झील में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मियों में तो यह बिल्कुल सूख जाती है। इसका कारण है, पर्याप्त पानी झील में इकट्ठा न होना। पहले बरसाती पानी बहकर नालों के जरिए झील में गिरता था, परन्तु अब इन नालों में गाद भर जाने से पानी झील तक नहीं पहुँच पाता है। बाढ़ में आसपास की मिट्टी झील में आने से भी इसकी गहराई कम हो रही है। समय रहते यदि झील को बचाने के लिये प्रयास नहीं किये गए तो आने वाली पीढ़ियाँ इस झील का केवल नाम ही सुन पाएँगी।
बिहार के बेगुसराय में कावर झील एशिया की सबसे बड़ी शुद्ध जल (वेटलैंड एरिया) की झील है। इसके साथ यह बर्ड सेंचुरी भी है। इस झील को पक्षी विहार का दर्जा 1987 में बिहार सरकार ने दिया था। यह झील 42 वर्ग किलोमीटर (6311 हेक्टेयर) के क्षेत्रफल में फैली है। इस बर्ड सेंचुरी में 59 तरह के विदेशी पक्षी और 107 तरह के देसी पक्षी ठंड के मौसम में देखे जा सकते हैं। पुरातत्वीय महत्त्व का बौद्धकालीन हरसाइन स्तूप भी इसी क्षेत्र में स्थित है।अमूल्य धरोहर पर मँडराता खतरा
बेगूसराय के मंझौल स्थित ‘कावर झील’ को प्रकृति ने एक अमूल्य धरोहर के रूप में हमें प्रदान किया था। लेकिन आज यह झील लुप्त हो रही है। बुजुर्ग कहते हैं, ‘बारह कोस बरैला, चौदह कोस कबरैला’, अर्थात एक समय था कि बरैला की झील बारह कोस अर्थात 36 वर्ग किलोमीटर में और कबरैला झील चौदह कोस में अर्थात 42 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई थी। यह झील जैवविविधता और नैसिर्गक प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण है। मौसम के मुताबिक झील के क्षेत्र में काफी परिवर्तन होता रहता है। वैसे मानसून के दौरान इसका क्षेत्रफल साढ़े सात हजार हेक्टेयर हो जाता है, जबकि गर्मी में यह चार सौ हेक्टेयर तक सिमट कर रह जाती है।
इस झील की प्रसिद्धि स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की शरण स्थली के कारण तो है ही साथ ही विविध प्रकार के जलीय पौधों के आश्रय के रूप में भी यह झील काफी मशहूर है। लाखों की संख्या में किस्म-किस्म के पक्षी खासकर शीतकाल में यहाँ दिखाई देते हैं। अन्तरराष्ट्रीय पक्षी मलेशिया, चीन, श्रीलंका, जापान, साइबेरिया, मंगोलिया, रूस से जाड़े के मौसम में प्रवास पर यहाँ आते हैं। लेकिन स्थिति यह है कि अब कावर झील में पानी की कमी रहने लगी है, नतीजतन विदेशी पक्षी दूसरे झीलों की ओर अपना रुख कर रहे हैं।
विगत कुछ वर्षों से झील में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मियों में तो यह बिल्कुल सूख जाती है। इसका कारण है, पर्याप्त पानी झील में इकट्ठा न होना। पहले बरसाती पानी बहकर नालों के जरिए झील में गिरता था, परन्तु अब इन नालों में गाद भर जाने से पानी झील तक नहीं पहुँच पाता है। बाढ़ में आसपास की मिट्टी झील में आने से भी इसकी गहराई कम हो रही है। समय रहते यदि झील को बचाने के लिये प्रयास नहीं किये गए तो आने वाली पीढ़ियाँ इस झील का केवल नाम ही सुन पाएँगी।
बेरोजगार हुए हजारों मल्लाह
इस झील से उत्तरी बिहार का एक बड़ा हिस्सा कई प्रकार से लाभान्वित होता था। ऊपरी जमीन पर गन्ना, मक्का, जौ आदि की फसलें काफी अच्छी पैदावार देती थी। हजारों मल्लाह इस झील से मछली पकड़ कर अपना जीवनयापन करते थे। झील के चारों ओर करीब 50 गाँव के मवेशी पालक मवेशियों को यहाँ की घास खिलाकर हमेशा दुग्ध उत्पादन में आगे रहते थे। ग्रामीण लोग झील की ‘लड़कट’ (एक प्रकार की घास) से अपना घर बनाया करते थे। यह काम आज भी होता है। जहाँ पहले हजारों मछुआरे इस झील से अपना जीवनयापन करते थे, वहीं अब इस झील से दस-बीस मछुआरों का भी जीवनयापन नहीं हो पाता है।
कावर झील को विश्व धरोहर में शामिल करवाने के लिये वर्षों से काम कर रहे माता सेवा सदन के अधिकारी अभिषेक कुमार कहते हैं कि कावर झील को बचाने के हर सम्भव उपायों पर काम किया जा रहा है। अब तक अफ्रीका, जर्मनी, नीदरलैंड सहित वेटलैंड इंटरनेशनल की टीम कावर का निरीक्षण कर चुकी है। पिछले दिसम्बर में आई वेटलैंड इंटरनेशनल की टीम के द्वारा तैयार रिपोर्ट को अन्य रिपोर्टों के साथ सरकार के हवाले कर दिया गया है। राज्य सरकार भी इसे विश्व धरोहर में शामिल करवाने के लिये काफी उत्सुक है। कागजी कार्रवाई पूरी होने के बाद इसका विकास काफी तेजी के साथ होने लगेगा।
विश्व के विभिन्न झीलों के संरक्षण के लिये 1971 में ईरान के रामसर में अन्तरराष्ट्रीय संस्था का गठन किया गया था। 1981 में भारत भी इसका सदस्य बना। संरक्षण के लिये चयनित विश्वस्तरीय झीलों में कावर का भी स्थान होना चाहिए। क्योंकि इसकी गिनती विश्व के वेटलैंड प्रक्षेत्र में होती है। सरकारी अधिसूचना के मुताबिक यहाँ पशु-पक्षी का शिकार अवैध है। पक्षियों के साथ-साथ विभिन्न प्रजाति की मछलियाँ भी पाई जाती हैं। एक अध्ययन के मुताबिक सैंतीस तरह की मछलियों की उपलब्धता इस झील में है।
इस झील के जलीय प्रभाग में कछुआ और सर्प जैसे जन्तुओं की कई प्रजातियाँ तो पाई ही जाती हैं, स्थलीय भाग में सरीसृप वर्ग की ही छिपकलियों की विभिन्न प्रजातियाँ भी यहाँ पाई जाती हैं। झील के निकटवर्ती स्थलीय भाग में नीलगाय, सियार और लोमड़ी बड़ी तादाद में पाए जाते हैं।
पशु-पक्षियों के साथ-साथ व्यावसायिक दृष्टिकोण से कई प्रकार के फल और सब्जियों का उत्पादन भी इस झील में किया जाता है मखाना, सिंघाड़ा, रामदाना जैसे पौष्टिक तत्वों का उत्पादन यहाँ सालों से किया जा रहा है। यह एशिया महादेश की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है। पर्यटन के दृष्टिकोण से दुर्लभ प्रवासी पक्षियों को देखने का एक अद्भुत आनन्द है। लेकिन कावर झील को पक्षी विहार घोषित किये जाने के बावजूद यहाँ पर्यटकों को आकर्षित करने में सरकार विफल रही है। एक ठोस पर्यटन रणनीति से इस झील को खूबसूरत बनाया जा सकता है इससे पर्यटक भी आकर्षित होंगे और इलाके में रोजगार के मौके भी बढ़ेंगे।
दूसरी तरफ बिहार के किशनगंज जिले के ठाकुरगंज में पिछले कुछ वर्षों के दौरान में प्रवासी पक्षियों का आगमन कम हुआ है। नवम्बर से फरवरी माह तक कच्चुदह, गोथरा समेत ठाकुरगंज इलाके की अन्य झीलों में प्रवासी पक्षियों का जमावड़ा लगता था। झीलों में पानी की कमी, जलकुम्भी जमा होने व शिकारियों की अत्याचार के कारण अब प्रवासी पक्षियों का आना कम हो चुका है।
हाल के वर्षों तक इन झीलों में 15 नवम्बर के बाद से प्रवासी पक्षियों के साथ-साथ देशी पक्षियों का आना शुरू हो जाता था। लगभग 15 मार्च तक यानी तीन महीने सैलानी पक्षियों से ठाकुरगंज का इलाका गुलजार रहता था। अब स्थिति इस कदर बदल चुके हैं कि प्रवासी पक्षी क्या देशी पक्षी भी बहुत कम संख्या में आते हैं। ठाकुरगंज प्रखण्ड क्षेत्र के छैतल पंचायत अन्तर्गत लगभग दो सौ एकड़ में फैले कच्चुदह एवं गोथरा झील में प्रवासी पक्षी अब नही आ रहे हैं।
इस बार ठंड के शुरुआत से ही दोनों झील मेहमान पक्षियों के कौतुहल से गुलजार नहीं हो पाया। प्रति वर्ष 10 से 15 नवम्बर के बाद सैलानी पक्षियों का इन झीलों में आना प्रारम्भ हो जाता है, जिसमें स्थानीय प्रवासी शिल्ली, पडुंक, अधंगा, दवचीक, व्हीसीलग टेल, नीलसर, संजन आदि के साथ प्रवासी पक्षी वाडहेडगीज, ब्राह्मणी डक, सोवलर, कामन टेल व बत्तख की विभिन्न प्रजातियों की पक्षियाँ शामिल हैं। प्रवासी पक्षियाँ मार्च के अन्तिम व अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक तिब्बत, साइबेरिया आदि ठंडे देशों में वापस लौट जाती हैं।
नवम्बर से मार्च तक वहाँ की झीलों में बर्फ जम जाता है, यही वजह है कि रहने व चारा की कमी के कारण साइबेरियन पक्षी इन इलाकों में आते हैं। पर्यावरणविद व जन्तु विशेषज्ञों का कहना है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में अनुकूल वातावरण होने के कारण ही ये प्रवासी पक्षियाँ यहाँ आते थे, जो इस क्षेत्र के लिये काफी शुभ संकेत माना जाता है। ये पक्षियाँ जहाँ भी रहेंगी, वहाँ की मिट्टी ज्यादा-से-ज्यादा उपजाऊ होती हैं। इन पक्षियों के मल में पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन पाया जाता है, तो मिट्टी और पौधों के लिये काफी लाभदायक होता है। जन्तु विज्ञान के प्रोफेसरों कहना है कि प्रवासी पक्षियाँ खेतों में पाये जाने वाले हानिकारक कीड़ों को भी नष्ट कर देती है।
स्थानीय लोगों व पर्यावरणविदों का कहना है कि कच्चुदह झील में पक्षी अभयारण्य की असीम सम्भावनाए हैं। इस झील के सौन्दर्यीकरण के बाद यह झील पर्यटन का बड़ा केन्द्र भी बन सकता है। लोग यह भी आशंका जताने लगे हैं कि झील की यदि यथाशीघ्र सफाई नहीं की गई तो यह झील का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। लोगों का कहना है कि सरकार व प्रशासन को इस झील के सौन्दर्यीकरण के बारे में कई बार ज्ञापन दिया गया है, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका।
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Post By: RuralWater