गंगा, बिहार में पश्चिम से प्रवेश करती है और पूरब से निकल जाती है। इस बीच हिमालय से निकलकर उत्तर से आने वाली कई नदियां- घाघरा, गंडक और कोसी वगैरह उससे आकर मिलती हैं। कोसी बिहार की सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा तबाही लाने वाली नदी है। मिट्टी बैठने से इसका पेट एकदम छिछला हो गया है और इसमें अक्सर बाढ़ आती रहती है।
भौगोलिक बनावट के हिसाब से बिहार को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है - उत्तर बिहार का मैदानी इलाका, दक्षिण बिहार का मैदानी इलाका और छोटानागपुर या पठारी क्षेत्र। उत्तरी बिहार का इलाका नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और यह नेपाल के तराई इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है।
यहां की जमीन काफी उर्वर है और यहां घनी आबादी है। दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिण तट से लेकर छोटानागपुर के पठारों के बीच स्थित है। यहां सोन, पुनपुन, मोरहर, मुहाने, गामिनी नदियां हैं, जो गंगा में जाकर मिलती हैं। सोन को छोड़कर बाकी सभी नदियों का उद्गम स्थल छोटानागपुर की पहाड़ियां हैं। बरसात के समय छोटी नदियां भी भयावह रूप ग्रहण कर लेती हैं। बिहार में सालाना औसत बरसात पटना में 1,000 मिलीमीटर से लेकर पूर्वी हिस्सों में 1600 मिलीमीटर या उससे भी अधिक के बीच होती है।
दक्षिण का मैदानी इलाका: गंगा के मैदानी इलाके के दक्षिणी भाग पुराने पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर की जमीन में आर्द्रता संभालने की क्षमता कम है। यहां भूजल का स्तर बहुत नीचा है और गंगा के किनारे के इलाकों को छोड़ दें तो कुआं खोद पाना बहुत मुश्किल है। यह इलाका दक्षिण से उत्तर की तरफ तेज ढलान वाला भी है, जिससे यहां पानी टिक नहीं पाता। इस प्रकार इस इलाके की जलवायु खेती के बहुत अनुकूल नहीं है, पर यही प्राचीन सभ्यता का केन्द्र रहा है। इस इलाके में सिंचाई की मुख्य व्यवस्था पईन और आहर की है।
आहर-पईन प्रणाली सम्भवतः जातक युग (बुद्ध के पूर्ववर्ती अवतारों की कहानियों के लिखे जाने वाले दौर) से ही प्रयोग में लाई जा रही है। इसी इलाके में लिखे गए कुणाल जातक में जिक्र है कि किस तरह सारे लोग मिलकर पईनों का निर्माण करते थे और कई बार यही किसी के खेतों या इलाकों की सीमा रेखा बनते थे। पर इस संपदा से पानी के उपयोग को लेकर अक्सर विवाद भी उठते रहते थे। एक गांव या किसान के हिस्से के पानी को दूसरी तरफ के खेतों में मोड़ने को लेकर विवाद चलते थे। कई बार तो यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते दो गांवों के खूनी टकराव में बदल जाता था। फिर पंचायत के लिए स्थानीय परिषद् का दरवाजा खटखटाना पड़ता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आहरोदक-सेतु से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज के यात्रा विवरण में भी बिहार में बन्द मुंह वाली नहरों से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज यूनान का इतिहासकार था, जो चंद्रगुप्त मौर्य शासन (ईपू 321-297) के दौरान भारत घूमने आया था। उसकी किताब भारत का विवरण काफी प्रसिद्ध है।
दक्षिण बिहार में जमीन की ढलान प्रति किलोमीटर एक मीटर की है। इसी भौगोलिक बनावट के मद्देनजर एक या दो मीटर ऊंचे बांधों के जरिये आहर खड़े किए जाते हैं। बड़े बांध के दोनों छोर से दो छोटे बांध भी निकाले जाते थे, जो ऊंचाई वाली जमीन की तरफ जाते थे। इस प्रकार आहर पानी को तीन तरफ से घेरने वाली व्यवस्था बन जाती थी।
तालाबों की तरह यहां तलहटी की खुदाई नहीं की जाती थी। कई बार आहर सोतों या पईनों के नीचे बनाए जाते थे, जिनसे उसे पानी मिलता रहे। एक किलोमीटर से ज्यादा लंबे आहर से 400 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन की सिंचाई हो जाती थी। और इतने बड़े आहर भी बना करते थे, पर छोटे आहरों की संख्या ज्यादा थी। दक्षिण बिहार में तालाब नहीं थे, पर आहरों की तुलना में उनकी उपयोगिता बहुत कम थी।
पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए पईनाें का निर्माण किया जाता था। दक्षिण बिहार में अक्सर नदियां वर्ष के ज्यादा समय सूखी पड़ी रहती हैं, पर बरसात होते ही एकदम उफन पड़ती हैं। ढलान और बलुआही मिट्टी के चलते या तो पानी, सीधे तेजी से ढलकर नीचे आता है या रेत से रिसकर नीचे पहुंचता है। ऐसे में पईनों का निर्माण इस पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए किया जाता था। कुछ पईन तो 20-30 किलोमीटर लंबे थे और अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं के माध्यम से 100 से भी ज्यादा गांवों में सिंचाई किया करते थे।
चूंकि नदियों का पेट रेत के चलते काफी कम हो गया होता है, इसलिए पईन ज्यादा गहरे नहीं होते थे। ढलान के अनुसार वे अपने मूल से कुछ दूरी तक ही जमीन सींच पाते थे। पईनों में पानी का स्तर ऊपर करने के लिए जहां-तहां उनको बांध लिया जाता था। कई मामलों में पईनों के आखिरी छोर पर चौकस बांध बना दिए जाते थे जिनसे वहां पानी जमा हो जाए। कभी पईनों से आहरों में पानी भरता या तो कभी आहरों का पानी पईनों के माध्यम से खेतों तक जाता था। आहर और पईन, दोनों में जुलाई से सितंबर तक काफी पानी रहता था, जो बरसात कम होने पर बाद में काम आता था।
1810-11 में ‘एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ भागलपुर’ लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ बुकानन को तालाबों की तुलना में यह व्यवस्था पसंद नही आयी। उन्होंने लिखा कि दक्षिण बिहार में सिंचाई बहुत ही गड़बड़ थी। उन्हें आहर-पईन व्यवस्था का काम खर्चीला होना तो पसंद था, पर तालाब की व्यवस्था उन्हें ज्यादा पसंद थी। पर जैसे-जैसे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई।
पहले उन्होंने लिखा कि दक्षिण बिहार में टिकाऊ सिंचाई व्यवस्था बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई है और जो व्यवस्था है वह बरसात के दौरान कम पानी पड़ने के समय या बरसात के बाद के एकाध महीने की सिंचाई लायक है, जिससे तब लगी फसल बर्बाद न हो। पर गया पहुंचकर उन्होंने लिखा, ‘आहरों और पईनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेंहू और जौ उगाने के लिए उसका प्रयोग कर लेते हैं।’ पानी को ढेंकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं से ऊपर लाकर खेतों तक पहुंचाया जाता था।
इस व्यवस्था का विश्लेषण करने वाले निर्मल सेनगुप्त लिखते हैं, ‘बाहर से दिखने में आहर-पईन व्यवस्था भले ही जितनी बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी के सर्वोत्तम उपयोग की उद्भुत देसी प्रणाली है।’ सिंचाई के अलावा इस व्यवस्था की एक और उपयोगिता है जिसकी चर्चा बहुत कम हुई है।
छोटानागपुर के पठारी इलाके और गंगा घाटी के बीच स्थित होने के चलते दक्षिण बिहार में अक्सर बाढ़ आती रहती है। पर इन आहरों में बाढ़ का कुछ पानी समा जाता है और पईनों से बाढ़ के पानी की निकासी तेज हो जाती थी। कुल मिलाकर उसकी तबाही बहुत कम हो जाती है यह व्यवस्था इतनी प्रभावी थी कि यहां की कुछ नदियों का पूरा का पूरा पानी सिंचाई में प्रयोग कर लिया जाता है और जब तक ये नदियां गंगा या पुनपुन तक पहुंचें एकदम रीत चुकी होती थीं।
पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए पईनों का निर्माण किया जाता था। दक्षिण बिहार में अक्सर नदियां वर्ष के ज्यादा समय सूखी पड़ी रहती हैं, पर बरसात होते ही एकदम उफन पड़ती हैं। ढलान और बलुआही मिट्टी के चलते या तो पानी सीधे तेजी से ढलकर नीचे आता है या रेत से रिसकर नीचे पहुंचता है। ऐसे में पईनों का निर्माण इस पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए किया जाता था।
गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने 1949 में लिखा था: कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों में आई गिरावट है। जमीन ढलवा है और नदियां उत्तर की तरफ कमोबेश समांतर दिशा में बहती हैं। मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है। अभी तक चलने वाली सिंचाई व्यवस्थाएं पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी थीं और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक करती थीं।
गया जिले में आहर-पईन व्यवस्था व्यापक तौर पर प्रयोग की जाती थी। 1901-03 के सिंचाई आयोग का मानना था कि इनसे 6,76,113 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है, जो जिले की कुल जमीन के आधे से ज्यादा है। दक्षिण बिहार के कुल सिंचित क्षेत्र में इस व्यवस्था से सिंचाई करने वाले क्षेत्रों का हिस्सा तीन-चौथाई होगा।
अनेक अन्य अंग्रेज लेखकों ने भी आहर-पईन व्यवस्था की तारीफ की है। एलएसएसओ मेली ने 1919 में गजेटियर में लिखा है, ‘पूर्वी बंगाल की रैयत के लिए धान की खेती करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि न तो यहां की मिट्टी उसके अनुकूल है, न यहां भरोसे लायक बरसात होती है।’ धान को तो अपने पूरे समय कम से कम चौथाई समय पानी चाहिए। पर पूर्वी बंगाल से लगभग आधी बरसात वाले उस क्षेत्र में धान की खूब खेती हो रही है, जहां पानी टिकता भी नहीं है। दक्षिण बिहार में धान ही मुख्य फसल है और पूर्वी बंगाल में भी पहले से उगाई जा रही है। इसका श्रेय काफी हद तक आहर-पईन प्रणाली को जाता है। धान की अगली फसल का 90 फीसदी हिस्सा सिंचित जमीन पर ही उगता था और इन्हें मुख्यतः आहर-पईन से पानी मिलता था।
आहर आम तौर पर गांव के दक्षिणी और ऊंचे भाग में स्थित होते थे और उनमें सिंचित होने वाले खेत गांव के उत्तर में होते थे। पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी हल्की ढलान वाला मैदान है। हर गांव में धनहर और भीत खेत थे।
सूखे वाले वर्षों में आहर के पेट में भी धान लगा दिया जाता था। कई बार जब आहर का पानी खरीफ फसल में ही लग जाता था, तब भी उसके पेट में रबी की फसल लगा दी जाती थी। पर अक्सर ऐसा नहीं होता या भीत खेतों में ही रबी की फसल होती थी और उनकी सिंचाई कुओं से की जाती थी।
आहर और पईन का उपयोग सामूहिक रूप से ही होता था और सभी किसानों को मिल-जुलकर खेती करनी होती थी। सो, एक-एक पखवारे के अंतराल पर खास खेतों या खास फसल के लिए सामूहिक कोशिश होती थी। दक्षिण बिहार में यही चलन आज भी है। आम तौर पर 20 जून से 5 जुलाई तक धान के बीज गिरा दिए जाते हैं और 18 जुलाई से 15 अगस्त तक रोपनी चलती है। 12 से 25 सितंबर के बीच धान के खेतों में जमा पानी को निकाल दिया जाता है (जिसे नीगार कहा जाता है) और 25 सितंबर से 7 अक्टूबर के बीच फिर से पानी भरा जाता है। जिस सम दोबारा पानी भरा जाता है उस समय हथिया का पानी बरसता है, पर सिर्फ उसके भरोसे नहीं रहा जा सकता। सिंचाई का प्रबंध रखना जरूरी था। पर यह बरसात बहुत उपयोगी होती थी। सिर्फ खड़ी फसलों के लिए नहीं, आगे की रबी की फसल के लिए भी।
आहर-पईन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, पर गया जिला इससे अछूता रहा। 1866 के ओडीसा अकाल में, कुसमय बरसात से पड़े 1873-74 के बिहार अकाल और 1896-97 के अकाल के समय गया जिले को अकाल राहत की जरूरत नहीं पड़ी। पर इस सिंचाई व्यवस्था में गिरावट के साथ ही मजबूती भी जाती रही। 1930 के दशक से यहां कमी पड़नी लगी।
1950-52 और 1957-59 के सूखे और अकाल के समय गया जिले के नवादा अनुमंडल की स्थिति खास तौर से खराब हो गई। 1966 के अकाल के समय गया जिले पर भी वैसी ही मार पड़ी जैसी बिहार के अन्य जिलों पर। आगे तो पुराने गया जिले के अनेक हिस्सों को अक्सर सूखे वाला इलाका माना जाता है। सिंचाई की इस अनोखी व्यवस्था के चलते पहले गया जिले में बाढ़ भी नहीं आती थी। पर हाल के वर्षों में इस मामले में भी उसका बचाव नहीं हो पाता।
मुंगेर और भागलपुर: दक्षिण में सिंचाई और पेयजल का मुख्य स्रोत बड़े पोखर और नहर थे। बिहार में मिट्टी का संभवतः सबसे बड़ा बांध 1870 में महाराज दरभंगा ने खड़गपुर जलाशय के लिए बनवाया था। इससे 729 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। इस तालाब की पहुंच से बाहर वाले इलाकों में गिलांदाजी बांध या धार बांध की व्यवस्था चलती थी। धार बांध पहाड़ी नदियों की धारा को मोड़ने वाले बांध थे। गांव के जेठ-रैयत (बड़े किसान) अपने खर्चे से इनका निर्माण कराते थे, क्योंकि बाढ़ में ये अक्सर टूट ही जाते थे।
बिहार में इन प्रणालियों के अलावा सरकारी और निजी नहर भी थी। बीसवीं सदी के शुरू में ऐसी सबसे पुरानी व्यवस्था उत्तर बिहार के चंपारण जिले की तिआर नहर थी। यह करीब 11 किलोमीटर लंबी थी और इससे 2429 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। 1879 में इसका निर्माण एक स्थानीय जमींदार ने कराया था, पर 1886 में इसे सरकार ने अपने हाथ में ले लिया।
चंपारण में दो और नहरें थीं-ढाका नहर और त्रिवेणी नहर। इनसे करीब 51,619 हेक्टेयर, जमीन की सिंचाई होती थी। त्रिवेणी नहर के बनने से पूर्व जिले का उत्तरी हिस्सा पूरी तरह पईनों पर निर्भर था। पहाड़ी सोतों और बरसात पर आश्रित इन पइनों से न तो पानी की व्यवस्थित आपूर्ति हो पाती, न ही इनसे ज्यादा खेतों की सिंचाई ही हो पाती थी। 1880 के दशक में साठी नील कंपनी ने पईनों की एक विस्तृत प्रणाली विकसित की थी।
इसके पईनों और नालियों की कुल लंबाई 170 किलोमीटर थी और इससे कंपनी के पूरे फार्मों की सिंचाई हो जाती थी। इनमें इस इलाके की चार नदियों का पानी आता था। पटना जिले में भी सरकारी और निजी, दोनों तरह की नजरों से सिंचाई होती थी - सरकारी नरहें सोन नहर प्रणाली का हिस्सा थीं और निजी नहरें मुख्यतः पईन की शक्ल में थीं। सोन नहर अभी तक बिहार की सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत नहर व्यवस्था है।1853 में इसकी योजना बनी थी और 1875 में इसका निर्माण पूरा हुआ। इसकी मुख्य नहरों की लंबाई 351.61 किलोमीटर है।
‘सेंटर फार साइंस ऐंड इंवायरोनमेंट’ की पुस्तक ‘बूंदों की संस्कृति’ से साभार
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