एंटीबॉयोटिक दवाओं को लेकर अर्से से जताई जा रही चिंता ने अब गंभीर रूप ले लिया है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में एंटीबॉयोटिक दवाओं के विरुद्ध पैदा हो रही प्रतिरोधात्मक क्षमता को मानव स्वास्थ के लिए एक वैश्विक खतरे की संज्ञा दी है। चिंता की बात यह है कि जिन महामारियों का दुनिया से समाप्त होने का दावा किया गया था,वे फिर आक्रामक हो रही हैं। मानव जीवन के लिए हानिकारक जिन सूक्ष्म जीवों को नष्ट करने की दवाएं ईजाद की गई थीं, वे रोगनाशक साबित नहीं हुई। डब्ल्यूएचओ के सहायक महानिदेशक डॉ. कीजी फुकुदा का दावा है कि दुनिया ऐसे भयानक अंधकार की ओर बढ़ रही है,जहां सामान्य बीमारियां भी जानलेवा साबित होंगी।
डब्ल्यूएचओ ने 114 देशों से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट में कहा है कि यह प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। रिपोर्ट में एक ऐसे पोस्ट एंटीबॉयोटिक युग की आशंका जताई गई है, जिसमें लोगों के सामने फिर उन्हीं सामान्य संक्रमणों के कारण मौत का खतरा होगा,जिनका पिछले कई दशकों से इलाज संभव हो रहा है। रिपोर्ट निमोनिया, डायरिया और रक्त संक्रमण का कारण बनने वाले सात अलग- अलग जीवाणुओं पर केंद्रित है। जीवाणु धीरे- धीरे एंटीबॉयोटिक के विरुद्ध अपने अंदर प्रतिरक्षा क्षमता पैदा कर लेता है,लेकिन इन दवाओं के हो रहे अंधाधुंध प्रयोग से यह स्थिति अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से सामने आ रही है।
प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में 200 किस्म के ऐसे सूक्ष्मजीव डेरा डाले हुए हैं,जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत व शरीर को निरोगी बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिन ज्यादा मात्रा में खाई जाने वाली एंटीबॉयोटिक दवाएं इन्हें नष्ट करने का काम करती हैं। एंटीबॉयोटिक दवाओं की खोज मनुष्य के लिए वरदान साबित हुई थी, क्योंकि इनसे अनेक संक्रामक रोगों से छुटकारा मिलने की उम्मीद बंधी थी। जैसे ही संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए एंटीबॉयोटिक का इस्तेमाल शुरू हुआ, पाया गया कि पुराने सूक्ष्मजीवों ने अपना रूपांतरण कर लिया है।
जीवाणु और विषाणु सूक्ष्मजीवों के ही प्रकार हैं, जो किसी भी कोशिका में पहुंचकर शरीर को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। ये हमारी त्वचा, मुंह, नाक और कान के जरिए शरीर में प्रवेश करते हैं। फिर एक से दूसरे व्यक्ति में फैलने लगते हैं। वैसे हमारी त्वचा सूक्ष्म जीवों को रोकने का काम करती है और जो शरीर में घुस जाते हैं, उन्हें एंटीबॉयोटिक मार डालते हैं।
1940 से 80 के बीच बड़ी मात्रा में असरकारी एंटीबॉयटिकों की खोज हुई। नतीजतन स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। किंतु 1980 के बाद कोई बड़ी खोज नहीं हुई। 1990 में एक नई किस्म की एंटीबॉयोटिक की खोज जरूर हुई,मगर बाजार में जो भी नई दवाएं आईं, वे हकीकत में पुरानी दवाओं के ही नए संस्करण थे।
विडंबना है कि नई एंटीबॉयोटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि ताकतवर नए-नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। जाहिर है संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है।विडंबना है कि नई एंटीबॉयोटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि ताकतवर नए- नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। जाहिर है संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है। हाल ही में अस्तित्व में आया सुपरबग एक ऐसा ही सूक्ष्म जीव है। इस परिप्रेक्ष्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रिपोर्ट दुनिया के लिए एक खतरे की घंटी है। सुपरबग यानी महाजीवाणु 2010 में चर्चा में आया था,जो दिल्ली में पाया गया था। इसका जन्म भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश में हुआ है। इस सुपरबग पर उपलब्ध कोई भी एंटीबॉयोटिक दवा काम नहीं करती। इस जीवाणु के कारण पेशाब की नली में संक्रमण होता है।
भारत में साफ पानी और शौच के उचित प्रबंध नहीं हैं, इसलिए चिकित्सा विज्ञानियों को आशंका है कि यह महाजीवाणु भारत में कहर ढा सकता है। इसी से मिलता-जुलता एक और महाजीवाणु है,एमआरएसए जो त्वचा और नाक से भीतर घुसकर हरकत में आता है। यूरोपीय देशों में एमआरएसए की वजह से होने वाले संक्रामक रोगों से लड़ने में अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं लेकिन कारगर परिणाम नहीं आ रहे।
एंटीबॉयोटिक दवाएं जब-जब सूक्ष्मजीवों पर भारी साबित हुईं, तब-तब जीवाणु और विषाणुओं ने अपने को ओर ज्यादा शक्तिशाली बना लिया। दवा कंपनियों के मुनाफे की हवस और चिकित्सकों का बढ़ता लालच, इसमें बाधा बने हुए हैं। चिकित्सक सर्दी-जुकाम और पेट के साधारण रोगों तक में एंटीबॉयोटिक देते हैं। ऐलोपैथी के मुनाफाखोरों ने प्रायोजित शोधों के जरिए आयुर्वेद,यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कहकर हाशिए पर डालने षडयंत्र किया है। एंटीबॉयोटिक दवाओं की मार से बचने का कारगर उपाय है कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को लोग अपनाएं।
डब्ल्यूएचओ ने 114 देशों से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए रिपोर्ट में कहा है कि यह प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। रिपोर्ट में एक ऐसे पोस्ट एंटीबॉयोटिक युग की आशंका जताई गई है, जिसमें लोगों के सामने फिर उन्हीं सामान्य संक्रमणों के कारण मौत का खतरा होगा,जिनका पिछले कई दशकों से इलाज संभव हो रहा है। रिपोर्ट निमोनिया, डायरिया और रक्त संक्रमण का कारण बनने वाले सात अलग- अलग जीवाणुओं पर केंद्रित है। जीवाणु धीरे- धीरे एंटीबॉयोटिक के विरुद्ध अपने अंदर प्रतिरक्षा क्षमता पैदा कर लेता है,लेकिन इन दवाओं के हो रहे अंधाधुंध प्रयोग से यह स्थिति अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से सामने आ रही है।
प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में 200 किस्म के ऐसे सूक्ष्मजीव डेरा डाले हुए हैं,जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत व शरीर को निरोगी बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिन ज्यादा मात्रा में खाई जाने वाली एंटीबॉयोटिक दवाएं इन्हें नष्ट करने का काम करती हैं। एंटीबॉयोटिक दवाओं की खोज मनुष्य के लिए वरदान साबित हुई थी, क्योंकि इनसे अनेक संक्रामक रोगों से छुटकारा मिलने की उम्मीद बंधी थी। जैसे ही संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए एंटीबॉयोटिक का इस्तेमाल शुरू हुआ, पाया गया कि पुराने सूक्ष्मजीवों ने अपना रूपांतरण कर लिया है।
जीवाणु और विषाणु सूक्ष्मजीवों के ही प्रकार हैं, जो किसी भी कोशिका में पहुंचकर शरीर को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। ये हमारी त्वचा, मुंह, नाक और कान के जरिए शरीर में प्रवेश करते हैं। फिर एक से दूसरे व्यक्ति में फैलने लगते हैं। वैसे हमारी त्वचा सूक्ष्म जीवों को रोकने का काम करती है और जो शरीर में घुस जाते हैं, उन्हें एंटीबॉयोटिक मार डालते हैं।
1940 से 80 के बीच बड़ी मात्रा में असरकारी एंटीबॉयटिकों की खोज हुई। नतीजतन स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। किंतु 1980 के बाद कोई बड़ी खोज नहीं हुई। 1990 में एक नई किस्म की एंटीबॉयोटिक की खोज जरूर हुई,मगर बाजार में जो भी नई दवाएं आईं, वे हकीकत में पुरानी दवाओं के ही नए संस्करण थे।
विडंबना है कि नई एंटीबॉयोटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि ताकतवर नए-नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। जाहिर है संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है।विडंबना है कि नई एंटीबॉयोटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि ताकतवर नए- नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। जाहिर है संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है। हाल ही में अस्तित्व में आया सुपरबग एक ऐसा ही सूक्ष्म जीव है। इस परिप्रेक्ष्य में विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रिपोर्ट दुनिया के लिए एक खतरे की घंटी है। सुपरबग यानी महाजीवाणु 2010 में चर्चा में आया था,जो दिल्ली में पाया गया था। इसका जन्म भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश में हुआ है। इस सुपरबग पर उपलब्ध कोई भी एंटीबॉयोटिक दवा काम नहीं करती। इस जीवाणु के कारण पेशाब की नली में संक्रमण होता है।
भारत में साफ पानी और शौच के उचित प्रबंध नहीं हैं, इसलिए चिकित्सा विज्ञानियों को आशंका है कि यह महाजीवाणु भारत में कहर ढा सकता है। इसी से मिलता-जुलता एक और महाजीवाणु है,एमआरएसए जो त्वचा और नाक से भीतर घुसकर हरकत में आता है। यूरोपीय देशों में एमआरएसए की वजह से होने वाले संक्रामक रोगों से लड़ने में अरबों रुपये खर्च हो रहे हैं लेकिन कारगर परिणाम नहीं आ रहे।
एंटीबॉयोटिक दवाएं जब-जब सूक्ष्मजीवों पर भारी साबित हुईं, तब-तब जीवाणु और विषाणुओं ने अपने को ओर ज्यादा शक्तिशाली बना लिया। दवा कंपनियों के मुनाफे की हवस और चिकित्सकों का बढ़ता लालच, इसमें बाधा बने हुए हैं। चिकित्सक सर्दी-जुकाम और पेट के साधारण रोगों तक में एंटीबॉयोटिक देते हैं। ऐलोपैथी के मुनाफाखोरों ने प्रायोजित शोधों के जरिए आयुर्वेद,यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कहकर हाशिए पर डालने षडयंत्र किया है। एंटीबॉयोटिक दवाओं की मार से बचने का कारगर उपाय है कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को लोग अपनाएं।
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