बीजापुर के जिन्दा (बोलते) कुएँ

एक बावड़ी आमतौर पर चौकोर होती है और उनके प्रवेश द्वार पर एक मार्ग होता है जिसके बाएँ, दाएँ और सामने ठहरने के लिये विश्राम कक्ष होते हैं। छोटी बावड़ियों में न तो कोई रास्ता होता है और न ही कोई विश्राम कक्ष होता है, हालांकि कुछ में किनारे सीढ़ियाँ होती हैं। द्वार के समक्ष मुंडेर की दीवारें कसीदेकारी वाली मेहराबों से सजी होती हैं। इन सामान्य विशेषताओं के होते हुए भी हर बावड़ी दूसरे से अलग होती है और वास्तुशिल्प के लिहाज से महत्त्वपूर्ण होती है। आदिलशाही राजाओं के शासन में बीजापुर में बावड़ियाँ पानी की मुख्य स्रोत थीं। अपने विशिष्ट वास्तुशिल्प, आकर्षक नक्काशियों और भव्यता के साथ यह बावड़ियाँ तीन सदी पहले तक पानी से उफनाई रहती थीं। लेकिन विरासत वाली यह संरचनाएँ नष्ट हो गईं और प्रयोग में नहीं रहीं।

अपने कुशल प्रशासन और संगीत प्रेम के लिये मशहूर बीजापुर की आदिल शाही को बेहतरीन जल आपूर्ति के लिये जानी जाती थीं। यह जताने के पर्याप्त ऐतिहासिक सबूत हैं कि उनके पास जल संरक्षण का गहरा ज्ञान था। वास्तव में वे पानी को महज रोजमर्रा की जरूरत के लिहाज से नहीं देखते थे, बल्कि वे उसे जलक्रीड़ा की विलासी वस्तु के तौर पर भी रखते थे।

पानी बीजापुर के बाहर पहाड़ियों में इकट्ठा किया जाता और उसे सुरंगों के माध्यम से बावड़ियों को सप्लाई किया जाता था। इतिहासकारों ने यह पुष्ट किया है कि इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय और मोहम्मद आदिल शाह द्वितीय के समय में बीजापुर की आबादी इतनी सघन थी कि शहर में पानी का उपयोग जरूरत से दोगुना था।

बावड़ियाँ कुओं का दूसरा नाम है। यहाँ तमाम बावड़ियाँ हैं जिनके नाम इस प्रकार हैः-ताज बावड़ी, चाँद बावड़ी, इब्राहीमपुर बावड़ी, नागर बावड़ी, मास बावड़ी, अलीखान बावड़ी, लंगर बावड़ी, अजगर बावड़ी, दौलत कोठी बावड़ी, बसरी बावड़ी, संदल बावड़ी, मुखरी मस्जिद बावड़ी, सोनार बावड़ी, वगैरह। वास्तव में यह सूची बहुत लम्बी है। इनमें ताज बावड़ी और चाँद बावड़ी सबसे बड़ी हैं और अपनी अप्रतिम कला के कारण पर्यटकों को आकर्षित करती रही हैं।

जहाँ ताज बावड़ी अपने आकार और भव्यता के कारण पहले नम्बर पर है, चाँद बावड़ी और इब्राहीम बावड़ी क्रमशः दूसरे और तीसरे नम्बर पर आती हैं। शहर के लोग उन 30 बावड़ियों का अभी भी इस्तेमाल करते हैं जो आज भी अस्तित्व में हैं। आमतौर पर कुओं की जो मनमोहक तस्वीर बनती है वह एक गोल संरचना है और उसमें गोल सीढ़ियाँ बनी होती हैं। लेकिन एक सामान्य कुओं और एक बावड़ी की दुनिया अलग-अलग होती है। इनमें आवश्यक अन्तर उनके निर्माण के तरीके में होता है।

एक बावड़ी आमतौर पर चौकोर होती है और उनके प्रवेश द्वार पर एक मार्ग होता है जिसके बाएँ, दाएँ और सामने ठहरने के लिये विश्राम कक्ष होते हैं। छोटी बावड़ियों में न तो कोई रास्ता होता है और न ही कोई विश्राम कक्ष होता है, हालांकि कुछ में किनारे सीढ़ियाँ होती हैं। द्वार के समक्ष मुंडेर की दीवारें कसीदेकारी वाली मेहराबों से सजी होती हैं। इन सामान्य विशेषताओं के होते हुए भी हर बावड़ी दूसरे से अलग होती है और वास्तुशिल्प के लिहाज से महत्त्वपूर्ण होती है।

चाँद बावड़ी


अली आदिल शाह द्वारा अपनी रानी चाँद बीबी की याद में 1549 में बनाई गई चाँद बावड़ी बीजापुर शहर के शाहपुरा दरवाजे से 400 फुट दूरी पर है। यह पूरब से पश्चिम 144 फुट और उत्तर से दक्षिण 156 फुट लम्बाई में है। चौकोर बावड़ी में बनी पत्थर की सीढ़ियाँ नीचे की ओर छोटी होती जाती हैं और बड़े मेहराब का मुख्यद्वार बावड़ी की दीवार से सटा होता है। बड़ा मेहराब प्रवेश द्वार बनाता है और छोटे मेहराब बावड़ी की ओर झाँकते हैं। एक चार फुट का रास्ता बावड़ी की भीतरी दीवार के समान्तर चलता है। यह सम्भवतः ताज बावड़ी के लिये एक मॉडल भी था जिसे उसके बाद में बनाया गया।

ताज बावड़ी


आदिल शाह प्रथम के बाद सत्ता में आए आदिल शाह ने अपनी बीबी ताज सुल्ताना की याद में 1620 ईस्वी में ताज बावड़ी बनवाई। सभी बावड़ियों में सबसे बड़ी और सबसे भव्य समझी जाने वाली मक्का बावड़ी के पूर्व में (मौजूदा बस स्टैंड के पीछे) स्थित है और इसके प्रवेश द्वार का मेहराब 35 फुट ऊँचा है। यह बावड़ी 120 फुट लम्बी, 100 फुट चौड़ी और 53 फुट गहरी है।

प्रवेश द्वार के दोनों ओर अष्टकोणीय गुम्बद है और उसके सामने मुंडेर की दीवार है। विश्राम स्थलों के दोनों ओर से शुरू होनेवाली सीढ़ियाँ दीवार के सहारे जल की सतह तक जाती हैं। भीतरी दीवार के तीन ओर छह फुट चौड़ा रास्ता है और यात्रियों की सुविधा के लिये पूरब, पश्चिम और दक्षिण दिशाओं में विश्राम कक्ष बने हुए हैं। आप दीर्घाओं से पूरी बावड़ी को निहार सकते हैं और इन दीर्घाओं पर कुछ भावों के कसीदे कढ़े हुए हैं।

इब्राहीम बावड़ी


अपने आकार, सौन्दर्य और भव्यता के लिहाज से इब्राहीम बावड़ी तीसरे नम्बर पर आती है। इब्राहीमपुर रेलवे गेट के उस पार स्थित यह बावड़ी एक छोटे से परिसर के पीछे स्थित है और वहाँ देखकर ऐसा लगता नहीं कि इसके भीतर एक बड़ी संरचना छुपी हुई है। लगभग प्रवेश द्वार पर ही नीचे उतरने के लिये सीढ़ियाँ हैं और सीढ़ियाँ उतरने के साथ ही बीच से तीन फुट चौड़ा रास्ता शुरू होता है जो बाएँ और दाएँ बने हुए छोटे विश्राम स्थलों तक ले जाता है।

नगर निगम ने हाल में विश्राम स्थल के दाएँ तरफ एक पम्प सेट लगाया है और जिसके कारण प्रवेश प्रतिबन्धित हो गया है। पूरी बावड़ी को बाएँ तरफ से देखा जा सकता है और वह अपनी गहराई, खुलेपन सामने की मेहराब वाली दीवार के कारण एक खुशनुमा दृश्य उपस्थित करती है। यह वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है। इन उपर्युक्त बावड़ियों के अलावा अन्य बावड़ियाँ कब बनाई गईं और किसने बनवाया इसकी प्रामाणिक सूचना नहीं है।

आज की स्थिति


इन तीन बावड़ियों में चाँद बावड़ी पूरी तरह से सूख गई है और मलबे से भरी है। लोगों को मलबे डालने के स्थल के तौर पर इस्तेमाल हो रही है। दुर्भाग्य से यह अपना दम तोड़ चुकी है। ताज बावड़ी पर लोग अपने बर्तन और कपड़े धोते हैं और नतीजतन इसके पानी में काई जम गई है। पार्श्व के विश्राम स्थलों को जाने वाले दोनों मार्ग खुले में होने वाले शौच के कारण गन्दे हो चुके हैं।

हालांकि कुछ साल पहले नगर निगम ने इस बावड़ी को कचरा बाहर निकाल कर साफ किया था। लेकिन जनता की उदासीनता के कारण यह फिर गन्दी हो गई है। अगर आसपास के परिवेश और बीथिकाओं की सफाई करके और बर्तनों की सफाई वगैरह पर रोक लगाकर इस बावड़ी के रखरखाव का समुचित कदम उठाया जाए तो इसे पर्यटन के केन्द्र और जल स्रोत के तौर पर विकसित किया जा सकता है।

चाँद बावड़ी के पड़ोस में रहने वाले खाजी पटेल के अनुसार बावड़ी की खराब स्थिति इसलिये है कि हाल के दिनों में इसकी सफाई नहीं की गई है और इस प्रकार इसमें काई और पत्थर के फूल (लाइकेन) निकल आए हैं। चूँकि उसमें पानी नहीं है इसलिये लोग बावड़ी को कचरा फेंकने के स्थल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।

सन् 1815 में बीजापुर का दौरा करने वाले कैप्टन साइक ने उन सभी बावड़ियों का दस्तावेजीकरण किया जिन्हें उन्होंने देखा था। उनके अनुसार उस समय बीजापुर के भीतर सीढ़ी वाली 200 बावड़ियाँ और 300 कुएँ थे। यह स्थिति तब थी जब आदिलशाह के शासन को एक सदी बीत चुकी थी।पुरातात्विक सर्वेक्षण के लिये काम करने वाले और ताज बावड़ी के प्रभारी शंकर नायक कहते हैं कि नगर निगम ने सात-आठ साल पहले इसकी गाद निकाली थी। उनका कहना है कि लोग उसकी सीढ़ियों पर बैठते हैं और उसके पानी का प्रयोग बर्तन और कपड़ा साफ करने के लिये करते हैं इस तरह बावड़ी को प्रदूषित करते हैं। उनका मानना है कि जब तक इन स्मारकों के आसपास के लोग उनका एक विरासत स्थल के रूप में आदर नहीं करेंगे और यह नहीं मानेंगे कि एक स्वस्थ बावड़ी उनकी जल समस्या का समाधान कर सकती है , बावड़ी को पुनर्जीवित करने की सारी कवायद बेकार जाएगी।

छोटी बावड़ियाँ


तीन प्रमुख बावड़ियों के अलावा यहाँ तमाम छोटी और कम मशहूर बावड़ियाँ हैं। इनमें कुछ तो निजी अधिकार क्षेत्र में हैं। यह शहर के भीतर भी हैं और केन्द्र से थोड़ी दूरी पर शहर की परिधि पर भी हैं। लंगर बावड़ी और अजगर बावड़ी इब्राहीम रोजा के दाहिने ओर स्थित एक मैदान में हैं। हालांकि लंगर बावड़ी का आकर छोटा है लेकिन प्रवेश द्वार पर उसका मेहराब और पानी में जाने वाली सीढ़ियाँ आकर्षक है। अजगर बावड़ी निजी प्राधिकार में है और इन दोनों से बड़ी होने के बावजूद, उसका वास्तुशिल्प विशिष्ट नहीं है। हालांकि इन दोनों बावड़ियों में पानी अच्छी स्थिति में है और इसका इस्तेमाल पीने और खेती के काम में लाया जाता है।

इब्राहीम रोजा के रास्ते में स्थित अलीखान बावड़ी को लोग कूड़ेदान के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इसके बगल में मस्जिद है और अगर मस्जिद के अधिकारी इसको साफ करवाना चाहें तो यह वहाँ नमाज पढ़ने आने वालों के लिये उपयुक्त हो सकती है। अलीखान बावड़ी के बगल में एक बोरिंग है। रिक्शाचालक लतीफ, जिसने अपनी पूरी जिन्दगी यहीं बिताई, कहता है कि बावड़ी में पानी का स्तर गिरने के लिये बोरिंग जिम्मदार है।

बड़े कमान यानी बड़े मेहराब के दाएँ स्थित नागर बावड़ी का पानी पीने लायक है और इसका इस्तेमाल घरेलू उद्देश्य और पड़ोस के खेतों की सिंचाई के लिये हो सकता है।

जुम्मा मस्जिद के इलाके में आठ-से-दस बावड़ियाँ हैं। मस्जिद के बगल में स्थित बगदादी बावड़ी कचरे से भरी हुई है। डॉ. मुनीर भंगी के परिसर में स्थित झाँसा बावड़ी बहुत बड़ी है, उसमें पर्याप्त पानी है और सेवकों के अनुसार उसका पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता।

नलबन्दा बावड़ी और दौलत कोठी बावड़ी में एक बूँद पानी नहीं है और उनका इस्तेमाल कचरे की पेटी के तौर पर किया जाता है। जुम्मा मस्जिद के पीछे वाली बावड़ी का पानी काई वाला है और उस स्थल का इस्तेमाल मूत्रालय के रूप में किया जाता है। हालांकि पेटी बावड़ी की स्थिति भी वैसी ही है लेकिन नगर निगम ने पानी को पम्प से खींचने का इन्तजाम किया है और तालाब के बगल में पानी की सुविधाएँ प्रदान की हैं।

जुम्मा मस्जिद के अगल-बगल स्थित बावड़ियों में बरसी बावड़ी सबसे बड़ी है। इस इलाके में रहने वाली मेहरून्निसा कहती है कि गर्मियों के अलावा जब कि पानी नीचे जाता है, इसका प्रयोग पूरे साल होता है। इसके अलावा शहर के केन्द्र में बाजार में कई बावड़ियाँ हैं। इनमें सन्दल मस्जिद बावड़ी, मन्त्री बावड़ी और मुखरी मस्जिद बावड़ी का पानी काफी अच्छा है।

मुखरी मस्जिद बावड़ी के पीछे स्थित हनुमान मन्दिर में आने वाले भक्त बावड़ी के रास्ते में नारियल, फूल और पूजा के दूसरे सामान फेंकते हैं। इससे यह रास्ता गंदा हो गया है और इसकी सफाई की जरूरत है। बरिदा बावड़ी खाली है और इसी प्रकार इसके बगल में स्थित एसएस रोड बावड़ी भी। चूँकि बावड़ी के आसपास चार बोरिंग हैं इसलिये सम्भवतः जलस्तर नीचे चला गया है।

गोल गुम्बद के पीछे स्थित मास बावड़ी का मेहराब काफी बड़ा है। चूँकि यहाँ का पानी काफी अच्छा है इसलिये इसका इस्तेमाल गोल गुम्बद के बगीचे के लिये इस्तेमाल होता है। उधर स्टेशन रोड की हासिमपीर बावड़ी, रेमंड होम के भीतर की दो बावड़ियाँ मुबारक खान महल के पास स्थित मुबारक खान बावड़ी जलस्रोतों की एक और खराब तस्वीर पेश करती हैं।

संदल बावड़ी, मंटे बावड़ी और रमाबाई बावड़ी नया बाग इलाके के बस डिपो के पास स्थित हैं। इनमें पहली बावड़ी दूसरी चौकोर बावड़ी से मिलती है। इसके पानी में काई जमा हो गई है हालांकि इसका पानी अभी भी घरेलू इस्तेमाल में आता है। इस बावड़ी का भूजल गिर गया है और यहाँ भी मस्जिद के पास स्थित बोरवेल ही पानी का स्तर गिरने की वजह है। तीसरी बावड़ी बड़े गड्ढे की तरह से है जबकि तीसरे का पानी कपड़ा वगैरह धोने में इस्तेमाल होता है। यह सभी बावड़ियाँ चौकोर हैं और उनकी दीवारों पर मेहराब बने हैं।

मीनाक्षी चौक की सोनार बावड़ी और गुंडा बावड़ी गोल हैं। चूँकि कालिका मन्दिर का सारा उपयोग किया जाने वाला सामान गुंडा बावड़ी में ही फेंका जाता है इसलिये उसके पानी का स्तर दिखाई ही नहीं पड़ता।

वास्तुशिल्प के लिहाज से ताज बावड़ी, चाँद बावड़ी और इब्राहीमपुर बावड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। जबकि लंगर बावड़ी, अजगर बावड़ी, मुखरी मस्जिद बावड़ी, मास बावड़ी और इब्राहीमपुर बावड़ी आवासीय इलाकों से थोड़ी दूरी पर हैं और इनका पानी अच्छा है। इन बावड़ियों में जलीय जीवन और पौधे पाए जाते हैं और वे वास्तविक अर्थों में जीवित कुएँ हैं। भवनों से घिरे होने के बावजूद सोनार बावड़ी का पानी अच्छा है। बसरी बावड़ी बहुत गन्दे परिवेश में है लेकिन इसमें पर्याप्त पानी और जलीय जीवन है।

अलग किस्म के तालाब


बीजापुर में दूसरे किस्म के जो जलस्रोत आमतौर पर दिखाई देते हैं वह हैं तालाब। तालाब का अर्थ पोखर या झील से होता है जो कि बावड़ियों से अलग होता है।

आदिल शाही युग में बीजापुर शहर को पानी की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिये बेगम तालाब तकनीकी उत्कृष्टता का अच्छा उदाहरण है। बीजापुर से दो मील दक्षिण में स्थित यह तालाब 1651 में मोहम्मद आदिल शाह द्वारा अफजल खान की निगरानी में बनवाया गया था।

इसके निर्माण से पहले उनके दादा अली आदिलशाह प्रथम ने तोरावी जल आपूर्ति प्रणाली लागू की थी। जब इससे शहर की पानी की माँग पूरी नहीं हो सकी तो मोहम्मद आदिलशाह ने उपर्युक्त तालाब का निर्माण करवाया। उन्होंने इस तालाब के लिये पास के सारावाद और ख्वाजापीर धाराओं से पानी लाने का इन्तजाम किया।

तालाब के दाएँ बाजू की ओर पत्थर की छोटी खिड़की है जो कि भूमिगत कक्ष की झलक प्रस्तुत करती है, हालांकि इस समय वह मिट्टी से भरा हुआ है। मिट्टी के इस ढेर के नीचे 350 साल पुराने ऐतिहासिक तथ्य दबे हुए हैं। आदिलशाही के दौरान तालाब में इकट्ठा पानी भूमिगत कक्षों से मिट्टी के पाइपों द्वारा शहर को सप्लाई किया जाता था। जब यह पानी किले के इलाके में प्रवेश करता था तो इसे पानी की चौकोनी मीनारों में इकट्ठा किया जाता था जिन्हें गुंज कहा जाता था।

इन गुंजों को बनाने का मकसद यह था कि पाइपों की गाद और कचरा मीनारों की तलहटी में रहे और ऊपर का पानी साफ और प्रवाह के साथ बहे। जल की इन मीनारों की ऊँचाइयाँ 25 से 40 फुट के बीच अलग-अलग होती हैं। बागलकोट क्रास के पास पीडीजे स्कूल के दायरे में स्थित गुंज भूमिगत नहर से जुड़ा है। कुछ साल पहले मीनार से एक टोंटी जोड़ दी गई थी। चूँकि इस जल मीनार में अभी भी पानी आता है इससे साबित होता है कि भूमिगत नगर की हालत ठीक है।

लघु सिंचाई विभाग की देखरेख में रहने वाला बेगम तालाब गर्मियों में सूख जाता है। पूरी तरह भर जाने पर इसकी कुछ क्षमता 2.5 से 3.5 करोड़ क्यूसेक की है और इसका उफान 1657 क्यूसेक की है। गाद निकालने का काम सात साल पहले किया गया था। मुख्य अभियन्ता विजय हलकुडी का कहना है कि अगर इस काम को दोबारा करना है तो इसमें 1.5 से 5 करोड़ रुपए का खर्च आएगा।

यह खर्च इस बात पर निर्भर करेगा कि किस तरीके से गाद निकाली जाएगी। चूँकि तालाब शहर से दूर है इसलिये सीवेज का पानी उससे नहीं मिलता है। इसके अलावा बीजापुर में उद्योग न होने के कारण औद्योगिक अवशिष्ट का भी खतरा नहीं है। इसलिये इम्पोइया घास के जमने को छोड़ दिया जाए तो यह तालाब अच्छी स्थिति में है।

जल प्रदूषण की मुख्य वजह वे बर्तन और कपड़े हैं जो इन तालाबों के इर्द-गिर्द धोए जाते हैं। इसके साथ प्रदूषण की वजह इनमें विसर्जित की जाने वाली गणपति की मूर्तियाँ, नारियल और फूलमालाओं सहित पूजा की तमाम सामग्रियाँ हैं जिन्हें बावड़ियों में फेंका जाता है। बावड़ियों में गटर का पानी भी बह कर आ जाता है। जब बावड़ियाँ सूखी पड़ी होती हैं तो उनकी सफाई करने के बजाय उनका इस्तेमाल कूड़ेदान के तौर पर किया जाता है।

बदलता समय


हाल के वर्षों में पानी की स्थिति और जलस्तरों में तीव्र गिरावट देखी गई है। जहाँ स्थानीय लोगों द्वारा कुओं को बनाने वाले शासकों और परोपकारी लोगों के प्रति पर्याप्त प्रशंसा भाव है वहीं इन जलस्रोतों के संरक्षण और रखरखाव के लिये जिम्मेदार अधिकारियों में उस तरह के भाव की कमी है। दूसरी तरफ उन बावड़ियों का इस्तेमाल करने वाले लोगों में भी उदासीनता चौंकाने वाली है।

जल प्रदूषण की मुख्य वजह वे बर्तन और कपड़े हैं जो इन तालाबों के इर्द-गिर्द धोए जाते हैं। इसके साथ प्रदूषण की वजह इनमें विसर्जित की जाने वाली गणपति की मूर्तियाँ, नारियल और फूलमालाओं सहित पूजा की तमाम सामग्रियाँ हैं जिन्हें बावड़ियों में फेंका जाता है। बावड़ियों में गटर का पानी भी बह कर आ जाता है। जब बावड़ियाँ सूखी पड़ी होती हैं तो उनकी सफाई करने के बजाय उनका इस्तेमाल कूड़ेदान के तौर पर किया जाता है। इसके अलावा नगर निगम, पुरातत्त्व विभाग व पर्यटन विभाग की उपेक्षा के कारण कुँओं की दीवारों के पास अतिक्रमण और निर्माण हो गए हैं। ऐसे तमाम कारक इन पारम्परिक जलस्रोत प्रणाली के ताबूत में आखिरी कील साबित हो रहे हैं।

स्थानीय लोगों के अनुसार इन बावड़ियों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनमें गर्मियों में भी पर्याप्त पानी रहता है। जो बावड़ियों सदियों से समय की कसौटी पर खरी उतरती रही हैं वे पिछले 8-10 सालों में तबाह हो रही हैं। अधिकारियों और समुदायों की अनदेखी और लापरवाही के चलते यह गूँजने वाले जीवित कुएँ आज कूड़ेदान में बदल गए हैं। इन हालात को पलटने और बावड़ियों को फिर से जीवन देने के लिये गम्भीर प्रयास की जरूरत है।

सुमंगला कहानी लेखिका हैं और उन्होंने केमिस्ट्री में मास्टर डिग्री की है।

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