बिजली के लिये बढ़ती पानी की दानवी प्यास


सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, दुनिया के संपन्न और तकनीकी श्रेष्ठता वाले यूरोप और अमेरिका में भी हाल के वर्षों में पानी की कमी के चलते बिजलीघर बंद कर देने की नौबत आई है और वातावरण के बदलते तेवरों को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किया गया तो मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ता ही जाएगा। इन परिस्थितियों में बिजली उत्पादन के पारंपरिक साधनों पर निर्भरता कम करना और अक्षय ऊर्जा स्रोतों का अधिकाधिक दोहन ही टिकाऊ विकास का वैकल्पिक मार्ग सुझा सकता है।

इस वर्ष जरूरत से ज्यादा बिजली पैदा करने की हुँकार भरने वाले महाराष्ट्र (विशेष तौर पर मराठवाड़ा) में पहले कोयले की और अब पानी की कमी से अनेक बड़े बिजलीघर बंद करने पड़े हैं। यह कोई पहला मौका नहीं है जब सूखे की वजह से अंधेरे का सामना करना पड़ा हो। कुछ साल पहले भी देश के सबसे बड़े ताप बिजलीघरों में शुमार चंद्रपुर ताप बिजलीघर को इन्हीं स्थितियों में बंद करना पड़ा था। इन दिनों बीड जिले का 1130 मेगावाट क्षमता का पाडली ताप बिजलीघर सुर्खियों में है क्योंकि इसकी सभी छह इकाइयां इसलिये बंद कर देनी पड़ीं क्योंकि जिस खड़का बाँध से इसको शीतलन के लिये पानी मिलता था, वह लगभग सूख चुका है। दाभोल बिजलीघर गैस की कमी के कारण बंद पड़ा है। प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पड़ोसी राज्यों से अतिरिक्त पानी लेने जैसे वैकल्पिक उपाय कर पैसा चुकाने वाले उपभोक्ताओं को राहत देने का आश्वासन दिया है पर सरकारी आश्वासन आगामी गर्मी में सचमुच कितनी राहत दे पाएगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

प्रख्यात पत्रकार पी. सार्इंनाथ ने इस संकट का विश्लेषण करते हुए जिन कारकों की ओर उंगली उठाई है उनमें प्रदेश में गुलाब की खेती,वाटर पार्कों और गोल्फ कोर्सों का बढ़ता चलन प्रमुख है। गुलाब बहुत ज्यादा पानी की माँग करने वाला पौधा है- गेहूँ और धान की तुलना में करीब 20 गुना- 212 एकड़ इंच। महाराष्ट्र में तो गन्ने की फसल भी गेहूँ-धान की तुलना में चार गुना पानी सोखती है। खेती के पारंपरिक चक्र को त्याग कर नए उत्पादों (विदेशी बाजार को ध्यान में रखकर फूल को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन दिया जाता है) की ओर रुख करने की सरकारी नीतियाँ सिर्फ वर्तमान (करीब 100 करोड़ रुपये का फूलों का निर्यात) को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं पर इनके दीर्घकालिक सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभावों की तरफ से आँखें मूँद ली जाती हैं। महाराष्ट्र के इस जल संकट के देशव्यापी बन जाने की संभावना पूरी-पूरी है।

अभी कुछ महीनों पहले आईआईटी दिल्ली के विशेषज्ञों ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में प्रस्तावित तापबिजली परियोजनाओं का अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि पहले से ही भयंकर सूखे की मार झेल रहे विदर्भ में प्रस्तावित 55 हजार मेगावाट क्षमता के ताप बिजली उत्पादन के लिये 200 करोड़ घनमीटर पानी की दरकार होगी और यह हिस्सा जनता के पेयजल और सिंचाई के लिये उपलब्ध पानी में से कम होगा, यानी लगभग साढ़े तीन लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के लिये पानी नहीं मिलेगा। इसी रिपोर्ट में प्रस्तावित बिजलीघरों को पानी देने के कारण वर्धा नदी की भंडारण क्षमता के 40 फीसदी तक कम हो जाने का आकलन किया गया है।

जल संकट से जूझ रहे इन इलाकों में किसान एकता मंच सरीखे अनेक संगठन जीवनयापन और खेती की प्राथमिकता को किनारे कर (महाराष्ट्र सरकार ने जल वितरण नीतियों में फेर-बदल करके ऐसा किया भी) उद्योगों और बिजलीघरों को पानी देने का हर स्तर पर विरोध कर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्होंने इंडियाबुल्स और अडानी समूह के बिजलीघरों को पानी देने की सरकारी नीतियों को अदालतों में भी चुनौती दी है। जैसे-जैसे मौसम गर्मी की ओर कदम बढ़ाएगा, सामाजिक और औद्योगिक हितों के बीच टकराव और बढ़ने की उम्मीद है।

नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्न्मेंट ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि पुरानी टेक्नोलॉजी के चलते भारत के ताप बिजलीघरों में औसतन जितने पानी की खपत होती है, वह अमेरिकी बिजलीघरों की तुलना में 32 गुना ज्यादा है। द बुलेटिन ऑन एनर्जी एफिसिएंशी (2006) के अनुसार, भारत के ताप बिजलीघरों में एक यूनिट बिजली पैदा करने के लिये साढ़े तीन से आठ लीटर तक पानी की खपत होती है। केंद्रीय जल संसाधन विभाग ने अनुमान लगाया है कि 2010 से तुलना करें तो 2050 आते-आते ताप बिजलीघरों की पानी की माँग 30 गुना तक बढ़ जाएगी और यह मात्रा ताजे पानी की सालाना उपलब्धता का पाँचवाँ हिस्सा होगी। साथ ही, बढ़ते उद्योगीकरण, शहरीकरण, सिंचाई के लिये पानी की माँग तो बढ़ेगी ही। सोचने की बात यह है कि हर क्षेत्र में पानी की मांग बढ़ रही है पर प्रकृति में पानी की उपलब्धता निरंतर कम हो रही है।

वर्तमान स्थिति यह है कि देश की 60 फीसदी से ज्यादा ताप आधारित बिजली क्षमता उन इलाकों में स्थापित है, जहाँ पानी की खासी कमी है। अक्सर ऐसे इलाकों से जन आक्रोश की खबरें आती रहती हैं और स्थानीय लोग पीने और सिंचाई के लिये उपलब्ध कुदरती पानी के स्रोतों को बिजलीघरों और उद्योगों के हवाले कर देने की सरकारी नीति का पुरजोर विरोध करते हैं। नागपुर के पास अडानी बिजलीघर का विरोध हमारी स्मृति में अभी ताजा है। ओडीशा में प्रस्तावित ताप बिजलीघर के लिये महानदी के जल के उपयोग को लेकर विरोध इतना बढ़ा कि सरकार को बिजली उत्पादन के लिये समुद्र जल का उपयोग करने की शर्त लगानी पड़ी। हालाँकि समुद्री खारे जल को उपयोग लायक बनाने के लिये जो तकनीक प्रयोग में लाई जाती है उसमें बिजली की इतनी जरूरत होती है कि अनेक विशेषज्ञ बिजली बनाने के लिये समुद्री जल के प्रयोग को प्रतिगामी कदम मानते हैं।

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के हवाले से नेशनल जियोग्राफिक ने पिछले महीने खबर दी थी कि आगामी 25 सालों में दुनिया भर में ऊर्जा उत्पादन के लिये ताजा पानी की माँग में दोगुना इजाफा हो जाएगा। उच्च तकनीक का दंभ भरने वाले अमेरिका जैसे देश ऊर्जा उत्पादन के लिये अभी भी ताजे पानी के उपलब्ध भंडार का 40 फीसदी इस्तेमाल करते हैं।

दुनिया में अपनी साख बढ़ाने के लिये चीन जिस ढंग की छलांग लगा रहा है, उसमें उसके दावों को असली पटखनी ताप बिजली उत्पादन की उनकी कोशिशों को पानी की कमी से लगने वाला धक्का ही दे सकते हैं। हाल में एचएसबीसी बैंक की ‘नो वाटर, नो पावर’ रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन के बिजली उत्पादन के लक्ष्य और पानी की उपलब्धता के बीच गहरी खाई है। कोयले पर आधारित ताप बिजलीघर अधिकतर उन इलाकों में हैं, जहाँ पानी की भयंकर कमी है।

चीन के सिर्फ तीन जिलों की बात करें तो इनमें 74 फीसदी कोयला भंडार है पर पानी का भंडार सिर्फ 7 फीसदी है। उपर्युक्त रिपोर्ट कहती है कि जब तक ताप बिजलीघरों में पानी के उपयोग में क्रांतिकारी स्तर पर कमी करने वाली तकनीक उपयोग में नहीं लाई जाएगी तब तक अनेक प्रस्तावित बिजलीघर सिर्फ शोभा बढ़ाने वाले उद्यम बने रहेंगे।

इतना ही नहीं, ऐसी नीतियों को जारी रखने पर चीन को 2010 के सौ किलोमीटर से भी ज्यादा लंबे ऐतिहासिक पर कुख्यात ट्रैफिक जाम के लिये तैयार रहना चाहिए, जब कोयला ढोने वाले दस हजार से ज्यादा ट्रकों ने देशव्यापी आपदा पैदा कर दी थी। ग्रीनपीस द्वारा चीन में किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि मंगोलिया के सदियों से हरे-भरे रहने वाले मैदान पानी की कमी से तेजी से रेगिस्तान में बदलते जा रहे हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में स्थापित किए गए अपने परमाणु बिजलीघरों की दुनिया की सबसे बड़ी शृंखला से सस्ती बिजली पैदा करने वाले फ्रांस को सूखे और नदियों में पानी की कमी के चलते कई बार अनेक बिजलीघर बंद करने पड़े हैं। यहाँ के लगभग तीन चौथाई परमाणु बिजलीघर नदियों के किनारे बने हैं और उन्हीं के पानी पर निर्भर हैं। अनेक पड़ोसी देशों को बिजली निर्यात करने वाले फ्रांस के लिये इन बिजलीघरों को बंद करने का फैसला राजनय और वाणिज्य, दोनों दृष्टियों से प्रतिगामी था। अनेक विशेषज्ञ मौसम में आ रहे बदलाव के कारण नदियों के जल के बढ़ते तापमान से फुकुशिमा जैसी भयंकर दुर्घटना की संभावना की बात भी करने लगे हैं।

ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर पानी को लेकर राजनेताओं, सरकारी अधिकारियों और विशेषज्ञों की समझ में जिस तरह की तात्कालिकता और झोल विद्यमान रहता है, इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण बिहार में प्रस्तावित परमाणु बिजलीघर है। सालों से गंभीर बिजली संकट की मार झेलते बिहार के नवादा जिले के रजौली क्षेत्र में परमाणु बिजलीघर की बात थोड़े-थोड़े समय बाद उठती रही है। विशेषज्ञों ने इस क्षेत्र का दौरा करने के बाद पानी की पर्याप्त उपलब्धता न होने की बात कही। 700 मेगावाट क्षमता की चार इकाइयाँ लगाने के लिये 320 क्यूसेक पानी की दरकार होगी, जबकि सरकारी जल संसाधन विभाग के अनुसार निकट के बाँध में इससे बहुत कम पानी उपलब्ध है। परमाणु बिजली के लिये सरकारी जिद पर प्रस्तावित धनर्जय बाँध बना भी लिया जाए तब भी पानी पूरा नहीं पड़ेगा। अब भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के निदेशक पद पर बिहार निवासी विशेषज्ञ के आसीन होने पर यह जिद फिर से जोर मार रही है। नये-नये स्थल (कुर्सेला और पीरपैंती जैसे) चर्चा में आ रहे हैं और समझौते के स्वर में यह भी कहा जा रहा है कि पानी की ऐसी कमी है तो 700 मेगावाट की दो या फिर 450 मेगावाट की चार इकाइयाँ लगा दें। रजौली जैसे उदाहरण निकट भविष्य में पानी को लेकर मचने वाले घमासान की ओर इशारा करते हैं।

सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, दुनिया के संपन्न और तकनीकी श्रेष्ठता वाले यूरोप और अमेरिका में भी हाल के वर्षों में पानी की कमी के चलते बिजलीघर बंद कर देने की नौबत आई है और वातावरण के बदलते तेवरों को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं किया गया तो मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ता ही जाएगा। इन परिस्थितियों में बिजली उत्पादन के पारंपरिक साधनों पर निर्भरता कम करना और अक्षय ऊर्जा स्रोतों का अधिकाधिक दोहन ही टिकाऊ विकास का वैकल्पिक मार्ग सुझा सकता है। जहाँ तक वैकल्पिक स्रोतों से बिजली पैदा करने के लिये पानी की तुलनात्मक जरूरतों का सवाल है, पवन और सौर ऊर्जा उत्पादन में सबसे कम पानी की जरूरत पड़ती है। औसतन कोयले और परमाणु र्इंधन से बिजली उत्पादन के लिये पवन ऊर्जा की तुलना में क्रमश: 475 और 625 गुना पानी की जरूरत होती है। यदि आसन्न संकट के अंदर निहित संदेशों को सकारात्मक दृष्टि से देखें तो भविष्य स्पष्ट तौर पर वैकल्पिक ऊर्जा का ही है, जो विनाश के दर्शन का निषेध करता है।

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