बिहार में बाढ़ के बाद जलजनित बीमारियों की महामारी फैलने की हालत है। हर दूसरे घर में कोई-न-कोई बीमार है। लेकिन स्वास्थ्य और स्वच्छता के इन्तजाम कहीं नजर नहीं आते। इस बार बाढ़ के दौरान बचाव और राहत के इन्तजामों में सरकार की घोर विफलता उजागर हुई। बाढ़ पूर्व तैयारी कागजों में सीमटी नजर आई तो बाढ़ के बाद सरकारी सहायता और मुआवजा देने में सहज मानवीय संवेदना के बजाय कागजी खानापूरी का जोर है।
यह दयनीय स्थिति कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा छोटे से सर्वेक्षण से उजागर हुई है जो सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त अररिया और किशनगंज जिलों के छोटे से इलाके में संचालित की गई। गाँवों में पेयजल उपलब्ध कराने और स्वच्छता का कोई इन्तजाम नहीं किया गया है। लोग बाढ़ के गन्दले पानी वाले चापाकलों का इस्तेमाल कर रहे हैं। कहीं भी क्लोरीन की टीकिया नहीं बँटी। कहीं भी ब्लीचिंग पाउडर या डीडीटी आदि का छिड़काव नहीं हुआ।
शौचालयों के अभाव में महिलाओं में असुरक्षा की भावना है, तो गन्दगी फैलने से बीमारियों का अंदेशा अलग से है। कहीं भी चिकित्सा शिविर की व्यवस्था नहीं हुई। जहाँ पीएचसी हैं वहाँ भी उन तक पहुँचने के रास्ते टूट जाने से बेकार हैं। सर्वेक्षण टोली 63 गाँवों में गई, उनमें 20 गर्भवती महिलाएँ मिलीं जिन्हें तत्काल चिकित्सा सहायता की जरूरत है।
राहत सामग्री का वितरण जितना भी हुआ, आमतौर पर पंचायतीराज संस्थानों के सदस्यों के माध्यम से हुआ और इसमें स्थानीय स्तर पर दबंग समुदायों की चली। अधिकतर राहत वितरण केन्द्र दबंग समुदायों के इलाके में थे। राहत की पात्रता के बारे में भ्रम फैलाए गए और आधार कार्ड, वोटर कार्ड या राशन कार्ड माँगे गए। दलित, आदिवासी और मुसलमानों के साथ भेदभाव के मामले बहुत ही प्रछन्न रहे। उल्लेखनीय है कि किशनगंज और अररिया जिलों में दलित और मुसलमान के अलावा आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है। दलित वाच के राजेश कुमार बताते हैं कि मृतकों को घोषित मुआवजा देने में विभिन्न कागजात माँगे जा रहे हैं, इसलिये इसका लाभ पीड़ित लोगों को नहीं मिल पा रहा।
दोनों जिलों के सात प्रखण्डों के 24 पंचायतों के 63 गाँवों में 31 अगस्त से 12 सितम्बर के बीच सर्वेक्षण किया गया। नेशनल दलित वाच, नेशनल कैम्पेन ऑन दलित ह्यूमन राइट, आल इण्डिया दलित महिला अधिकार मंच और जन जागरण शक्ति संगठन की साझा सर्वेक्षण टोली जिन गाँवों में गई उनमें से किसी में भी सरकारी बचाव दल नहीं पहुँचा था। नुकसानों का जायजा लेने के लिये भी कोई टीम नहीं आई। सर्वेक्षण के दौरान मिली जानकारी का निचोड़ है कि बाढ़ आने के तीन-चार दिन बाद तथाकथित राहत कैम्प खोले गए और उन्हें दो तीन-दिन में बन्द भी कर दिया गया।
बाढ़ में फँसे लोगों को बचाकर शरणस्थल तक ले जाने का कोई इन्तजाम नहीं था। कुछ लोगों ने केले के तने से बने नावों का सहारा लिया, कुछ ने निजी नावों को भाड़ा देकर बाढ़ के पानी से बाहर निकलने का इन्तजाम किया। कुछ पैदल चलते हुए, डूबते-उतराते हुए ऊँची जगह पर पहुँचे। राहत कैम्पों को तथाकथित कहने का आशय यह है कि राहत वितरण करने की जगह को ही राहत शिविर कहा गया, पीड़ितों को आश्रय देने का कोई इन्तजाम वहाँ नहीं था। वैसे राहत कैम्पों का विवरण सरकारी तौर पर उपलब्ध जानकारी में नहीं दी गई है। अधिकतर लोगों ने आरम्भिक तीन चार दिन बाढ़ के पानी में गुजारे। बिहारी टोला के आदिवासी निवासियों ने बताया कि वे स्वयं चलकर चार किलोमीटर दूर सड़क पर पहुँचे और वहाँ सात दिन बिताए। उनकी सहायता के लिये कोई नहीं आया।
इस छोटे से इलाके में बाढ़ से 105 जानें गईं जिसमें 71 मुसलमान और 17 दलित थे। लगभग 13 हजार मवेशी मारे गए जिसमें गाय, भैंस, बकरी, सुअर आदि शामिल हैं। जो मवेशी बचे हैं, उनमें भी बीमारियाँ फैल गई हैं। लगभग 70 प्रतिशत फसल बर्बाद हो गई है। करीब 30 प्रतिशत घर पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। बाकी बहुत सारे घरों को व्यापक क्षति हुई है। बाढ़ में अधिकतर लोगों के घर में रखा अनाज नष्ट हो गया। राशन कार्ड नष्ट हो जाने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ मिलने में भी कठिनाई हो रही है।
राहत के तौर पर मिलने वाले सूखे अनाज के पैकेट में ढुलाई खर्च के नाम पर वजन में कटौती की शिकायतें आम हैं। नुकसान के आकलन की सूची में नाम जोड़ने के लिये घूस माँगे जा रहे हैं। इन सबके अलावा बाढ़ के दौरान पूरे क्षेत्र में सभी प्रकार के कामकाज बन्द रहे। तकरीबन 10 से 15 दिनों का काम नष्ट हो गया है। लेकिन उसके बाद भी बहुत सीमित मात्रा में कामकाज होने के आसार हैं। इसलिये बड़े पैमाने पर मजदूरों का पलायन अवश्यम्भावी है।
सरकारी आँकड़ों से वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं होती, फिर भी उन पर गौर करने से कई चीजें स्पष्ट होती हैं। सरकारी आँकड़े के अनुसार इस बार राज्य के 19 जिलों में बाढ़ आई जिसमें 514 लोगों की जान चली गई। बचाव कार्यों कुल 52 टीमें लगाई गईं जिनमें एनडीआरएफ की 28, एसडीआरएफ की 16 और सेना की 7 टीमों को मिलाकर 2248 कर्मी बचाव कार्य में लगे। साथ ही कुल 280 नावें बचाव कार्यों में तैनात की गईं। बाढ़ प्रभावित इलाके का बड़ा फैलाव देखते हुए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बचाव कार्य की खानापूरी हुई, वास्तव में पीड़ित लोगों तक बचाव दल पहुँच ही नहीं पाया।
आँकड़ों के अनुसार, कुल 8 लाख 54 हजार 936 लोगों को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया, लेकिन राहत शिविरों में केवल 4 लाख 21 हजार 824 लोग रहे। तो प्रश्न स्वाभाविक है कि बाकी लोग कहाँ चले गए? वैसे कुल राहत शिविरों की संख्या और स्थान उपलब्ध नहीं है। सामुदायिक रसोई, सूखा राहत पैकेट के वितरण और मुआवजा आदि के ब्यौरा भी सरकारी तौर पर सार्वजनिक किया गया है। जिनमें प्रश्नों की गुंजाईश है।
दिलचस्प यह है कि मुख्यमंत्री नीतिश कुमार राहत शिविरों की स्थिति का मुआयना करने पूर्णिया जिले में जिस शिविर में पहुँचे, वह आदिवासी बच्चियों का विद्यालय और छात्रावास है। उस दिन वहाँ उपस्थित एनएपीएम के महेन्द्र यादव बताते हैं कि वहाँ सड़क के किनारे शरण लिये लोगों को बुलाकर भीड़ जरूर इकट्ठा कर ली गई थी जो मुख्यमंत्री के वापस जाने के बाद छँट गई। महज यहीं नहीं, सरकारी तंत्र केवल तभी सक्रिय हुआ जब मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने हवाई सर्वेक्षण कर लिया। मुख्यमंत्री के तीन हवाई सर्वेक्षणों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सर्वेक्षण के बाद हालत यह है कि राहत और मुआवजा की घोषणाओं को सरल तरीके से अमल में लाने के बजाय सरकारी अधिकारी विभिन्न प्रकार के दस्तावेज माँग रहे हैं। जिस बाढ़ में लोगों को अपनी जान और खाने का अनाज बचाना सम्भव नहीं हो पाया, उसमें विभिन्न दस्तावेज कैसे बच पाया होगा, इसे सोचने वाला कोई नहीं। दलित वाच के राजेश बताते हैं कि पीड़ित आबादी को तीन महीने का राशन देने की जरूरत है क्योंकि उनके पास खाने के लिये कुछ नहीं बचा।
उल्लेखनीय है कि इस बार बचाव और राहत कार्यों के बारे में राजधानी से निकलने वाले अखबारों में भी केवल खानापूरी हुई। हवाई दौरों की खबरें अधिक छपी, जमीनी हकीकत अखबारों से भी गायब रही। इसका एक कारण तो यह समझ आता है कि मुख्य विपक्षी पार्टी पहले से घोषित रैली की तैयारी में व्यस्त थी और पक्ष-विपक्ष के बीच दूसरे मामलों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे।
गौरतलब है कि पूरे बाढ़ के दौरान केवल पप्पू यादव लोकसभा सदस्य समस्याग्रस्त इलाकों में देखे गए। इस बार की बाढ़ के दौरान हालत देखकर बरबस 2005 की बाढ़ की याद आती है जब राजनीतिक पार्टियों की ओर से राहत शिविर लगाए गए थे और बाढ़ पीड़ितों को खिचड़ी खिलाने की प्रतियोगिता सी चल रही थी। यूनिसेफ जैसी बड़ी गैर सरकारी संस्थाएँ भी सक्रिय थीं। कारण साफ था कि उस वर्ष विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। बाद में भी नीतिश सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले वर्ष बाढ़ग्रस्त इलाके के सभी गरीब परिवारों को दो क्विंटल चावल देने की घोषणा की जिस पर अमल भी हुआ क्योंकि सर्वोच्च स्तर से निगरानी हो रही थी। इस बार सन्नाटा छाया रहा है।
बहरहाल, बाढ़ पूर्व तैयारियों से लेकर सदा की भाँति इस साल भी विभिन्न दिशा-निर्देश जारी हुए थे। जमीनी स्तर पर कोई तैयारी नहीं देखकर एनएपीएम ने अप्रैल महीने से ही जारी सारे दिशा-निर्देशों और नियमावलियों को एकत्र कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा दिया है। इससे हुआ यह है कि बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों को राहत और मुआवजा के बारे में अपने अधिकारों की जानकारी हो गई है। और राहत, मुआवजे की माँग लेकर जगह-जगह आन्दोलन आरम्भ हो रहे हैं। हालांकि स्थानीय स्तर पर आजीविका के अवसर नष्ट होने से कामकाजी आबादी इन आन्दोलनों के झंझट में पड़ने के बजाय दिल्ली-पंजाब जाने की जुगत में है। स्थानीय स्तर के सरकारी अधिकारी राहत और मुआवजे के बँटवारे की खानापूरी करने में लगे हैं। राहत और मुआवजे को लेकर प्रखण्ड अधिकारियों के साथ मारपीट की घटनाएँ हो रही हैं।
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