ऊर्जा की लगातार बढ़ती जरूरतों और विलासिता के बीच अब अंतर करने का समय आ गया है। हमें अपने विलासितापूर्ण जरूरतों को कम करना होगा जिससे अपनी धरती के प्राकृतिक संसाधनों को बचाकर आने वाली संकट से उबारा जा सके। बिजली पर विलासिता को व्याख्यायित कर रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
मुम्बई के एक शीर्ष उद्यमी के घर का मासिक बिजली का बिल 74 लाख रुपये है। दिल्ली की कोठियों में चार व्यक्तियों के परिवार का मासिक बिजली का बिल 25,000 होना सामान्य बात हो गयी है। चार व्यक्तियों वाले परिवार में चार कारें हैं जो प्रतिदिन सैकड़ों लिटर पेट्र्रोल फूंकती हैं। इस प्रकार की ऊर्जा की बर्बादी को पोषित करना और प्रकृति का दोहन करना अनुचित होगा। गरीब को बिजली उपलब्ध कराने के नाम पर हम बिजली का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उत्पादित बिजली को उच्च वर्ग के ऐशो-आराम के लिए दे रहे हैं।
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र को हरी झंडी दे दी है। दिल्ली के नीति निर्माताओं की तरह उनका भी मानना है कि राज्य का आर्थिक विकास अधिकाधिक बिजली के उत्पादन के बिना सम्भव नहीं है। यह बात सीधे समझ में भी आती है परन्तु इसमें दो पेच हैं। एक यह कि बिजली के उत्पादन में वृद्धि से जन-कल्याण होना जरूरी नहीं है। दूसरा यह कि धरती की बिजली उत्पादन की क्षमता सीमित है। धरती का क्षमता से अधिक दोहन होने पर हमारा पर्यावरण क्षत-विक्षत हो जायेगा और हमारी सभ्यता उसी तरह ध्वस्त होने की ओर बढ़ सकती है जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता हो गयी थी। लगभग एक दशक पूर्व विश्व के प्रमुख देशों के सहयोग से वर्ल्ड कमीशन आन डैम्स की स्थापना की गयी थी। कमीशन ने डैम के प्रभाव के अनेक अध्ययन करवाये। एक अध्ययन बिजली की खपत तथा मानव विकास के संबंध का था।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आय की स्थिति के आधार पर मानव विकास सूचकांक बनाया गया है। अध्ययन में पाया गया कि बिजली की खपत शून्य से बढ़कर 1000 यूनिट प्रति व्यक्ति वर्ष हो जाने से मानव विकास सूचकांक 0.20 से बढ़कर 0.80 हो जाता है। परन्तु ऊर्जा की खपत 1000 यूनिट प्रति माह से बढ़कर 8,000 यूनिट प्रति माह हो जाने पर मानव विकास सूचकांक में बहुत ही मामूली वृद्धि होती है। सूचकांक 0.80 से बढ़कर 0.90 हो जाता है। तात्पर्य यह कि नीचे स्तर पर ऊर्जा की खपत का मानव विकास पर सार्थक प्रभाव पड़ता है परन्तु ऊपर के स्तर पर यह प्रभाव शून्यप्राय है, यह बात सहज ही समझ में आती है। घर में बिजली का पंखा हो जाये तो बच्चों की पढ़ाई आदि में सुविधा होती है और मानव विकास में भारी वृद्धि होती है। इसके बाद पंखे के स्थान पर एयरकंडीशनर का उपयोग किया जाये तो ऊर्जा की खपत में भारी वृद्धि होती है परन्तु बच्चे के शैक्षणिक स्तर में सकारात्मक प्रभाव पड़ना जरूरी नहीं है।
इससे सिद्ध होता है कि एक स्तर के बाद ऊर्जा की खपत में वृद्धि से मानव विकास पर सुप्रभाव नहीं पड़ता है। अत: उर्ज की खपत में अंधाधुंध वृद्धि से जन-कल्याण हासिल होना जरूरी नहीं है। विषय का दूसरा पक्ष पृथ्वी की क्षमता का है। पृथ्वी की ऊर्जा पैदा करने की शक्ति सीमित है। भारत में 120 करोड़ लोगों को पश्चिमी देशों की वर्तमान खपत के बराबर ऊर्जा उपलब्ध कराना असम्भव है। अत: हमें कम ऊर्जा से अधिक उत्पादन के रास्ते खोजने पड़ेंगे। हर देश के लिए जरूरी होता है कि अपने प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप उत्पादन करे। जैसे सऊदी अरब में गन्ने और अंगूर की फसल उगाना लाभप्रद नहीं है चूंकि वहां पानी की कमी है। सऊदी अरब तेल के निर्यात से विकास हासिल कर रहा है। इसी प्रकार भारत के लिए पश्चिम के ऊर्जा आधारित मॉडल को अपनाना उपयुक्त नहीं है।
यूं भी भारत के आर्थिक विकास में ऊर्जा की भूमिका गौण होती जा रही है। मुम्बई के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट रिसर्च के साजल घोष ने अध्ययन में पाया कि ऊर्जा की खपत तथा आर्थिक विकास में सम्बन्ध नहीं दिखायी देता है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि ‘आर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है। यह सम्बन्ध एक दिशा में चलता है और दूसरी दिशा में नहीं।’ उन्होंने कहा कि ऊर्जा संरक्षण के कदमों का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा यानी ऊर्जा की खपत कम होने पर भी आर्थिक विकास प्रभावित नहीं होगा। आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा का महत्व कम होने का कारण सेवा क्षेत्र का विस्तार है। भारत की आय में सेवा क्षेत्र का हिस्सा सन् 1971 में 32 फीसदी से बढ़कर 2006 में 54 फीसदी हो गया है। एक अध्ययन में बताया गया है कि इस 54 फीसदी आय को अर्जित करने में देश की केवल 8 फीसदी ऊर्जा लग रही है। सॉफ्टवेयर, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, सिनेमा आदि में ऊर्जा कम लगती है।
अत: ऊर्जा संकट से निबटने का सीधा उपाय है कि हम ऊर्जा सघन उद्योगों जैसे स्टील एवं एल्यूमिनियम तथा ऊर्जा सघन फसलों जैसे गन्ना एवं अंगूर को हतोत्साहित करें। सेवा क्षेत्र तथा रागी एवं कोदो जैसे मोटे अनाज को प्रोत्साहित करें तो कम ऊर्जा की खपत में उत्पादन अधिक किया जा सकता है। धरती में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। आज इनका अंधाधुंध दोहन कल भारी संकट में धकेलने वाला साबित होगा। अत: कोयले, तेल एवं यूरेनियम के दाम बढ़ाकर ऊर्जा की खपत पर अंकुश लगाना चाहिए ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए हम धरती को खोखला करके न छोड़ें।
संकट का तीसरा पहलू घरेलू खपत का है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2012 के बीच बिजली की घरेलू खपत में 7.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। इसके सामने सिंचाई, उद्योग तथा कमर्शियल के लिए बिजली की खपत में मात्र 2.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने की अनुमान है। अर्थ हुआ कि बिजली की जरूरत फ्रिज और एयर कंडीशनर चलाने के लिए ज्यादा और उत्पादन के लिए कम है। अत: यह तर्क नहीं टिकता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए बिजली का उत्पादन बढ़ाना निहायत जरूरी है। सच यह है कि बिजली की जरूरत मध्यम वर्ग की विलासितापूर्ण जीवनशैली के लिए अधिक है। मुम्बई के एक शीर्ष उद्यमी के घर का मासिक बिजली का बिल 74 लाख रुपये है। दिल्ली की कोठियों में चार व्यक्तियों के परिवार का मासिक बिजली का बिल 25,000 होना सामान्य बात हो गयी है। चार व्यक्तियों वाले परिवार में चार कारें हैं जो प्रतिदिन सैकड़ों लिटर पेट्र्रोल फूंकती हैं। इस प्रकार की ऊर्जा की बर्बादी को पोषित करना और प्रकृति का दोहन करना अनुचित होगा। गरीब को बिजली उपलब्ध कराने के नाम पर हम बिजली का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उत्पादित बिजली को उच्च वर्ग के ऐशो-आराम के लिए दे रहे हैं। मेरे गणित के अनुसार उत्पादित बिजली में से यदि मात्र दो प्रतिशत गरीब के लिए आरक्षित कर दिया जाये तो सभी घरों को बिजली आपूर्ति हो जायेगी।
सारांश है कि आर्थिक विकास के लिए हमें सेवा क्षेत्र का सहारा लेना चाहिए एवं ऊर्जा सघन उद्योगों को हतोत्साहित करना चाहिए। यह हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल होगा। घरेलू कोयले का दाम बढ़ाकर अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के समतुल्य कर देना चाहिए। साथ ही उत्पादित बिजली के दाम बढ़ा देने चाहिए ताकि उत्पादन कम्पनी को लाभ हो और खपत पर अंकुश स्थापित हो। बिजली की विलासितापूर्ण खपत पर नियंत्रण करने के लिए 100 यूनिट प्रति माह के आगे बिजली का दाम 10 रुपये प्रति यूनिट तथा 1000 यूनिट प्रति माह के आगे 20 रुपये प्रति यूनिट कर देना चाहिए। ऐसा करने पर आर्थिक विकास भी होगा और भावी पीढ़ियों का जीवन भी सुरक्षित होगा।
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