किसानों को सभी प्रकार की राहत दे दी जाए तो भी उनके अस्तित्व पर खतरा मण्डराता रहेगा। बेमौसम बारिश से जो कहर किसानों पर ढहा है यदि उनमें कोई राहत वाली बात होगी तो वह केवल सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा है।ऐ किसान तू सच ही सारे जगत का पिता है...। यह कथन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का है। इस कथ्य के माध्यम से टैगोर द्वारा समाज में किसानों की प्रमुखता को दर्शाने का प्रयास किया गया है। मुंशी प्रेमचन्द तो गाँव और किसान को लेकर कई कहानियों और उपन्यासों की रचना कर महानतम साहित्यकारों में शुमार हुए। स्वतन्त्रता से पूर्व और पश्चात कई प्रकार की समस्याओं का समावेशन किसानों के जीवन में देखा जा सकता है। कभी पानी और बिजली की समस्या तो कभी बाढ़ और सूखे से किसान घिरे रहे हैं। अब इनके लिए नई मुसीबत बेमौसम बारिश हो गई है, जिसके चलते उनकी लहलहाती फसलें, जो कीमत देने के कगार पर पहुँच चुकी थीं, नेस्तनाबूत हो गई हैं। यह किसानों के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। किसी भी आन्दोलन की प्रचुरता और मात्रा कितनी भी क्यों न रही हो, परन्तु किसानों की हालत को सुधारने में शायद ही कोई कारगर सिद्ध हुआ हो। हालात तो यहाँ तक बिगड़े हैं कि फसली खेतों को बर्बाद देखते हुए कई किसानों की जान चली गई तो कईयों ने स्वयं ही जान दे दी। उत्तर व पूर्वी भारत इस समस्या की चपेट में है।
किसानों के मसीहा बनने का प्रयास कई सफेदधारियों ने किया, परन्तु ये भी बेमौसम ही सिद्ध हुए। भूगोल के अन्दर जलवायु विज्ञान का बेहतर चित्रण है और विज्ञान की शाखा के रूप में मौसम विज्ञान का, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि सटीक अनुमान का सिद्धान्त भी विफल हो रहा है।
मीडिया में यह चर्चा जोरों पर है कि बेमौसम बारिश झेल रहे किसानों को राहत देने के लिए सरकार मुआवजे का एलान जल्द करेगी। यह मुआवजा नुक्सान के एवज में किए गए आकलन के आधार पर होगा। हालाँकि यह मामला अभी विचाराधीन है। मुआवजा कितना होगा, कब मिलेगा, किसे मिलेगा और किसे नहीं मिलेगा? अभी कहना कठिन है। इसके लिए क्या एक्शन प्लान होगा और कितना सटीक होगा, यह भी कहना कठिन है।
असल बात यह है कि कृषि नीति हो या किसान नीति, उसे लेकर डुगडुगी तो कहीं ज्यादा पीटी गई है, परन्तु धरातल पर तो सरकारें पैंसठ सालों से बेबस ही नजर आई हैं। वित्त मन्त्रालय नुकसान की भरपाई करने के तरीकों पर एक्शन प्लान तैयार कर सकता है। हो सकता है, प्रयास जारी भी हो। दस हजार रुपए प्रति एकड़ मुआवजा देने की चर्चा हो रही है।
जिस किसान का सर्वस्व नुकसान हो चुका होगा उसका क्या होगा? इस पर भी सरकार कुछ अधिक संवेदनशील हो सकती है। एक भाव प्रधान सवाल यह भी है कि क्या किसान कभी ओले की तो कभी सूखे की, कभी बाढ़ तो कभी बेमौसम बारिश की मार खाते-खाते ऊबे नहीं हैं? असल में किसानों को राहत देने के मामले में सरकारों ने फर्ज अदायगी का काम ज्यादा किया है, न कि उन्हें उबारने का।
किसानों को राहत देने के लिए कई प्रारूप हो सकते हैं, कर्ज को माफ किया जा सकता है, बिजली बकाए की उगाही समाप्त की जा सकती है, आने वाले दिनों के लिए उन्हें सस्ती दरों पर खेती-बाड़ी के लिए सब्सिडी के तहत बीज, खाद व अन्य उपकरण उपलब्ध कराए जा सकते हैं। तथ्य यह भी है कि किसान आर्थिक परिभाषा को कम ही समझ पाते हैं। बेहतर श्रमिक होने के बावजूद अपने श्रम की कीमत वसूल नहीं पाते।
किसानों को राहत देने के लिए कई प्रारूप हो सकते हैं, कर्ज को माफ किया जा सकता है, बिजली बकाए की उगाही समाप्त की जा सकती है, आने वाले दिनों के लिए उन्हें सस्ती दरों पर खेती-बाड़ी के लिए सब्सिडी के तहत बीज, खाद व अन्य उपकरण उपलब्ध कराए जा सकते हैं। गाँव में संयुक्त परिवार की प्रथा रही है। कम खेतिहर किसान और ज्यादा खेतिहर किसान की हालत में बहुत बड़ा फर्क भी नहीं दिखता है। कृषि को एक अलग विकास और भिन्न चरित्र से सम्भालने की जरूरत है। पूरे देश में लाखों किसान इसलिए बलि चढ़ गए क्योंकि उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना सम्भव न था। बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, विदर्भ सहित भारत के कई क्षेत्रों में रोटी की गैरहाजिरी में प्राण न्यौछावर करने वाली यह प्रथा बदस्तूर देखी जा सकती है।
किसी भी देश की समाकलित अर्थव्यवस्था में कृषि, उद्योग और सेवा को मजबूत आधार और पूँजी का रास्ता माना जाता है। सवा अरब वाले भारत में आधे से अधिक किसान हैं। भले ही जीडीपी में कृषि निरन्तर गिरावट में हो परन्तु देश की उदरपूर्ति में यही उच्चतर स्थान लिए हुए है। ऐसे में कृषि और किसान दोनों प्राथमिकता के पात्र तो होने ही चाहिए। अब सवाल उठता है कि क्या कृषि विकास हेतु एक अलग से थिंक टैंक नहीं होना चाहिए? बेतरतीब तरीके से कृषि नीतियों को बिना शोध के खानापूरी हेतु निर्मित करना क्या किसानों के लिए हितकर है?
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने एक मशविरा दिया है कि वार्षिक परीक्षा समाप्त होने के बाद गाँव के स्कूल दो से तीन महीने बन्द रहते हैं। जिन स्कूलों में प्रयोगशालाएँ हैं, उन्हें मिट्टियों की जाँच के लिए सुसज्जित किया जाए और इन दिनों किसान अपने खेतों की मिट्टियों की वहाँ जाकर जाँच कराएँ। क्या कमी है, उसका पता करें। इस प्रकार उत्पादन बढ़ोतरी में यह मददगार सिद्ध होगा। मोदी का यह प्रयोगधर्मी विचार बेहतर कहा जा सकता है।
दरअसल एक सच यह है कि देश के अधिकतर किसान अशिक्षा, बीमारी, गरीबी और बुनियादी आवश्यकताओं की मार झेल रहे हैं। एक अच्छी खेती कैसे सम्भव होगी, इसे लेकर सरकारी मशीनरी भी पूरी तरह उन्हें जागरूक करने में सफल सिद्ध नहीं हुई है। ऐसे में आवश्यकता तो ग्राम विकास कार्यक्रमों को बढ़ाने की भी है, साथ ही किसानों के श्रम और उनके उत्पाद की कीमत को भी सही करने की जरूरत है।
सरकार भले ही कौशल विकास पर जोर दे रही हो, व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण को बढ़ावा देने का काम कर रही हो, पर गाँव में किसानों के लिए जो खेती एक पाठशाला है, वह कहीं जर्जर और निर्धनता की ओर झुक रही है। बेशक इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश की आधी जनता खेती को अपना कारोबार मानती है और कौशल विकास बिना व्यय के ही उनमें व्याप्त है। यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष समानता के लिए भी यहाँ अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं है। दोनों बाकायदा खेतिहर मजदूर हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन पर भी कूबत लगाने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ कैश के मामले में सभी दीन-हीन ही रहते हैं।
समृद्धि एक ऐसा सन्दर्भ लिए होता है, जिसे उकसाना भी चाहिए और उसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। इन्हीं संकल्पनाओं से ओत-प्रोत 1982 में नाबार्ड बनाया गया था। नाबार्ड को धर्म सिखाने की जरूरत नहीं है, परन्तु नए सिरे से सोचने की जरूरत जरूर है। ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक भी किसानों के लिए कितने मददगार सिद्ध हुए हैं, इनके आँकड़े भी आशा से भरे प्रतीत नहीं होते।
राज्य सरकारों ने भी किसानों की दुर्दशा सुधारने में एड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। सियासत में किसानों की शिरकत को पहचानते हुए कभी सब्सिडी तो कभी कर्ज माफी की चाल जरूर चली है। अब हालात यह है कि किसानों को सभी प्रकार की राहत दे दी जाए तो भी उनके अस्तित्व पर खतरा मण्डराता रहेगा। बेमौसम बारिश से जो कहर किसानों पर ढहा है यदि उनमें कोई राहत वाली बात होगी तो वह केवल सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा है। मुआवजे की बाट जोह रहे किसान क्या प्राप्त करेंगे और कितना प्राप्त करेंगे, कहना मुश्किल है। और सरकार इनकी परेशानियों को दूर करने में कितनी सहायक सिद्ध होगी, यह कहना तो और मुश्किल है।
लेखक का ई-मेल : sushilksingh589@gmail.com
किसानों के मसीहा बनने का प्रयास कई सफेदधारियों ने किया, परन्तु ये भी बेमौसम ही सिद्ध हुए। भूगोल के अन्दर जलवायु विज्ञान का बेहतर चित्रण है और विज्ञान की शाखा के रूप में मौसम विज्ञान का, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि सटीक अनुमान का सिद्धान्त भी विफल हो रहा है।
मीडिया में यह चर्चा जोरों पर है कि बेमौसम बारिश झेल रहे किसानों को राहत देने के लिए सरकार मुआवजे का एलान जल्द करेगी। यह मुआवजा नुक्सान के एवज में किए गए आकलन के आधार पर होगा। हालाँकि यह मामला अभी विचाराधीन है। मुआवजा कितना होगा, कब मिलेगा, किसे मिलेगा और किसे नहीं मिलेगा? अभी कहना कठिन है। इसके लिए क्या एक्शन प्लान होगा और कितना सटीक होगा, यह भी कहना कठिन है।
असल बात यह है कि कृषि नीति हो या किसान नीति, उसे लेकर डुगडुगी तो कहीं ज्यादा पीटी गई है, परन्तु धरातल पर तो सरकारें पैंसठ सालों से बेबस ही नजर आई हैं। वित्त मन्त्रालय नुकसान की भरपाई करने के तरीकों पर एक्शन प्लान तैयार कर सकता है। हो सकता है, प्रयास जारी भी हो। दस हजार रुपए प्रति एकड़ मुआवजा देने की चर्चा हो रही है।
जिस किसान का सर्वस्व नुकसान हो चुका होगा उसका क्या होगा? इस पर भी सरकार कुछ अधिक संवेदनशील हो सकती है। एक भाव प्रधान सवाल यह भी है कि क्या किसान कभी ओले की तो कभी सूखे की, कभी बाढ़ तो कभी बेमौसम बारिश की मार खाते-खाते ऊबे नहीं हैं? असल में किसानों को राहत देने के मामले में सरकारों ने फर्ज अदायगी का काम ज्यादा किया है, न कि उन्हें उबारने का।
किसानों को राहत देने के लिए कई प्रारूप हो सकते हैं, कर्ज को माफ किया जा सकता है, बिजली बकाए की उगाही समाप्त की जा सकती है, आने वाले दिनों के लिए उन्हें सस्ती दरों पर खेती-बाड़ी के लिए सब्सिडी के तहत बीज, खाद व अन्य उपकरण उपलब्ध कराए जा सकते हैं। तथ्य यह भी है कि किसान आर्थिक परिभाषा को कम ही समझ पाते हैं। बेहतर श्रमिक होने के बावजूद अपने श्रम की कीमत वसूल नहीं पाते।
किसानों को राहत देने के लिए कई प्रारूप हो सकते हैं, कर्ज को माफ किया जा सकता है, बिजली बकाए की उगाही समाप्त की जा सकती है, आने वाले दिनों के लिए उन्हें सस्ती दरों पर खेती-बाड़ी के लिए सब्सिडी के तहत बीज, खाद व अन्य उपकरण उपलब्ध कराए जा सकते हैं। गाँव में संयुक्त परिवार की प्रथा रही है। कम खेतिहर किसान और ज्यादा खेतिहर किसान की हालत में बहुत बड़ा फर्क भी नहीं दिखता है। कृषि को एक अलग विकास और भिन्न चरित्र से सम्भालने की जरूरत है। पूरे देश में लाखों किसान इसलिए बलि चढ़ गए क्योंकि उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना सम्भव न था। बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश, विदर्भ सहित भारत के कई क्षेत्रों में रोटी की गैरहाजिरी में प्राण न्यौछावर करने वाली यह प्रथा बदस्तूर देखी जा सकती है।
किसी भी देश की समाकलित अर्थव्यवस्था में कृषि, उद्योग और सेवा को मजबूत आधार और पूँजी का रास्ता माना जाता है। सवा अरब वाले भारत में आधे से अधिक किसान हैं। भले ही जीडीपी में कृषि निरन्तर गिरावट में हो परन्तु देश की उदरपूर्ति में यही उच्चतर स्थान लिए हुए है। ऐसे में कृषि और किसान दोनों प्राथमिकता के पात्र तो होने ही चाहिए। अब सवाल उठता है कि क्या कृषि विकास हेतु एक अलग से थिंक टैंक नहीं होना चाहिए? बेतरतीब तरीके से कृषि नीतियों को बिना शोध के खानापूरी हेतु निर्मित करना क्या किसानों के लिए हितकर है?
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने एक मशविरा दिया है कि वार्षिक परीक्षा समाप्त होने के बाद गाँव के स्कूल दो से तीन महीने बन्द रहते हैं। जिन स्कूलों में प्रयोगशालाएँ हैं, उन्हें मिट्टियों की जाँच के लिए सुसज्जित किया जाए और इन दिनों किसान अपने खेतों की मिट्टियों की वहाँ जाकर जाँच कराएँ। क्या कमी है, उसका पता करें। इस प्रकार उत्पादन बढ़ोतरी में यह मददगार सिद्ध होगा। मोदी का यह प्रयोगधर्मी विचार बेहतर कहा जा सकता है।
दरअसल एक सच यह है कि देश के अधिकतर किसान अशिक्षा, बीमारी, गरीबी और बुनियादी आवश्यकताओं की मार झेल रहे हैं। एक अच्छी खेती कैसे सम्भव होगी, इसे लेकर सरकारी मशीनरी भी पूरी तरह उन्हें जागरूक करने में सफल सिद्ध नहीं हुई है। ऐसे में आवश्यकता तो ग्राम विकास कार्यक्रमों को बढ़ाने की भी है, साथ ही किसानों के श्रम और उनके उत्पाद की कीमत को भी सही करने की जरूरत है।
सरकार भले ही कौशल विकास पर जोर दे रही हो, व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण को बढ़ावा देने का काम कर रही हो, पर गाँव में किसानों के लिए जो खेती एक पाठशाला है, वह कहीं जर्जर और निर्धनता की ओर झुक रही है। बेशक इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश की आधी जनता खेती को अपना कारोबार मानती है और कौशल विकास बिना व्यय के ही उनमें व्याप्त है। यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष समानता के लिए भी यहाँ अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं है। दोनों बाकायदा खेतिहर मजदूर हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन पर भी कूबत लगाने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ कैश के मामले में सभी दीन-हीन ही रहते हैं।
समृद्धि एक ऐसा सन्दर्भ लिए होता है, जिसे उकसाना भी चाहिए और उसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। इन्हीं संकल्पनाओं से ओत-प्रोत 1982 में नाबार्ड बनाया गया था। नाबार्ड को धर्म सिखाने की जरूरत नहीं है, परन्तु नए सिरे से सोचने की जरूरत जरूर है। ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक भी किसानों के लिए कितने मददगार सिद्ध हुए हैं, इनके आँकड़े भी आशा से भरे प्रतीत नहीं होते।
राज्य सरकारों ने भी किसानों की दुर्दशा सुधारने में एड़ी चोटी का जोर नहीं लगाया। सियासत में किसानों की शिरकत को पहचानते हुए कभी सब्सिडी तो कभी कर्ज माफी की चाल जरूर चली है। अब हालात यह है कि किसानों को सभी प्रकार की राहत दे दी जाए तो भी उनके अस्तित्व पर खतरा मण्डराता रहेगा। बेमौसम बारिश से जो कहर किसानों पर ढहा है यदि उनमें कोई राहत वाली बात होगी तो वह केवल सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा है। मुआवजे की बाट जोह रहे किसान क्या प्राप्त करेंगे और कितना प्राप्त करेंगे, कहना मुश्किल है। और सरकार इनकी परेशानियों को दूर करने में कितनी सहायक सिद्ध होगी, यह कहना तो और मुश्किल है।
लेखक का ई-मेल : sushilksingh589@gmail.com
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Post By: birendrakrgupta