यदि कार्बन डाईऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं आई तो 2100 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। एक नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने चेताया है कि 2200 में यह वृद्धि आठ डिग्री से. तक पहुंच सकती है। तापमान में चार से. की वृद्धि जलवायु वैज्ञानिकों द्वारा खतरनाक समझे जाने वाले स्तर से दो गुना अधिक है। ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टीवन शेरवूड द्वारा किए गए अध्ययन में एक नए जलवायु मॉडल के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है।अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया की जलवायु पर कार्बन डाईऑक्साइड का असर पिछले अनुमानों से कहीं ज्यादा हो रहा है।
नए अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों का कहना है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होगी, आसमान में बादल भी कम बनेंगे। कम बादल होने से सूरज की कम रोशनी वापस अंतरिक्ष में परावर्तित होगी। इससे पृथ्वी के तापमान में और बढ़ोतरी होगी। इस अध्ययन में यह बताने की कोशिश की गई है कि कौन सी चीजें बादलों के व्यवहार में परिवर्तन कर रही हैं। साथ ही यह पहला अध्ययन है, जिसमें तापमान वृद्धि के पिछले अनुमानों की तुलना में ज्यादा भयावह तस्वीर पेश की गई है। प्रो. शेरवूड के अनुसार चार डिग्री से. की वृद्धि मात्र खतनाक की बजाय बहुत विनाशकारी सिद्ध होगी। यदि कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकने के ठोस और तात्कालिक उपाय नहीं किए गए तो दुनिया के अधिकांश ऊष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में जीवन कठिन हो जाएगा।
दूसरा बड़ा खतरा यह है कि तापमान वृद्धि से ग्रीनलैंड की संपूर्ण बर्फीली परत और एंटाकर्टिका की कुछ बर्फीली परत पिघल सकती है। बर्फ के पिघलने से समुद्र का जल स्तर कई मीटर ऊपर उठ जाएगा। कई देशों की अर्थ व्यवस्थाओं पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। जापान के राष्ट्रीय पर्यावरण अध्ययन संस्थान के दो प्रमुख वैज्ञानिकों हिदेयो शियोगामा और तोमू ओगुरा ने शेरवूड के नतीजों से सहमति व्यक्त की है। उनका मानना है कि पृथ्वी के गर्म होने से बादलों के कम होने के बारे में शेरवूड के तर्क काफी वजनदार हैं। वे इस बात से भी सहमत हैं कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन अपेक्षित स्तर से कहीं बहुत ज्यादा होगा, हालांकि इस बारे में और गहन रिसर्च की आवश्यकता है।
तापमान वृद्धि के बारे में पिछले अनुमान 1.5 से लेकर पांच डिग्री के बीच लगाए गए थे लेकिन रिसर्चरों ने बादलों की निर्माण प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करके अब यह अनुमान तीन से लेकर पांच डिग्री के बीच लगाया है। उन्होंने अपने निष्कर्षों में इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जलवायु के कंप्यूटर मॉडलों में बादलों के बनने की प्रक्रिया का सही-सही चित्रण हो। समुद्र से पानी के भाप बन कर उड़ने के बाद 15 किलोमीटर की ऊंचाई पर वर्षा के बादल बनते हैं जो सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष की तरफ मोड़ देते हैं, लेकिन कभी-कभी यह जल वाष्प बादल बनाए बगैर ही वापस सतह पर गिर जाती है। जिन कम्प्यूटर मॉडलों में इन दोनों संभावनाओं को शामिल किया गया है उन्होंने अधिक तापमान वृद्धि का अनुमान लगाया है। गौरतलब है कि तापमान वृद्धि के मौजूदा मॉडलों में सिर्फ15 किलोमीटर की ऊंचाई वाले बादलों को ही ध्यान में रखा गया है जबकि कुदरत में ये दोनों प्रक्रियाएं होती हैं।
यह तय है कि तापमान वृद्धि के बाद विषम और आकस्मिक मौसमी घटनाएं बढ़ेंगी और दुनिया की सरकारों को ऐसी घटनाओं से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अभी से ठोस योजनाएं बनानी पड़ेंगी। मौसमी परिवर्तनों से भारत सहित दूसरे देशों में जान-माल की भारी क्षति हो चुकी है। यदि योजनाकारों ने भविष्य की योजनाओं में ग्लोबल वार्मिंग से उपजने वाली मौसम की गड़बड़ियों का ध्यान नहीं रखा तो हमें आर्थिक और सामाजिक तौर पर बहुत ही जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर और ज्यादा रिसर्च करने और आपदा प्रबंध की योजनाओं को प्राथमिकता देने का आग्रह किया है। ऊष्ण जलवायु वाले क्षेत्र में होने के कारण भारत को भी ज्यादा सचेत रहने की आवश्यकता है। पिछले कुछ समय से हमारे देश में विषम मौसमी घटनाएं बहुत कम अंतराल पर हो रही हैं। कुछ ही महीने पहले हमारे पूर्वी तट ने भयंकर समुद्री तूफान झेले थे। इससे पहले उत्तराखंड की त्रासदी ने पूरे देश को झकझोर दिया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
नए अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों का कहना है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होगी, आसमान में बादल भी कम बनेंगे। कम बादल होने से सूरज की कम रोशनी वापस अंतरिक्ष में परावर्तित होगी। इससे पृथ्वी के तापमान में और बढ़ोतरी होगी। इस अध्ययन में यह बताने की कोशिश की गई है कि कौन सी चीजें बादलों के व्यवहार में परिवर्तन कर रही हैं। साथ ही यह पहला अध्ययन है, जिसमें तापमान वृद्धि के पिछले अनुमानों की तुलना में ज्यादा भयावह तस्वीर पेश की गई है। प्रो. शेरवूड के अनुसार चार डिग्री से. की वृद्धि मात्र खतनाक की बजाय बहुत विनाशकारी सिद्ध होगी। यदि कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकने के ठोस और तात्कालिक उपाय नहीं किए गए तो दुनिया के अधिकांश ऊष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में जीवन कठिन हो जाएगा।
दूसरा बड़ा खतरा यह है कि तापमान वृद्धि से ग्रीनलैंड की संपूर्ण बर्फीली परत और एंटाकर्टिका की कुछ बर्फीली परत पिघल सकती है। बर्फ के पिघलने से समुद्र का जल स्तर कई मीटर ऊपर उठ जाएगा। कई देशों की अर्थ व्यवस्थाओं पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। जापान के राष्ट्रीय पर्यावरण अध्ययन संस्थान के दो प्रमुख वैज्ञानिकों हिदेयो शियोगामा और तोमू ओगुरा ने शेरवूड के नतीजों से सहमति व्यक्त की है। उनका मानना है कि पृथ्वी के गर्म होने से बादलों के कम होने के बारे में शेरवूड के तर्क काफी वजनदार हैं। वे इस बात से भी सहमत हैं कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन अपेक्षित स्तर से कहीं बहुत ज्यादा होगा, हालांकि इस बारे में और गहन रिसर्च की आवश्यकता है।
तापमान वृद्धि के बारे में पिछले अनुमान 1.5 से लेकर पांच डिग्री के बीच लगाए गए थे लेकिन रिसर्चरों ने बादलों की निर्माण प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करके अब यह अनुमान तीन से लेकर पांच डिग्री के बीच लगाया है। उन्होंने अपने निष्कर्षों में इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जलवायु के कंप्यूटर मॉडलों में बादलों के बनने की प्रक्रिया का सही-सही चित्रण हो। समुद्र से पानी के भाप बन कर उड़ने के बाद 15 किलोमीटर की ऊंचाई पर वर्षा के बादल बनते हैं जो सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष की तरफ मोड़ देते हैं, लेकिन कभी-कभी यह जल वाष्प बादल बनाए बगैर ही वापस सतह पर गिर जाती है। जिन कम्प्यूटर मॉडलों में इन दोनों संभावनाओं को शामिल किया गया है उन्होंने अधिक तापमान वृद्धि का अनुमान लगाया है। गौरतलब है कि तापमान वृद्धि के मौजूदा मॉडलों में सिर्फ15 किलोमीटर की ऊंचाई वाले बादलों को ही ध्यान में रखा गया है जबकि कुदरत में ये दोनों प्रक्रियाएं होती हैं।
यह तय है कि तापमान वृद्धि के बाद विषम और आकस्मिक मौसमी घटनाएं बढ़ेंगी और दुनिया की सरकारों को ऐसी घटनाओं से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अभी से ठोस योजनाएं बनानी पड़ेंगी। मौसमी परिवर्तनों से भारत सहित दूसरे देशों में जान-माल की भारी क्षति हो चुकी है। यदि योजनाकारों ने भविष्य की योजनाओं में ग्लोबल वार्मिंग से उपजने वाली मौसम की गड़बड़ियों का ध्यान नहीं रखा तो हमें आर्थिक और सामाजिक तौर पर बहुत ही जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर और ज्यादा रिसर्च करने और आपदा प्रबंध की योजनाओं को प्राथमिकता देने का आग्रह किया है। ऊष्ण जलवायु वाले क्षेत्र में होने के कारण भारत को भी ज्यादा सचेत रहने की आवश्यकता है। पिछले कुछ समय से हमारे देश में विषम मौसमी घटनाएं बहुत कम अंतराल पर हो रही हैं। कुछ ही महीने पहले हमारे पूर्वी तट ने भयंकर समुद्री तूफान झेले थे। इससे पहले उत्तराखंड की त्रासदी ने पूरे देश को झकझोर दिया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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