प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बुन्देलखण्ड की रैलियों में बिल्कुल सही कहा कि पाँच-पाँच नदियों के होने के बाद भी बुन्देलखण्ड प्यासा है क्योंकि समस्या पानी के सही प्रबंधन की है। इसके आगे का सच यही है कि समस्या की पहचान होने के बावजूद इसे सुधारा नहीं गया है। चाहे यूपी हो या मध्य प्रदेश या फिर केंद्र… न जाने कितनी सरकारें आईं और चली गईं लेकिन बात बुन्देलखण्ड पैकेज के आगे से नहीं बढ़ी। अब पैकेज का किस तरह इस्तेमाल होता है यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। यमुना, चंबल, धसान, बेतवा जैसी नदियाँ जहाँ बहती हों वहाँ से तीस लाख लोग पलायन कर जाएँ। पिछले दस सालों में चार हजार किसान ख़ुदकुशी कर चुके हों। यह अपने आप में हैरतअंगेज लगता है। लेकिन, इससे ज्यादा हैरानी होती है कि यहाँ से सियासी दल सिर्फ वायदे करके और जीतकर निकल जाते हैं और स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा आंदोलन भी खड़ा नहीं होता है।
बुन्देलखण्ड में यूपी के सात जिले आते हैं कुल 19 विधानसभा सीटें, झाँसी, हमीरपुर, बाँदा, महोबा, जालौन और चित्रकूट। जैसे ही आप हाई वे छोड़कर गाँव की तरफ मुड़ते हैं टूटी-फूटी सड़कें आपका स्वागत करती हैं। छोटे-छोटे गाँव, खपरैल की छतें, चरते पशुओं के झुंड और दुबले पतले लोग चेहरे पर दुनिया भर का दुख लिये। सड़कें इतनी खराब हैं कि कमर दुखने लगती है। इन सबको पार करते हुए हम पहुँचे मड़ोरी गाँव। सड़क किनारे एक छोटे से घर में परसुराम का परिवार जैसे-तैसे जिंदगी बिताने को मजबूर। परसुराम ने पिछले साल 19 जून को अपने खेत की मुरझाई फसलों पर आखिरी बार नजर डाली थी, चार पाँच लाख रुपए के कर्ज को आखिरी बार याद किया था और फिर पेड़ से लटक कर खुदकुशी कर ली थी। अखिलेश सरकार ने तीस हजार रुपए देने का वायदा किया था लेकिन परिवार को अभी तक उस मुआवजे का इंतजार है। परसुराम के बेटे जयहिंद बताने लगे कि आस-पास के 80 फीसद किसानों की माली हालत परसुराम के परिवार जैसी ही है। वैसे परसुराम अकेले नहीं हैं जिन्होंने आत्महत्या की हो। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े कहते हैं कि 2005 से 2015 के बीच बुन्देलखण्ड में चार हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। एनसीआरबी के अनुसार 2010 में 583, 2011 में 650, 2012 में 745 और 2013 में 750 किसानों ने आत्महत्या की।
खुदकुशी के अलावा यहाँ समस्या पलायन की है। घरों में लटके ताले बता रहे हैं कि विकास को अभी यहाँ तक पहुँचने में वक्त लगेगा। कुछ साल पहले केंद्र सरकार को भेजी गई एक रिपोर्ट के अनुसार बुन्देलखण्ड के यूपी वाले हिस्से से करीब तीस लाख किसान पलायन कर चुके हैं। बांदा से करीब सात लाख, चित्रकूट से साढ़े तीन लाख, महोबा से तीन लाख, हमीरपुर से चार लाख और ललितपुर से करीब पौने चार लाख लोग इसी तरह घरों को तन्हा छोड़ जा चुके हैं। जालौन के गड़बई गाँव के राजकुमार बताते हैं कि उनके गड़बई गाँव से ही तीस से चालीस फीसद लोग पलायन कर चुके हैं। कुछ महीनों में एक बार चार दिनों के लिये आते हैं और फिर ताला जड़ निकल पड़ते हैं। इन्हीं में विवेक का परिवार भी है। उनके पास दस बीघा जमीन है। अगर पानी सिंचाई की सुविधा होती तो चालीस हजार रुपए तक की कमाई सम्भव थी लेकिन पानी की कमी के चलते खेत सूखा पड़ा है और विवेक गाँव के बस स्टैंड पर मिठाई नमकीन की दुकान करने को मजबूर हैं।
परिवार के लोग दिल्ली चले गए हैं रोजगार की तलाश में। गाँव के एक अन्य बुजुर्ग राजवीर बताते हैं कि उनके पास पचास बीघा जमीन है। पास के गाँवों से नहर निकलती है और वहाँ खुशहाली है लेकिन उनका खेत इन्द्र देवता पर ही निर्भर है। कभी पानी पड़ता नहीं है तो कभी ओलों के कारण फसल खराब हो जाती है। यहाँ प्रधानमंत्री फसल योजना की जानकारी भी ज्यादातर लोगों को नहीं है। जिनको है उनका दर्द है कि पिछले साल का मुआवजा नहीं मिला है। किसानों की दुर्दशा की एक बड़ी वजह सरकारी खरीद की कमी है। यूपी देश में सबसे ज्यादा गेहूँ का उत्पादन करता है। पिछले साल तीन करोड़ टन गेहूँ की पैदावार हुई लेकिन सरकारी खरीद हुई सिर्फ अस्सी लाख टन की, जबकि इसी दौरान पंजाब से एक करोड़ साठ लाख टन, हरियाणा से 67 लाख टन और मध्य प्रदेश से पचास लाख टन गेहूँ की सरकारी खरीद हुई। यूपी में ऐसा क्यों नहीं होता यह सवाल उठाते हैं रामप्रकाश पटेल। उन्होंने चार बीघा में मसूर की दाल बोई थी। सिंचाई की सुविधा होती तो दस बारह क्विंटल मसूर पैदा होता लेकिन सिर्फ एक क्विंटल मसूर का ही उत्पादन हुआ है। उस पर पिछले साल दाम छह हजार 200 रुपये थे, जो अब घटकर तीन हजार ही रह गए हैं।
इससे तो लागत भी नहीं निकल पा रही है। पटेल का कहना है कि यूपी सरकार को कम से कम पाँच हजार रुपए क्विंटल की दर से मसूर खरीदनी चाहिए लेकिन ऐसा होगा नहीं और उन्हें तीन हजार में मसूर बेचने में भी आढ़तिए को कमीशन देना होगा। सरकारी खरीद नहीं हो पाने के कारण यहाँ के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से दस से 15 फीसद कम दाम पर अनाज बाजार में बेचने को मजबूर हैं। पिछले साल खरीफ में दालों के भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम हो गए तब यूपी सरकार चाहती तो दालों की सरकारी खरीद कर बीस लाख टन का बफर स्टॉक बना सकती थी लेकिन उसने कुछ नहीं किया।
अबकी बार जो जीतेगा यूपी का वह बुन्देलखण्ड के लिये क्या करेगा… यह भी साफ नहीं है। हालाँकि, पैसों की कोई कमी नहीं है। यूपीए के समय बुन्देलखण्ड के लिये 7266 करोड़ का पैकेज दिया गया था। इसका राहुल गाँधी ने सियासी फायदा उठाने की भी बहुत कोशिश की थी। लेकिन, पिछले लोकसभा चुनावों में दाँव चला नहीं।
महापिछड़ा, अति पिछड़ा और महादलित वोट बीजेपी की झोली में चला गया। यहाँ कुशवाहा, कुर्मी और राजपूत लोध की संख्या करीब तीस फीसद है। लगभग हर सीट पर 25 फीसद दलित वोटर हैं। कहा जाता है कि दलितों, महापिछड़ों का ध्रुवीकरण जिसके पक्ष में होता है वह बुन्देलखण्ड फतह कर लेता है। पिछले विधानसभा चुनावों में 19 में से बसपा को सात, सपा को पाँच, कांग्रेस और बीजेपी को एक (वैसे तीन सीटें जीती थी लेकिन उमा भारती और साध्वी निरंजना के इस्तीफे से खाली हुई सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी दोनों सीटें सपा से हार गई थी) सीट जीती थी। लोकसभा चुनावों में शानदार सफलता के बाद मोदी सरकार ने बुन्देलखण्ड के लिये तीन हजार 200 करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी। एक तरफ दस हजार करोड़ और दूसरी तरफ चार हजार आत्महत्याएँ… दुष्यंत कुमार का शेर चम्बल नदी का पुल पार करते समय याद आ गया… यहाँ आते-आते सूख जाती हैं सारी नदियाँ, मैं जानता हूँ पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
लेखक एबीपी न्यूज के कार्यकारी सम्पादक हैं
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