तालाब
1. संसोलाव 2. हर्षोलाव 3. मूँधड़ों का तालाब (फूलनाथ) 4. सूरसागर 5. नृसिंहसागर 6. ब्रह्मसागर 7. घड़सीसर तालाब 8. शिवबाड़ी का तालाब 9. देवीकुण्डसागर 10. कल्याणसागर 11. बागड़ियों का तालाब 12. रघुनाथसागर 13. हिंगलाज तालाब 14. मोदियों का तालाब 15. अर्जुनसागर
तलाइयाँ
1. कानोलाई तलाई (कन्दोलाई) 2. भाटोलाई तलाई 3. चेतोलाई तलाई 4. रंगोलाई तलाई 5. बिन्नाणी तलाई 6. गबोलाई तलाई (डागों की) 7. जस्सोलाई तलाई 8. कुखसागर 9. फरसोलाई तलाई 10. गोपतलाई 11. पीर की तलाई (उस्तों की तलाई) 12. विश्वकर्मा तलाई 13. महानन्द तलाई 14. धरणीधर तलाई 15. बोहरोलाई तलाई 16. हँसावतों सेवगों की तलाई 17. बच्छे सेवग की तलाई 18. ठिंगाल भैरूं की तलाई 19. नाइयों की तलाई (गंगोलाव) 20. जतोलाई (बिरधोलाई) 21. गिरोलाई 22. दर्जियों की तलाई 23. कसाइयों की तलाई 24. धोबी तलाई 25. किशनाणी व्यासों की तलाई 26. खरनाडा तलाई 27. हरोलाई तलाई 28. रत्नेश्वर तलाई 29. सवालखी तलाई 30. अखेराजपुरी तलाई 31. गोगेजी की तलाई 32. राधोलाई तलाई 33. लालाणियों की तलाई 34. भक्तोलाई 35. जमनोलाई 36. बागोलाई 37. नाथसागर तलाई 38. बख्तसागर 39. करमीसर तलाई 40. निशानी की तलाई 41. नवलपुरी तलाई 42. कृपाल भैरव की तलाई (रेलवे वर्कशॉप) 43. छींपोलाई (जस्सूसर गेट के बाहर) 44. छींपोलाई (हम्मालों के बाहर) 45. चूनगरान तलाई 46. गरोलाई 47. भरोलाई 48. सदे सेवग की तलाई 49. सूरजनाथ तलाई 50. मिर्जामल की तलाई 51. काशियेवाली तलाई 52. होण्डोलाई 53. छोगे री तलाई 54. हाकोलाई
नगर के विभिन्न ताल-तलाइयों की सूचीमय निर्माण-समय |
||
क्रम |
तालाब |
निर्माण संवत |
1 |
संसोलाव |
वि.सं. 1572 |
2 |
कल्याणसागर |
वि.सं. 1630 |
3 |
ब्रह्मसागर |
वि.सं. 1953 |
4 |
घड़सीसर |
वि.सं. 1944-45 |
5 |
फूलनाथसागर |
वि.सं. 1777 |
6 |
भाटोलाई |
वि.सं. 1920 |
7 |
धरणीधर |
वि.सं. 1776 |
8 |
महानन्द तलाई |
वि.सं. 1767 |
9 |
रघुनाथसागर |
वि.सं. 1821 |
10 |
विश्वकर्मासागर |
वि.सं. 1925 |
11 |
कन्दोलाई |
वि.सं. 1841 |
12 |
हिंगलाज तालाब |
वि.सं. 1670 |
13 |
कसाइयों की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
14 |
चूनगरान तालाब |
(अनुपलब्ध) |
15 |
कुखसागर |
सन 1937 |
16 |
मोदियों का तालाब |
वि.सं. 2010 |
17 |
अर्जुनसागर |
वि.सं. 1925-50 |
18 |
हर्षोलाव तालाब |
वि.सं. 1688 |
19 |
जतोलाई |
वि.सं. 1961-63 |
20 |
राजरंगों की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
21 |
खरनाडा |
वि.सं. 1811 |
22 |
किशनाणी तलाई |
सन 1832 जीर्णोद्धार |
23 |
बख्तसागर |
(अनुपलब्ध) |
24 |
शिवबाड़ी |
(अनुपलब्ध) |
25 |
रंगोलाई |
(अनुपलब्ध) |
26 |
बिन्नाणियों की तलाई |
वि.सं. 1781 अनुमानित |
27 |
नृसिंहसागर |
वि.सं. 1953 |
28 |
गिरोलाई |
वि.सं. 1771-1897 |
29 |
नवलपुरी |
दिनांक 13.02.1727 तालाब की मेड़ के निर्माण का उल्लेख |
30 |
हंसावत सेवगों की तलाई |
सन 1887 खुदाई वि.सं. 1988 तालाब बाँधा गया |
31 |
सूरसागर |
सन 1614 |
32 |
हरोलाई |
(अनुपलब्ध) |
33 |
देवीकुण्डसगर |
(अनुपलब्ध) |
34 |
बागड़ियों का तालाब |
वि.सं. 1233 व 1589 पास में बनी देवलियों पर अंकित है। |
35 |
ठिंगाल भैरूं की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
36 |
पीर तलाई |
सन 1574 से 1612 के बीच |
37 |
दर्जियों की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
38 |
नाथसागर |
(अनुपलब्ध) |
39 |
सवालखी |
(अनुपलब्ध) |
40 |
गोपतलाई |
सन 1892 अनुमानित |
41 |
फरसोलाई |
(अनुपलब्ध) |
42 |
चेतोलाई |
(अनुपलब्ध) |
43 |
गबोलाई |
(अनुपलब्ध) |
44 |
जसोलाई |
वि.सं. 1882 पट्टा जारी |
45 |
बोहरोलाई |
(अनुपलब्ध) |
46 |
बच्छे सेवग की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
47 |
सदे सेवग की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
48 |
धोबी तलाई |
(अनुपलब्ध) |
49 |
गोगेजी की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
50 |
अखेराजपुरी की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
51 |
लालाणियों की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
52 |
भक्तोलाई |
(अनुपलब्ध) |
53 |
करमीसर तलाई |
(अनुपलब्ध) |
54 |
कृपाल भैरूं की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
55 |
राधोलाई |
(अनुपलब्ध) |
56 |
मिर्जामल की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
57 |
होण्डोलाई |
(अनुपलब्ध) |
58 |
छोगे री तलाई |
(अनुपलब्ध) |
59 |
काशियेवाली तलाई |
(अनुपलब्ध) |
60 |
निशानी की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
61 |
बागोलाई |
(अनुपलब्ध) |
62 |
नाइयों की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
63 |
जमनोलाई |
(अनुपलब्ध) |
64 |
छींपोलाई (जस्सूसर गेट के बाहर) |
(अनुपलब्ध) |
65 |
छींपोलाई (हम्मालों के बाहर) |
(अनुपलब्ध) |
66 |
गरोलाई |
(अनुपलब्ध) |
67 |
भरोलाई |
(अनुपलब्ध) |
68 |
सूरजनाथ की तलाई |
(अनुपलब्ध) |
69 |
हाकोलाई |
(अनुपलब्ध) |
1910-11 के दस सालाना दूसरे बन्दोबस्तानुसार अभिलेख सूचना-संग्रहण
रियासतकालीन बीकानेर में पहला बन्दोबस्त 1895 में हुआ। चारों बन्दोबस्त महाराजा गंगासिंह के समय में हुए। 1895 में जो बन्दोबस्त हुआ उसके तहत शहर को पाँच खण्डों में बाँटा गया, जो मोजा चक गरबी, मोजा शिवबाड़ी, सदर, भोजनशाला, मोजा किश्मीदेसर के रूप में राजस्थान राज्य अभिलेखागार के बीकानेर स्थित कार्यालय में देखे जा सकते हैं। उनमें आई विभिन्न तलाइयों के अभिलेखीय सन्दर्भ इस प्रकार हैं-
तालाब |
खसरा सं. |
खाता सं. |
नाम खातेदारान |
आगोर माप बीघा में |
छींपोलाई |
218 |
166/117 |
गोधू वल्द लादू |
13 |
रघुनाथसागर |
159 |
141/142 |
नारायण पुत्र बहादुरदास वगैरह |
06 |
संसोलाव |
06 |
103 |
मोहता किशनसिंह पुत्र मानसिंह वगैरह |
19 |
जमनोलाई |
231 |
|
गैर मकबूजा |
6 |
नाथसागर |
54 |
113/113 |
सार्वजनिक |
7 |
बोहरोलाई |
176 |
113/113 |
गोविन्दलाल वल्द रामधन |
5 |
नवलपुरी |
174 |
114 |
शंभुपुरी चेला बुधपुरी |
11 |
हर्षोलाव |
94 |
107/107 |
केवलाराम वल्द गणेश |
14 |
फरसोलाई |
93 |
148/149 |
गैर मकबूजा |
14पीर तलाई |
पीर तलाई |
95 |
96/96 |
गुलाम मोहम्मद वल्द बद्रजी |
16 |
दर्जियों की तलाई |
99 |
38/38 |
ठाकरसी वल्द चान्दमुरली |
4 |
नाइयों की तलाई (गंगोलाव) |
90 |
57/57 |
रामधन वल्द रतनो |
3 |
रघुनाथसागर (फूलनाथ) |
02 |
47/47 |
चम्पालाल वल्द चुन्नीलाल |
13 |
कानोलाई |
76 |
41/41 |
बलदेव वल्द काशीराम ओझा |
4 |
घड़सीसर |
69, 70, 71 |
41/32 |
स्पष्ट पढ़ा नहीं जा सका |
17 |
कल्याणसागर |
2 |
6/6 |
राजश्री बीकानेर |
10 |
देवीकुण्डसागर |
4 |
6/6 |
राजश्री बीकानेर |
7 |
नृसिंहसगर |
54/184 |
234/344 |
रफा-ए-आम |
61/4 बीघा 1 बिस्वा |
छींपोलाई |
26/56 |
244/358 |
नारायण वल्द माणक कौम छींपा |
41/4 बीघा 3 बिस्वा |
रंगोलाई |
22/52 |
248/366 |
दमा वल्द धनसुख जाति ब्राह्मण रंगा |
5 3/ 4 बीघा बिस्वा |
नगर के ताल-तलाइयों पर लगने वाले प्रमुख मेलों का जाति/समुदाय सहित विवरण
ताल-तलाई का नाम |
सामाजिक उत्सव |
जाति/समुदाय |
संसोलाव |
गेमनापीर का लौटता मेला, श्रावण, भाद्रपद के सोमवार व श्रावण की चौथ |
मुस्लिम सम्प्रदाय सर्वजाति |
हर्षोलाव |
भाद्रपद शुक्ला 10 |
सर्वजाति |
माघ कृष्णा 10,11 |
सर्वजाति |
|
श्रावण शुक्ला 5 |
सर्वजाति |
|
श्रावण शुक्ला नवमी |
सर्वजाति |
|
पूर्णिमा को श्रावणी कर्म |
सर्वजाति |
|
भाद्रपद शुक्ला पंचमी को |
सर्वजाति |
|
ऋषिपंचमी |
सर्वजाति |
|
|
होली के दिनों में हर्षों की गेर पानी के खेल के बाद फाल्गुन शुक्ला 12 के दिन हर्षोलाव से ही रवाना होकर पुनः हर्षों के चौक आती है। |
|
देवीकुण्ड/कल्याणसागर |
सागरिया बीज भाद्रपद की शुक्ला चतुर्दशी |
|
फूलनाथसागर |
फूलनाथ जी की बरसी-जयन्ती पर शिवरात्रि पर |
सर्वजाति |
भाटोलाई |
श्रावणी कर्म श्रावणी के सोमवार व गुरू पूर्णिमा |
ब्राह्मण सर्वजाति |
कन्दोलाई |
श्रावण की तीज पर मगरिया |
सर्वजाति |
श्रावण के सोमवार |
सर्वजाति |
|
वैशाख शुक्ला 12 को वार्षिकोत्सव |
नानगाणी ओझा जाति |
|
चूनगरान तलाई |
ताजिये ठंडे होते थे |
मुस्लिम समाज |
जस्सोलाई |
श्रावण की तीज का प्रसिद्ध नींबू मेला |
सर्वजाति |
खरनाडा |
ज्येष्ठ शुक्ला 12 से पूर्णिमा तक मेला |
सुनार महिलाएँ |
चैत्र शुक्ला तृतीया को गणगौर |
सुनार जाति |
|
शरद पूर्णिमा |
सर्वजाति |
|
शिवरात्रि |
सर्वजाति |
|
गोपतलाई |
समस्त वैष्णव तीज-त्योहार एवं उत्सव |
वैष्णव मतावलम्बी |
सूरसागर |
श्रावण के सोमवार |
सर्वजाति |
शिवबाड़ी |
श्रावण के सोमवार तथा श्रावण की 7, 8 व 9 को भी |
सर्वजाति |
श्रावण शुक्ला दशमी |
सर्वजाति |
|
बिन्नाणी तलाई |
सूरजरोटा |
सर्वजाति |
गुरू पूर्णिमा |
बिन्नाणी समाज |
आगोर में पाई जाने वाली औषधियों की सूची
क्र.सं. |
औषधि |
गुण |
प्राप्ति स्थल |
1 |
अडूसा |
कास, कृमि, श्वास, कफ में आरामदायक |
तालब के किनारे, आस-पास के जंगल में |
2 |
तुलसी |
जुकाम, खाँसी, ज्वर, उदर, गठिया के लिये |
जंगल में, घरों में |
3 |
गोखरू |
पित्तनाशक, कफ नाशक, क्षुधावर्धक |
तालाब, वन में, पानी के स्रोत के समीप |
4 |
बेल-बिल्वपत्र |
मलबंधक, आमवात एवं शूल में हितकर |
जंगल एवं बगीचों में |
5 |
शंखपुष्पी |
बुद्धिवर्धक, रक्तचाप में फायदा |
ताल में, तालाब किनारे, खुले मैदान में |
6 |
चाम घास |
बुद्धिवर्धक, शक्तिदायी, मादकता बढ़ाने के लिये |
पानी के समीप, खुले रेतीले मैदान में |
7 |
चिड़ी-खेतिया |
छोटे दाने, शक्तिवर्धक, बुद्धिवर्धक |
तालाब की ओर पानी के प्रवाह की रेत के पास |
8 |
सनावड़ी |
सब्जी, रतौंधी मिटाने वाली |
तालाबों, खलिहानों, समतल भूमि पर |
9 |
स्वर्ण क्षीरी सत्यानाशी |
त्वचा रोगनाशक, रक्त शोधक, कफ पित्त नाशक |
बागों, सड़कों के किनारे, रेतीली जगह |
10 |
गिलोय |
पित्तशमन, कास, ज्वर, यकृत विकारों को दूर करती है। |
बगीचियों में, बागों में, घरो में |
11 |
कटेरी/कंटकारी |
पाचक, कृमिनाशक, पीड़ानाशक |
खुले शुष्क मैदानों में |
12 |
ग्वारपाठा |
यकृत को शक्तिदायक, उदरशूल, कब्ज, शुक्र दोषों के लिये लाभदायक |
घरों, बगीचों, बाड़ियों में उपलब्ध |
13 |
चन्दलिया |
कब्ज मिटाने, रक्तशुद्धि, यकृत को फायदा |
बाड़ियों, बगीचों, खलिहानों |
14 |
पालक |
रक्तशुद्धि, कब्ज मिटाने, यकृत को फायदा |
बाड़ियों, बगीचों, खलिहानों |
15 |
दूर्वा |
शीतलता, रक्तशुद्धि, देवपूजन में प्रयोज्य |
बाग-बगीचों में उपलब्ध |
पारिभषिक शब्द
बाँस |
तालाब की गहराई बताने के लिये जब पत्थर के मापक नहीं थे तब लकड़ी के बाँस से मापते थे। अतः अभिलेखों में तालाब की गहराई बाँस दी हुई है। इसकी औसत माप को लेकर मतभेद है। कुछ बुजुर्ग कहते हैं एक बाँस को 12 फुट मानते हैं। |
ताल |
एक पुरस की लम्बाई को कहते थे। यानी तालाब के तल पर पुरुष खड़ा हो जाये व अपना दायाँ हाथ ऊपर करे उतनी लम्बाई को एक ताल कहा जाता था। |
तकिए |
तालाब का सबसे ऊँचा स्थान, जहाँ से तैराक कूदते थे, उसे तकिया कहा जाता था। |
नेष्टा |
तालाब में आये अतिरिक्त पानी की निकासी का रास्ता या नाला। |
अंगोलिया |
घाटों के किनारे बड़े आकार के तिकोने पत्थर, जो टाँचकर रखे होते थे। ये साबुन आदि से नहाने के वास्ते बने होते थे। घर के लिये बने अंगोलिये व तालाब के लिये बने अंगोलिये की बनावट में अन्तर होता है। |
खाड |
तालाब के केन्द्र में खुदाई के दौरान छोड़े गए गड्ढे, जिनमें पीने योग्य पानी लम्बे समय तक स्वच्छ एवं सुरक्षित रहता था। |
चादर चलना |
जब तालाबों में घाटों के बाहर तक लबालब पानी भर जाता तो उसे चादर चलना कहा जाता था। |
स्टॉपवॉल |
इन्हें बंधा कहते हैं। ये पहले नहीं होती थी। पूर्व में इन्हें पैठ कहा जाता था जो कच्ची बनी होती थी। ये रेत के साथ-साथ अपशिष्ट पदार्थों को आगार में आने से रोकने में सहायक होती थी। |
न्याला |
छोटी करनी, जिससे बजरी-चूने की घुटाई की जाती थी |
करनी |
सामान्य करनी की अपेक्षा लम्बी व भारी लोहे की बनी होती थी, जिससे कारीगर चिनाई कार्य में मसाला व्यवस्थित करता था। |
साजनी |
तिकोने आकार की लोहे व लकड़ी की बनी यह संरचना घाट के किनारे बनाने के काम आती थी। |
गोले |
तालाब के किनारों की गोलाई के लिये काम आने वाला लकड़ी का बना औजार। यह दाँतेदार भी होता है। |
रूसी |
तालाब की दीवारों का पलस्तर करने के वास्ते ऊपर हत्था लगी लकड़ी की बनी आयताकार पट्टिका व कई बार तिकोने आकार का औजार। |
गुरमाला |
भारी लोहे का आयताकार शक्ल में निर्मित एक औजार, जिसके ऊपरी भाग पर हत्था होता था। इसका पलस्तर को घोटने में उपयोग करते थे। |
सावल (स्यावल) |
पत्थर का बना होता था, जिस पर लकड़ी का हत्था भी होता था। इससे दीवारों की खड़ाई में सीध को देखा जाता था। चिनाई की एकसारता को इससे जाँचा जाता था। |
गज |
लोहे का बना होता था। आजकल कपड़े की दुकानों में इसका थोड़ा सुधरा रूप देखा जा सकता है। |
गुणिया |
यह गज का भी काम करता है। चिनाई के दौरान कोण की भुजाओं की जाँच व सही माप तथा बाछ निकालने के काम आता है। |
लेवल |
तले का ढलान ज्ञात करने के काम आने वाला औजार। इसी लेवल को मजदूर वर्ग ने अपनी बोलचल की भाषा में रेवल बना दिया है। |
श्रावणी कर्म |
मूल रूप से यह वैदिक ब्राह्मणों का कर्म है। इसका हेतु वैदिक परम्परा की रक्षा करने वाले ऋषियों का पूजन है। ऋग्वेदी परम्परा वाले इसे सावन शुक्ला पूर्णिमा को मनाते हैं और यजुर्वेदी परम्परा वाले इसे भाद्रपद शुक्ला पंचमी यानी ऋषिपंचमी को मनाते हैं। इसीलिये इसका एक नाम ऋषिपंचमी भी है। इसमें 9 सूत का नया यज्ञोपवीत पहना जाता है। ये नौ सूत नौ ऋषिकुलों के प्रतीक हैं। यह अन्तः – बाह्य मल-कर्षण की प्रक्रिया को भी सम्पन्न करता है। इसमें पाँच स्नान होते हैं। बाह्य मन-कर्षण के अन्तर्गत जल, मिट्टी, भस्म, गोबर एवं मंत्र स्नान होते हैं वहीं अन्तः मल-कर्षण के लिये संध्या पूजन, हवन, न्यास, ध्यान किया जाता है। मल-कर्षण से यहाँ तात्पर्य है वर्ष पर्यन्त विकारों से ग्रसित व्यक्ति की बाहरी और आन्तरिक शुद्धि। |
नारायण बलि |
यह हिन्दू संस्कारों में मृतक संस्कार की प्रक्रिया में किया जाने वाला अनुष्ठान है। हिन्दू परम्परा में नर से नारायण की अवधारणा सनातन काल से चली आ रही है। उसी क्रम में यह माना जाता है कि प्रत्येक मृतक मृत्यु के 10 दिन तक प्रेतयोनि में रहता है। 11वें दिन नारायण-बलि विधान (बलि का तात्पर्य यहाँ हिंसक विधान से नहीं है।) की प्रक्रिया से उसे प्रेतयोनि से मुक्ति मिलती है और जीव सद्गति को प्राप्त करता है। कर्म मीमांसा का यह एक प्रमुख अनुष्ठान नगर बीकानेर के विशेष सन्दर्भ में श्रीमाली ब्राह्मण जाति के लोग अनिवार्य रूप से करते हैं। |
सूथा मिट्टी |
गुड़िया मिट्टी का ही एक नाम है। सूखी अदरक की तरह गाँठ होने के कारण इसे सूथा मिट्टी कहते हैं। यह सूंठ शब्द का राजस्थानी लोकरूप है। राजस्थानी में सूंठ के मानी होता है उत्तम, श्रेष्ठ। यानी वह मिट्टी जो ताल के तले के लिये उत्तम हो, श्रेष्ठ हो उसे सूथा/सूठा मिट्टी कहते हैं। |
ठीकरी की रस्म |
लोक में यह रस्म सन्तान उत्पत्ति एवं उसके अखण्ड परिवर्धन के लिये विख्यात है। इसके तहत सन्तान कामना वाली महिला के हाथ से तालाब किनारे स्थित खेजड़ी के पास की भूमि में ठीकरी (मिट्टी के बर्तन का टुकड़ा) के टुकड़े को लोक व शास्त्र में संयुक्त विधान से जमीन में गाड़ दिया जाता है। फिर उस महिला के गर्भवती होने के चौथे या पाँचवें माह में इसे पुनः उसी विधान की प्रक्रिया से निकाला भी जाता है। इसे ठीकरी की रस्म कहा जाता है। |
मसाबी |
अभिलेख की भाषा में खसरे के नक्शे को मसाबी कहा जाता है। |
गणगौर |
राजस्थान में मनाया जाने वाला एक स्त्री पर्व। |
बम्बी |
यह बाँबी का राजस्थानी पर्याय है। यह साँप के बिल का नाम भी है। जहाँ साँप रहते हैं। |
दशनामी |
आचार्य शंकर द्वारा वेदान्ती सन्यासियों का बनाया एक सम्प्रदाय, जिसे उन्होंने दक्ष दलों में बाँटा व स्वयं के एक-एक शिष्य के अधीन उनकी शाखाएँ बनाईं। वे दशनामी इसलिये कहे जाते हैं क्योंकि उनके दस उपनाम होते हैं। ये दस नाम हैं- तीर्थ, आश्रम, सरस्वती, भारती, वन, अख्य, पर्वत, सागर, गिरि, पुरी। |
भोपा/भोपौ |
किसी देवता का भक्त या पुजारी, जिसके शरीर में देवता आकर भूत-भविष्य की बातें बताते हैं। लोक में भील जाति के लिये भी यह सम्बोधन के रूप में प्रयुक्त होता है। |
बीघा-बिस्वा |
बीघा व बिस्वा जमीन की माप के लिये प्रयुक्त होते थे। आज की भाषा में कहें तो एक बीघा में 165x165 फुट या 27,225 वर्ग फुट होते हैं। बिस्वा यानी बीघे का बीसवाँ भाग। एक बीघा में बीस बिस्वा होते हैं। |
भगत |
ईश्वर, देवता या किसी महात्मा में आस्था रखने वाली जाति का व्यक्ति विशेष का पर्याय है। |
पुराना शहर |
बीकानेर में चार दरवाजे हैं जो क्रमशः कोट गेट, नत्थूसर गेट, जस्सूसर गेट एवं गोगा गेट के नाम से जाने जाते हैं। पुराना शहर इन्हीं चार दरवाजों के बीच परकोटे में बसे शहर का ही एक नाम है। |
बेड |
तालाब खोदते समय मिट्टी की मोटाई यानी परत को स्थानीय भाषा में बेड कहते हैं। अंग्रेजी में इसे Thickness कहते हैं। |
बीकानेर के मानचित्र में दर्शाये गए क्रम संख्यानुसार तला-तलाइयों के नाम
क्रम संख्या |
तालाब - ताल-तलाई |
1. |
संसोलाव |
2 |
हर्षोलाव |
3 |
महानन्द |
4 |
पीर तलाई |
5 |
सुथारों की तलाई |
6 |
हरोलाई |
7 |
जतोलाई |
8 |
नाथसागर |
9 |
धरणीधर |
10 |
किशनाणी व्यासों की तलाई |
11 |
फरसोलाई तलाई |
12 |
जस्सोलाई तलाई |
13 |
रत्नेश्वर तलाई |
14 |
चेतोलाई |
15 |
भाटोलाई |
16 |
फूलनाथ |
17 |
ठिंगाल भैरूं की तलाई |
18 |
करमीसर तलाई |
19 |
गुजरोलाई (गोगेजी) |
20 |
खरनाडा |
21 |
मिर्जामल जी तलाई |
22 |
भरोलाई |
23 |
नवलपुरी |
24 |
बोहरोलाई |
25 |
हंसावत सेवगों की तलाई |
26 |
सूरजनाथ तलाई |
27 |
सदे सेवग की तलाई |
28 |
बच्छे सेवग की तलाई |
29 |
गिरोलाई |
30 |
रघुनाथ सागर (आचार्यों का) |
31 |
सवालखी तलाई |
32 |
बागड़ियों की तलाई |
33 |
बख्तसागर |
34 |
रंगोलाई |
35 |
ब्रह्मसागर |
36 |
बिन्नाणी तलाई |
37 |
नृसिंहसागर |
38 |
गबोलाई |
39 |
घड़सीसर |
40 |
शिवबाड़ी |
41 |
कल्याणसागर |
42 |
देवीकण्डसागर |
43 |
सूरसागर |
44 |
अखेराजपुरी तलाई |
45 |
होण्डोलाई |
46 |
काशियेवाली तलाई |
47 |
छींपोलाई (जस्सूसर वाली) |
48 |
कन्दोलाई |
49 |
कुखसागर |
50 |
चूनगरान तालाब |
51 |
कसाइयों की तलाई |
52 |
गोपतलाई |
53 |
धोबी तलाई |
54 |
लालाणियों की तलाई |
55 |
भक्तोलाई |
56 |
बागोलाई |
57 |
जमनोलाई |
58 |
निशानी की तलाई |
59 |
कृपाल भैरूं की तलाई |
60 |
छींपोलाई (हम्मालों की बारी वाली) |
61 |
मोदियों की तालाब |
62 |
अर्जुनसागर |
63 |
राधोलाई |
64 |
दर्जियों की तलाई |
65 |
छोगे री तलाई |
66 |
हिंगलाज तालाब |
67 |
नाइयों की तलाई |
68 |
गरोलाई |
69 |
हाकोलाई |
बगेची व्यवस्था - 1
हर संस्कृति का अपना एक स्थापत्य होता है और हर स्थापत्य की एक अपनी संस्कृति होती है। जिस संस्कृति में यह स्थापत्य जितना सुन्दर होता है, वह संस्कृति उतनी समृद्ध होती है। राजस्थान की संस्कृति में प्राचीनकाल से ही बगेची परम्परा का स्थापत्य विद्यमान रहा है। बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, पाली, चूरू आदि प्रदेश के प्रतिनिधिनगर –स्थापत्य में बगेची का अस्तित्व रहा है। हिन्दी का बगेची शब्द स्त्रीलिंग है औऱ इसका अर्थ है छोटा बाग। लेकिन यह शब्द अपने भाषिक इतिहास में फारसी के आगच से बना है। आगच पुलिंग शब्द है फारसी में। जिसके माने हैं- उपवन, बाटिका, बाग। राजस्थानी में आते-आते आगच बगीची, बगीछौ में रूपान्तरित हो गया। नगर बीकानेर के विशेष सन्दर्भ में बगेची का यह अर्थ अपने शब्दकोषीय अर्थ से भिन्न है। क्योंकि बगेची यहाँ केवल उद्यान बाग नहीं है वरन यहाँ की बगेचियाँ स्वाध्याय, चिन्तन, मनन के साथ व्यक्तित्व विकास के सामुदायिक केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठ रही हैं। सामान्यतः हम बगेचियों को आरामगाह मानते हैं। यद्यपि आराम शब्द का एक अर्थ बगीचा भी है। जो बगेची के निकट है। इस अर्थ में बगेचियों को आराम या मनोरंजन का केन्द्र कहा जाता है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने भले ही किसी नामी विश्वविद्यालय में पढ़ाई नहीं की हो औऱ ना ही मोटी पगार वाली तथाकथित किस्म की बुद्धिजीविता से अपना जीविकोपार्जन किया हो पर, वे अनुभव की पाठशाला के श्रेष्ठ विद्यार्थी रहे थे। उन्होंने सदैव ही समय सिद्ध को महत्त्व नहीं दिया वरन जीवन की व्यावहारिक प्रयोगशाला से उपजे निष्कर्षों का आदर करते हुए स्वयं सिद्ध को जीवन के केन्द्र में रखा। बीकानेर की बगेचियाँ यहाँ रहने वाली जातियों के जातीय स्वाभीमान का केन्द्र रही हैं। इसलिये हम पाते हैं कि प्रायः हर समाज की अपनी-अपनी बगेची आज भी मौजूद है। इन बगेचियों में जाति के इष्टदेव का मन्दिर या जातिविशेष की सतियों की देवलियाँ आज भी देखी जा सकती हैं।
अभिलेखों में जो इतिहास आता है उसके अनुसार ब्राह्मणों की अधिकांश बगेचियों का आवंटन रज्य सरकार द्वारा निःशुल्क व पट्टेशुदा है। जबकि वैश्य जाति की बगेचियों का आवंटन सशुल्क व पट्टेशुदा है। कारण साफ है कि जहाँ ब्राह्मणों, साधु-सन्तों के नाम या जति की बगेचियाँ उनको उनके स्वाध्याय एवं कर्मकाण्ड से अभिभूत या चमत्कृत होकर निःशुल्क दी गई है, वहीं वैश्य निःशुल्क लेना स्वीकार नहीं करते थे इसलिये वे राज्य को उसकी तत्कालीन समय की कीमत अदा करके ही उनका पट्टा लेते थे। ये ही नहीं तत्कालीन समाज की जातीय प्रतिस्पर्धा के कारण भी बगेचियाण अस्तित्व में आईं। क्योंकि बगेचियाँ जातीय स्वाभिमान के साथ सम्पन्नता (जातिविशेष के सन्दर्भ में) की भी प्रतीक रही हैं। नगर की हर एक बगेची के पीछे जातिविशेष का लोक और सांस्कृतिक इतिहास मौजूद है। यहाँ की कई-कई बगेचियाँ साधु-सन्तों के चमत्कार एवं कष्ट निवारण की सक्षमता के चलते राज्य द्वारा उस विशिष्ट व्यक्तित्व को उपहार में दी गई है। कालान्तर में ये बगेचियाँ ही अध्यात्म पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हुई और कुछ समाज विशेष के लोगों ने इन्हें साधु-सन्तों की विश्राम स्थली तक सीमित कर दिया। अब के तथाकथित पढ़े-लिखे, सूचनाओं के बौध से लदे, तकनीक के प्रचण्ड आवेग के तले दबे लोग एवं लाभ की राजनीति करने वाले समाज ने इस विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था को लगभग नकार दिया है। पिछले तीस-चालीस सालों का आलम तो यह है कि इसी अनुभव सम्पन्न समाज व्यवस्था द्वारा सम्पोषित इस विशिष्ट स्थापत्य एवं संस्कार केन्द्र के होने का जैसे आभास ही नहीं रह गया है। जब यह व्यवस्था अपने परवान पर थी तो हर जाति-समुदायों के लोग अपने-अपने सांस्कृतिक उत्सवों की शुरुआत अपनी-अपनी बगेचियों से शुरू करते थे। परम्परा के सच्चे सहयात्री तो आज भी इसका निर्वाह कर रहे हैं, पर समाज का बड़ा तबका अब इसके अस्तित्व को महत्त्व नहीं देता। दृष्टिहीन समाज ने अपनी तथाकथित प्रगतिशील सोच का परिचय देते हुए इन विराट आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों को सामुदायिक भवन में परिवर्तित कर दिया है। कहने और दिखाने को तो उन्होंने इस उपेक्षित सांस्कृतिक स्थली का नवीनीकरण कर दिया, पर असल में समाज ने अपनी संस्कृति के फेफड़ों को अवरुद्ध कर दिया है। क्योंकि बगेची व्यवस्था क्या है? क्या थी? और आज के समाज में इसकी उपस्थिति का महत्त्व क्या है? आदि-आदि अनेक प्रश्नों का सामना इस समाज ने किया ही नहीं या कह लें कि अपने सामुदायिक विकास और जातीय पंचायत के इन केन्द्रों के बारे में समाज अधिक गहराई और परिपक्वता से सोच ही नहीं पाया। कह सकते हैं कि बगेची व्यवस्था सम्बन्धी समाज की दृष्टि या दर्शन ठीक नहीं है। उदयपुर के प्रख्यात सन्त मोहनलाल ने बाकायदा एक भजन बगेची पर लिखा है-
बगेची बाई सतमाली, करम के जल से पाली
पाँच वृक्ष की एक बगेची, पंछी करै किल्लोल
उस पंछी का रूप न रेखा, नहीं आँखे नहीं लोल (जबान)
अर्थात समाज में बगेची का स्थान बहन-बेटी की तरह था। इस बाई-बेटी को सत्य रूपी माली ने अपने कर्म रूपी जल से सींचा है। पंछी इस भजन में आत्मा के लिये आया है जिसका अर्थ रूप, रंग, रेख कुछ भी नहीं है। यह उसका आवास है। पाँच वृक्ष पाँच इन्द्रियाँ हैं जो इस बगेची रूपी जीवन में आनन्द की सरिता बहाते हैं। ऐसी सामाजिक समरसता का केन्द्र बगेची आज अपने होने को लेकर हैरान, परेशान है, पर स्थिति का आलम यह है कि कहाँ जायें और का करिहैं।
बगेची – 2
बगेचियाँ, ओरण, सारण, गुफाएँ व पारम्परिक जलस्रोत तथा उनकी आगोर तत्कालीन संस्कृति के छनन संयंत्र (फिल्टर प्लांट) कहे जा सकते हैं। क्योंकि धीरे-धीरे हो रहे सांस्कृतिक अपनयन से जीवन के केन्द्र से जीवन ही छिटकता जा रहा है। लोग जीवन्त संस्कृति के बजाय आभासी दुनिया के नागरिक होने की होड़ में हैं। बगेचियाँ तद्युगीन दैनन्दिन जीवन में परिस्थिति और परिवेश के तनाव, दबाव को कम कर मनुष्य को एकान्त, आध्यात्म और स्वाध्याय से जोड़ने में सेतु का काम करती थी। बगेची परिसर का माहौल उसमें एक आन्तरिक ऊर्जा का संचार करता था। नगर बीकानेर की बगेचियों में अखाड़ा होना सामान्य बात थी। क्योंकि कम खाना, गम खाना और कसरत कर बलवान एवं स्वस्थ बने रहना- ये आम आदमी के जीवन सूत्र थे। अखाड़ों की मिट्टी में जहाँ एक ओर तन की साधना होती थी वहीं उसी परिसर में आध्यात्मिक, याज्ञिक एवं मंत्रशास्त्रीय प्रयोगों के माध्यम से मन की साधना भी होती थी। आज की भाषा में कहें तो बगेची परिसर में जाने और अपनी दैनन्दिन क्रियाओं को सम्पन्न करने से व्यक्ति न केवल एक्टिवेट हो जाता था वरन रिचार्ज भी हो जाता था। मोटे तौर पर हमारे यहाँ की बगेचियों को चार भागों में वर्गीकृत करके देखा जा सकता था। एक तो वे जो किसी जाति विशेष या समाज विशेष की हैं। (इनकी संख्या सर्वाधिक है) दूसरी वे जो परिवार विशेष ने समाज या जाति के लिये बनाई। तीसरी निजी भी हैं जो सेठ-साहूकारों ने अपने परिवार या अपने निजी कर्मों के लिये बनवाई और चौथी वे जो राज्य द्वारा जाति, समाज और साधु-सन्तों को उनकी विशिष्टता के या कहें अलौकिक चमत्कारों, रोग मुक्ति, मनोकामना पूरी होने या करवाने के रूप में निःशुल्क आवंटित की गई। बगेचियों के साथ जाति विशेष का जुड़ाव भी हमारी विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था का अच्छा उदाहरण है।
प्रायः सभी बगेचियों, मन्दिरों में तीन जातियों की प्रधानता रही है, ये क्रमशः सेवग, स्वामी और श्रीमाली हैं। इनके अलावा समाज या जाति के वे लोग जो किसी कारण विशेष या स्वेच्छा से विवाह संस्था का लाभ नहीं ले पाये, वे भी बगेचियों में रहकर अपना जीवन-यापन करते थे। समाज में पारिवारिकता की भावना प्रबल थी। इसलिये बगेची परिसर की देखभाल और मन्दिर की पूजा के लिये रखे जाति विशेष के परिवार की देख-रेख और जीवन परिवर्द्धन का जिम्मा उस जाति और समाज का ही होता था। इसके लिये बगेची के मन्दिर का चढ़ावा तो उन्हें मिलता ही था, साथ ही मरने-परणे, जात-झड़ूले, मासवे और अन्यान्य शुभ अवसरों पर बगेची की देख-रेख करने वाले परिवार का पूरा ध्यान रखा जाता था। अमावस्या, पूर्णिमा या विशेष तीज-त्योहार के अवसर पर सीधा (जिसमें सब तरह के व्यंजन व खान-पान के सामान होते थे) दिया जाता था। इतना ही नहीं उस परिवार की सभी आधारभूत एवं दैनिक आवश्यकताओं को भी पूरा किया जात था। साथ ही उसके सुख-दुख, उसकी सामाजिक रीति-नीति को पूरा करने में भी समाज या जाति की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती थी। इसके चलते बगेची परिसर में रहने वाला परिवार जाति समाज के थंभो पीढ़ियों के सम्बन्ध भी जानता था। अतः मरने-परणे पर किसके घर क्या कहना है उसकी जिम्मेदारी भी उसी परिवार की होती थी। सामान्यतः बगेचियाँ आबादी से दूर यानी तत्कालीन समय के नगर के परकोटे से बाहर बनाई जाती थी, पर कुछ बगेचियाँ परकोटे के अन्दर भी बनी हुई देखी जा सकती हैं। एक विशेष तथ्य, जो इस सन्दर्भ में ध्यान दिये जाने योग्य है, वह यह है कि प्रायः बगेचियों के पास उस जाति की श्मशान भूमि भी होती थी। बल्कि कई-कई बगेचियाँ तो श्मशान स्थल के रूप में प्रयुक्त होती आ रही हैं। उदाहरण के लिये परदेशियों की बगेची। स्वतंत्रता सेनानी रघुवरदयाल गोयल के प्रयासों से नगर में बाहर से आकर बसे लोगों के दाह संस्कार के लिये परदेशियों की बगेची का निर्माण किया गया, जो कि आज भी रानी बाजार में स्थित है। ये सब अनुभव आधारित दिमाग की उपज थी। आज का समाज हड़बड़ी में है और कहा भी जाता है कि हड़बड़ में हमेशा गड़बड़ होती है।
दुर्भाग्य है कि आज का समाज अपनी हड़बड़ी और गड़बड़ी दोनों को ही पहचान कर स्वयं को इससे दूर करने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहा है। बगेची बहुद्देशीय संस्था थी। उसका प्रयोग आरामगाह, रोगी परिचर्या केन्द्र, आध्यात्म, सामाजिक संस्कार की पाठशाला, एकान्तवास एवं प्रकृति के गूढ़ रहस्यों पर मनन-चिन्तन करने जैसे अनेक ध्येयों की पूर्ति के लिये होता था। उस समय नगर परिसर में किसी घर या जाति में परिवार के सदस्य को गम्भीर छूत की बीमारी (उन दिनों टीबी रोग यानी तपेदिक रोग बहुतायत से होता था) के रोगी की बगेची परिसर के जरिए शुद्ध आबो-हवा देते हुए सामाजिक सहानुभूति की छाँह में उसकी परिचर्या की जाती थी। इसके अतिरिक्त बगेची गोठ-घूघरी का भी केन्द्र थी। सावन के महीने में तो बगेचियों का आलम देखते ही बनता था और एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति देने वाला होता था। इस अर्थ में बगेचियाँ जनरंजन का एक अहम केन्द्र थी। इसके अतिरिक्त महात्मा लालीमाई जी की बगेची जैसी आदर्श बगेची भी समाज के परिवार का हिस्सा थी जो सामाजिक सुधार और सत्संग का प्रमुख केन्द्र थी। विधवाओं के लिये महात्मा लालीमाईजी द्वारा किये गए कार्य आज भी बदस्तूर जारी हैं।
हालाँकि इस बगेची व्यवस्था पर लेखक का शोध निरन्तर है, भविष्य में बगेची व्यवस्था के विविध आयामों पर दृष्टिसम्पन्न शोधपूर्ण प्रबन्ध एक पुस्तक के रूप में आपके सामने आएगा, जो इस व्यवस्था के महत्त्व को और अधिक प्रखरता से तार्किक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि को उजागर करते हुए समाज को दिशाबोध कराएगा।
अधिकार की कवायद
हम ऐसे समय के साक्षी हैं, जो इतिहास में अपने तीव्रतम चरित्र-परिवर्तन के लिये जाना जाएगा। ऐसा नहीं है कि इतिहास में समय की गति में तीव्रता नहीं रही, पर जिस गति और राह पर चलते हुए समय के साथ व्यक्ति ने जीवन घटकों के साथ जो व्यवहार इस कालखण्ड में किया है उसका दूसरा उदाहरण इतिहास में ढूँढने से भी नहीं मिलता। आज सारा विश्व जलसंकट को धरती पर आये संकटों की सूची में सर्वोपरि मान रहा है। इसका मूल कारण है कि हम अपनी संस्कृति में जलसंस्कृति को संरक्षित नहीं रख पाये हैं। ऐसे मुश्किल समय में जब संस्कृति बाजार की संस्कृति में परिणत हो रही हो तब जल, हवा, आकाश, धरती हमारी चिंता के केन्द्र से सरकते जा रहे हैं। पानी को उसके मूल चरित्र से च्युत कर बाजार के उत्पाद के रूप में रखा जा रहा है। जल अपने चरित्र में सार्वजनिकता, सामुदायिकता और जनतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाए हैं। अतः जल जन का, जन के लिये है।
जल जीवन का दुर्लभ और सीमित घटक है। फिर भी इसके उपयोग के प्रति कोई गम्भीर संवेदनात्मक परिवर्तन हमारी दृष्टि और व्यवहार में आया हो ऐसा जान नहीं पड़ता। मुक्त बाजार व्यवस्था के इस दौर में जब हर क्षेत्र में निजीकरण का बोलबाला है तो भला मनुष्य की महत्वाकांक्षिणी दृष्टि जल पर न जाये, यह कैसे सम्भव है। जल का निजीकरण मानव समुदाय के लिये सामाजिक अन्याय है। यह हमारे समय का यक्ष प्रश्न है कि पानी पर किसका अधिकार हो? क्या जल वैयक्तिक सम्पत्ति है? क्या इस प्राकृतिक तत्व पर राज्य क अधिकार है? क्या पानी को किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पेटेंट उत्पाद के रूप में बेचा जाना मानवता के हित में है? जल के जनतंत्र को खतरे की राह पर ले जाने वाले कौन हैं? कौन हैं जो जल जैसे सार्वजनिक जीवन के घटक को बाजार की रणनीति का हिस्सा बनाते जा रहे हैं?
मुक्तमंडी के इस दौर ने जो खतरे सभ्यता को दिये हैं उन्हीं की उपज क एक हिस्सा ये प्रश्न भी है। वैश्वीकरण के इस कालखण्ड में विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन आदि इस जनविरोधी अभियान के अगुआ हैं, क्योंकि इन संगठनों ने ही पानी पर अधिकार की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। इनकी रीतियाँ-नीतियाँ इसके लिये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं।
इस वर्ष की जनवरी में मुम्बई में हुए पीपुल्स वर्ल्ड वाटर फोरम के बैनर तले तीन दिन के अन्तरराष्ट्रीय जल सम्मेलन में दुनिया भर के जल विश्लेषकों ने एक स्वर में इन संगठनों की आलोचना करते हुए कहा कि ये संगठन पानी के उत्पादन, वितरम और प्रबन्धन को निजी हाथों में सौंपने की साजिश रच रहे हैं। इन विश्लेषकों का मानना था कि स्थानीय जनसमुदाय को सक्रिय कर जलतंत्र और प्रवाह तंत्र को अधिक कारगर और उपयोगी बनाया जा सकता है। विस्मयकारी तथ्य तो यह है कि स्वयं विश्व बैंक के आंकड़े ये बता रहे हैं कि मानव समुदाय की आबादी का छठा हिस्सा यानी एक अरब से ज्यादा लोग निर्जन इलाकों में रहने को बाध्य हैं। अगर उनके लिये उचित जल व्यवस्था नहीं की गई तो 2025 तक उन्हें गम्भीर जलसंकट का सामना करना पड़ेगा। शायद हमें यह जानकर और अधिक हैरानी होगी कि इस आबादी का अधिकतर हिस्सा भारत, पाकिस्तान और चीन में रहता है।
विश्व बैंक अपने प्रतिवेदन में यह भी मानता है कि वर्तमान में एक अरब लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। विश्व भर में प्रतिवर्ष लगभग सात करोड़ लोगों की मृत्यु ऐसी बीमारियों से हो जाती है, जिनके मूल में शुद्ध जल की अनुपलब्धता है। यानी लोगों को अपेय पानी पीना पड़ता है। दरअसल, पानी पर अधिकार की यह कवायद इसके व्यवसाय में रहने वाले मुनाफे के मद्देनजर की जा रही है। विश्व बैंक के प्रतिवेदन में यह माना गया कि पानी का व्यापार वैश्विक स्तर पर लगभग आठ सौ अरब रुपए से अधिक का है। एक अनुमान के अनुसार आगामी दशक में यह कारोबार दो हजार अरब डॉलर के आँकड़े को छू लेगा। स्वयं हमारे देश में ही इस समय बोतलबन्द पानी के दौ से ज्यादा ब्रांडों की उपस्थिति इसके प्रमाण के रूप में देखी जा सकती है।
दुनिया के इतिहास से गुजरने पर किसी भी समाज में पानी पर अधिकार की इस किस्म की कवायद का कोई उल्लेख मौजूद नहीं है। जल सार्वजनिक हित और सामुदायिक प्रबन्धन के पवित्र भाव से जीवन की संस्कृति में बहता रहा है। हमारे प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों, पुराणों आदि में भी जल को निजी सम्पत्ति मानने से परहेज रखा गया है। वहाँ भी उसे सार्वजनिक, लोकहितार्थ जीवन-घटक के साथ दैवी रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। खुद प्रकृति के नियम भी इसकी वैयक्तिक पक्षधरता के खिलाफ इसके सार्वजनिक रूप में उपयोग पर ही स्थिर हैं।
ऐसा जान पड़ता है कि बाजारू संस्कृति के पैरोकार यह भूल चुके हैं कि आम आदमी की आवश्यकता की पूर्ति में बाजार की दिलचस्पी कभी नहीं रही वरन उनकी दिलचस्पी इसमें अवश्य ही रही है कि उसके साम्राज्य का विस्तार और मुनाफे में बढ़ोत्तरी किस तरह हो सकती है। ऐसे में विख्यात पर्यावरणविद वन्दना शिवा का यह कहना न्यायसंगत है कि आज हम एक वैश्विक जल संकट का सामना कर रहे हैं, जो आगामी दशकों में और भी बदतर स्थिति में जाने का संकेत दे रहा है। जब यह संकट गहरा रहा है, तो पानी के अधिकार को पुनर्परिभाषित करने के प्रयास चल रहे हैं और उसे सार्वजनिक अधिकार से हटाया जा रहा है। जल धरती पर जीवन के लिये आवश्यक घटकों में सर्वोपरी है। नदी तटीय सभ्यता विकास का सिद्धान्त इसका सक्षी है। अतः इस प्राकृतिक तत्व पर हर जीवधारी का अधिकार है, किसी विशेष का नहीं। इस पर अधिकार की कवायद जरूर सनक का शिकार होते जा रहे मनुष्य की महान भूल है।
जल स्वयं अपनी प्राकृतिक अवस्था में विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त का अनुकरण करने वाला तत्व रहा है। हमारी संस्कृति में मौजूदा पारम्परिक जलस्रोत इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्षा का पानी जब आकाश से बूँदों के समूह में परिणत होकर धरती पर गिरता है, तो उस क्षण यह नहीं देखता कि मैं कैसे और किस पर गिर रहा हूँ बल्कि वह ऐसे और इस प्राकर गिरता है कि समाज का हर वर्ग बिना किसी भेदभाव के उसके अधिकतम उपयोग का अधिकारी हो सके। यानी जल का तंत्र समूची प्रकृति क तरह अपनी पूरी प्रक्रिया में जनतांत्रिक रवैया अपनाता है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते जब से मनुष्य उपभोक्ता रूप में तब्दील हुआ है समुदाय, संघ, समाज हाशिए पर आते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप हम एक ऐसे बिकाऊ समय में जीवन-यापन को मजबूर है जहाँ जीवन के घटकों तक को बेचकर मुनाफा कमाने की इच्छा सुरसा के मुँह की भाँति अपना विस्तार करती जा रही है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य की प्रवृत्ति केवल जल तत्व तक ही सीमित है। चन्द्रमा, मंगल पर भू-खण्ड बाँटे जाने की खबरों से पता चलता है कि आने वाले समय में मनुष्य किसी भी जीवन-घटक को अपने मुनाफे के लिये नहीं छोड़ेगा, चाहे वह पृथ्वी हो या आकाश अथवा जल।
वास्तव में इसके मूल में पर्यावरण के प्रति हमारी दृष्टि में आया बदलाव ही काम कर रहा है। जीवन के अन्य क्षेत्रों की भाँति पर्यावरण के प्रति भी हमने पाश्चात्य दृष्टि को अपनाया है। पाश्चात्य दर्शन के अनुसार प्रकृति एक लम्बे नाखूनों वाली डायन है। अतः उसके प्रति पाश्चात्य दृष्टि से शोषण और हिंसा का व्यवहार प्रमुखता से हो रहा है। लेकिन इस सम्बन्ध में हमारी भारतीय दृष्टि कहती है कि प्रकृति हमारी माँ है। इसलिये जीवन-घटक के रूप में मौजूदा प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा जीवन को प्रदत्त उपहार हैं। इनसे धरतीपुत्रों का जीवन फूला-फला है। हमें प्रकृति के दिये इन नायाब उपहारों की कद्र करते हुए इनके सन्तुलन को बरकरार रखना होगा।
हमें इस तथ्य को भी स्मृति में रखना होगा कि दोहन और शोषण में भेद है दोहन के लिये पोषण आवश्यक है। गाँधीजी ने गाय के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करते हुए बताया है कि जिस प्रकार एक गाय को उचित आहार दिया जाये तो वह बदले में हमें दूध देती है। लेकिन अगर उसके दूध का केवल दोहन ही दोहन किया जाये और उचित पोषण नहीं दिया जाये तो उसके अभाव में वह दूध के बजाय खून देना शुरू कर देती है। हमें भी प्रकृति के प्रति अपनी संवेदनात्मक दृष्टि में परिवर्तन लाते हुए पानी के विशेष संदर्भ में इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा अन्यथा प्रकृति के पास पानी का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
जल के विशेष सन्दर्भ में पारम्परिक संस्कृति की भाँति इसके प्रबन्धन और वितरण पर राज्य के बजाय समुदाय की भागीदारी को बढ़ाते हुए उसमें इसके प्रति जिम्मेदारी पैदा करनी होगी। अगर जल के निजीकरण की यह कवायद सफल होती है तो समाज में व्याप्त असन्तुलनों में एक और नई संज्ञा, ‘जल असन्तुलन’ शामिल हो जाएगा। इसका हश्र यह होगा कि समाज का एक वर्ग, जो पानी की बर्बादी करेगा तो भी चलेगा, लेकिन दूसरा उसके दैनिक उपयोग की उपलब्धता को भी तरसेगा। साथ ही सर्वाधिक प्रभावित होगा आम ग्रामीण भारतीय, जो पानी पर अपने प्राकृतिक अधिकार से वंचित हो जाएगा, क्योंकि फिर उसे जल के उपयोग हेतु किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की अनुमति लेनी होगी। इससे भी बुरा हाल तो तब होगा जब पानी पिलाना, प्याऊ खोलना आदि पुण्य के काम व्यापारिक कर्म में तब्दील हो जाएँगे।
और व्यापार का नियम है कि जो उपभोक्ता को अपने शिकंजे में जितना कस सकता है उसका मुनाफा उतना ही अधिक होगा। इसलिये फिर जगह-जगह प्याऊ खोलने या तालाब खुदवाने के बजाय लोग वाटर ट्रेडिंग सेंटर जैसी संस्थाओं का रूप साकार कर पुण्य के बजाय पण्य (दाम) कमाने की ओर उन्मुख होंगे। विश्व बैंक के उपाध्यक्ष इस्माइल सेरागोल्डिन तो वर्षों से कहते आ रहे हैं कि इसमे कोई सन्देह ही नहीं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिये लड़ा जाएगा। कई यूरोपीय देशों मसलन नामीबिया, सीरिया, इथोपिया, जार्डन, इजराइल आदि सहित खुद हमारे देश में पानी के बँटवारे के लिये राज्यों के बीच उपजे आपसी विवादों (उदाहरण के लिये कावेरी जल विवाद को ही लें) को भी इसके अन्तर्गत लक्षित किया जा सकता है।
लिहाजा जरूरी है कि पानी का भविष्य बाजार के बजाय मनुष्य के अपने हाथ में हो। इस हेतु गैर सरकारी संगठन प्रभावी भूमिका निभा कर जन-जन में जल के सौदागरों की साजिश का पर्दाफाश करें। समाज को जल असन्तुलन जैसी भयावह त्रासदी से बचाएँ अन्यथा निकट भविष्य में समाज मानवीय यातनागृह में तब्दील हो जाएगा।
यह आलेख जनसत्ता में छपा था। बाद में बिहार विधान परिषद की पत्रिका साक्ष्य 14 में भी संकलित किय गया। साक्ष्य 14 नदियों की आग अंक हिन्दी में प्रकाशित अब तक का सबसे बड़ा जल संचयन है।
जैन कवि उदयचन्द रचित बीकानेर गजल
नगर-वर्णनात्मक गजलों की परम्परा सत्रहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होती है। कवि जटमल नाहर की लाहोर गजल सर्वप्रथम ज्ञात रचना है इस परम्परा को विशेष रूप से जैन कवियों ने अपनाया तथा उन्नीसवीं शताब्दी तक पचासों ग्राम व नगरों की गजलों का उन्होंने सृजन किया। ऐसी रचनाओं का एक संग्रह स्व. मुनि कांतिसागर जी ने हिन्दी-पद्य संग्रह नामक ग्रंथ मे तथा कुछ फुटकर सामग्री फार्बस सभा के त्रैमासिक में प्रकाशित करवाई थी। हमने इससे भी पहले की ऐसी रचनाओं का एक संग्रह तैयार किया था तथा उस सामग्री का कुछ विवरण राजस्थान में हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों की खोज भाग -2 में प्रकाशित भी करवाया, पर खेद है कि काफी प्रयत्न करने पर भी वह सामग्री ग्रन्थाकार रूप में प्रकाशित न हो सकी।
वर्णनात्मक नगर-परिचय के साथ-साथ चित्रात्मक नगर-परिचय भी उपलब्ध होते हैं। ऐसे दो सचित्र विज्ञप्ति पत्र बीकानेर के बड़े उपासरे स्थित वृहद ज्ञान भण्डार में प्राप्त हैं, जिनका विवरण राजस्थान भारती से प्रकाशित कराया जा चुका है। इनमें से एक विज्ञप्ति पत्र तो एक सौ फुट से भी अधिक लम्बा है तथा उसमें बीकानेर नगर के अनेक मन्दिर, बाजार, रास्ते आदि चित्रों द्वारा प्रकट किये गए हैं। चित्रकला की दृष्टि से भी यह विज्ञप्ति लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार उदयपुर आदि नगरों के सचित्र विज्ञप्तिलेख भी उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ का विवरण हमने मरुभारती, शोध-पत्रिका आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया है।
प्रस्तुत बीकानेर गजल के रचयिता कवि उदयचन्द खतरगच्छ मथेन थे। जिनकी सबसे पहली रचना अनूप सिंगार सं. 1728 वि. आश्विन सुदि 11 की, दूसरी रचना संस्कृत भाषा में रचित पांडित्यदर्पण सं. 1734 वि. की तथा तीसरी रचना प्रस्तुत बीकानेर गजल सं. 1765 वि. की रची उपलब्ध है। गजल उनकी वृद्धावस्था की रचना है, अतः इसमें दिया गया महत्त्वपूर्ण स्थानों का विवरण अधिक विश्वसनीय है।
बीकानेर की एक और गजल जैन कवि लालचन्द ने सं. 1838 वि. जेठ सुदि 7 को बीकानेर में बनाई थी। इसकी 162 पद्यों की एक प्रति, जिसमें प्रारम्भिक 61 पद्य त्रुटित हैं, हमें मिली है, परन्तु जब तक इसकी पूर्ण प्रति उपलब्ध न हो जाये, इसका उपयोग सम्भव नहीं है।
बीकानेर नगर वर्णन से सम्बन्धित गजलों एवं विज्ञप्तिपत्रों के अतिरिक्त कुछ स्फुट सामग्री और भी मिलती है, जिसमें से एक संस्कृत भाषा का वर्णन, विज्ञप्ति-महालेख-संग्रह में प्रकाशित हुआ है तथा कुछ की मूल प्रतियाँ अ.सं. पु. बीकानेर में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार के कवि सुरतान रचित दो छप्पय छन्द हमें प्राप्त हुए है, जिन्हें नीचे दिया जा रहा है-
मुलक जिण नीपजै, मोठ बाजर अनमंधा।
मतीरा अर काकड़ी, सरस काचर सुगंधा।
ऊंडा पाणी पीवजै, आधण दे इधकेरा।
जठं कमला जुंग, बडा वितुंड वछेरा।
धजबंध कमंध हींदु धरम, अमल नहीं असुराणरो।
सुरताण कहे सहु को सुणो, बडौ देस बीकाणरो।।1।।
बीका कांधल विकट, वले नारायण वरदाई।
बीदावत वरीयांम, सत ध्रम लीयां सदाई।
भाटी ओपमा भड़ां, जिकै जुध भाज न जाणै।
सोनगरा सावंत, प्रसध समंद्रां परमाणै।
करणेल मात रीछा करो, हठो राज सुजाण रो।
सुरताण कहै सहु को सुणो, बडौ देस बीकाणरो।।2।।
बीकानेर नगर वर्णन सम्बन्धी सभी उपलब्ध सामग्री, जो संस्कृत, हिन्दी तथा राजस्थानी काव्यों, स्वतंत्र वर्णों एवं विज्ञप्तिलेखों आदि में प्राप्त है, उन सबका विधिवत संग्रह किया जाये तो बीकानेर के क्रमिक विकास और स्थानों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। उदाहरणार्थ प्रस्तुत गजल में राजा सुजानसिंह के समय में बीकानेर की स्थिति में प्रामाणिक एवं सुन्दर वर्णन को लिया जा सकता है। इसमें नगर के तत्कालीन मन्दिरों, बाजारों, तालाबों, व्यवसायों एवं रहन-सहन का भेदभाव रहित वर्णन उपलब्ध होता है, वह ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। इस गजल की रचना के बाद नगर में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है। गजल में केवल आठ जैन मन्दिरों का उल्लेख है, पर वर्तमान में उनकी संख्या तीस-पैंतीस के लगभग है।
बीकानेर जैन लेख संग्रह से सम्बन्धित सामग्री का संकलन करते समय हमें प्रस्तुत गजल की तीन हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई थीं। उन्हीं के आधार पर पाठ तैयार करके पाठकों के लाभार्थ यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।
बीकानेर गजल
सारद मन समरूँ सदा, प्रणमुं सदगुरु पाय।
महियल में महिमा निलो, सब जन कुं सुखदाय।।1।।
वसुधा मांहे बीकपुर, दिन दिन चढ़तै दाव।
सर्व लोक सुखिया वसै, राज करे हिन्दू राव।।2।।
पर दुख भंजन रिपु दलन, सकल शास्त्र विधि जाण।
अभिनव इद अनूप सुत, श्री महाराज सुजाण।।3।।
गजल
बाजार
देख्या शहर बीकानेर, कीने शहर सगले जेर।
जिनका खूब है बाजार, मिलते बहुत है नर-नार।।4
लांबी खूब है हट श्रेणि, मिलते लोक सौदा लेणि।
बैठे बहुत साहुकार, करते वणिज अरु व्यापार।।5।।
ताके बिच देखि खूब, मंढी महल है महबूब।
बैले वहत है निज बोझ, रुके ऊंठ आवे रोज।।6।।
हासल चूकता है तेथ 1, जालिम मर्द वैसे जेथ2।
चलते बोझ करते छाप, करते दरसणी कुं माफ।।7।।
चौहटे बिच सुन्दर चौक, गुदरी जुरत है बहु लोक।
सुन्दर सेठ बैसे3 आय, वैगे खूब अंग4 बणाय।।8।।
वसते वर्ण च्यारूँ लोक, चाहै लहत जो कछु थोक।
बैठा तहां5 है बज्जाज, सौदा करत है तज लाज।।9।।
बैठे कहां ही सर्राफ, दमरे परखते दिल साफ।
बैठे बहुत तंबोलीक, भरि भरि पान की चोलीक।।10।।
बैठे जुहरी जरदार, सोना कसत है सोनार।
लोहा काम करत लौहार, भांडे घड़त है कुंभार।।11।।
गांछे पावली ठंठार, गजधर बहुत मालाकार।
धोबी धोवै है वस्त्र, सारा त्यारा करते शस्त्र6 ।।12।।
छींपे बहुत है रंगरेज, मोची चूनगर है चेज।
कादद कूट पींजारेक, डबगर माल तूंणा रेक।।13।।
चूड़ीगर चूड़ियां घडै, जड़िये जड़ाव पने7 जड़ै।
बैठे कंदोई दुकान, मंडे बहुत पकवान।।14।।
पैडे जलेबी लाडूक, करता खूब है बालूक।
फड़िये खोलते वखार, मंडे धान के अंबार।।15।।
बैठे बहुत मणिहारीक, बस्तां लेइकै सारीक।
पटुए काम करते पाट, गूंथी खूब आणे घाट।।16।।
तेली अरु फलेली धणेक, सेके भड़भुंजा चिणेक।
कांसी घड़त है कंसारेक, चातुर खूब चीतारेक।।17।।
गाँधी वैद्य अरु दरखांण, नाई खूब चतुर सुजाण।
पवन छत्तीस (36) बहुत रहैक, निज काम कुँउमहैक।।18।।
आवास
देखे नगर के आवास, नीकी कोरणी है खास।
घर घर जालियां नै गोख, बैठे करत है तिहां जोख।।19।।
चित्रकारी
सुन्दर सोहते चित्रांम, कीने खूब उस्ता काम।
लछमन कुमार सीताराम, मड़े रूप है अभिराम।।20।।
लांबी पूंछ सु हनुमान, धरि है रामजी का ध्यान।
रावण रूप मन मोहैक, दस शिष बीस भुज सोहैक।।21।।
मंड्या खूब है महादेव, करते सर्व उनकी सेव।
सिर पर चलत है गंगाक, देख्या वभूत सुं नंगाक।।22।।
करहै बैल असवारीक, उमया संग बैसारीक।
परतिश देखियँ उन पास, रमते रंग सुंदर8 रास।।23।।
रमिहै रास मंडल खूब, पासै गापियां महबूब।
चावौ चौमुखो चुतुर्भुज्ज, ब्रह्मा पास करिहै कज्ज।।24।।
गणपति देव है गाजीक, मानै लोक है राजीक।
मंडे फिरंगी हबशीक, काले जाण स्याही घसीक।।25।।
मंडे फिरंगी हबशीक, काले लाल कबाण अरु तीर।
मुगलां मूरतां मंडीक, सिर पर खूब है पधड़ीक।।26।।
मैगल वाय ही विकराल, चीते हरिण मारै फाल।
भैंसे ऊंठ अरु घोड़ेक, उनके रूप है रूड़ेक।।27।।
जंबू रोज है9 सिसलाक, वनचर रूप है सिगलाक।
कोयल काबरी10 कौवाक, सुरपां11 सारसां सूवाक।।28।।
चिड़ीया चील नै चकोर, बुलबुल बाज तीतर मोर।
और है जिनावर बरणाव, मंडे बहुत है तिहां भाव।।29।।
घर घर मालिये चित्राम, देख्यां रहत है चित्त ठाम।
घर घर मालिया मैड़ीक, उनकी खूब है पैड़ीक।।30।।
घर घर चोकियां ओटेक, मंडे बहुत है मोटेक।
ऐसे नगर के हैं गेह, देख्यां ऊपजै बहु नेह।।31।।
जैन मन्दिर
आठू (8) जैन के प्रासाद, करते गगन सेती वाद।
देख्यां टलत है विषवाद, वाजै संख घंटा नाद।।32।।
झाझी झालरियां झणकार, धप मप मादला धौकार।
भांडाशाह का देराक, देव विमान सा12 गहराक।।33।।
ऊंचा देखता असमान, देख्यां होत है हैरान।
सुन्दर कलश अरु धज दंड, ऊंचा जाणकै ब्रह्मंड।।34।।
आछी कोरणी है जास, कारीगरे कीनि रास।
कोरे नृत्य के बहु भाव, जोतां दिवस ही वहि जाय।।35।।
पूजा करते हैं प्रहकाल, बूढ़ा ज्वान नीके बाळ।
चातुर चित्त ही की चूंप, करते आरती अरु धूप।।36।।
दुष्टी जिन सै कीये दूर, धोबौ ताहि के मुख धूर।
नावै देव के द्वाराक, उनका मुंह है13 काराक।।37।।
आठू देहरूं की सेव, भोजग करत है नित मेव।
लक्ष्मीनाथ का द्वाराक, लागै सबन कुं प्याराक।।38।।
आवै दरश कुं सब लोक, नीचे परै देवै धोक।
नमिये नीलकंठ रु मात, फुनिहै देहरे सुविख्यात।।39।।
देवल बड़ा हेम गिरंद, नमियै नेमनाथ जिणंद।
स्थल भगति सन्यासीक, जोगी बहुत मठवासीक।।40।।
थानक बुत गोगा पीर, महिमा खूब खेतल वीर।
चरचै तेल ने सिन्दर, वांटै सीरणी भरपूर।।41।।
बहु है पीर की दरगाह, मानै लोक मन धरि चाह।
केई मर्द है तिहां सिद्ध ताकी नगर में परसिद्धि।।42।।
आगे नाचण्यां का घाट, ताके बीच वहि14 है वाट।
वनिता खूब है वेश्याक, रंभा रूप है जैसाक15।।43।।
नीके लागते हैं नैण, बोलै मधुर मुख तै वैंण।
मुख भरि चाबती है पान, छैलां मारिहै16 भ्रू बाण।।44।।
अभी आय कै गृह वीर, ओढण जरी के है चीर।
बींदी खूब नीकी भाल, दांते मेख बीच है लाल।।45।।
नकवेसर नथ मोतीक, दर्प्पण लेय मुख जोतीक।
काने झिगमिकै कुंडलाक, हीये हार पहियभिलाक।।46।।
कट मेखल सोवन कड़ियाक, सेइ जड़ाव सूँ जड़ियाक।
मानू किन्नरी रंभा, देखै लोक सब ऊभाक।।47।।
पासे दरजियों के धाम, करते सीवणे का काम।
है तहां सलूणी वाड़ाक, सीतल मात अखाड़ाक।।48।।
रहते बहुत हैं ओसवाल, साचे जैन धर्म के पाल।
करि हैं देव गुरु की सेव, चरणाँ परत है नित मेव।।49।।
लिये बहुत लिखमी लाह, दियै दान मन उच्छाह।
घर में सदा है दै17 कार, पूरे पुत्र के परिवार।।50।।
देवल आदिनाथ उत्तंग, मानु गगन ऊड्यो चंग।
चावी बीच है चौहटाक, देव चिन्तामणि देहराक18।।51।।
परगट पास है चोसाल, हिल मिल पढ़त है बहुमाल।
आगे भैरवा भूपाल, नमते लोक है तत्काल।।52।।
देवल वासुपूज्य अरु वीर, सो तो जैन के हैं पीर।
देखी बहुत धर्मशाल, मुनिवर फेरत हैं जपमाल।।53।।
चौकी पास गोदा कीक, आछी कोरणी ताकीक।
जालिम जोर देखे जतीक, साचे जैन शुद्ध मतीक।।54।।
वाचै शास्त्र अरु19 सिद्धान्त, उनके भाव बहु हैं भांत।
देख्या महेश्वरां का वास, ऊंचा है महल उजास।।55।।
घरि घरि सोहती20 है नार, मानै कत ही की कार।
लखमी खूब लेते भोग, पापी पुण्य के संयोग।।56।।
ब्राह्मण तिहां21 किणव सैक, देख्यां चित अति उलसैक।
वांचै शास्त्र वेदपुराण, गुणियण बहुत गुण के जाण।।57।।
अहनिशि साचवै षट कर्म, करते आप अपणा कर्म22।
पंडित ज्योतिषी तहां रहैक, आगम निगम वात कहैक।।58।।
कहत हवतीक23 पुस्तक पर्ण, भणते तर्क अरु व्याकरण।
पासे तीन(3) है प्रासाद, देख्यां ऊपजै आह्लाद।।59।।
मूल नायक का देहराक, मदनमोहन सिर24 सेहराक।
मोटा देहरा महादेव, करिहै आय के सहु सेव।।60।।
देव जैन है महावीर, वैदों कराया गिरधीर।
थिर है और ही बहु थान, दिन दिन दीपते दीवाण।।61।।
मांटी मर्द है मूंछाल, फूठर सीह नै फूंदाल।
खांगी बांधि है सिरपाग, सूंघै अतर पहिरै वाग।।62।।
पटकै खूब लटकैदार, पहिरै सावट पैजार25।
केई मर्द अभिमानीक, केई गीत के गानीक।।63।।
केई खूब से है छैल, केई दरद्री से छैल।
केई चौपड़ खेलै सतरंज, नगर दिने वलि गंज।।64।।
केई सीह बकरी ख्याल, भरचर खेलते बहु बाळ।
केई रमत है जूवाक, हार्यां ताकते कूवाक।।65।।
केई पीवते हैं भंग, दारू पीय करते जंग।
केई मर्द है ख्यालीक, आँख्यां कैफ सू लालीक।।66।।
कहां ही पड़त है बाजीक, देख्यां लोक है राजीक।
कहां ही नाचते हैं पात्र, जोवण लोक मिलते जात्र।।67।।
कहां ही नाचते नटुवाक, पीछे करते हैं लटुवाक।
ऐसे नगर में बहु ख्याल, देखी लोक है खुशियाल।।68।।
नारी वर्णन
देखी नगर की नारीक, लागै सबन कुं प्यारीक।
सूरत सोहनी है खूब, माशूक माननी26 महबूब।।69।।
मानुं मृगा सिरसे नैन, बोलै चातुरी से वैन।
मेखां सोवनी है दंत, बिच में लाल ही ओपंत।।70।।
गोरी गात है मखतूल, पहिरै जरी के पटकूल।
झीणी ओढणी लोईक, रंगी खूब है सोइक।।71।।
नखशिखसीम गहिनै भरीक, मानूं घनविचं बिजरीक।
पग है झांझरी झणकार, वाजै घूघरी घमकार।।72।।
अंगुरी अजायब मुंदरीक, सोइ जराव सेती जरीक।
ओढ27 पास सालू लाल, चलि है हंस कैसी चाल।।73।।
ऐसी त्रिया पिउ के संग, नित नित करत है नव रंग।
अहनिश बैठके निज सेज, हसि हसि बात करते हेज।।74।।
कबही कंत सेती रैन, झगरा करत है भरि नैन।
कबही कंठ सेती मेल, कामिनी करत है बहु केल।।75।।
काचित मुख का मटकाक, ललना करत है लटकाक।
काचित रंग के रटकाक, खोजी करत है खटकाक।।76।।
काचित खरी रहै गृह द्वार, तजिकै कंत ही की कार।
काचित कूतेरी कुनार, मुहकम खावती है मार।।77।।
काचित वावती है वीण, काचित राग सूं लय लीन।
काचित भणत है गीताक, काचित करावै चीताक।।78।।
आपणी प्रिउ की दासीक, सीले जाणे सीतासीक।
सुन्दर आंजके अंखियांक, इकठा मिलत है सखियांक।।79।।
घूमर घालती है घेर, फुंदी रमत है बहु फेर।
कामी मर्द कीने जेर, परि है आय के सहु पैर।।80।।
हंसी करत है हांसीक, झखि भखि आपही जासीक।
ऐसी नगर की नारीक, छपले खूब सिणगारीक।।81।।
राज्य वर्णन
ऐसा नगर का वरणाव, पूरण पडिते न कहाव।
राजा सुजाणसिंह गाजीक, नौबत घुरत है ताजीक।।82।।
परहै दमामां की ठउर, इनसे दूर भागे चौर।
पातिसा खूब है महिरवान, देता बहुत है सनमान।।83।।
करता खूब है बगसीस, लेवै चाहिके निज शीस।
प्रजा देत है आशीस, जीवै लाख कोड़ि वरीस।।84।।
दाखां करणसा दानीक, रावण जैम अभिमानीक।
रूपै मदन का अवतार, बुद्धिबल भोज प(र)मार।।85।।
भुज बल भीम अर्जुण बाण, भलियल भाल तेजै भाण।
न्यायै रामचंद का राज, जुग-जुग जीवते महाराज।।86।।
श्री दीवाणजु के पास, बैठे पुरोहित उल्लास।
नाजर सचिव खूब खवाश, हाकिम हुकम करते रास।।87।।
चौकी देत है कोतवार, करता सबन कुं हुशियार।
सन्नध बद्ध सुभट सूरेक, प्रबल छल बल करै पूरेक।।88।।
बधते नूर है बीकाक, सुभटां सिर हरै टीकाक।
बांके मरद बीदावत, कमधज कांधले त्तरात।।89।।
भुजबली भीम है भाटीक, मददां सिरहरै मांटीक।
मांझी मरुधरा के मौड़, वावे सुभट है राठौड़।।90।।
दाढे मीर दौढीदार, रावे बहुत हैं चोपदार।
गज (हाथी) वर्णन
ठाढे द्वार हैं महाराज, अहनिश झूलते गजराज।।91।।
मैंगल मदसुं झरतेक, देची लोक थरहरतेक।
मदझर घूमते हाथीक, चलते हेमाचल साथीक।।92।।
सुन्दर फौज के सिणगार, सोभे राज के दरबार।
हय (घोड़ा) वर्णन
हयवर करत हैं हैखार, तेजी खूब है तोखार।।93।।
कच्ची कूदणा केकाण, साचा पवन वगी जाण।
बंके खग्ग खुरसाणीक, मनहर खूब मुलताणीक।।94।।
ऊंचे गात ऐराककीक, ताते बहुत हैं तुरकीक।
झूलां ऊपरै जरीकीक, सुन्दर शोभ है ताकीक।।95।।
धूने धाट खंधारीक, करते आप असवारीक।
नव नव चाल करते खुरीक, वर्णे लालपीळे तुरीक।।96।।
गढ़ वर्णन
आछी कोट की शोभाक, देखै लोक सब ऊभाक।
पक्के भुरज पक्का कोट, न लगे नाळ गोळां चोट।।97।।
खाई खूब है चौफेर, हूँसी लोक देखै हेर।
चावी खूब है च्यार पोळि, ओपै कांगरां की ओळि।।98।।
बीजी प्रोलि दौढीदार, बैठे सांखले सिरदार।
मैंगळ दोय महिमत्तक, ऊपर जैमळ पत्ताक।।99।।
नौबत घुरत है नीसाण, असबाब बहुत है असमान।
मांहे रावले आवास, मांहे देवता के वास।।100।।
ऊंचे फूल महल उलास, कारीगरे कीनी रास।
मोटी खूब कचमेड़ीक, देव विमान जैसी खड़ीक।।101।।
बैठे आप मिल दरबार, मिलते लोक लख हजार।
निरखै सहिर सू निजराक, लेवै सबन का मुजराक।।102।।
कूप-तड़ाग वर्णन
गाजी मर्द है गजशाह, प्रतिपै जंगळ पतिशाह।
बाड़ी बाग कूप विश्राम, देख्यां ऊपजै आराम।।103।।
आछा कोट का मंडाण, देखे लोक चतुर सुजाण।
बाहिर तलाब सूरसागर, जिसका खूब है आगर।।104।।
सिर पर धरि के गागर, नीर कुं भरत है नागर।
बड़ वक्ष सघन ओटा छांह, बैठे लोक मिल उच्छाह।।105।।
अनोपसागर है कूप, भरतै वाहणे मन चूप।
सुंदर कूप सेखावत, थान मन आगै भावत।।106।।
फतैपुरा उन ही पास, बसते लोक मन उल्लास।
आगे वास गडीवाण, अस्थल बड़ा है मंडाण।।107।।
छत्री खूब पासचंदसूर, चित्ता करत है चकचूर।
भरिया तलाब गोगाजीक, झूलै लोक होय राजीक।।108।।
देवल दोय है फुनि पास, अस्थल भगत कीना रास।
आगै तलावन लखीक, हिळमिळ नीर भरि है सखीक।।109।।
देखी नागणेची मात, उसका देहरा सुविख्यात।
पासै तलाब घड़सीसर, भरिया जाण के सरवर।।110।।
आसो पास है बाड़ीक, दरखत बोरङया झाड़ीक।
देख्या थंभ दादाजीक, गुणवंत है गुरु गाजीक।।111।।
हिलमिल होय लोक राजीक, बांटै सरणी ताजीक।
सरूपदेसर खूब दीठाक, पाणी खूब है मीठाक।।112।।
राजत कूप राजावत्त, भरणै नीर तिहां आवत्त।
आगै आचार्य का कूप, देवळ पास है असलूप।।113।।
देख्या थान धवलागिर, औरूं जोइयै सहु फिर।
निरख्या कूप नत्थूसर, पाणी जाता है अब भर।।114।।
पासे ठाकुरां का थांन, वाजा बाजते असमान।
आगे नीर का है कुंड, ऐसा कहां नहीं नवखंड।।115।।
जल भर जसवंतसर, पनघट जाती है सहु भर।
सुन्दर तलाब सीसोलाव, फुनि है पास हरसोलाव।।116।।
औरूं तलाब अरु कूवाक, फिर फिर जोइयै जूवाक।
ठावा अवर ही बहु ठाम, बसते आसे पासे गाम।।117।।
हुँसी लोक मन हरणैक, कहां लग जाय सब वरणेक।
धरती खूब है रेतीक, हाळी करत है खेतीक।।118।।
ककड़ी मतीरे मीठाक, ऐसा कहां ही न दीठाक।
फसलां खूब पूंख पळीक, खाते लोक मन रळीक।।119।।
वर्णन नगर भूमि अपार, कहतां आवता नहीं पार।
प्रतपौ जां लगै रविचंद, कहता जती उदयचंद।
सुनि कर देइजो साबाश, गजल खूब कानी रास।।121।।
झूलणा
संवत सतरै से पैसटै रे, मास चैत में पूरी गजल कीनी।
मात शारद कै सुपसाय सुरे, मुझे खूब करण की मति दीनी।।122।।
बीकानेर शहर अजब है रे, च्यार चक में ताकी प्रसिद्धि लिनी।
उदयचंद आणंद सु यूं कहै रे, भले चातुरक लोक कै चित्त भीनी।।123।।
चक च्यारे नव खंड में रे, प्रसिद्ध बधावो बीकानेर तांई।
छत्रपति सुजाणसाह युग जीवो, जाके राज में बाजै नौबत घाइ।।124।।
मन रंग सुं खूब बणाय कै रे, सुणाय कै लोक में स्याबास पाई।
कवि चंद आणंद सुं यूं कहै रे, गिगड़धूं गिगड़धूं गजल खूब गाई।।125।।
संदर्भ सूची
1. तेथ=तिहाँ, 2. जेथ=जगात रोज लेते तिहां, 3. बैसे=बैठे, 4. अंग=अंग, 5. तहां-कहाँ ही, 6. शस्त्र=सरानिया सकारते शस्त्र, 7. पने=कुन्दन, 8. सुन्दर=हरिरास, 9. जंबू रोज है=न, 10. काबरी=कावांरौ, 11. सुरपां-सुखां, 12. देव विमान सा=जैसा खड़ा, 13. मुंह है=करो, 14. वहि=है कुछ वाट, 15. जैसाक=कामी चित्त उवै खेश्याक, 16. छैलां पारिहै=सारिल्यै, 17. सदा दै दै= जै-जै 18. देहराक=चावा चौहटा देख्याक, 19. अरु=सूत्र, 20. सोहती-सोहती, 21. ब्राह्मण तिहां = व्यास तिहां बसैक, 22. कर्म-धर्म, 23. हवतीक = हकीक, 24. सिर = गिर, 25. पैजार = ईजार, 26. माननी = माँगनी, 27. ओढ = औढणे सवै। यह सामग्री प्रतिष्ठित पत्रिका वैचारिकी के अक्टूबर 1971 अंक से साभार ली गई है।
स्रोत सामग्री :
1. बीकानेर राज्य का इतिहास, भाग 1 व 2, लेखक गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, प्रकाशन, बीकानेर स्टेट, बीकानेर, प्रथम संस्करण, 1937
2. तवारीख राजश्री बीकानेर, लेखक मुंशी सोहनलाल, प्रथम संस्करण
3. Gazetteer The Bikaner State, Bikaner State Government, 1874 Captain P.W. Powllet
4. बीकानेर शिलालेख, लेखक राजेन्द्र व्यास चूरूवाला
5. ख्यात देस दर्पण, लेखक दयाल सिंह सिंढ़ायच, सम्पादक - गिरिजाशंकर शर्मा, सनतकुमार स्वामी, सत्यनारायण प्रकाशन, राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर, प्रथम संस्करण, 1998 ई.
6. एक्ट नंबर 4, सन 1927 ई. जंगलों का एक्ट, रियासत बीकानेर, 1927 ई. गवर्नमेंट प्रेस, बीकानेर में मुद्रित।
7. Medieval History of Rajasthan, Vol. 1, 1992 ई. लेखक राजवी अमरसिंह, प्रकाशन - राजवी अमरसिंह, एक्स डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज, जय भवन, रानी बाजार, बीकानेर
8. मारवाड़ी व्यापारी, लेखक डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा, प्रकाशन - कृष्ण जनसेवी एंड को ., बीकानेर 1998 ई.
9. Guru Nanak Pub., The Director, Publication Division, Patiala House, New Delhi, November, 1969 AD
10. आज भी खरे हैं तालाब, लेखक अनुपम मिश्र, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
11. बीकानेर गजल-कवि उदयचन्द मथेरण ‘परम्परा’ – राजस्थानी गजल संग्रह अंक, भाग 108-109, 1995 में प्रकाशित।
12. वृहद वास्तुमाला- पं. श्री रामनिहोर द्विवेदी, डॉ. ब्रह्मानन्द तिवारी
13. वास्तुरत्नाकर- विद्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी
14. विश्वकर्मा प्रकाश – पं. मिहिरचन्द्र कृत टीका।
अभिलेखीय सन्दर्भ
सावा बही खजानदेसर, नं 3, वि.सं. 1823, आषाढ़ बदी, 13
कमठाणा बही नं. 15, फोलियो 22 बी, वि.सं. 1855
सावा बही नं 7, वि.सं. 1885-89, बैशाख बदी, 13
सावा बही नं 7, वि.सं. 1902-1904
सावा बही सुजानगढ़, नं 7, वि.सं. 1932
कौन्सिल हुकम री बही नं. 8, वि.सं. 1932
बीकानेर अभिलेख-क्लासीफाइड लिस्ट
बण्डल नं. 40, प्राइवेट वैल्स एंड टैक्स, फाइल नं. 434, बंडल नं. 38.
कोलायत पैलेसेज एंड टेम्पल्स एंड लेक फाइल नं. 401
देवीकुण्डसागर सेनोटेप्स एंड कनेक्टेड सेन्टर्स, फाइल नं. 403, बंडल नं. 25
ग्रीन ट्रीज-कटिंग एंड प्लांटिंग, फाइल नं. 305/1,
जोड़बीड़, फाइल नं. 305/2
मसाबी (नक्शे-जात) शहर बीकानेर
मिसल बन्दोबस्त सन 1911, शहर बीकानेर बीकानेर पट्टा बहियाँ
परवाना बहियाँ
इतिहास के झरोखे से
इस अध्याय में नगर के प्रमुख तालाबों व तलाइयों की जानकारी है। बीकानेर नगर परिषद के क्षेत्र में आने वाले अधिकांश तालाबों के बारे में विस्तृत जानकारियाँ अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त काष्ठावशेषविद एवं पुरालेख अधिकारी श्री नृसिंहलाल किराड़ू से प्राप्त की गई हैं।
अध्याय में आये नगर के तालाबों के परिचयात्मक विवरण में श्री हेम शर्मा के राजस्थान पत्रिका में करीब 12 वर्ष पहले प्रकाशित स्तम्भ लेखों से भी मदद मिली है, जिनकी प्रतियाँ राजस्थान पत्रिका कार्यालय में सुरक्षित हैं।
भक्तोलाई, लालाणियों की तलाई, राधोलाई के बारे में जानकारी श्री गौरीशंकर व्यास ‘गौरीदादा’, हर्षों की ढलान से प्राप्त की गई है।
अखेराजपुरी तलाई, छोगे की तलाई का उल्लेख 88 वर्षीय श्री कन्हैयालाल सोनी के बताए वृत्तान्तों पर आधारित है, जो आर्यसमाजी ब्राह्मण सुनार हैं। वे सुनारों के मोहल्ले (गुवाड़) में केन्द्रीय कारागृह के सामने वाली गली में निवास करते हैं।
छींपोलाई (हम्मालों की बारी के बाहर) छींपोलाई (जस्सूसर गेट के बाहर), गरोलाई, भरोलाई के बारे में जानकारी श्री लच्छा महाराज व्यास, दम्माणी चौक से मिली।
सागर के दोनों तालाबों के बारे में विवरण प्रसिद्ध रंगकर्मी व सागर विकास के पर्याय श्री पी. सुन्दर के पास दस्तावेजों स भरी एक मोटी फाइल से प्राप्त हुआ है। इसके अलावा रामदत्त पुरोहित, श्री नन्दलाल पुरोहित के पास भी इससे सम्बन्धित सूचनाएँ अच्छी तादाद में उपलब्ध हैं। मिर्जामलजी की तलाई के बारे में जानकारी श्री शंकरलाल हर्ष (समाजसेवी) एवं श्री माणक हर्ष हर्षों का चौक से प्राप्त हुई. फूलनाथ सागर के बारे में जानकारी श्री कैलाश हर्ष, हर्षों का चौक से प्राप्त हुई।
अध्याय में आये धार्मिक तथ्यों की जानकारी पं. पूनमचन्द व्यास, साले की होली, डॉ. गोपालनारायण व्यास, रत्ताणी व्यासों का चौक (दोनों भागवताचार्य) से प्राप्त हुई।
जस्सोलाई सम्बन्धी जानकारी कीकाणी व्यासों की पंचायती के प्रन्यासी श्री नारायण व्यास, श्री जयन्तीनारायण व्यास व श्री गणेश व्यास से प्राप्त हुई है। इनके पास इस तलाई सम्बन्धी अभिलेखीय सन्दर्भों की एक बड़ी फाइल है। नींबू का मेला के बारे में जानकारी श्री गणेश व्यास से प्राप्त हुई।
इसके अलावा गबोलाई के बारे में सूचना श्री कृष्ण बिस्सा (बुद्धड़ महाराज), निवासी जस्सूसर गेट, गबोलाई के पास प्राप्तव्य है।
काशिए वाली तलाई, होण्डोलाई के बारे में विवरण गोपेश्वर बस्ती निवासी अभिलेखागार के सेवानिवृत्त कर्मचारी श्री माणकचन्द भादाणी (भादा महाराज) से प्राप्त जानकारी पर आधारित है।
सदे सेवग, सूरजनाथ तलाई गरोलाई एवं इस क्षेत्र में अन्यान्य कई तलाइयों के बारे में अभिलेखीय सन्दर्भ सहित जानकारी राजस्थान राज्य अभिलेखागार से सेवानिवृत्त शोध अध्येता श्री कृष्णचन्द्र शर्मा से उपलब्ध हुए साक्ष्यों के आधार पर है।
आगोर से आगार तक
इसमें आगोर से तालाब के आगार तक पानी आने के लिये उसके निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन है। इस अध्याय में आगोर सम्बन्धी जानकारियाँ श्री नृसिंहलाल किराडू़, श्री मोटूलाल हर्ष, श्री नत्थू महाराज व्यास (आगोर प्रहरी) आदि से प्राप्त हुई है।
श्री मोटूलाल हर्ष के पास आगोर सम्बन्धी सूक्ष्मातिसूक्ष्म तकनीकी जानकारियों का विपुल भण्डार है। तालाब में होने वाली उलटी चिणाई की जानकारी भी आपसे ही प्राप्त हुई है। बाद में जिसकी तस्दीक कारीगर श्री मोहनसिंह से भी की गई।
दो नीवों की पूजा सम्बन्धी विधान की जानकारी संसोलाव के पहाड़ीनाथा परिसर में दोपहर में नियमित आने वाले श्री झमनलाल किराडू से प्राप्त हुई है, जो सम्प्रति साले की होली के वासी हैं।
वास्तु प्रकरण सम्बन्धी सूचनाओं के बारे में जानकारी राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वास्तुविद श्री ब्रजमोहन दम्माणी, गोपीनाथ भवन से पहले, चूरों की कोटड़ी के पास से उपलब्ध ग्रन्थों एवं संवाद के आधार पर है।
सृष्टा के उपकरण -
इसमें तालाब-निर्माण में काम आने वाले औजारों का वृत्तान्त है, जो श्री मोटूलाल हर्ष व श्री मोहनसिंह के साथ हुई बातचीत पर आधारित है। श्री हर्ष को तालाब-निर्माण प्रक्रिया की अति सूक्ष्म जानकारी है। इसकी पुष्टि सुथारों की तलाई में निर्माण के समय कार्य करने वाले श्री किशोरजी सुथार ने की है। औजार श्री मोहनसिंह पुत्र स्व. श्री बद्रीसिंह के पास आज भी सुरक्षित हैं।
आकार का व्याकरण
तालाब के विभिन्न अंगों-प्रत्यंगों के नाम सुप्रसिद्ध पहलवान एवं तैराक श्री विष्णुदत्त छंगाणी (नू महाराज) ने बताए हैं, जिनसे उनका दैनन्दिन व्यावहारिक सम्बन्ध है।
अंगोलिये के बारे में श्री नृसिंहलाल किराड़ू ने जानकारी दी। देवीकुण्डसागर में शिवमन्दिर तक नाव पर सवार होकर जाने की बात पं. रामकिशन शर्मा (ज्योतषाचार्य) ने उद्घाटित की जो किसी जमाने में इस मन्दिर के पुजारी हुआ करते थे।
सरोवर के प्रहरी
इस अध्याय में आई जानकारियाँ भी श्री नृसिंहलाल किराड़ू, श्री शिवराज छंगाणी व श्री नत्थू महाराज व्यास से प्राप्त हुई हैं। आगोर में उगने वाली औषधियों एवं उनकी पहचान के बारे में श्री शिवराज छंगाणी से जानकारी प्राप्त हुई।
आगोर का उपयोग किसी भी अन्य काम के लिये वर्जित था। इसका उल्लेख विभिन्न तालाबों के पट्टों एवं अन्य अभिलेखीय सन्दर्भों में पाया जाता है। तालाब में सुरक्षा प्रहरी के रूप में नियुक्त ईसरलाट के बारे में श्री शिवराज छंगाणी ने जानकारी दी तथा श्री मंगलचन्द, श्री दाऊजी, श्री चंपालाल हर्ष हर्षोलाव में यह भूमिका निभाया करते थे, इसकी जानकारी श्री शंकरलाल हर्ष (समाजसेवी) और श्री माणक हर्ष ने दी।
कसाई समाज के द्वारा वसूल की जाने वाली लाग के बारे में श्री हेम शर्मा के स्तम्भ लेख के कॉलम से जानकारी मिली है।
सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी
तालाबों पर लगने वाले मेलों-मगरियों की सूची डॉ. श्रीलाल मोहता, श्री नृसिंहलाल किराड़ू, श्री शिवराज छंगाणी, श्री लच्छा महाराज सहित शहर के 70 पार के गणमान्य नागरिकों से हुए संवाद पर आधारित है। अन्य जानकारियाँ भी शहर के वयोवृद्ध लोगों के स्फुट अनुभवों एवं स्मृति में उद्भासित सूचनाओं के सार यानी निचोड़ का ही परिणाम हैं। उनके साथ घंटों हुई बातचीत से ये तथ्य जुटाए गए हैं।
जायज हैं जलाशय
तालाब नष्ट होने के कारणों सम्बन्धी तथ्यों के प्रकटन में श्री नृसिंहलाल किराड़ू, श्री मोटूलाल हर्ष सहित बुजुर्गों का अवदान रहा, जिनसे समय-समय पर इस बाबत संवाद हुए। इस सन्दर्भ में जल संरक्षण एवं संग्रहण सम्बन्धी वेबसाइट पर उपलब्ध ज्ञेय जानकारियाँ श्री जितेन्द्र छाजेड़ के श्रम विशेष एवं सहयोग से सुलभ हुई हैं।
जल और समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) |
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