देश के कई हिस्सों से नदियों को निजी हाथों में बेचने की खबरें आ रही हैं। सरकार को मिनरल वाटर की देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सावधान रहकर नागरिकों के अधिकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए। यदि बिहार की सरकार नदी योजना तैयार करती है, तो यह राज्य के विकास का नया मानचित्र होगा, जो राज्य की जड़ता को दूर कर खुशहाली का रास्ता प्रशस्त करेगा। यह जल स्वराज की योजना होगी और बाढ़-सुखाड़ को रोकते हुए बिहार को विकसित राज्य की श्रेणी में स्थान दिलाने का अग्रदूत बनेगी। देश में पानी के संकट की गंभीरता का अहसास धीरे-धीरे बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री ने भी देश के लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। दो वजहों से भविष्य में पानी की उपलब्धता की चिंता जायज है। यद्यपि पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल का 70.8 प्रतिशत पर जल और मात्र 29.2 प्रतिशत स्थलीय है, यह एक भ्रम है कि धरती पर पानी की कोई समस्या नहीं है।
वास्तव में सम्पूर्ण जल-भंडार का सिर्फ 2.7 प्रतिशत ही स्वच्छ है। इसका भी 75 प्रतिशत बर्फ के रूप में है। बाकी का 22 प्रतिशत भू-गर्भ में है। महज 3 प्रतिशत ही इस्तेमाल के लायक है, जो नदियों, तालाबों, मिट्टी आदि की मार्फत धरती के जीवों को उपलब्ध है। भारत में दुनिया का सिर्फ 4 प्रतिशत जल है। यानी भारत का संपूर्ण जल-संसाधन 690 घन किलोमीटर सतह पर और 396 घन किलोमीटर भू-जल है। 2050 में भारत में पानी की जरूरत 1180 घन किलोमीटर होने की संभावना है।
जमीन के नीचे और सतह का पानी कम होता जा रहा है। शहर और गांव, हर जगह पेयजल का संकट है। देश के 5.8 लाख गांवों में से 1.4 लाख में पानी नहीं है। आने वाले दिनों में आबादी बढ़ने से अधिक अन्न की जरूरत होगी। चिंता का यही कारण है। दूसरा, जब से पानी को बाजार की बिकाऊ वस्तु बनाया गया, आम लोगों का पानी पर अधिकार समाप्त हो रहा है।
बोतल बंद पानी का व्यापार जोरों से बढ़ रहा है। दुनिया के स्तर पर बोतल के पानी का व्यापार 20 से 30 बिलियन डाॅलर प्रतिवर्ष तक का है। अनुमान है कि भारत में जल्द ही बोतल बंद पानी का बाजार 1000 करोड़ रुपये का हो जाएगा। एक ओर पानी का बढ़ता व्यापार और दूसरी ओर नदियों का प्रदूषित होते जाना समस्या की गंभीरता को दर्शाता है।
विशेषज्ञों का आकलन है कि इराक युद्ध 27 बिलियन डाॅलर प्रतिवर्ष के तेल के व्यापार पर कब्जे के लिए हो रहा था। आने वाले दिनों में इसी तरह पानी के लिए देशों के बीच युद्ध होंगे। भारत में पानी को लेकर संघर्ष कई राज्यों और विभिन्न इलाकों के बीच चल रहा है।
भारत सरकार ने पानी की समस्या से निपटने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना बनायी है। उच्चतम न्यायालय तथा राष्ट्रपति ने भी इस मुद्दे पर हस्तक्षेप किया है। इस योजना के मुताबिक 1000 किलोमीटर लम्बी नहरें और 200 बांध बनाये जायेंगे। योजना पर करीब 5,60,000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। इसमें 1,500 क्यूबिक मीटर पानी प्रति सेकेंड गंगा नदी से गोदावरी में भेजा जाएगा। ब्रह्मपुत्र नदी को भी गंगा से जोड़ने की योजना है।
इसे 2015 तक पूरा करने का कार्यक्रम है। सारे देश में इस पर बहस चल रही है। भारत सरकार ने एक टास्क फोर्स की स्थापना की है ताकि इस योजना को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके। दूसरी ओर बहुत-से लोग इस योजना को अव्यावहारिक बता रहे हैं, क्योंकि यह देश की जनता के हित में नहीं है। केएल राव द्वारा शुरू की गई उक्त योजना आज नाजुक मोड़ पर पहुंच रही है।
बिहार में भी इस महायोजना पर प्रतिक्रिया शुरू हो गयी है। राज्य सरकार इस महायोजना के विरोध में है। नदियों को जोड़ने की योजना बिहार के साथ षड्यंत्र बताया जा रहा है। तीन वजहों से यह सही भी लग रहा है। पहला, बिहार के पिछले अनुभव काफी कड़वे रहे हैं। गंगा नदी के पानी के बंटवारे में बिहार को कभी तरजीह नहीं दी गई।
फरक्का बराज के बनने से पहले लोगों ने आगाह किया था कि इसके निर्माण से बिहार के जल प्रवाह तथा यहां के मछुआरों को काफी नुकसान होगा। आशंका थी कि गंगा की खाई क्रमशः भरती जायेगी, बराज में पानी का प्रवाह धीमा पड़ेगा और बराज के गर्भ में गाद भरती जाएगी। यही हुआ भी। हजारों मछुआरों की रोजी-रोटी मारी गयी। लंबे अरसे तक गंगा मुक्ति आंदोलन चलता रहा, लेकिन सरकार ने एक न सुनी। आज बिहार बाढ़ और जल-जमाव की समस्या से जूझ रहा है।
यही नहीं, दूसरे मामलों में भी बिहार की अनदेखी की गयी है। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर किया गया खर्च भी लाभदायक साबित नहीं हुआ। कोसी योजना पर काफी खर्च किया गया, लेकिन बाढ़ की समस्या बनी हुई है। अनुमान है कि योजना काल में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख से बढ़कर 69 लाख हेक्टेयर हो गया है। यह राज्य सरकार की लापरवाही से हुआ। वर्तमान सरकार कोसी योजना के दुष्प्रभाव से भयभीत है।
दूसरा, बिहार सरकार की नाराजगी नदी योजना की गलत धारणाओं पर है। योजना देश की नदियों को जोड़ने की है या पटना के पास गंगा से नहर निकाल कर दक्षिण की ओर मोड़ा जाना है। योजना के मुताबिक पूरी वर्षा ऋतु में 1500 क्यूबिक मीटर पानी प्रति सेकेंड के हिसाब से नहरों के द्वारा कावेरी तक ले जाया जायेगा। यह पानी गंगा और ब्रह्मपुत्र दोनों का होगा, जो महानदी, गोदावरी, कृष्णा और पेन्नार होता हुआ कावेरी तक जाएगा।
बिहार सरकार का मानना है कि यह योजना न केवल अव्यावहारिक है बल्कि राज्य के लिए भारी हानिकारक है। विशेषज्ञों का आकलन है कि इन दोनों नदियों का अंतरराष्ट्रीय चरित्र है, जबकि दक्षिण की नदियों का राष्ट्रीय चरित्र होने के कारण उन पर भारत सरकार का नियंत्रण है।
पटना से जिस जल प्रवाह को हस्तांतरित करने की योजना है, वह व्यावहारिक नहीं है। हिमालय से निकली नदियों का पानी कम रहा है। साथ ही, पटना में गंगा के पानी का आधा नेपाल से आता है। नेपाल की अपनी योजनाएं हैं, जिसके तहत वह पानी का इस्तेमाल बढ़ाएगा। ऐसी हालत में पटना से पानी ले जाना बिहार के लिए भारी हानिकारक होगा। बिहार सरकार को इस बात का अहसास है। लोगों का विश्वास है कि ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर गंगा में पानी को नहीं बढ़ाया जा सकता है। और तीसरा, बिहार सरकार की नाराजगी है कि राज्य के बंटवारे के बाद केन्द्र सरकार ने बिहार के पुनर्निर्माण के लिए कोई पैकेज नहीं दिया है। बंटवारे के बाद जो स्थिति बनी है, उसमें बिहार की आर्थिक प्रगति सिर्फ खेती के विकास से ही संभव है, क्योंकि खनिज पदार्थों के क्षेत्र तथा वृहद उद्योगों के समूह यहां नहीं बचे हैं। खेती के लिए पानी की सख्त जरूरत है। अब बिहार को चुप रहने से काम नहीं चलेगा। बिहार को अपने उत्तरी भाग में प्रति वर्ष बाढ़ का भारी सामना करना पड़ता है, जबकि दक्षिणी इलाके में सूखा पड़ने लगा है। अतः यहां से पानी को दूसरे राज्यों में भेजना अन्याय है।
बिहार सरकार की चिंता जायज है। इसके बावजूद नदियों को जोड़ने की योजना का विरोध दो कारणों से उपयुक्त नहीं है। पहला, बिहार के पिछड़ेपन के लिए केन्द्र सरकार को दोषी ठहराना सही नहीं है। बिहार की सत्ता व्यवस्था ने, गैर कांग्रेसी सरकारों को छोड़कर, कभी भी केन्द्र सरकार से अपने अधिकारों के लिए टकराने की हिम्मत नहीं की।
साथ ही विकास के साधनों का समुचित उपयोग करने में भी राज्य सरकार सदा अक्षम रही है। दूसरा, नदियों को जोड़कर सारे देश के लिए एक योजना बनाना गलत नहीं है। यों तो इस योजना का कार्यान्वयन अभी तक के अनुभवों के लिहाज से विश्वसनीय नहीं लग रहा है। फिर भी, बिहार को इस योजना से ज्यादा फायदा उठाने का प्रयास करना चाहिए। पूरी योजना को बिहार के लिए एक साजिश बताना उपयुक्त नहीं है।
नए बिहार को अपनी ओर से एक जल उपयोग योजना तैयार करनी चाहिए। वास्तव में यही योजना बिहार के आर्थिक विकास की असली योजना हो सकती है, क्योंकि कृषि और कृषि आधारित औद्योगिक विकास के सिवा राज्य के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। जल योजना के अभाव में यहां की खेती पिछड़ी हुई है और पेयजल की समस्या गंभीर होती जा रही है। राज्य में उपलब्ध पानी का अनुमानतः 80 प्रतिशत का इस्तेमाल खेती के लिए होता है और शेष घरेलू तथा औद्योगिक कार्यों में लगता है।
बिहार साफ तौर से दो उप क्षेत्रों का राज्य है। गंगा के उत्तरी इलाके में पूरी तरह बाढ़ की चपेट में आते हैं। यहां प्रतिवर्ष जान-माल की भारी क्षति होती है। बाढ़ की विभीषिका से औसतन बिहार दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक प्रभावित होता है। भागलपुर, बांका और गोड्डा भी धीरे-धीरे बाढ़ के मानचित्र पर आ गए हैं।
कई लोगों का आकलन है कि बिहार में बाढ़ से निपटने के लिए तटबंधों का निर्माण तो किया गया, लेकिन पानी की निकासी के रास्ते को बनाना भूल गये। अब समय आ गया है कि बाढ़ की रोक-थाम के लिए न केवल तटबंधों का प्रबंध बल्कि बाढ़ को बर्दाश्त करने वाली फसल का भी विकल्प ढूंढना चाहिए।
बिहार का दूसरा इलाका गंगा नदी के दक्षिण का हिस्सा है, जहां सुखाड़ का प्रकोप तीव्र होता जा रहा है। गया, नवादा आदि इलाकों में पानी की कमी किसानों द्वारा महसूस की जा रही है। अतः बिहार को क्षेत्रीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना बनानी चाहिए और इसके लिए केन्द्र सरकार से वित्तीय साधनों का बंदोबस्त कराने के लिए दबाव डालना चाहिए।
गहराई से विचार करने पर राज्य की नदियों को जोड़ने की सार्थकता जितनी बिहार को है, उतनी दूसरे किसी राज्य को नहीं। गंगा के पानी को बढ़ाने की पुरानी योजना चर्चा में रही है। 70 के दशक में भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा और ब्रह्मपुत्र को नहर से जोड़कर गंगा के पानी को बढ़ाने की योजना सफल नहीं हो सकी थी, इसलिए बिहार को अपने राज्य में बहने वाली नदियों को जोड़कर एक राज्य स्तरीय ग्रिड बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
इसी के साथ राज्य सरकार को पानी के बढ़ते निजीकरण के बारे में भी सतर्क रहना चाहिए। पानी नागरिकों का मौलिक अधिकार है। देश के कई हिस्सों से नदियों को निजी हाथों में बेचने की खबरें आ रही हैं। सरकार को मिनरल वाटर की देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सावधान रहकर नागरिकों के अधिकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए।
यदि बिहार की सरकार नदी योजना तैयार करती है, तो यह राज्य के विकास का नया मानचित्र होगा, जो राज्य की जड़ता को दूर कर खुशहाली का रास्ता प्रशस्त करेगा। यह जल स्वराज की योजना होगी और बाढ़-सुखाड़ को रोकते हुए बिहार को विकसित राज्य की श्रेणी में स्थान दिलाने का अग्रदूत बनेगी।
वास्तव में सम्पूर्ण जल-भंडार का सिर्फ 2.7 प्रतिशत ही स्वच्छ है। इसका भी 75 प्रतिशत बर्फ के रूप में है। बाकी का 22 प्रतिशत भू-गर्भ में है। महज 3 प्रतिशत ही इस्तेमाल के लायक है, जो नदियों, तालाबों, मिट्टी आदि की मार्फत धरती के जीवों को उपलब्ध है। भारत में दुनिया का सिर्फ 4 प्रतिशत जल है। यानी भारत का संपूर्ण जल-संसाधन 690 घन किलोमीटर सतह पर और 396 घन किलोमीटर भू-जल है। 2050 में भारत में पानी की जरूरत 1180 घन किलोमीटर होने की संभावना है।
जमीन के नीचे और सतह का पानी कम होता जा रहा है। शहर और गांव, हर जगह पेयजल का संकट है। देश के 5.8 लाख गांवों में से 1.4 लाख में पानी नहीं है। आने वाले दिनों में आबादी बढ़ने से अधिक अन्न की जरूरत होगी। चिंता का यही कारण है। दूसरा, जब से पानी को बाजार की बिकाऊ वस्तु बनाया गया, आम लोगों का पानी पर अधिकार समाप्त हो रहा है।
बोतल बंद पानी का व्यापार जोरों से बढ़ रहा है। दुनिया के स्तर पर बोतल के पानी का व्यापार 20 से 30 बिलियन डाॅलर प्रतिवर्ष तक का है। अनुमान है कि भारत में जल्द ही बोतल बंद पानी का बाजार 1000 करोड़ रुपये का हो जाएगा। एक ओर पानी का बढ़ता व्यापार और दूसरी ओर नदियों का प्रदूषित होते जाना समस्या की गंभीरता को दर्शाता है।
विशेषज्ञों का आकलन है कि इराक युद्ध 27 बिलियन डाॅलर प्रतिवर्ष के तेल के व्यापार पर कब्जे के लिए हो रहा था। आने वाले दिनों में इसी तरह पानी के लिए देशों के बीच युद्ध होंगे। भारत में पानी को लेकर संघर्ष कई राज्यों और विभिन्न इलाकों के बीच चल रहा है।
भारत सरकार ने पानी की समस्या से निपटने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना बनायी है। उच्चतम न्यायालय तथा राष्ट्रपति ने भी इस मुद्दे पर हस्तक्षेप किया है। इस योजना के मुताबिक 1000 किलोमीटर लम्बी नहरें और 200 बांध बनाये जायेंगे। योजना पर करीब 5,60,000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। इसमें 1,500 क्यूबिक मीटर पानी प्रति सेकेंड गंगा नदी से गोदावरी में भेजा जाएगा। ब्रह्मपुत्र नदी को भी गंगा से जोड़ने की योजना है।
इसे 2015 तक पूरा करने का कार्यक्रम है। सारे देश में इस पर बहस चल रही है। भारत सरकार ने एक टास्क फोर्स की स्थापना की है ताकि इस योजना को तेजी से आगे बढ़ाया जा सके। दूसरी ओर बहुत-से लोग इस योजना को अव्यावहारिक बता रहे हैं, क्योंकि यह देश की जनता के हित में नहीं है। केएल राव द्वारा शुरू की गई उक्त योजना आज नाजुक मोड़ पर पहुंच रही है।
बिहार में भी इस महायोजना पर प्रतिक्रिया शुरू हो गयी है। राज्य सरकार इस महायोजना के विरोध में है। नदियों को जोड़ने की योजना बिहार के साथ षड्यंत्र बताया जा रहा है। तीन वजहों से यह सही भी लग रहा है। पहला, बिहार के पिछले अनुभव काफी कड़वे रहे हैं। गंगा नदी के पानी के बंटवारे में बिहार को कभी तरजीह नहीं दी गई।
फरक्का बराज के बनने से पहले लोगों ने आगाह किया था कि इसके निर्माण से बिहार के जल प्रवाह तथा यहां के मछुआरों को काफी नुकसान होगा। आशंका थी कि गंगा की खाई क्रमशः भरती जायेगी, बराज में पानी का प्रवाह धीमा पड़ेगा और बराज के गर्भ में गाद भरती जाएगी। यही हुआ भी। हजारों मछुआरों की रोजी-रोटी मारी गयी। लंबे अरसे तक गंगा मुक्ति आंदोलन चलता रहा, लेकिन सरकार ने एक न सुनी। आज बिहार बाढ़ और जल-जमाव की समस्या से जूझ रहा है।
यही नहीं, दूसरे मामलों में भी बिहार की अनदेखी की गयी है। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर किया गया खर्च भी लाभदायक साबित नहीं हुआ। कोसी योजना पर काफी खर्च किया गया, लेकिन बाढ़ की समस्या बनी हुई है। अनुमान है कि योजना काल में बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख से बढ़कर 69 लाख हेक्टेयर हो गया है। यह राज्य सरकार की लापरवाही से हुआ। वर्तमान सरकार कोसी योजना के दुष्प्रभाव से भयभीत है।
दूसरा, बिहार सरकार की नाराजगी नदी योजना की गलत धारणाओं पर है। योजना देश की नदियों को जोड़ने की है या पटना के पास गंगा से नहर निकाल कर दक्षिण की ओर मोड़ा जाना है। योजना के मुताबिक पूरी वर्षा ऋतु में 1500 क्यूबिक मीटर पानी प्रति सेकेंड के हिसाब से नहरों के द्वारा कावेरी तक ले जाया जायेगा। यह पानी गंगा और ब्रह्मपुत्र दोनों का होगा, जो महानदी, गोदावरी, कृष्णा और पेन्नार होता हुआ कावेरी तक जाएगा।
बिहार सरकार का मानना है कि यह योजना न केवल अव्यावहारिक है बल्कि राज्य के लिए भारी हानिकारक है। विशेषज्ञों का आकलन है कि इन दोनों नदियों का अंतरराष्ट्रीय चरित्र है, जबकि दक्षिण की नदियों का राष्ट्रीय चरित्र होने के कारण उन पर भारत सरकार का नियंत्रण है।
पटना से जिस जल प्रवाह को हस्तांतरित करने की योजना है, वह व्यावहारिक नहीं है। हिमालय से निकली नदियों का पानी कम रहा है। साथ ही, पटना में गंगा के पानी का आधा नेपाल से आता है। नेपाल की अपनी योजनाएं हैं, जिसके तहत वह पानी का इस्तेमाल बढ़ाएगा। ऐसी हालत में पटना से पानी ले जाना बिहार के लिए भारी हानिकारक होगा। बिहार सरकार को इस बात का अहसास है। लोगों का विश्वास है कि ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर गंगा में पानी को नहीं बढ़ाया जा सकता है। और तीसरा, बिहार सरकार की नाराजगी है कि राज्य के बंटवारे के बाद केन्द्र सरकार ने बिहार के पुनर्निर्माण के लिए कोई पैकेज नहीं दिया है। बंटवारे के बाद जो स्थिति बनी है, उसमें बिहार की आर्थिक प्रगति सिर्फ खेती के विकास से ही संभव है, क्योंकि खनिज पदार्थों के क्षेत्र तथा वृहद उद्योगों के समूह यहां नहीं बचे हैं। खेती के लिए पानी की सख्त जरूरत है। अब बिहार को चुप रहने से काम नहीं चलेगा। बिहार को अपने उत्तरी भाग में प्रति वर्ष बाढ़ का भारी सामना करना पड़ता है, जबकि दक्षिणी इलाके में सूखा पड़ने लगा है। अतः यहां से पानी को दूसरे राज्यों में भेजना अन्याय है।
बिहार सरकार की चिंता जायज है। इसके बावजूद नदियों को जोड़ने की योजना का विरोध दो कारणों से उपयुक्त नहीं है। पहला, बिहार के पिछड़ेपन के लिए केन्द्र सरकार को दोषी ठहराना सही नहीं है। बिहार की सत्ता व्यवस्था ने, गैर कांग्रेसी सरकारों को छोड़कर, कभी भी केन्द्र सरकार से अपने अधिकारों के लिए टकराने की हिम्मत नहीं की।
साथ ही विकास के साधनों का समुचित उपयोग करने में भी राज्य सरकार सदा अक्षम रही है। दूसरा, नदियों को जोड़कर सारे देश के लिए एक योजना बनाना गलत नहीं है। यों तो इस योजना का कार्यान्वयन अभी तक के अनुभवों के लिहाज से विश्वसनीय नहीं लग रहा है। फिर भी, बिहार को इस योजना से ज्यादा फायदा उठाने का प्रयास करना चाहिए। पूरी योजना को बिहार के लिए एक साजिश बताना उपयुक्त नहीं है।
नए बिहार को अपनी ओर से एक जल उपयोग योजना तैयार करनी चाहिए। वास्तव में यही योजना बिहार के आर्थिक विकास की असली योजना हो सकती है, क्योंकि कृषि और कृषि आधारित औद्योगिक विकास के सिवा राज्य के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। जल योजना के अभाव में यहां की खेती पिछड़ी हुई है और पेयजल की समस्या गंभीर होती जा रही है। राज्य में उपलब्ध पानी का अनुमानतः 80 प्रतिशत का इस्तेमाल खेती के लिए होता है और शेष घरेलू तथा औद्योगिक कार्यों में लगता है।
बिहार साफ तौर से दो उप क्षेत्रों का राज्य है। गंगा के उत्तरी इलाके में पूरी तरह बाढ़ की चपेट में आते हैं। यहां प्रतिवर्ष जान-माल की भारी क्षति होती है। बाढ़ की विभीषिका से औसतन बिहार दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक प्रभावित होता है। भागलपुर, बांका और गोड्डा भी धीरे-धीरे बाढ़ के मानचित्र पर आ गए हैं।
कई लोगों का आकलन है कि बिहार में बाढ़ से निपटने के लिए तटबंधों का निर्माण तो किया गया, लेकिन पानी की निकासी के रास्ते को बनाना भूल गये। अब समय आ गया है कि बाढ़ की रोक-थाम के लिए न केवल तटबंधों का प्रबंध बल्कि बाढ़ को बर्दाश्त करने वाली फसल का भी विकल्प ढूंढना चाहिए।
बिहार का दूसरा इलाका गंगा नदी के दक्षिण का हिस्सा है, जहां सुखाड़ का प्रकोप तीव्र होता जा रहा है। गया, नवादा आदि इलाकों में पानी की कमी किसानों द्वारा महसूस की जा रही है। अतः बिहार को क्षेत्रीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना बनानी चाहिए और इसके लिए केन्द्र सरकार से वित्तीय साधनों का बंदोबस्त कराने के लिए दबाव डालना चाहिए।
गहराई से विचार करने पर राज्य की नदियों को जोड़ने की सार्थकता जितनी बिहार को है, उतनी दूसरे किसी राज्य को नहीं। गंगा के पानी को बढ़ाने की पुरानी योजना चर्चा में रही है। 70 के दशक में भारत और बांग्लादेश के बीच गंगा और ब्रह्मपुत्र को नहर से जोड़कर गंगा के पानी को बढ़ाने की योजना सफल नहीं हो सकी थी, इसलिए बिहार को अपने राज्य में बहने वाली नदियों को जोड़कर एक राज्य स्तरीय ग्रिड बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
इसी के साथ राज्य सरकार को पानी के बढ़ते निजीकरण के बारे में भी सतर्क रहना चाहिए। पानी नागरिकों का मौलिक अधिकार है। देश के कई हिस्सों से नदियों को निजी हाथों में बेचने की खबरें आ रही हैं। सरकार को मिनरल वाटर की देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सावधान रहकर नागरिकों के अधिकार की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए।
यदि बिहार की सरकार नदी योजना तैयार करती है, तो यह राज्य के विकास का नया मानचित्र होगा, जो राज्य की जड़ता को दूर कर खुशहाली का रास्ता प्रशस्त करेगा। यह जल स्वराज की योजना होगी और बाढ़-सुखाड़ को रोकते हुए बिहार को विकसित राज्य की श्रेणी में स्थान दिलाने का अग्रदूत बनेगी।
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Post By: Shivendra