गंगा को लेकर अब केवल सरकारी खानापूर्ति या हवाई बातें नहीं हो रही हैं बल्कि वास्तविक धरातल पर भी एक मजबूत संरचना तैयार होती हुई महसूस होने लगी है। सरकार पावन सलिला गंगा को अविरल बनाने के लिए पुरजोर से कोशिश में लग गई है। गंगा की सफाई के लिए पाँच हजार करोड़ की 76 योजनाएँ प्रस्तावित हैं और उन पर काम चल रहा है। अँग्रेज़ जब 18वीं सदी में भारत में फैलने लगे तो वो ये देखकर हैरान थे कि गंगा के आसपास का इलाका कितना खुशहाल और उर्वर है। वही गंगा अब उदास है। अस्तित्व के लिए लड़ रही है।
अब समय है पवित्र गंगा को बचाने का। पहली बार गंगा को निर्मल और अविरल बनाने पर गम्भीर पहल होती दिख रही है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा की सफाई को राष्ट्रीय महत्व का दर्जा देकर जनान्दोलन बनाने का भरोसा दिया है।
शुरुआती सौ दिनों के भीतर ही न केवल गंगा के लिए अलग मन्त्रालय बनाया गया बल्कि पतित पावनी को निर्मल बनाने के लिए 2,037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना का भी ऐलान किया गया। साथ ही गंगा तथा यमुना के घाटों के संरक्षण के लिए भी 100 करोड़ रुपए आवण्टित किए गए। पहली बार किसी सरकार ने प्राथमिकताओं में गंगा को इतना ऊपर रखा है।
केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मन्त्री उमा भारती कहती हैं, ‘गंगा नदी तीन साल में साफ होगी। सात साल में व्यवस्था दुरुस्त होगी, तभी दस साल में अविरल व निर्मल गंगा की कल्पना साकार हो सकेगी। सरकार ने इसके लिए दीर्घ व अल्पावधि योजनाएँ तैयार की हैं। अल्पावधि के तहत तीन साल में गंगा में कल-कारखानों का रासायनिक कचरा गिरने से रोका जाएगा जबकि दीर्घावधि में उसकी धारा अविरल हो जाएगी।’
गंगा का बखान ईसा से साढ़े सात हजार साल पहले ऋग्वेद और दूसरे पुराणों में मिलता है। पौराणिक कथाएँ कहती हैं कि गंगा नदी भगवान ब्रह्मा के कमण्डल से निकलीं। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों की श्रापित होकर भटकती आत्माओं की शान्ति के लिए तप किया। वह चाहते थे कि ब्रह्माजी गंगा नदी को पृथ्वी पर भेजें ताकि उनके पूर्वजों का कल्याण हो। ब्रह्माजी खुश हुए। अब सवाल था कि गंगा इतनी ऊँचाई से प्रचण्ड वेग के साथ जब पृथ्वी पर आएँगी तो इस धारा का क्या होगा, तब भगवान शिव आगे आए और उन्होंने एक जटा को खोलकर इसके जरिए गंगा का पृथ्वी पर आने का रास्ता सुलभ किया। वैसे गंगा को लेकर न जाने कितनी ही पौराणिक कहानियाँ हैं।
करीब 2525 किलोमीटर की लम्बी यात्रा पर निकलने से पहले गंगा गंगोत्री में करीब तीन हजार फुट की ऊँचाई से गोमुख से निकलती हैं। सागर से मिलने से पहले धरती पर उनका आखिरी बिन्दु सुन्दरवन है। कहा जाता है कि दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी हो, जो इतनी उत्पादक और पवित्र हो। भला कौन-सी नदी होगी, जिसने इर्द-गिर्द के इतने लम्बे क्षेत्र को उपजाऊ और उत्पादक बनाकर खुशहाली से भरा हो। नदी के करीब आते ही महसूस होने लगता है कि मानो किसी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़ रहे हों। गंगा का आश्रय और निकटता पाकर जितना धर्म-कर्म फला-फूला और साहित्य रचा गया, वो कहाँ और मुमकिन हो सकता था। आमतौर पर गंगा के किनारे जो शहर-गाँव बसे, उनकी तहजीब और दर्शन ने मानवता को समृद्ध किया।
तमाम विदेशी तीर्थयात्री गंगा पर मुग्ध दिखे। तमाम अँग्रेज़ विद्वानों ने गंगा पर किताबें और कविताएँ रच डालीं। हिन्दुओं के जीवन, मन-करम-वचन पर सदियों से गहरा असर डालने वाली रामचरित मानस की रचना भी तुलसीदास ने गंगा किनारे ही की। कुल मिलाकर गंगा की अथक यात्रा ने हमारे देश को एक चरित्र दिया, इसके कण-कण में मस्ती और भरपूर जीवन का आलम भरा। आम हिन्दू मानता है कि गंगा में एक बार नहाए बगैर उनका जीवन अधूरा है। गंगा का पानी घर में रखना पवित्र माना जाता है। पूजा-अनुष्ठान बगैर इसके नहीं होते।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने रीयल टाइम गंगाजल में प्रदूषण की जाँच के लिए 20 पैरामीटरों का चयन किया है। ये पैरामीटर हैं- जल में ऑक्सीजन की जैविक माँग (बीओडी), जल में घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), जल में भारी धातु इत्यादि। इन पैरामीटर के आधार पर विभिन्न स्थानों पर गंगाजल में मौजूद अशुद्धि का आकलन किया जाएगा। लेकिन गंगा का एक और पहलू भी है, जिसे हम सबने मिलकर रचा है — हम सबने इसे दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में शुमार कर दिया। अब ये हम सबकी गन्दगी, घरों से निकला कूड़ा, कारखानों से निकल रहे जहरीले अवशिष्ट को ढोने वाली नदी में तब्दील हो चुकी है। इस पानी में खुद गंगा का श्वांस लेना मुश्किल हो चला है। हालाँकि गंगा से खिलवाड़ की शुरुआत बीसवीं सदी की शुरुआत में ही हो गई थी। वर्ष 1912 में मदन मोहन मालवीय ने पहली बार गंगा के लिए आन्दोलन किया था। तब विरोध नहर और बाँध बनाकर नदी की धारा मोड़ने को लेकर था। हालाँकि दशकों से गंगा हमारे शहरों से निकली गन्दगी को ढो रही थी लेकिन नदी का असल दुर्भाग्य पिछले तीन-चार दशकों से तब ज्यादा शुरू हो गया जब बाजारीकरण और आर्थिक उदारीकरण के चलते फ़ैक्टरियाँ बढ़ने लगीं और नदी में आने वाले जहरीले अवशिष्ट हजारों गुना बढ़ गए। दिन-रात पानी का दोहन होने लगा। विकास के नाम पर इसके अविरल प्रवाह को बाँधा जाने लगा। अब गंगा में डूबकी मारने का मतलब है कई बीमारियों को न्यौता देना।
हालाँकि मौजूदा सरकार की हालिया पहल को देखें तो लगता है कि गंगा को लेकर अब केवल सरकारी खानापूर्ति या हवा-हवाई बातें नहीं हो रही हैं बल्कि वास्तविक धरातल पर भी एक मजबूत संरचना तैयार होती हुई महसूस होने लगी है।
सरकार पावन सलिला को अविरल बनाने के लिए एड़ी-चोटी से लग गई है। गंगा की सफाई के लिए पाँच हजार करोड़ की 76 योजनाएँ प्रस्तावित हैं और उन पर काम चल रहा है। इन योजनाओं के तहत गंगा क्षेत्र में पड़ने वाले पाँच राज्यों के 48 कस्बों में नदी में प्रदूषण रोकना, घाटों का विकास और गंगा स्वच्छता के कार्य में जुटी एजेंसियों को मजबूत बनाने का काम किया जाएगा। सरकार ने हर योजना पर आने वाले खर्च और उसके पूरे होने की अवधि सहित समस्त ब्यौरा सुप्रीम कोर्ट में दिया है।
गंगा की सेहत की जाँच हर पल और हर कदम पर होगी। सरकार उत्तराखण्ड के देव प्रयाग से लेकर पश्चिम बंगाल के डायमण्ड हार्बर तक गंगा नदी में 113 जगहों पर ऐसे सेंसर लगाने जा रही है, जो गंगा के प्रदूषण की जाँच कर ऑनलाइन रिपोर्ट लगातार भेजते रहेंगे। ये अत्याधुनिक सेंसर अगले साल अप्रैल से काम करना शुरू कर देंगे।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने रीयल टाइम गंगाजल में प्रदूषण की जाँच के लिए 20 पैरामीटरों का चयन किया है। ये पैरामीटर हैं- जल में ऑक्सीजन की जैविक माँग (बीओडी), जल में घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), जल में भारी धातु इत्यादि। इन पैरामीटर के आधार पर विभिन्न स्थानों पर गंगाजल में मौजूद अशुद्धि का आकलन किया जाएगा। दुनिया भर में यह पहली बार है जब किसी नदी में प्रदूषण की जाँच की रीयल टाइम निगरानी के लिए इतने बड़े स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेंसरों का इस्तेमाल किया जाएगा।
फिलहाल सीपीसीबी पायलट परीक्षण के तौर पर गंगा और यमुना में 10 निगरानी केन्द्रों पर लगे ऐसे सेंसरों की मदद से दोनों नदियों में प्रदूषण के स्तर की निगरानी रख रहा है।
मौजूदा 10 निगरानी केन्द्रों के अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि रीयल टाइम में प्रदूषण के स्तर को परखने के लिए ये सेंसर बेहतर विकल्प हैं, इसीलिए गंगा पर 113 जगहों पर इन्हें लगाने का फैसला किया गया है। सेंसर से प्राप्त होने वाली रिपोर्ट के आधार पर सरकार को स्थानीय जरूरत के अनुसार उपाय करने में मदद मिलेगी। यह भी पता चलता रहेगा कि सरकार की ओर से किए जा रहे प्रयास कितने प्रभावी हैं, तथा उन्हें ज्यादा कारगर बनाने की कितनी गुंजाइश है।
जमीनी स्तर पर ऑनलाइन निगरानी के लिए सरकार भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) इस्तेमाल करेगी। जीआईएस आधारित इस निगरानी प्रणाली से किसी भी औद्योगिक इकाई या शहर से रोजाना निकलने वाली गन्दगी पर नजर रखी जा सकेगी। इसके जरिए यह भी पता लगाया जा सकेगा कि किस शहर में सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट (एसटीपी) चल रहे हैं और कहाँ बन्द पड़े हैं। साथ ही, किस शहर में एसटीपी कितनी बिजली का उपभोग कर रहे हैं।
गंगा नदी बेसिन के शहरों के लिए तत्काल ही शहरी नदी प्रबन्धन योजनाएँ बनाने और शहरी गन्दे पानी को ट्रीट करने की जरूरत है। इस गन्दे पानी को ट्रीट करके पुनः इस्तेमाल किया जा सकता है। गंगा मन्थन कार्यक्रम में इसका सुझाव आया था। इसके अलावा इसी तरह का सुझाव गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के लिए सात आईआईटी तथा दस अन्य शीर्ष संस्थानों द्वारा तौयार की गई रिपोर्ट में भी दिया गया है।
आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे के नेतृत्व में तैयार की गई इस रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि गन्दे जल को साफ करने के बाद उसे उद्योगों को इस्तेमाल के लिए देना चाहिए। इसके साथ ही गंगा बेसिन क्षेत्र में शुद्ध भूमिगत जल की कीमत गन्दे पानी को साफ करने की लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय करनी चाहिए, ताकि जल के पुनः इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके। रिपोर्ट के अनुसार गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे श्रेणी-1 और श्रेणी-2 के सभी शहरों में सीवेज ट्रीटमेण्ट की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
लिहाजा सरकार की मंशा दीर्घावधि उपाय के तौर पर गंगा तट के सभी शहरों में सीवर व्यवस्था की है। सीवर का शोधित (ट्रीट) पानी भी गंगा में नहीं छोड़ा जाएगा। इसका इस्तेमाल कृषि तथा अन्य कार्यों में किया जाएगा।
उन उद्योगों के लिए भी समय-सीमा तय कर दी है जो गंगा को प्रदूषित कर रही हैं। अगले छह महीने में इन उद्योगों द्वारा गन्दे पानी के शुद्धीकरण की ऑनलाइन निगरानी शुरू हो जाएगी। जाहिर है कि इस बार प्रदूषण फैलाने वाले बड़े गुनाहगारों के लिए बच निकलना मुश्किल होगा।
गंगा के उद्गम गोमुख से उत्तरकाशी के 130 किलोमीटर के क्षेत्र में किसी भी व्यावसायिक या औद्योगिक गतिविधि पर लगे प्रतिबन्ध का सख्ती से पालन होगा। गंगा के आसपास लगे औद्योगिक संस्थानों की भी जल्द ही बैठक होगी। प्रदूषित जल गंगा में छोड़ने की मनाही का पालन उन्हें भी करना होगा। इण्डस्ट्रीज को प्रदूषित जल के शुद्धीकरण प्लाण्ट को दुरुस्त रखना होगा। उसी जल को फिर से औद्योगिक उपयोग में लाना होगा। पर्यावरण मन्त्रालय ने सम्बन्धित राज्यों के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से कहा है कि 31 मार्च 2015 तक इन सभी उद्योगों में प्रदूषण की ऑनलाइन निगरानी के उपकरण लगा दिए जाएँ।
उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में लगभग 900 उद्योगों की गन्दगी गंगा में प्रवाहित हो रही है। इसके अलावा बड़ी तादाद में शहरी क्षेत्रों का सीवर भी बिना ट्रीट किए ही गंगा में डाला जा रहा रहा है। ऐसे में प्रदूषणकारी उद्योगों की निगरानी व्यवस्था बनने से गंगा को निर्मल रखने में मदद मिलेगी।
गंगा किनारे 764 अति प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयाँ लगी हैं। उत्तर प्रदेश में 686 प्रदूषणकारी इकाइयाँ हैं। इसके अलावा उत्तराखण्ड में 42, बिहार में 13 व पश्चिम बंगाल में 22 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं। प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों में 58 फीसदी टेनरीज हैं। इसके अलावा टेक्सटाइल, बलीचिंग और डाइंग, कागज, चीनी व शीतल पेय बनाने वाली औद्योगिक इकाइयाँ भी हैं। गंगा में सबसे ज्यादा गन्दगी उत्तर प्रदेश से खासकर टेनरीज से गिरती है।
सरकार गंगा तट पर दाह संस्कार और पूजा सामग्री के विसर्जन पर लगाम लगाने की तैयारी कर रही है। केन्द्र ने एक समिति बनाई है जो दाह संस्कार से प्रदूषण को रोकने की प्रौद्योगिकी सुझाएगी। साधु-सन्तों को भी ये विचार पसन्द है। उनका कहना है कि सरकार प्रदूषण रोकने की जिस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेगी वह उन्हें स्वीकार होगी।
गंगा स्वच्छता अभियान के लिए सरकार ने पीपीपी मॉडल भी अपनाने का निर्णय लिया है। सरकार पीपीपी के माध्यम से सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाने की सम्भावनाएँ तलाश रही है। ऐसा होने पर निजी कम्पनियाँ ही एसटीपी स्थापित और संचालित करेंगी।
माना जा रहा है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बसे शहरों से निकलने वाले सीवेज को ट्रीट करने पर लगभग 15 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। राज्य सरकारें अगर अपनी ओर से समुचित धनराशि का योगदान नहीं करती हैं तो वैकल्पिक उपाय के रूप केन्द्र पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की मदद लेगा।
गंगा निर्मल बनाने के अभियान से आम लोगों को जोड़ने के लिए सरकार गंगावाहिनी का भी गठन करेगी। गंगावाहिनी में आम लोगों के साथ-साथ रिटायर फौजी से लेकर मछुआरे, नाविक और आइटी पेशेवर शामिल होंगे। समर्पित स्वयंसेवकों की यह फौज गंगा को निर्मल बनाए रखने के लिए गाँवों और शहरों में स्वच्छता के लिए जागरुकता अभियान और वृक्षारोपण जैसे सामुदायिक कार्यक्रम चलाएगी। गंगावाहिनी सेना टास्क फोर्स की तर्ज पर काम करेगी। इको टास्क फोर्स ने पर्यावरण संरक्षण में मिसाल कायम की है।
सरकार ने स्वच्छ गंगा कोष बनाया है। इस कोष में देशवासियों के साथ-साथ अनिवासी भारतीय और भारतीय और भारतीय मूल के लोग भी दान कर सकेंगे। स्वच्छ गंगा कोष में दान करने वालों को टैक्स में छूट मिलेगी। अमेरिका, ब्रिटेन, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे दानदाता देशों के लिए उपकोष भी बनेंगे। स्वच्छ गंगा कोष में जमा होने वाली धनराशि का इस्तेमाल प्रदूषण रोकने, गंगा की जैव विविधता बनाए रखने और घाटों के विकास के लिए किया जाएगा।
अगर सरकार ने गंगा सफाई के लिए बिगुल बजा दिया है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अविरल गंगा के लिए एक्शन प्लान तैयार किया है। इसके तहत गंगोत्री से गंगा सागर तक निगरानी चौकियाँ स्थापित की जाएँगी।
गंगा की सफाई पर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने नदी की स्वच्छता के सम्बन्ध में अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घावधि उपायों का खाका पेश किया।
इसके अनुसार इसमें करीब अठारह साल लगेंगे। गंगा किनारे के 117 शहरों की पहचान सुनिश्चित की गई है, जिसके तहत सबसे पहले सेनिटेशन, वाटर वेस्ट ट्रीटमेण्ट और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेण्ट देखा जाएगा। गंगा की सफाई के लिए चरणबद्ध योजना तैयार की गई है। अल्पावधि उपायों के लिए तीन साल, मध्यावधि के लिए उसके बाद पाँच साल और दीर्घावधि के लिए 10 साल और उससे आगे की समय-सीमा तय की गई है।
मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने के लिए समय-सीमा गंगा बेसिन में बसे पाँच राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद तैयार की गई है।
जीवनदायिनी गंगा पिछले कुछ सालों में लगभग ढाई गुना प्रदूषित हो चुकी है। उसे साफ करने की अब तक की सारी योजनाएँ नाकाम साबित हुई हैं। केन्द्र के हलफनामे के अनुसार 1985 में अनुमान लगाया गया था कि 1340 मिलियन लीटर मल-जल रोज गंगा में मिलता है जबकि 1993 में मल-जल का गंगा में मिलने का आँकड़ा 2537 मिलियन लीटर पहुँच चुका था। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के किनारे टाउनशिप इसका प्रमुख कारण है।
भारतीय संस्कृति में माँ का दर्जा हासिल गंगा वक्त की हिलोरों में बहते हुए सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल हो चुकी हैं। कानपुर के पास इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। कानपुर में चमड़े के वैध-अवैध करीब 400 कारखानों से हर रोज पाँच करोड़ लीटर कचरा निकलता है और सिर्फ 90 लाख लीटर ही ट्रीट हो पाता है। कानपुर और वाराणसी दो बिन्दु हैं, जहाँ गंगा सबसे गन्दी बताई जाती है।
गंगा की बिगड़ती दशा देख मैगसेसे पुरस्कार विजेता मशहूर वकील एमसी मेहता ने 1985 में गंगा के किनारे लगे कारखानों और शहरों से निकलने वाली गन्दगी रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। फिर सरकार ने गंगा सफाई का बीड़ा उठाया और गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई। जून 1985 में गंगा एक्शन प्लान-1 की शुरुआत हुई। इस अभियान में उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के चार और पश्चिम बंगाल के 15 शहरों पर फोकस किया गया। प्लान का पहला चरण 1990 तक पूरा करने की योजना थी, लेकिन समय पर काम पूरा न होने के चलते इसका समय 2001-2008 तक बढ़ाया गया। संसद की लोकलेखा समिति की 2006 की रिपोर्ट में गंगा सफाई के सरकारी कामकाज पर चिन्ता भी व्यक्त की गई।
गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण के लिए 615 करोड़ की स्वीकृति हुई है और 270 परियोजनाएँ बनी जिनमें उत्तर प्रदेश में 43, पश्चिम बंगाल में 170, उत्तराखण्ड में 37 थीं, जिनमें से कुछ ही पूरी हुई। बिहार और उत्तर प्रदेश में तो कई परियोजनाएँ शुरू भी नहीं हो सकीं। अब तक गंगा की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च हो चुका है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ एनजीआरबीए का गठन किया था जिसका मकसद गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के लिए केन्द्र और राज्य के साथ मिलकर काम करना था। फिर भी सरकार को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
सरकार गंगा के लिए एक विशेष विश्वविद्यालय स्थापित करने जा रही है। इस अनूठे विश्वविद्यालय का नाम ‘गंगा यूनिवर्सिटी ऑफ रिवर साइंसेज’ होगा। पूरी दुनिया में यह अपनी तरह का पहला विश्वविद्यालय होगा। इसमें नदी प्रदूषण और जल की गुणवत्ता से लेकर नदियों की विभिन्न अवस्थाओं पर अध्ययन किया जाएगा। इस विश्वविद्यालय से पढ़ने वाले छात्रों को नदियों के अध्ययन में डिग्री मिलेगी।
सत्तर के दशक तक गोमुख के पास साधु-सन्तों की नाम मात्र की कुटियाएँ होती थीं। अब यहाँ बड़ी मात्रा में पर्यटक आते हैं, गन्दगी फैलाते हैं। ढेरों दुकानें हैं। निकटतम् शहर उत्तरकाशी कभी नाम मात्र की जनसंख्या वाला होता था लेकिन अब वहाँ आबादी बेतहाशा बढ़ चुकी है। ऋषिकेश और हरिद्वार हमेशा ही हजारों-लाखों श्रद्धालुओं से अटे रहने लगे हैं। यहाँ तब भी कसर रहती है। गंगा का पानी नीला और स्वच्छ दिखता है लेकिन आगे तो प्रदूषण बढ़ता चला जाता है। कमर्शियल दोहन शुरू होने लगता है। हरिद्वार के पास से ही भीमगंगा बैराज से नदी का 95 फीसदी पानी पूर्वी और पश्चिमी गंगा नहरों की ओर रवाना कर दिया जाता है। फिर आगे बढ़ने के साथ ही गंगा के जल का इसी तरह बँटवारा होते चलता है। तमाम नहरें गंगा का स्वच्छ पानी ले तो लेती हैं बदले में इसे मिलता है—शहरों की गन्दगी, जहरीले रसायन और कूड़ा-करकट।
उत्तर प्रदेश की 1000 किलोमीटर की यात्रा नदी को जर्जर, बीमार और प्रदूषित कर देने के लिए काफी होती है। इसके बाद ये नदी उबर नहीं पाती। इसका स्वरूप, चरित्र, प्रवाह सभी पर प्रतिकूल असर दिखने लगता है। पूरे उत्तर भारत में गंगा के किनारे इण्डस्ट्रीज और कारखानों की बड़ी तादाद खड़ी हो चुकी है। रोज हजारों-लाखों गैलन रासायनिक कचरा धड़ल्ले से नदी में मिलता है। तमाम शहरों की सीवेज लाइनों का जो बोझ, सो अलग। आधिकारिक तौर पर सौ मिलीलीटर पानी में 500 कॉलिफार्म बैक्टीरिया प्रदूषण को सामान्य माना जाता है। ये पानी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें नहाने आदि से बीमारियों का खतरा नहीं रहता लेकिन उत्तर भारत के शहरों से निकलने वाली गंगा में प्रदूषण इतना ज्यादा है कि कल्पना भी कठिन है। एक अनुमान के अनुसार वाराणसी और कानपुर में प्रदूषण 60 हजार कॉलिफार्म बैक्टीरिया प्रति सौ मिलीलीटर है। समझा जा सकता है कि जिस पानी में प्रदूषण की मात्रा सामान्य मानकों से इतना ज्यादा है, उसका इस्तेमाल करने वालों की क्या हालत हो सकती है। इस पानी में मूल गंगा का एक फीसदी भी चरित्र नहीं होता।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि ये पानी त्वचा रोगों को बढ़ा सकता है और बिल्कुल इस्तेमाल के लायक नहीं है। जबरदस्त प्रदूषण के चलते गंगा में अब अपने पानी को खुद साफ करने और बैक्टीरिया को मारने की ताकत काफी हद तक खत्म हो चली है। दुनिया भर की नदियों में ये अकेली गंगा ही थी, जो खुद में विद्यमान बैक्टीरियोफेजेस विषाणुओं के जरिए पानी में दूसरे हानिकारक बैक्टीरिया और तत्वों को पनपने नहीं देती थी। अफसोस अब ऐसा नहीं रहा। इसका कारण भी जरूरत से ज्यादा पानी ज्यादा विषाक्त प्रदूषण है। इसके चलते नदी में पलने वाले जीव-जन्तु , 130 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ, कछुएँ, डाल्फिन मरने लगे हैं।
गंगा के किनारे बसे शहरों और नगरों में सैकड़ों सीवेज करोड़ों टन गन्दगी रोज नदी में उड़ेलते हैं। गंगा एक्शन प्लान के तहत इन सीवेज पाइप्स को वाटर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट से जोड़ने की योजना बनाई गई। कई वाटर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट बने भी लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा सरीखे और ऐसे जो अक्सर खराब ही रहते हैं।
अगर प्रदूषण एक बड़ा खतरा है तो बदलता मौसम और ग्लोबल वार्मिंग एक नया खतरा लेकर आया है। यूँ तो दुनिया भर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, लेकिन इसका असर गंगोत्री ग्लोशियर पर खासा दिख रहा है। क्लाइमेट रिपोर्ट कहती है कि गंगा नदी को पानी मुहैया कराने वाले ग्लेशियर जिस तेजी से सिकुड़ और पिघल रहे हैं, उसके चलते अगले कुछ दशकों में इनका नामोनिशान मिट सकता है। तब गंगा को मानसून के पानी पर निर्भर रहना पड़ेगा।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड की रिपोर्ट आगाह करती है कि अगर गंगा खतरे में है तो तय मानिए कि फिर करोड़ों लोगों का जीवन भी खतरे में है और सबसे बड़ा नुकसान पर्यावरणीय सन्तुलन में होगा। काश लोग अभी भी चेतें और गंगा को बचाने की मुहिम में साथ दें।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
अब समय है पवित्र गंगा को बचाने का। पहली बार गंगा को निर्मल और अविरल बनाने पर गम्भीर पहल होती दिख रही है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा की सफाई को राष्ट्रीय महत्व का दर्जा देकर जनान्दोलन बनाने का भरोसा दिया है।
शुरुआती सौ दिनों के भीतर ही न केवल गंगा के लिए अलग मन्त्रालय बनाया गया बल्कि पतित पावनी को निर्मल बनाने के लिए 2,037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना का भी ऐलान किया गया। साथ ही गंगा तथा यमुना के घाटों के संरक्षण के लिए भी 100 करोड़ रुपए आवण्टित किए गए। पहली बार किसी सरकार ने प्राथमिकताओं में गंगा को इतना ऊपर रखा है।
केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मन्त्री उमा भारती कहती हैं, ‘गंगा नदी तीन साल में साफ होगी। सात साल में व्यवस्था दुरुस्त होगी, तभी दस साल में अविरल व निर्मल गंगा की कल्पना साकार हो सकेगी। सरकार ने इसके लिए दीर्घ व अल्पावधि योजनाएँ तैयार की हैं। अल्पावधि के तहत तीन साल में गंगा में कल-कारखानों का रासायनिक कचरा गिरने से रोका जाएगा जबकि दीर्घावधि में उसकी धारा अविरल हो जाएगी।’
गंगा का बखान ईसा से साढ़े सात हजार साल पहले ऋग्वेद और दूसरे पुराणों में मिलता है। पौराणिक कथाएँ कहती हैं कि गंगा नदी भगवान ब्रह्मा के कमण्डल से निकलीं। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों की श्रापित होकर भटकती आत्माओं की शान्ति के लिए तप किया। वह चाहते थे कि ब्रह्माजी गंगा नदी को पृथ्वी पर भेजें ताकि उनके पूर्वजों का कल्याण हो। ब्रह्माजी खुश हुए। अब सवाल था कि गंगा इतनी ऊँचाई से प्रचण्ड वेग के साथ जब पृथ्वी पर आएँगी तो इस धारा का क्या होगा, तब भगवान शिव आगे आए और उन्होंने एक जटा को खोलकर इसके जरिए गंगा का पृथ्वी पर आने का रास्ता सुलभ किया। वैसे गंगा को लेकर न जाने कितनी ही पौराणिक कहानियाँ हैं।
करीब 2525 किलोमीटर की लम्बी यात्रा पर निकलने से पहले गंगा गंगोत्री में करीब तीन हजार फुट की ऊँचाई से गोमुख से निकलती हैं। सागर से मिलने से पहले धरती पर उनका आखिरी बिन्दु सुन्दरवन है। कहा जाता है कि दुनिया में शायद ही कोई ऐसी नदी हो, जो इतनी उत्पादक और पवित्र हो। भला कौन-सी नदी होगी, जिसने इर्द-गिर्द के इतने लम्बे क्षेत्र को उपजाऊ और उत्पादक बनाकर खुशहाली से भरा हो। नदी के करीब आते ही महसूस होने लगता है कि मानो किसी आध्यात्मिक यात्रा से जुड़ रहे हों। गंगा का आश्रय और निकटता पाकर जितना धर्म-कर्म फला-फूला और साहित्य रचा गया, वो कहाँ और मुमकिन हो सकता था। आमतौर पर गंगा के किनारे जो शहर-गाँव बसे, उनकी तहजीब और दर्शन ने मानवता को समृद्ध किया।
तमाम विदेशी तीर्थयात्री गंगा पर मुग्ध दिखे। तमाम अँग्रेज़ विद्वानों ने गंगा पर किताबें और कविताएँ रच डालीं। हिन्दुओं के जीवन, मन-करम-वचन पर सदियों से गहरा असर डालने वाली रामचरित मानस की रचना भी तुलसीदास ने गंगा किनारे ही की। कुल मिलाकर गंगा की अथक यात्रा ने हमारे देश को एक चरित्र दिया, इसके कण-कण में मस्ती और भरपूर जीवन का आलम भरा। आम हिन्दू मानता है कि गंगा में एक बार नहाए बगैर उनका जीवन अधूरा है। गंगा का पानी घर में रखना पवित्र माना जाता है। पूजा-अनुष्ठान बगैर इसके नहीं होते।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने रीयल टाइम गंगाजल में प्रदूषण की जाँच के लिए 20 पैरामीटरों का चयन किया है। ये पैरामीटर हैं- जल में ऑक्सीजन की जैविक माँग (बीओडी), जल में घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), जल में भारी धातु इत्यादि। इन पैरामीटर के आधार पर विभिन्न स्थानों पर गंगाजल में मौजूद अशुद्धि का आकलन किया जाएगा। लेकिन गंगा का एक और पहलू भी है, जिसे हम सबने मिलकर रचा है — हम सबने इसे दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में शुमार कर दिया। अब ये हम सबकी गन्दगी, घरों से निकला कूड़ा, कारखानों से निकल रहे जहरीले अवशिष्ट को ढोने वाली नदी में तब्दील हो चुकी है। इस पानी में खुद गंगा का श्वांस लेना मुश्किल हो चला है। हालाँकि गंगा से खिलवाड़ की शुरुआत बीसवीं सदी की शुरुआत में ही हो गई थी। वर्ष 1912 में मदन मोहन मालवीय ने पहली बार गंगा के लिए आन्दोलन किया था। तब विरोध नहर और बाँध बनाकर नदी की धारा मोड़ने को लेकर था। हालाँकि दशकों से गंगा हमारे शहरों से निकली गन्दगी को ढो रही थी लेकिन नदी का असल दुर्भाग्य पिछले तीन-चार दशकों से तब ज्यादा शुरू हो गया जब बाजारीकरण और आर्थिक उदारीकरण के चलते फ़ैक्टरियाँ बढ़ने लगीं और नदी में आने वाले जहरीले अवशिष्ट हजारों गुना बढ़ गए। दिन-रात पानी का दोहन होने लगा। विकास के नाम पर इसके अविरल प्रवाह को बाँधा जाने लगा। अब गंगा में डूबकी मारने का मतलब है कई बीमारियों को न्यौता देना।
हालाँकि मौजूदा सरकार की हालिया पहल को देखें तो लगता है कि गंगा को लेकर अब केवल सरकारी खानापूर्ति या हवा-हवाई बातें नहीं हो रही हैं बल्कि वास्तविक धरातल पर भी एक मजबूत संरचना तैयार होती हुई महसूस होने लगी है।
सरकार पावन सलिला को अविरल बनाने के लिए एड़ी-चोटी से लग गई है। गंगा की सफाई के लिए पाँच हजार करोड़ की 76 योजनाएँ प्रस्तावित हैं और उन पर काम चल रहा है। इन योजनाओं के तहत गंगा क्षेत्र में पड़ने वाले पाँच राज्यों के 48 कस्बों में नदी में प्रदूषण रोकना, घाटों का विकास और गंगा स्वच्छता के कार्य में जुटी एजेंसियों को मजबूत बनाने का काम किया जाएगा। सरकार ने हर योजना पर आने वाले खर्च और उसके पूरे होने की अवधि सहित समस्त ब्यौरा सुप्रीम कोर्ट में दिया है।
लगेंगे 113 जगहों पर सेंसर
गंगा की सेहत की जाँच हर पल और हर कदम पर होगी। सरकार उत्तराखण्ड के देव प्रयाग से लेकर पश्चिम बंगाल के डायमण्ड हार्बर तक गंगा नदी में 113 जगहों पर ऐसे सेंसर लगाने जा रही है, जो गंगा के प्रदूषण की जाँच कर ऑनलाइन रिपोर्ट लगातार भेजते रहेंगे। ये अत्याधुनिक सेंसर अगले साल अप्रैल से काम करना शुरू कर देंगे।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने रीयल टाइम गंगाजल में प्रदूषण की जाँच के लिए 20 पैरामीटरों का चयन किया है। ये पैरामीटर हैं- जल में ऑक्सीजन की जैविक माँग (बीओडी), जल में घुलनशील ऑक्सीजन (डीओ), जल में भारी धातु इत्यादि। इन पैरामीटर के आधार पर विभिन्न स्थानों पर गंगाजल में मौजूद अशुद्धि का आकलन किया जाएगा। दुनिया भर में यह पहली बार है जब किसी नदी में प्रदूषण की जाँच की रीयल टाइम निगरानी के लिए इतने बड़े स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेंसरों का इस्तेमाल किया जाएगा।
फिलहाल सीपीसीबी पायलट परीक्षण के तौर पर गंगा और यमुना में 10 निगरानी केन्द्रों पर लगे ऐसे सेंसरों की मदद से दोनों नदियों में प्रदूषण के स्तर की निगरानी रख रहा है।
मौजूदा 10 निगरानी केन्द्रों के अनुभव से यह सिद्ध हो गया है कि रीयल टाइम में प्रदूषण के स्तर को परखने के लिए ये सेंसर बेहतर विकल्प हैं, इसीलिए गंगा पर 113 जगहों पर इन्हें लगाने का फैसला किया गया है। सेंसर से प्राप्त होने वाली रिपोर्ट के आधार पर सरकार को स्थानीय जरूरत के अनुसार उपाय करने में मदद मिलेगी। यह भी पता चलता रहेगा कि सरकार की ओर से किए जा रहे प्रयास कितने प्रभावी हैं, तथा उन्हें ज्यादा कारगर बनाने की कितनी गुंजाइश है।
जीआईएस प्रणाली से निगरानी
जमीनी स्तर पर ऑनलाइन निगरानी के लिए सरकार भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) इस्तेमाल करेगी। जीआईएस आधारित इस निगरानी प्रणाली से किसी भी औद्योगिक इकाई या शहर से रोजाना निकलने वाली गन्दगी पर नजर रखी जा सकेगी। इसके जरिए यह भी पता लगाया जा सकेगा कि किस शहर में सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट (एसटीपी) चल रहे हैं और कहाँ बन्द पड़े हैं। साथ ही, किस शहर में एसटीपी कितनी बिजली का उपभोग कर रहे हैं।
गन्दे पानी का फिर ट्रीटमेण्ट
गंगा नदी बेसिन के शहरों के लिए तत्काल ही शहरी नदी प्रबन्धन योजनाएँ बनाने और शहरी गन्दे पानी को ट्रीट करने की जरूरत है। इस गन्दे पानी को ट्रीट करके पुनः इस्तेमाल किया जा सकता है। गंगा मन्थन कार्यक्रम में इसका सुझाव आया था। इसके अलावा इसी तरह का सुझाव गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के लिए सात आईआईटी तथा दस अन्य शीर्ष संस्थानों द्वारा तौयार की गई रिपोर्ट में भी दिया गया है।
आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे के नेतृत्व में तैयार की गई इस रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि गन्दे जल को साफ करने के बाद उसे उद्योगों को इस्तेमाल के लिए देना चाहिए। इसके साथ ही गंगा बेसिन क्षेत्र में शुद्ध भूमिगत जल की कीमत गन्दे पानी को साफ करने की लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय करनी चाहिए, ताकि जल के पुनः इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके। रिपोर्ट के अनुसार गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे श्रेणी-1 और श्रेणी-2 के सभी शहरों में सीवेज ट्रीटमेण्ट की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।
लिहाजा सरकार की मंशा दीर्घावधि उपाय के तौर पर गंगा तट के सभी शहरों में सीवर व्यवस्था की है। सीवर का शोधित (ट्रीट) पानी भी गंगा में नहीं छोड़ा जाएगा। इसका इस्तेमाल कृषि तथा अन्य कार्यों में किया जाएगा।
उद्योगों पर सख्ती
उन उद्योगों के लिए भी समय-सीमा तय कर दी है जो गंगा को प्रदूषित कर रही हैं। अगले छह महीने में इन उद्योगों द्वारा गन्दे पानी के शुद्धीकरण की ऑनलाइन निगरानी शुरू हो जाएगी। जाहिर है कि इस बार प्रदूषण फैलाने वाले बड़े गुनाहगारों के लिए बच निकलना मुश्किल होगा।
गंगा के उद्गम गोमुख से उत्तरकाशी के 130 किलोमीटर के क्षेत्र में किसी भी व्यावसायिक या औद्योगिक गतिविधि पर लगे प्रतिबन्ध का सख्ती से पालन होगा। गंगा के आसपास लगे औद्योगिक संस्थानों की भी जल्द ही बैठक होगी। प्रदूषित जल गंगा में छोड़ने की मनाही का पालन उन्हें भी करना होगा। इण्डस्ट्रीज को प्रदूषित जल के शुद्धीकरण प्लाण्ट को दुरुस्त रखना होगा। उसी जल को फिर से औद्योगिक उपयोग में लाना होगा। पर्यावरण मन्त्रालय ने सम्बन्धित राज्यों के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से कहा है कि 31 मार्च 2015 तक इन सभी उद्योगों में प्रदूषण की ऑनलाइन निगरानी के उपकरण लगा दिए जाएँ।
उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में लगभग 900 उद्योगों की गन्दगी गंगा में प्रवाहित हो रही है। इसके अलावा बड़ी तादाद में शहरी क्षेत्रों का सीवर भी बिना ट्रीट किए ही गंगा में डाला जा रहा रहा है। ऐसे में प्रदूषणकारी उद्योगों की निगरानी व्यवस्था बनने से गंगा को निर्मल रखने में मदद मिलेगी।
गंगा किनारे 764 अति प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयाँ लगी हैं। उत्तर प्रदेश में 686 प्रदूषणकारी इकाइयाँ हैं। इसके अलावा उत्तराखण्ड में 42, बिहार में 13 व पश्चिम बंगाल में 22 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयाँ स्थित हैं। प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों में 58 फीसदी टेनरीज हैं। इसके अलावा टेक्सटाइल, बलीचिंग और डाइंग, कागज, चीनी व शीतल पेय बनाने वाली औद्योगिक इकाइयाँ भी हैं। गंगा में सबसे ज्यादा गन्दगी उत्तर प्रदेश से खासकर टेनरीज से गिरती है।
तट पर दाह संस्कार पर रोक
सरकार गंगा तट पर दाह संस्कार और पूजा सामग्री के विसर्जन पर लगाम लगाने की तैयारी कर रही है। केन्द्र ने एक समिति बनाई है जो दाह संस्कार से प्रदूषण को रोकने की प्रौद्योगिकी सुझाएगी। साधु-सन्तों को भी ये विचार पसन्द है। उनका कहना है कि सरकार प्रदूषण रोकने की जिस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेगी वह उन्हें स्वीकार होगी।
पीपीपी मॉडल
गंगा स्वच्छता अभियान के लिए सरकार ने पीपीपी मॉडल भी अपनाने का निर्णय लिया है। सरकार पीपीपी के माध्यम से सीवेज ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट लगाने की सम्भावनाएँ तलाश रही है। ऐसा होने पर निजी कम्पनियाँ ही एसटीपी स्थापित और संचालित करेंगी।
माना जा रहा है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बसे शहरों से निकलने वाले सीवेज को ट्रीट करने पर लगभग 15 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा। राज्य सरकारें अगर अपनी ओर से समुचित धनराशि का योगदान नहीं करती हैं तो वैकल्पिक उपाय के रूप केन्द्र पीपीपी के माध्यम से निजी क्षेत्र की मदद लेगा।
गंगा वाहिनी
गंगा निर्मल बनाने के अभियान से आम लोगों को जोड़ने के लिए सरकार गंगावाहिनी का भी गठन करेगी। गंगावाहिनी में आम लोगों के साथ-साथ रिटायर फौजी से लेकर मछुआरे, नाविक और आइटी पेशेवर शामिल होंगे। समर्पित स्वयंसेवकों की यह फौज गंगा को निर्मल बनाए रखने के लिए गाँवों और शहरों में स्वच्छता के लिए जागरुकता अभियान और वृक्षारोपण जैसे सामुदायिक कार्यक्रम चलाएगी। गंगावाहिनी सेना टास्क फोर्स की तर्ज पर काम करेगी। इको टास्क फोर्स ने पर्यावरण संरक्षण में मिसाल कायम की है।
गंगा कोष
सरकार ने स्वच्छ गंगा कोष बनाया है। इस कोष में देशवासियों के साथ-साथ अनिवासी भारतीय और भारतीय और भारतीय मूल के लोग भी दान कर सकेंगे। स्वच्छ गंगा कोष में दान करने वालों को टैक्स में छूट मिलेगी। अमेरिका, ब्रिटेन, सिंगापुर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे दानदाता देशों के लिए उपकोष भी बनेंगे। स्वच्छ गंगा कोष में जमा होने वाली धनराशि का इस्तेमाल प्रदूषण रोकने, गंगा की जैव विविधता बनाए रखने और घाटों के विकास के लिए किया जाएगा।
निगरानी चौकियाँ
अगर सरकार ने गंगा सफाई के लिए बिगुल बजा दिया है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अविरल गंगा के लिए एक्शन प्लान तैयार किया है। इसके तहत गंगोत्री से गंगा सागर तक निगरानी चौकियाँ स्थापित की जाएँगी।
सरकार की रिपोर्ट
गंगा की सफाई पर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने नदी की स्वच्छता के सम्बन्ध में अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घावधि उपायों का खाका पेश किया।
इसके अनुसार इसमें करीब अठारह साल लगेंगे। गंगा किनारे के 117 शहरों की पहचान सुनिश्चित की गई है, जिसके तहत सबसे पहले सेनिटेशन, वाटर वेस्ट ट्रीटमेण्ट और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेण्ट देखा जाएगा। गंगा की सफाई के लिए चरणबद्ध योजना तैयार की गई है। अल्पावधि उपायों के लिए तीन साल, मध्यावधि के लिए उसके बाद पाँच साल और दीर्घावधि के लिए 10 साल और उससे आगे की समय-सीमा तय की गई है।
मौजूदा परियोजनाओं को पूरा करने के लिए समय-सीमा गंगा बेसिन में बसे पाँच राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद तैयार की गई है।
रोज करोड़ों लीटर कचरा
जीवनदायिनी गंगा पिछले कुछ सालों में लगभग ढाई गुना प्रदूषित हो चुकी है। उसे साफ करने की अब तक की सारी योजनाएँ नाकाम साबित हुई हैं। केन्द्र के हलफनामे के अनुसार 1985 में अनुमान लगाया गया था कि 1340 मिलियन लीटर मल-जल रोज गंगा में मिलता है जबकि 1993 में मल-जल का गंगा में मिलने का आँकड़ा 2537 मिलियन लीटर पहुँच चुका था। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के किनारे टाउनशिप इसका प्रमुख कारण है।
भारतीय संस्कृति में माँ का दर्जा हासिल गंगा वक्त की हिलोरों में बहते हुए सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल हो चुकी हैं। कानपुर के पास इसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। कानपुर में चमड़े के वैध-अवैध करीब 400 कारखानों से हर रोज पाँच करोड़ लीटर कचरा निकलता है और सिर्फ 90 लाख लीटर ही ट्रीट हो पाता है। कानपुर और वाराणसी दो बिन्दु हैं, जहाँ गंगा सबसे गन्दी बताई जाती है।
गंगा की बिगड़ती दशा देख मैगसेसे पुरस्कार विजेता मशहूर वकील एमसी मेहता ने 1985 में गंगा के किनारे लगे कारखानों और शहरों से निकलने वाली गन्दगी रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। फिर सरकार ने गंगा सफाई का बीड़ा उठाया और गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत हुई। जून 1985 में गंगा एक्शन प्लान-1 की शुरुआत हुई। इस अभियान में उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के चार और पश्चिम बंगाल के 15 शहरों पर फोकस किया गया। प्लान का पहला चरण 1990 तक पूरा करने की योजना थी, लेकिन समय पर काम पूरा न होने के चलते इसका समय 2001-2008 तक बढ़ाया गया। संसद की लोकलेखा समिति की 2006 की रिपोर्ट में गंगा सफाई के सरकारी कामकाज पर चिन्ता भी व्यक्त की गई।
गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण के लिए 615 करोड़ की स्वीकृति हुई है और 270 परियोजनाएँ बनी जिनमें उत्तर प्रदेश में 43, पश्चिम बंगाल में 170, उत्तराखण्ड में 37 थीं, जिनमें से कुछ ही पूरी हुई। बिहार और उत्तर प्रदेश में तो कई परियोजनाएँ शुरू भी नहीं हो सकीं। अब तक गंगा की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च हो चुका है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ एनजीआरबीए का गठन किया था जिसका मकसद गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के लिए केन्द्र और राज्य के साथ मिलकर काम करना था। फिर भी सरकार को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
गंगा के लिए पहला विश्वविद्यालय
सरकार गंगा के लिए एक विशेष विश्वविद्यालय स्थापित करने जा रही है। इस अनूठे विश्वविद्यालय का नाम ‘गंगा यूनिवर्सिटी ऑफ रिवर साइंसेज’ होगा। पूरी दुनिया में यह अपनी तरह का पहला विश्वविद्यालय होगा। इसमें नदी प्रदूषण और जल की गुणवत्ता से लेकर नदियों की विभिन्न अवस्थाओं पर अध्ययन किया जाएगा। इस विश्वविद्यालय से पढ़ने वाले छात्रों को नदियों के अध्ययन में डिग्री मिलेगी।
बदल गई तस्वीर
सत्तर के दशक तक गोमुख के पास साधु-सन्तों की नाम मात्र की कुटियाएँ होती थीं। अब यहाँ बड़ी मात्रा में पर्यटक आते हैं, गन्दगी फैलाते हैं। ढेरों दुकानें हैं। निकटतम् शहर उत्तरकाशी कभी नाम मात्र की जनसंख्या वाला होता था लेकिन अब वहाँ आबादी बेतहाशा बढ़ चुकी है। ऋषिकेश और हरिद्वार हमेशा ही हजारों-लाखों श्रद्धालुओं से अटे रहने लगे हैं। यहाँ तब भी कसर रहती है। गंगा का पानी नीला और स्वच्छ दिखता है लेकिन आगे तो प्रदूषण बढ़ता चला जाता है। कमर्शियल दोहन शुरू होने लगता है। हरिद्वार के पास से ही भीमगंगा बैराज से नदी का 95 फीसदी पानी पूर्वी और पश्चिमी गंगा नहरों की ओर रवाना कर दिया जाता है। फिर आगे बढ़ने के साथ ही गंगा के जल का इसी तरह बँटवारा होते चलता है। तमाम नहरें गंगा का स्वच्छ पानी ले तो लेती हैं बदले में इसे मिलता है—शहरों की गन्दगी, जहरीले रसायन और कूड़ा-करकट।
उत्तर प्रदेश की 1000 किलोमीटर की यात्रा नदी को जर्जर, बीमार और प्रदूषित कर देने के लिए काफी होती है। इसके बाद ये नदी उबर नहीं पाती। इसका स्वरूप, चरित्र, प्रवाह सभी पर प्रतिकूल असर दिखने लगता है। पूरे उत्तर भारत में गंगा के किनारे इण्डस्ट्रीज और कारखानों की बड़ी तादाद खड़ी हो चुकी है। रोज हजारों-लाखों गैलन रासायनिक कचरा धड़ल्ले से नदी में मिलता है। तमाम शहरों की सीवेज लाइनों का जो बोझ, सो अलग। आधिकारिक तौर पर सौ मिलीलीटर पानी में 500 कॉलिफार्म बैक्टीरिया प्रदूषण को सामान्य माना जाता है। ये पानी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें नहाने आदि से बीमारियों का खतरा नहीं रहता लेकिन उत्तर भारत के शहरों से निकलने वाली गंगा में प्रदूषण इतना ज्यादा है कि कल्पना भी कठिन है। एक अनुमान के अनुसार वाराणसी और कानपुर में प्रदूषण 60 हजार कॉलिफार्म बैक्टीरिया प्रति सौ मिलीलीटर है। समझा जा सकता है कि जिस पानी में प्रदूषण की मात्रा सामान्य मानकों से इतना ज्यादा है, उसका इस्तेमाल करने वालों की क्या हालत हो सकती है। इस पानी में मूल गंगा का एक फीसदी भी चरित्र नहीं होता।
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि ये पानी त्वचा रोगों को बढ़ा सकता है और बिल्कुल इस्तेमाल के लायक नहीं है। जबरदस्त प्रदूषण के चलते गंगा में अब अपने पानी को खुद साफ करने और बैक्टीरिया को मारने की ताकत काफी हद तक खत्म हो चली है। दुनिया भर की नदियों में ये अकेली गंगा ही थी, जो खुद में विद्यमान बैक्टीरियोफेजेस विषाणुओं के जरिए पानी में दूसरे हानिकारक बैक्टीरिया और तत्वों को पनपने नहीं देती थी। अफसोस अब ऐसा नहीं रहा। इसका कारण भी जरूरत से ज्यादा पानी ज्यादा विषाक्त प्रदूषण है। इसके चलते नदी में पलने वाले जीव-जन्तु , 130 से ज्यादा प्रजातियों की मछलियाँ, कछुएँ, डाल्फिन मरने लगे हैं।
गंगा के किनारे बसे शहरों और नगरों में सैकड़ों सीवेज करोड़ों टन गन्दगी रोज नदी में उड़ेलते हैं। गंगा एक्शन प्लान के तहत इन सीवेज पाइप्स को वाटर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट से जोड़ने की योजना बनाई गई। कई वाटर ट्रीटमेण्ट प्लाण्ट बने भी लेकिन ऊँट के मुँह में जीरा सरीखे और ऐसे जो अक्सर खराब ही रहते हैं।
अगर प्रदूषण एक बड़ा खतरा है तो बदलता मौसम और ग्लोबल वार्मिंग एक नया खतरा लेकर आया है। यूँ तो दुनिया भर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, लेकिन इसका असर गंगोत्री ग्लोशियर पर खासा दिख रहा है। क्लाइमेट रिपोर्ट कहती है कि गंगा नदी को पानी मुहैया कराने वाले ग्लेशियर जिस तेजी से सिकुड़ और पिघल रहे हैं, उसके चलते अगले कुछ दशकों में इनका नामोनिशान मिट सकता है। तब गंगा को मानसून के पानी पर निर्भर रहना पड़ेगा।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड की रिपोर्ट आगाह करती है कि अगर गंगा खतरे में है तो तय मानिए कि फिर करोड़ों लोगों का जीवन भी खतरे में है और सबसे बड़ा नुकसान पर्यावरणीय सन्तुलन में होगा। काश लोग अभी भी चेतें और गंगा को बचाने की मुहिम में साथ दें।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं)
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