अंधाधुंध जल दोहन की वजह से पूरे उत्तर पश्चिम भारत के भूजल स्तर में हर साल 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच की कमी आ रही है। इस अध्ययन को अंजाम देने में नासा के जल विज्ञानी मेट रोडल ने अहम भूमिका निभाई है। उनके हवाले से इस रपट में बताया गया है कि देश के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में 2002 से 2008 के दौरान तकरीबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी की कमी हुई है। यह मात्रा कितनी अधिक है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका के सबसे बड़े जलाशय लेक मीड की क्षमता से दुगने से भी कहीं ज्यादा हैसूखे को लेकर देशभर में चिंता की लहर है। यह बेहद स्वाभाविक है। सूखे की मार झेल रहे लोगों के लिए सरकारी घोषणाएं भी हो रही हैं लेकिन जैसा ज्यादातर सरकारी घोषणाओं के साथ होता है, वैसा ही हश्र अगर इन घोषणाओं का भी हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सूखे के नाम पर शोषण का कारोबार भी शुरू हो गया है। जमाखोर कारोबारी सूखे के नाम पर महंगाई को बेतहाशा बढ़ाने का काम कर रहे हैं और प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि लोगों को महंगाई के लिए तैयार रहना चाहिए।
सूखे को लेकर नीतियों का निर्धारण करने वाले लंबे-चैड़े बयान जरूर दे रहे हैं लेकिन बुनियादी सवालों की चर्चा करने से हर कोई कतरा रहा है। आखिर क्यों नहीं सोचा जा रहा है कि यह समस्या क्यों पैदा हुई? इस बात पर क्यों नहीं विचार किया जा रहा है कि इस तरह की समस्या का सामना करने के लिए सही रणनीति क्या होनी चाहिए और इसके लिए क्या तैयारी होनी चाहिए? जल प्रबंधन के मसले पर कहीं से काई आवाज नहीं आ रही है।
एक आवाज आई भी है तो वह अपने देश से नहीं बल्कि सात समंदर पार अमेरिका से आई है। जी हां, समस्याएं भारत की होती हैं लेकिन उस पर शोध करने और उसके अध्ययन करने का काम भी यहां नहीं होता बल्कि इस काम को भी नासा जैसे किसी संस्था को अंजाम देना पड़ता है। नासा की यह रपट पानी को लेकर देश भर में बरती जा रही लापरवाही के प्रति आंखे खोलने वाली है।
इस रपट में भारत में सूखे की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेवार कारणों में से एक अहम कारण अंधाधुंध जल दोहन को बताया गया है। बताते चलें कि देश भर के 604 जिलों में से 161 सूखे की मार झेल रहे हैं। वैसे अब बताया जा रहा है कि सूखे की मार से बेहाल जिलों की संख्या बढ़कर 246 हो गई है। यानी कहा जाए तो आधा देश सूखे की चपेट में है।
बहरहाल, नासा की इस रपट में बताया गया है कि भारत के कई राज्य क्षमता से ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। यहां क्षमता से तात्पर्य यह है कि उनसे जितने सलाना जल दोहन की उम्मीद केंद्र करती है, वे उससे कहीं ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। नासा ने यह अध्ययन 2002 से 2008 के बीच की स्थितियों के आधार पर किया है। इस रपट में बताया गया है कि पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मीटर पानी जमीन के अंदर से निकाल रहे हैं।
जबकि केंद्र की तरफ से लगाए गए अनुमान के मुताबिक इन्हें हर साल 13.2 अरब क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर से निकालना था। इस तरह से देखा जाए तो ये तीन राज्य मिलकर क्षमता से 30 फीसदी ज्यादा पानी का दोहन कर रहे हैं। जाहिर है कि बिना कुछ सोचे-विचारे जब इस पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाएगा तो प्रकृति भी बदला लेगी और वही हो रहा है। इस रपट में यह भी बताया गया है कि भारत का महज 58 फीसदी भूजल ही हर साल रिचार्ज हो पाता है।
नासा की यह रपट बताती है कि अंधाधुंध जल दोहन की वजह से पूरे उत्तर पश्चिम भारत के भूजल स्तर में हर साल 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच की कमी आ रही है। इस अध्ययन को अंजाम देने में नासा के जल विज्ञानी मेट रोडल ने अहम भूमिका निभाई है। उनके हवाले से इस रपट में बताया गया है कि देश के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में 2002 से 2008 के दौरान तकरीबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी की कमी हुई है। यह मात्रा कितनी अधिक है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका के सबसे बड़े जलाशय लेक मीड की क्षमता से दुगने से भी कहीं ज्यादा है।
अंधाधुंध जल दोहन और इससे भूजल स्तर में आ रही गिरावट के बड़े भयानक परिणाम होंगे। यह बात भी नासा की रपट ही कह रही है। इस रपट के मुताबिक अगर अंधाधुंध जल दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।
इसके अलावा पीने के पानी का टोटा तो होगा ही। अभी ही देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां के लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां गर्मी के दिनों में हैंडपैंप से पानी आना बंद हो जाता है। वहां के लोगों को हर साल बोरिंग को कुछ फुट बढ़वाना होता है। यह समस्या भूजल स्तर के गिरते जाने की वजह से ही पैदा हुई है। जब पीने के पानी का संकट पैदा होगा तो बोतलबंद पानी का कारोबार काफी तेजी से बढ़ेगा। कहने का मतलब यह कि जिसके पास पैसा होगा वह अपनी प्यास बुझा सकेगा और जिसके पास पैसा नहीं होगा उसे अपनी प्यास बुझाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा। स्थिति की भयावहता की कल्पना ही सिहरन पैदा करती है।
दरअसल, इस पूरी समस्या की जड़ में जल का सही प्रबंधन नहीं होना जिम्मेवार है। जब तक जल प्रबंधन की सही नीति नहीं बनाई जाएगी और उस पर उतनी ही तत्परता से अमल नहीं किया जाएगा तब तक इस समस्या का समाधान तो होने से रहा। देश हर दिन इस संकट से घिरता जा रहा है लेकिन सत्ताधीशों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। जल को लेकर एक खास तरह की उदासीनता का भाव सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं है बल्कि समाज में भी जल प्रबंधन को लेकर एक खास तरह की उदासीनता दिखती है। यही वजह है कि पानी की समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। आज हर तरफ आर्थिक प्रगति का दंभ भरा जा रहा है लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों के समक्ष बुनियादी सुविधाओं का अभाव गहराता जा रहा है। ऐसा होना इस व्यवस्था के खोखलेपन का अहसास कराता है।
भारत में दुनिया का हर छठा आदमी रहता है। यानी कहा जाए तो दुनिया के कुल आबादी के तकरीबन सत्रह फीसदी लोग भारत में रहते हैं। जबकि दुनिया का महज साढ़े चार फीसदी पानी ही भारत में उपलब्ध है। ऐसे में जल समस्या से दो-चार होना कोई आनापेक्षित बात नहीं है। एक बात तो तय है कि प्राकृतिक संसाधनों में इजाफा तो नहीं किया जा सकता है लेकिन इसका संरक्षण अवश्य किया जा सकता है।
इसके लिए सबसे पहले जल वितरण की व्यवस्था को दुरुस्त करने की दरकार है। भारत में लोग किसी एक माध्यम से पेयजल प्राप्त करने पर निर्भर नहीं हैं। इस देश में 35.7 फीसदी लोग हैंड पंप से, 36.7 फीसदी लोग नल से, 18.2 फीसदी लोग तालाब, पोखर या झील से, 5.6 फीसदी कुओं से, 1.2 फीसदी लोग पारंपरिक साधनों से और 2.6 फीसदी लोग अन्य माध्यमों से पीने का पानी प्राप्त करते हैं। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो जल संकट को दूर करने के लिए समग्र कार्ययोजना की जरूरत है।
दरअसल, भारत में गहराते जल संकट के लिए काफी हद तक पानी की बर्बादी भी जिम्मेवार है। यहां जल आपूर्ति की व्यवस्था में काफी खामियां हैं। नलों के जरिए घरों तक पहुंचने वाले पानी का एक बड़ा हिस्सा रिस कर बर्बाद हो जाता है। हर शहर में फूटे हुए आपूर्ति पाइप आसानी से देखे जा सकते हैं। इस बदहाल व्यवस्था के लिए सरकार के साथ-साथ सामान्य लोग भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। एक तरफ तो सरकार पेयजल के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का बजट बनाती है और दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर हालात में कोई बदलाव नहीं दिखता है। सामाजिक तौर पर भी जल संरक्षण को लेकर जागरूकता का अभाव दिखता है। यह सामाजिक ताने-बाने का ही असर है कि लोग कहीं भी जल की बर्बादी को देखकर उसे सामान्य घटना मानते हुए नजरअंदाज कर देते हैं।
देश के बीस करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल पाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। आजादी के वक्त भारत में पांच हजार क्यूबिक मीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध था। यह अब घटकर 1800 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो चुका है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगर पानी की खपत और बर्बादी इसी तरह से जारी रही तो 2025 तक यह घटकर हजार क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ही रह जाएगा। उस समय तक पानी की उपलब्धता में आने वाली इस कमी की वजह से कृषि उत्पादन में तीस फीसदी की कमी आने की संभावना है। इन परिस्थितियों में देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
भारत में जल संरक्षण के प्रति आज भी आम लोगों के मन में उपेक्षा का भाव बना हुआ है। साथ ही इस कार्य के लिए आवश्यक तकनीक की भी कमी है। जो तकनीक उपलब्ध हैं उनसे सामान्य लोग अनजान हैं। बारिश के पानी का संग्रह करके उसे उपयोग में लाना एक अच्छा विकल्प है। पर इस तरह की कोशिश काफी सीमित मात्रा में काफी छोटे स्तर पर हो रही है। यही वजह है कि देश में होने वाली बारिश के पानी का अस्सी फीसदी हिस्सा आज भी समुद्र में पहुंच जाता है।
अगर खराब मानसून की वजह से इस साल बारिश में हुई कमी को छोड़ दें तो भारत में कुल वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है। अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा भी प्रयोग कर लिया जाए तो स्थिति में व्यापक बदलाव आना तय है। शहरी क्षेत्रों में तो पानी की कालाबाजारी जोरों पर हैं। जगह-जगह पर जल माफिया सक्रिय हो गए हैं। दिल्ली के ही एक अखबार ने कुछ समय पहले यह बात उजागर किया था यहां तो समानांतर जल बोर्ड भी चलाया जा रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि इसके बावजूद भी पानी के काले धंधे पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। अहम सवाल यह है कि कैसे सामान्य तबके के लोगों तक स्वच्छ पानी पहुंचाया जाए? शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह एक बड़ी चुनौती है।
सूखे को लेकर नीतियों का निर्धारण करने वाले लंबे-चैड़े बयान जरूर दे रहे हैं लेकिन बुनियादी सवालों की चर्चा करने से हर कोई कतरा रहा है। आखिर क्यों नहीं सोचा जा रहा है कि यह समस्या क्यों पैदा हुई? इस बात पर क्यों नहीं विचार किया जा रहा है कि इस तरह की समस्या का सामना करने के लिए सही रणनीति क्या होनी चाहिए और इसके लिए क्या तैयारी होनी चाहिए? जल प्रबंधन के मसले पर कहीं से काई आवाज नहीं आ रही है।
एक आवाज आई भी है तो वह अपने देश से नहीं बल्कि सात समंदर पार अमेरिका से आई है। जी हां, समस्याएं भारत की होती हैं लेकिन उस पर शोध करने और उसके अध्ययन करने का काम भी यहां नहीं होता बल्कि इस काम को भी नासा जैसे किसी संस्था को अंजाम देना पड़ता है। नासा की यह रपट पानी को लेकर देश भर में बरती जा रही लापरवाही के प्रति आंखे खोलने वाली है।
इस रपट में भारत में सूखे की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेवार कारणों में से एक अहम कारण अंधाधुंध जल दोहन को बताया गया है। बताते चलें कि देश भर के 604 जिलों में से 161 सूखे की मार झेल रहे हैं। वैसे अब बताया जा रहा है कि सूखे की मार से बेहाल जिलों की संख्या बढ़कर 246 हो गई है। यानी कहा जाए तो आधा देश सूखे की चपेट में है।
बहरहाल, नासा की इस रपट में बताया गया है कि भारत के कई राज्य क्षमता से ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। यहां क्षमता से तात्पर्य यह है कि उनसे जितने सलाना जल दोहन की उम्मीद केंद्र करती है, वे उससे कहीं ज्यादा जल दोहन कर रहे हैं। नासा ने यह अध्ययन 2002 से 2008 के बीच की स्थितियों के आधार पर किया है। इस रपट में बताया गया है कि पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मीटर पानी जमीन के अंदर से निकाल रहे हैं।
जबकि केंद्र की तरफ से लगाए गए अनुमान के मुताबिक इन्हें हर साल 13.2 अरब क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर से निकालना था। इस तरह से देखा जाए तो ये तीन राज्य मिलकर क्षमता से 30 फीसदी ज्यादा पानी का दोहन कर रहे हैं। जाहिर है कि बिना कुछ सोचे-विचारे जब इस पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाएगा तो प्रकृति भी बदला लेगी और वही हो रहा है। इस रपट में यह भी बताया गया है कि भारत का महज 58 फीसदी भूजल ही हर साल रिचार्ज हो पाता है।
नासा की यह रपट बताती है कि अंधाधुंध जल दोहन की वजह से पूरे उत्तर पश्चिम भारत के भूजल स्तर में हर साल 4 सेंटीमीटर यानी 1.6 इंच की कमी आ रही है। इस अध्ययन को अंजाम देने में नासा के जल विज्ञानी मेट रोडल ने अहम भूमिका निभाई है। उनके हवाले से इस रपट में बताया गया है कि देश के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में 2002 से 2008 के दौरान तकरीबन 109 क्यूबिक किलोमीटर पानी की कमी हुई है। यह मात्रा कितनी अधिक है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका के सबसे बड़े जलाशय लेक मीड की क्षमता से दुगने से भी कहीं ज्यादा है।
अंधाधुंध जल दोहन और इससे भूजल स्तर में आ रही गिरावट के बड़े भयानक परिणाम होंगे। यह बात भी नासा की रपट ही कह रही है। इस रपट के मुताबिक अगर अंधाधुंध जल दोहन इसी तरह से जारी रहा तो आने वाले समय में भारत को अनाज और पानी के संकट को झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाना चाहिए। जाहिर है कि जब जल संकट बढ़ेगा तो खेती पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अनाजों के उत्पादन में कमी आएगी। इस वजह से अनाज संकट पैदा होगा और भूख का एक नया चेहरा उभरकर सामने आएगा। एक बड़ा तबका जो आज भरपेट भोजन कर पाता है उसके लिए पेट भर खाना मिलना मुश्किल हो जाएगा। भुखमरी की जो समस्या पैदा होगी उससे फिर निपटना आसान नहीं होगा।
इसके अलावा पीने के पानी का टोटा तो होगा ही। अभी ही देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां के लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल पा रहा है। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां गर्मी के दिनों में हैंडपैंप से पानी आना बंद हो जाता है। वहां के लोगों को हर साल बोरिंग को कुछ फुट बढ़वाना होता है। यह समस्या भूजल स्तर के गिरते जाने की वजह से ही पैदा हुई है। जब पीने के पानी का संकट पैदा होगा तो बोतलबंद पानी का कारोबार काफी तेजी से बढ़ेगा। कहने का मतलब यह कि जिसके पास पैसा होगा वह अपनी प्यास बुझा सकेगा और जिसके पास पैसा नहीं होगा उसे अपनी प्यास बुझाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा। स्थिति की भयावहता की कल्पना ही सिहरन पैदा करती है।
दरअसल, इस पूरी समस्या की जड़ में जल का सही प्रबंधन नहीं होना जिम्मेवार है। जब तक जल प्रबंधन की सही नीति नहीं बनाई जाएगी और उस पर उतनी ही तत्परता से अमल नहीं किया जाएगा तब तक इस समस्या का समाधान तो होने से रहा। देश हर दिन इस संकट से घिरता जा रहा है लेकिन सत्ताधीशों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। जल को लेकर एक खास तरह की उदासीनता का भाव सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं है बल्कि समाज में भी जल प्रबंधन को लेकर एक खास तरह की उदासीनता दिखती है। यही वजह है कि पानी की समस्या दिनोंदिन गहराती जा रही है। आज हर तरफ आर्थिक प्रगति का दंभ भरा जा रहा है लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों के समक्ष बुनियादी सुविधाओं का अभाव गहराता जा रहा है। ऐसा होना इस व्यवस्था के खोखलेपन का अहसास कराता है।
भारत में दुनिया का हर छठा आदमी रहता है। यानी कहा जाए तो दुनिया के कुल आबादी के तकरीबन सत्रह फीसदी लोग भारत में रहते हैं। जबकि दुनिया का महज साढ़े चार फीसदी पानी ही भारत में उपलब्ध है। ऐसे में जल समस्या से दो-चार होना कोई आनापेक्षित बात नहीं है। एक बात तो तय है कि प्राकृतिक संसाधनों में इजाफा तो नहीं किया जा सकता है लेकिन इसका संरक्षण अवश्य किया जा सकता है।
इसके लिए सबसे पहले जल वितरण की व्यवस्था को दुरुस्त करने की दरकार है। भारत में लोग किसी एक माध्यम से पेयजल प्राप्त करने पर निर्भर नहीं हैं। इस देश में 35.7 फीसदी लोग हैंड पंप से, 36.7 फीसदी लोग नल से, 18.2 फीसदी लोग तालाब, पोखर या झील से, 5.6 फीसदी कुओं से, 1.2 फीसदी लोग पारंपरिक साधनों से और 2.6 फीसदी लोग अन्य माध्यमों से पीने का पानी प्राप्त करते हैं। इस लिहाज से अगर देखा जाए तो जल संकट को दूर करने के लिए समग्र कार्ययोजना की जरूरत है।
दरअसल, भारत में गहराते जल संकट के लिए काफी हद तक पानी की बर्बादी भी जिम्मेवार है। यहां जल आपूर्ति की व्यवस्था में काफी खामियां हैं। नलों के जरिए घरों तक पहुंचने वाले पानी का एक बड़ा हिस्सा रिस कर बर्बाद हो जाता है। हर शहर में फूटे हुए आपूर्ति पाइप आसानी से देखे जा सकते हैं। इस बदहाल व्यवस्था के लिए सरकार के साथ-साथ सामान्य लोग भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। एक तरफ तो सरकार पेयजल के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का बजट बनाती है और दूसरी तरफ जमीनी स्तर पर हालात में कोई बदलाव नहीं दिखता है। सामाजिक तौर पर भी जल संरक्षण को लेकर जागरूकता का अभाव दिखता है। यह सामाजिक ताने-बाने का ही असर है कि लोग कहीं भी जल की बर्बादी को देखकर उसे सामान्य घटना मानते हुए नजरअंदाज कर देते हैं।
देश के बीस करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल पाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। आजादी के वक्त भारत में पांच हजार क्यूबिक मीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध था। यह अब घटकर 1800 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हो चुका है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगर पानी की खपत और बर्बादी इसी तरह से जारी रही तो 2025 तक यह घटकर हजार क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ही रह जाएगा। उस समय तक पानी की उपलब्धता में आने वाली इस कमी की वजह से कृषि उत्पादन में तीस फीसदी की कमी आने की संभावना है। इन परिस्थितियों में देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का क्या होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
भारत में जल संरक्षण के प्रति आज भी आम लोगों के मन में उपेक्षा का भाव बना हुआ है। साथ ही इस कार्य के लिए आवश्यक तकनीक की भी कमी है। जो तकनीक उपलब्ध हैं उनसे सामान्य लोग अनजान हैं। बारिश के पानी का संग्रह करके उसे उपयोग में लाना एक अच्छा विकल्प है। पर इस तरह की कोशिश काफी सीमित मात्रा में काफी छोटे स्तर पर हो रही है। यही वजह है कि देश में होने वाली बारिश के पानी का अस्सी फीसदी हिस्सा आज भी समुद्र में पहुंच जाता है।
अगर खराब मानसून की वजह से इस साल बारिश में हुई कमी को छोड़ दें तो भारत में कुल वार्षिक बारिश औसतन 1,170 मिमी होती है। अगर जल की इस विशाल मात्रा का आधा भी प्रयोग कर लिया जाए तो स्थिति में व्यापक बदलाव आना तय है। शहरी क्षेत्रों में तो पानी की कालाबाजारी जोरों पर हैं। जगह-जगह पर जल माफिया सक्रिय हो गए हैं। दिल्ली के ही एक अखबार ने कुछ समय पहले यह बात उजागर किया था यहां तो समानांतर जल बोर्ड भी चलाया जा रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि इसके बावजूद भी पानी के काले धंधे पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। अहम सवाल यह है कि कैसे सामान्य तबके के लोगों तक स्वच्छ पानी पहुंचाया जाए? शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह एक बड़ी चुनौती है।
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