1992 में राजाजी पार्क के अधिकारियों ने हिमालय के ऊपरी हिस्सों के उनके ग्रीष्मकालीन प्रवास से वापस पार्क में लौटने पर रोक लगाने की कोशिश की। यही वह वक्त था जब अवधेश कौशल ने इस समुदाय के संघर्ष के साथ स्वयं को जोड़ा और वन गुज्जरों की अपनी जीवन शैली और पारंपरिक अधिकारों को बचाये रखने के आंदोलन को एक क्रांतिकारी रूप दिया।
बांध और सड़क जैसी विकास परियोजनाओं की वजह से पिछले तीन दशकों में देश के अनेक समूहों को उनकी आवास स्थलियों से खदेड़ा जा चुका है। इन्हीं में से एक है वन गुज्जर समुदाय, जो उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल राज्यों में स्थित राजाजी नेशनल पार्क के जंगलों की तराइयों में बसता है। यह समुदाय एक जीवंत सांस्कृतिक समूह के रूप में बचे रहने के लिये ढेरों मुश्किलों से जूझ रहा है।इस समुदाय पर मंडराते अनिश्चितता के काले बादलों का संकेत सर्वोच्च न्यायालय का हाल ही का यह फैसला देता है कि वन और पार्क अधिकारी वन संसाधनों को मानवीय हस्तक्षेप से बचायें। आर.एन.पी के अधिकारी इस समुदाय को पार्क एरिया से एक स्थायी आवासीय कॉलोनी में जाने के लिये मजबूर करते रहे हैं। यह कॉलोनी हरिद्वार के पास पथरी के दलदली इलाके में है। अब इन अधिकारियों ने जंगलों में रहने वाले इन सरल और भोले लोगों पर और ज्यादा दबाव बना दिया है। अगर आर.एन.पी विभाग वन गुज्जरों को जंगल से खदेड़ने में कामयाब हो गया तो इसका मतलब होगा एक शांतिप्रिय और पर्यावरण के साथ तालमेल बना कर रहने वाले समुदाय का विनाश।
देहरादून स्थित एक गैर-सरकारी संगठन रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटलमेंटे केंद्र ने जंगल में रहने वाले गुज्जरों को बचाने की मुहिम छेड़ दी है और उनके प्रयासों के चलते ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने आदेश दिया है कि वन गुज्जरों को अपने आवासों से बेदखल करने के लिये मजबूर नहीं किया जायेगा। अगर वे जंगल से जायेंगे, तो केवल अपनी मर्जी से। रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटलमेंटे केंद्र के अध्यक्ष अवधेश कौशल के मुताबिक भारतीय वन नीति की जड़े पश्चिम की बंदूक और पहरेदारी की पद्धति में हैं। यह नीति आदिवासी समुदायों को उनके प्राकृतिक आवास से बेदखल करती है और इस तरह उनकी पारंपरिक संस्थाओं, मान्यताओं और तौर-तरीकों के औचित्य की अनदेखी करती है। जबकि इन समुदायों की संस्कृति प्राकृतिक संसाधनों को बचाये रखने की संस्कृति है। वे जोर देकर कहते हैं, वन्य जीवों और वनस्पतियों की सुरक्षा के लिये बनाये जाने वाले हर नेशनल पार्क की सामाजिक लागत बहुत ज्यादा है। इनके कारण आदिवासी अपने पारंपरिक अधिकारों और आजीविकाओं से वंचित हो जाते हैं। कौशल सबूतों सहित बताते हैं कि देश में वन्य जीवों की हत्या के कुल मामलों में से लगभग 80 फीसद ऐसे ही इलाकों में होते है।
भारत की विकास संबंधी रणनीतियां अपनी कार्यसूची को लागू करने के लिये कुछ ज्यादा ही बेचैन रही हैं। इस प्रक्रिया में जबरन घुमंतू समुदायों को स्थायी कॉलोनियों में बसाने की कोशिश की जाती रही है। तेजी से लुप्त होते घुमंतू समुदायों की ही श्रेणी में आता है वन गुज्जर समुदाय, जो अपनी घुमंतू और पर्यावरण समर्थक जीवन शैली के लिए जाना जाता है। इस समुदाय के लोग स्वयं को वन शिशुओं के रूप में देखते हैं और जंगलों को ऐसी एक जीती-जागती और गतिशील चीज मानते हैं जिसकी एक प्राणी की तरह रक्षा और देखभाल की जानी चाहिये। वन गुज्जरों के एक मुखिया कहते हैं, अगर आप एक जगह बस गए, तो समझिये कि पत्थर में बदल गए।
वन गुज्जरों के सामाजिक जीवन का एक आकर्षक पहलू है मौसम बदलने के साथ अपने मवेशियों को लेकर नये चारागाहों की तलाश में नई जगहों पर जाना। गर्मियों में वन गुज्जर अपने मवेशियों के साथ हिमालय के ऊपरी इलाकों में चले जाते हैं। सर्दियों में वे फिर वापस राजाजी नेशनल पार्क में लौट आते हैं। इन गुज्जरों के पर्यावरण प्रेम का आधार उनकी पहाड़ी भैंसें हैं। औसतन, हर वन गुज्जर परिवार के पास 30 भैंसें होती हैं। इस समुदाय की खासियत है अपनी भैसों से गहरा भावनात्मक लगाव। इसके चलते इन मवेशियों का अपना एक खास व्यक्तित्व बन गया है। कौशल कहते हैं कि इस समुदाय ने इन भैसों की उच्च आनुवांशिक गुणवत्ता को बनाये रखा है। उन्होंने कभी एक ही कुल के भीतर प्रजनन नहीं होने दिया। वन गुज्जर बहुत अच्छे पशुपालक हैं और उन्होंने गर्मियों के संकटपूर्ण महीनों में हिमालय के ऊपरी इलाकों के शहरों और तीर्थों में दूध और दूसरे दुग्ध-उत्पाद पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
उन्हें अपने पुरखों पर बहुत गर्व है और वे एक गहरे समुदाय बोध में मजबूती से बंधे हुए हैं। शारीरिक रूप से वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पहाड़ी कबीलों जैसे हैं। उनके चेहरे दुबले, आंखें भीतर की ओर धंसी और नाक नोकदार हैं। पर सीमा पार के अपने हमशक्लों के उलट ये वन गुज्जर पूरी तरह शाकाहारी है और हिंदू रीति-रिवजो को मानते हैं। वे अपनी पारंपरिक, रंगबिरंगी और लंबी कृष्ण टोपियों में साफ पहचाने जा सकते हैं। कहा जाता है कि इनके पुरखे कृष्ण के ग्वाले थे। वन गुज्जर महिलायें सुंदर है और अनेक तरह की बारीक नक्काशी वाले अदभुत गहनों के लिये जानी जाती हैं। वे एक जमीनी और ऊर्जावान भाषा बोलते हैं जिसमें डोगरी, पंजाबी और उर्दू शब्दों का इस्तेमाल होता है।
दुर्भाग्य है कि वन गुज्जरों की पारंपरिक जीवन व अप्रवास शैली वन संसाधनों और पर्यावरण संरक्षण को निर्देशित करने वाले कानूनों के कारण फेरबदल का शिकार हो रहे हैं। इस समुदाय की अपने प्राकृतिक आवास को न छोड़ने की इच्छा के कारण वन अधिकारियों से उनका संघर्ष चल रहा है। 1992 में राजाजी पार्क के अधिकारियों ने हिमालय के ऊपरी हिस्सों के उनके ग्रीष्मकालीन प्रवास से वापस पार्क में लौटने पर रोक लगाने की कोशिश की। यही वह वक्त था जब अवधेश कौशल ने इस समुदाय के संघर्ष के साथ स्वयं को जोड़ा और वन गुज्जरों की अपनी जीवन शैली और पारंपरिक अधिकारों को बचाये रखने के आंदोलन को एक क्रांतिकारी रूप दिया। अंतत: पार्क अधिकारियों के पास वन गुज्जरों को रास्ता देने के सिवा कोई चारा नहीं बचा।
केंद्र ने संरक्षित क्षेत्रों के वन प्रबंधन के लिये एक प्रयोगधर्मी प्रस्ताव भी तैयार किया है। इसमें राजाजी पार्क के रोजमर्रा के प्रबंधन में वन गुज्जरों की सहभागिता होगी। इस कार्यक्रम को पहले एक प्रयोग के रूप में शुरू किया जायेगा। पर हैरानी नहीं होनी चाहिये कि देहरादून और दिल्ली की सत्ता के गलियारों से इस प्रस्ताव के जवाब में कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई है। जाहिर है अनिश्चितता के बीच में रहने वाले वन गुज्जर एक खामोश और गहरी पीड़ा से गुजर रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम कि आने वाला कल उनके लिये क्या लेकर आयेगा। पर इन सबके बावजूद, इस गर्वीले और जिंदा-दिल समुदाय का जीवन तो चल ही रहा है। भले ही ढेरों दिक्कतों के बीच।
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