बिहार में आम उत्पादन का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है। एक दशक में उत्पादन क्षेत्रफल में 4 फीसदी की गिरावट आई है। अब यह एक लाख 20 हजार हेक्टेयर तक सिमट गया है। बीस साल में उत्पादन क्षेत्रफल में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसी तरह उत्पादकता 12 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर से घटकर 9 पर पहुंच गई है। क्षेत्रफल के साथ ही उत्पादन में भी 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। आम का आकार भी छोटा होता जा रहा है।
पटना के दीघा में पहले दुधिया मालदह आम के हजारों पेड़ थे। अब इनमें से आधे भी नहीं बचे हैं। आम के बगीचे काटे जा रहे हैं। अपार्टमेंट संस्कृति का सुरसाई विस्तार बगीचों को लील रहा है। जहां हरे-भरे बगीचे थे, वहां अब ऊंची इमारतें नजर आती हैं। यह हालत सिर्फ पटना की ही नहीं है बल्कि मुजफ्फरपुर के लीची बगीचों से लेकर भागलपुर के जर्दालू आम के बगानों तक में कंक्रीट के नए जंगल विकसित हो रहे हैं। बगीचों के वजूद पर मंडराते इस संकट को अब बिहार सरकार ने भी महसूस किया है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर सूबे में बगीचा बचाओ अभियान की शुरुआत हुई है। दरअसल विकास की रफ्तार तेज होने के बाद रीयल एस्टेट का विस्तार शुरू हुआ। अपार्टमेंट संस्कृति बढ़ने के साथ ही जमीन के दाम बढ़ने लगे लेकिन जमीन तो सीमित है, लिहाजा संकट बगीचों पर आ गया है। बिहार में पहले तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बगीचे थे जो अब सवा लाख हेक्टेयर तक सिमट गए हैं।मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि बिहार के हर क्षेत्र में विशिष्ट फलों का उत्पादन होता है। भागलपुर का जर्दालु और दीघा का दूधिया मालदह आम बिहार की पहचान से जुड़ा है। इसी तरह मुजफ्फरपुर और आसपास के इलाकों में होने वाली लीची पूरी दुनिया में अपनी पहचान रखती है। इन तमाम फलों की विशिष्टता बचाए रखने की जरूरत है। यही वजह है कि राज्य सरकार ने फल किसानों को बगीचा बचाने के लिए हजार रुपए का अनुदान देने का निर्णय लिया है। बगीचों को बचाने के लिए वैज्ञानिकों की देखरेख में फलों के नए पौधे लगाने और उनके विकास की पुख्ता व्यवस्था की जा रही है। उपग्रहीय चित्रों के माध्यम से राज्य में बगीचों की सटीक जानकारी का ब्यौरा तैयार कराया जा रहा है। दरअसल, कृषि विभाग गलत आंकड़े भी प्रस्तुत कर देता है। मगर इस तकनीक से हालात का सही जायजा लिया जा सकेगा।
बिहार सरकार ने संतुलन पर जोर दिया है। डेढ़ लाख करोड़ का कृषि रोडमैप बनाया गया है। इसमें सिर्फ अनाज उत्पादन ही नहीं बल्कि फल और सब्जी उत्पादन ही नहीं बल्कि फल और सब्जी उत्पादन भी शामिल है। जाहिर है, बगीचों को हर हाल में नई जिंदगी देनी होगी। इसलिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन से वंचित इलाकों में बगीचा बचाओ अभियान चलाया जाएगा। किसानों को फलों के पौधे लगाने में मदद दी जाएगी। बगीचों में प्रति एकड़ जोताई के लिए किसानों को अनुदान देने का भी निर्णय लिया गया है जिससे बगीचों का क्षेत्रफल बढ़ेगा। सरकार धन-प्रबंधन कर रही है और इसमें लीकेज रोकने के उपाय हो रहे हैं।
बिहार के किसानों ने अपने बूते कृषि के क्षेत्र में कई रिकॉर्ड बनाए हैं। धान, आलू और प्याज के उत्पादन में किसानों ने विश्व रिकॉर्ड तोड़ा है। गेहूं के उत्पादन में भी राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ा है। इसी तरह फल उत्पादन में विश्व कीर्तिमान बनाने की योजना पर अमल शुरू हो गया है। पड़ोसी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की तुलना में बिहार में आम का उत्पादन अधिक रहा है। बिहार देश का तीसरा बड़ा आम उत्पादक प्रदेश है। आंध्र प्रदेश अव्वल नंबर पर है लेकिन गुणवत्ता में बिहार के आम अन्य इलाकों से कहीं आगे हैं। बिहार के आम का छिलका पतला होता है और गुदे (पल्प) की मात्रा ज्यादा होती है। दीघा के आणों की खपत पूरे देश के अलावा विदेशों में भी होती रही है। जबकि भागलपुर के जर्दालु की पहुंच उत्तर-पूर्वी राज्यों और सिलीगुड़ी तक रही है। बिहार में कुल फल उत्पादन क्षेत्र के 48.5 प्रतिशत इलाके में आम के बगीचे हैं। सफेद मालदाह, मल्लिका, जर्दालु, गुलाबखास, कृष्णभोग, चौसा और सिपिया की पूरे देश में धूम रही है।
राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में प्रति हेक्टेयर आम की उत्पादकता 7.70 मीट्रिक टन रही है तो पश्चिम बंगाल में 8.94 मीट्रिक टन लेकिन बिहार में आम की उत्पादकता राष्ट्रीय औसत से भी अधिक 9 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर रही है। 1994 और 1999 में बिहार में उत्पादकता अपने शीर्ष पर 12 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर थी। लेकिन दुखद पहलू यह है कि बिहार में आम उत्पादन का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है। एक दशक में उत्पादन क्षेत्रफल में 4 फीसदी की गिरावट आई है। अब यह एक लाख 20 हजार हेक्टेयर तक सिमट गया है। बीस साल में उत्पादन क्षेत्रफल में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसी तरह उत्पादकता 12 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर से घटकर 9 पर पहुंच गई है। क्षेत्रफल के साथ ही उत्पादन में भी 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। आम का आकार भी छोटा होता जा रहा है। आम के अधिकांश बगीचे पुराने हैं और नई किस्में विकसित करने के लिए उन्नत नर्सरी नहीं बनाई जा सकी है। नए पेड़ नहीं लगे। नतीजतन, बगीचे सिकुड़ते जा रहे हैं।
बिहार में आम घनत्व के हिसाब से दो क्षेत्र मानचित्र पर उभरते हैं। पहले इलाके में मुजफ्फरपुर, वैशाली, दरभंगा, पटना, समस्तीपुर, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण का इलाका है तो दूसरी ओर बांका, मुंगेर और भागलपुर की भी पहचान आम बेल्ट के रूप में रही है। बांका, मुंगेर और भागलपुर बेल्ट में जर्दालु के अलावा बंबइया, सुंदरप्रसाद, गुलाबखास, प्रभाशंकर, जवाहरी, सबरी, लंगड़ा, फैजली, कृष्णभोग, मालदह, तैमूरलंग, हुस्नआरा, आबेहयात, दशहरी, चौसा, लखनवी, नीलम, अलफांसो, हिमसागर, केसर, स्वर्णरेखा, मलगुआ, जहांगीरा, शुकुल, वनराज, रसपुरी, बंगलूरा, हरदिलअजीज, शरबती, तोतापुरी, कोट्टापल्ली, मल्लिका, पंचाद्रा, मंजीरा, आम्रपाली, जमादार, सिंघु आदि करीब दो सौ प्रजाति के आमों की खेती होती रही है। मगर, भागलपुर में जर्दालु आम की खेती का रकबा लगातार घटता गया। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के अभाव में भी जर्दालु का उत्पादन नहीं बढ़ सका। किसान नया बाग लगाने के प्रति उत्साहित नहीं थे। यही कारण है कि बिहार सरकार ने आम के पुराने बागों के जीर्णोद्धार और नए बगीचों के विस्तार की कार्ययोजना बनाई है। किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। मंशा साफ है लेकिन सफलता कहां तक मिलेगी ये देखने वाली बात होगी।
एक पेड़ के बनने और विस्तार में बीस साल लग जाते हैं लेकिन उसे एक झटके में काट दिया जाता है। इस स्थिति को बदलना होगा। नए इलाकों में पेड़ लगाने होंगे। वैसे भागलपुर के धरहरा, मुजफ्फरपुर के मीनापुर और बेतिया के कुछ इलाके हैं जहां एक अनूठी कोशिश हुई है। यहां बेटियों के जन्म पर पेड़ लगाने की परंपरा विकसित हो रही है मगर यह प्रयास बेहद सीमित है। विकास जरूरी है लेकिन अपनी पहचान को अक्षुण्ण रखना भी उतना ही जरुरी है।
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