं सघन हैं। अत: प्रवणता अधिक है। दक्षिण क्षेत्र में समोच्च रेखाओं का अंतराल क्रमश: बढ़ते जाता है। हसदो नदी तल के सहारे घाटी का निर्माण हुआ है जिसके दोनों किनारों का ढाल मंद है। हसदो नदी भूगर्भ जल घाटी उत्तरी क्षेत्र में ही विशेष रूप से दिखाई देती है। दक्षिण की ओर इसकी गहराई क्रमश: होती है अथवा भूगर्भ जल घाटी का स्वरूप नष्टप्राय: हो जाता है। दक्षिणी भाग में भूगर्भजल समोच्च रेखाएँ अनियमित स्वरूप में है। यद्यपि बोराई एवं लीलागर नदी तल के नीचे कम गहराई युक्त घाटी निर्मित हो गई है।
भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति
बिलासपुर जिले में भूगर्भजल पुन: पूर्ति अथवा संभरण का प्रमुख स्रोत वर्षा है। सामान्यत: जून से सितंबर की अवधि में कुल वार्षिक वर्षा का 90 प्रतिशत वर्षा प्राप्त होती है। शेष 10 प्रतिशत वर्षा, वर्ष के अन्य महिनों में प्राप्त होती है। इस प्रकार मानसून वर्षा ही भूमिगत जल संभरण हेतु प्रमुख कारक है। मानसूनोत्तर अवधि में भूगर्भ जल के तल में वृद्धि होना इसका प्रमाण है। भूगर्भजल की मात्रा ज्ञात करने की निम्नलिखित विधियाँ प्रचलित हैं (डेविड कीथ टोड, 1964)।
1. आरसोमीटर विधि
2. अपवाह क्षेत्र के कुल वार्षिक वर्षा में से जलावाह एवं वाष्पीकरण से होने वाली जलहानि को घटाकर
3. भूमि आर्द्रता निर्धारण विधि
4. जल सतह के उतार-चढ़ाव एवं जल के विशिष्ट उत्पाद पर आधारित विधि
5. अंतर्प्रवाह क्षरण विधि
बिलासपुर जिले के विभिन्न विकासखण्डों के भूगर्भ जल पुन: प्राप्ति की गणना हेतु, अखिल भारतीय ग्रामीण विकास समिति, एआरडीसी द्वारा निर्धारित प्रसम मान के आधार पर वर्षा क्षरण विधि एवं जल तल उतार चढ़ाव विधि प्रयुक्त की गई है। सामान्यत: सम्पूर्ण जिले के विभिन्न कठोर चट्टानों हेतु जल का निस्सरण सूचकांक 9 से 10 प्रतिशत निर्धारित है एवं सभी अंगों के लिये भूगर्भ जल विशिष्ट उत्पाद 3 प्रतिशत मान लिया गया है।
गणना हेतु प्रयुक्त सूत्र -
1. भौगोलिक अंग में भूगर्भजल पुन: पूर्ति -
= अ×ब×स = द
यहाँ अ = औसत वार्षिक वर्षा
ब = निस्पंदन सूचकांक
स = भौगोलिक क्षेत्र
द = भूमिगत बर्हिप्रवाह
2. भूगर्भ जल पुन: पूर्ति = भौगोलिक क्षेत्र × जल का भूगर्भ जल का
विशिष्ट उत्पाद × औसत भूगर्भ जल का उतार चढ़ाव
उपर्युक्त विधि के आधार पर प्राप्त भूगर्भ जल संभरण की यथासंभव सही संभाव्य राशि का अनुमान लगाया जा सकता है। क्योंकि इस विधि में किसी भाग के भूगर्भ जल के पुन: पूर्ति को प्रभावित करने वाले सभी तत्वों, चट्टानों की संरचना, वर्षा की मात्रा, भौगोलिक क्षेत्र इत्यादि के आधार पर भूगर्भ जल का आकलन किया जाता है।
बिलासपुर जिले में कुल भू-गर्भ जल की कुल वार्षिक सामान्य पुन: पूर्ति 2873.58 लाख घनमीटर एवं भूगर्भ जल की शुद्ध पुनः पूर्ति 2408.29 लाख घनमीटर है।
जिले में भूगर्भ जल पुन: पूर्ति की दृष्टि से पर्याप्त क्षेत्रीय विषमता है, जिसका प्रमुख कारण चट्टानों संरचना एवं वार्षिक वर्षा की मात्रा में भिन्नता आदि है। बिलासपुर जिले में भूगर्भ जल पुन: पूर्ति सर्वाधिक पौडी-उपरोरा विकासखण्ड में (38,357 हेक्टेयर) एवं न्यूनतम अकलतरा विकासखण्ड में (3992 हेक्टेयर) है। जिले के दक्षिणी पूर्वी मैदानी विकासखण्डों में (अकलतरा, चांपा, बलौदा आदि) भूगर्भ जल पुन: पूर्ति 30.90 लाख घनमीटर न्यून है। इन विकासखण्डों में भू-गर्भ जल पुन: पूर्ति की न्यूनता का मुख्य कारण कठोर कंडप्पा क्रम की चूना प्रस्तर वाली चट्टानें हैं। द्वितीय इन क्षेत्रों में भूगर्भजल का अधिक विकास हुआ है अत: निस्सरण अधिक है फलत: भूगर्भजल पुन: पूर्ति कम है। भूगर्भ जल पुन: पूर्ति की अधिकता में नहरों द्वारा होने वाले जल रिसाव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बिलासपुर जिले के गोंडवाना क्रम की रवेदार बालुका प्रस्तर युक्त चट्टानी भागों में भूगर्भ जल की पुन: पूर्ति सर्वाधिक है। ये क्षेत्र जिले के उच्चतम वर्षायुक्त क्षेत्र हैं, साथ ही यहाँ विकास दूत गति से नहीं हो रहा है। फलत: भूगर्भ जल की संचित संभाव्य राशि पर्याप्त है। इन क्षेत्रों में पोडी उपरोरा कोरबा, करतला विकासखण्ड हैं, जहाँ औसत वार्षिक भूगर्भ जल पुन: पूर्ति 100 से 400 लाख घनमीटर वार्षिक है जो जिले के कुल भूगर्भ जल पुन: पूर्ति का क्रमश: पाली में 4.6 प्रतिशत, पोडी उपरोरा में 15.9 प्रतिशत, कोरबा में 5.0 प्रतिशत है। पश्चिमी विकासखण्डों में यथा मुंगेली, लोरमी, पंडरिया पथरिया तथा बिल्हा, मस्तुरी एवं कोटा का क्षेत्र भी अधिक भूगर्भजल पुन: पूर्ति का द्वितीय प्रमुख क्षेत्र है। इन विकासखण्डों में औसत वार्षिक भूगर्भ जल पुन: पूर्ति 100-150 लाख घन मीटर है। यद्यपि लोरमी एवं कोटा विकासखण्ड प्राचीन ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानी संरचनायुक्त है परंतु अपरदन के कारण वे चट्टानी क्षेत्र अपक्षयित है। अपरदित सतह की मोटाई 15-30 मीटर तक है। अत: संधि एवं दरारों के कारण ये अच्छे जलागार हैं। द्वितीय मुंगेली, बिल्हा, मस्तुरी, विकासखण्डों में नहरों एवं नदियों से रिसाव के द्वारा प्राप्त जल भी भूगर्भ जल पुन: पूर्ति में एक सहायक कारक है।
भूगर्भ जल निकासी
बर्हित रिसाव, झरने, संभाव्य वाष्पीय वाष्पोत्सर्जन इत्यादि भूगर्भजल निकासी के माध्यम हैं। बिलासपुर जिले में भूगर्भजल का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। जिले में भूगर्भजल निकासी मुख्यत: सार्वजनिक अथवा निजी नलकूपों, कुओं, पंप एवं खुले उथले कुओं के माध्यम से होती है। जिले के इन विभिन्न स्रोतों से कुल भूगर्भ जल निकासी 86.17 लाख घनमीटर वार्षिक है, जो कुल भूगर्भ जल पुन: पूर्ति का 3.57 प्रतिशत है।
बिलासपुर जिले के विभिन्न विकासखण्डों में भूगर्भ जल निकासी की सांख्यकीय गणना एआरडीसी द्वारा प्रयुक्त प्रसम मान (4) के आधार पर ज्ञात की गयी है। बिलासपुर जिले में भूगर्भ जल निकासी मुख्यत: कुओं के माध्यम से होती है। अतएव इसकी गणना उनके उपयोग एवं उद्वहन के प्रकार आदि के आधार पर की जाती है। प्रमुख नदियों एवं उनकी सहायक धाराओं के द्वारा होने वाले भूगर्भजल निस्सरण की गणना, हेतु कुल भूगर्भजल निस्सरण का 15 प्रतिशत घटा दिया जाता है। इस प्रकार विभिन्न साधनों से होने वाले जल निस्सरण की गणना कर भूगर्भ जल निकासी ज्ञात किया जाता है। विभिन्न साधनों हेतु एआरडीसी द्वारा प्रयुक्त प्रसम मानों का विवरण (सारिणी क्रमांक 21) में दिया गया है।
बिलासपुर जिले में भूगर्भ जल निकासी डभरा विकासखण्ड में सर्वाधिक है। यहाँ कुल भूगर्भ जल प्राप्यता का 11.5 प्रतिशत अर्थात 5.55 लाख घन मीटर जल का निकास हुआ है। जिले में भूगर्भ जल का न्यूनतम निकासी पोड़ी उपरोरा विकासखण्ड में 1.70 लाख घन मीटर वार्षिक है, जो कुल भूगर्भ जल प्राप्यता का 0.4 प्रतिशत है। सामान्यत: जिले के उन विकासखण्डों में जहाँ सतही जल की न्यूनता है, भूगर्भ जल का अधिक निकास हुआ है, अत: इन स्थानों पर भूगर्भजल निकासी का प्रतिशत अधिक है। जिले के अकलतरा, जयजयपुर, सक्ती एवं चांपा आदि विकासखण्डों में भूगर्भजल निकासी की मात्रा 2.00 से 7.00 लाख घन मीटर तक है, जो कुल भूगर्भ जल पुन: पूर्ति का 5 से 10 प्रतिशत है।
जिले के न्यूनतम भूगर्भजल निकासी के क्षेत्र मुख्यत: लोरमी, बलौदा, मस्तुरी, पंडरिया, जांजगीर, पथरिया, कोरबा, मुंगेली आदि विकासखण्ड हैं। इन विकासखण्डों में औसत वार्षिक भूगर्भजल पुन: पूर्ति का 1 से 5 प्रतिशत की निकासी हुई है। ये क्षेत्र काली मिट्टी वाले क्षेत्र हैं। काली मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक होती है। इन भाग में सतही जल का प्रबंधन अधिक हुआ है। अत: भू गर्भ जल निकासी न्यून है।
बिलासपुर जिले में जल संसाधन विकास एक भौगोलिक अध्ययन 1990 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | बिलासपुर जिले की भौतिक पृष्ठभूमि (Geographical background of Bilaspur district) |
2 | बिलासपुर जिले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (Cultural background of Bilaspur district) |
3 | बिलासपुर जिले की जल संसाधन संभाव्यता (Water Resource Probability of Bilaspur District) |
4 | बिलासपुर जिले के जल संसाधनों का उपयोग (Use of water resources in Bilaspur district) |
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बिलासपुर जिले में जल संसाधन विकास एक भौगोलिक अध्ययन 1990 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | बिलासपुर जिले की भौतिक पृष्ठभूमि (Geographical background of Bilaspur district) |
2 | बिलासपुर जिले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (Cultural background of Bilaspur district) |
3 | बिलासपुर जिले की जल संसाधन संभाव्यता (Water Resource Probability of Bilaspur District) |
4 | बिलासपुर जिले के जल संसाधनों का उपयोग (Use of water resources in Bilaspur district) |
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