बढ़ती गर्मी से सुलगती आर्थिक असमानता


जलवायु वैज्ञानिक इस बात की लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन गरीबों पर सबसे कठोर मार करेगा। उदाहरण के जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व के सूखे क्षेत्रों के और अधिक सूख जाने की आशंका है और विश्व के तमाम निर्धनतम लोग अभी से ही इस तरह का दबाव महसूस करने लगे हैं। उष्णकटिबन्धीय वन एवं समुद्री चट्टानें जैव विविधता सम्बन्धी ‘प्राकृतिक पूँजी’ में अधिक समृद्ध हैं, परन्तु वैश्विक तापमान वृद्धि से इनमें से कुछ के सामने खतरा पैदा हो गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण अब गम्भीरता के साथ संसाधनों के पुनर्वितरण और सम्पदा के पुनर्आबंटन की सम्भावना तो बढ़ती जा रही है, परन्तु इस प्रक्रिया के न्यायोचित ढंग से अन्तिम परिणाम तक पहुँचने में शंका है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह सब राबिनहुड की प्रसिद्ध दन्तकथा के विपरीत होगा यानी कि अब सम्पदा व धन गरीबों से लूटकर अमीरों को दे दिया जाएगा। इसके बावजूद अमीर भी सम्भवतः स्वयं को अमीर महसूस नहीं कर पाएँगे।

एक स्पष्ट उदाहरण के माध्यम से वैज्ञानिक लगातार इस बात की चेतावनी दे रहे हैं। उनके अनुसार मछलियों एवं अन्य जलीय जलचर अब भूमध्य से ध्रुवों की ओर कूच करने लगे हैं क्योंकि उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र ज्यादा तप रहा है और यह विस्तारित भी होता जा रहा है।

इसका सीधा सा अर्थ है कि कम-से-कम एक मूल्यवान संसाधन अब विश्व के सर्वाधिक गरीब देशों से निकलकर उन समुदायों की ओर जा रहा है जो कि तुलनात्मक रूप से अधिक समृद्ध हैं। गौरतलब है कि दुनिया की अधिकांश आर्थिक महाशक्तियाँ कम तापमान वाले क्षेत्र में ही स्थित हैं।

अमेरिका स्थित याले वानिकी एवं पर्यावरण शिक्षण विद्यालय में बायो इकॉनामिक्स एवं इकोसिस्टम के सहायक प्रोफेसर इलि फेनिचेल का कहना है कि लोगों का ध्यान मुख्यतः इन सम्पत्तियों के भौतिक पुनर्आबंटन पर ही केन्द्रित है। मुझे नहीं लगता कि हम लोगों ने इस दिशा में सोचना प्रारम्भ किया है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन सम्पदा का पुनर्आबंटन करवा सकता है और उन सम्पदाओं के मूल्यों (कीमत) को प्रभावित कर सकता है। हम सोचते हैं कि मूल्यों का प्रभाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

पिछले महीने ही डॉ. फेनिचेल ने ‘वास्तविक नकद मूल्य’ की गणना की एक विधि खोजी है, जिसे पर्यावरणविद ‘प्राकृतिक सम्पदा’ कहते हैं। अब उन्होंने और उनके साथियों ने ‘प्रकृति जलवायु परिवर्तन’ का अध्ययन प्रारम्भ किया है और यह विचार करना प्रारम्भ किया है कि यह नकद राशि अन्ततः कहाँ जाकर इकट्ठा होगी। वैसे उनके पास तत्काल इसका कोई उत्तर नहीं है।

वह कहते हैं, “हम नहीं जानते कि यह किस तरह सामने आएगा परन्तु हम यह तो जानते हैं कि इसका मूल्यों पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। मूल्य (कीमतें) मात्रा और कमी को दर्शाता है और प्राकृतिक पूँजी को लेकर लोगों का कहीं और पलायन बहुत ही दुष्कर है। परन्तु यह उसी तरह अपरिहार्य है जिस तरह मछलियों की प्रजातियों का आवागमन।’’

शोधकर्ता अत्यन्त सचेत होकर कह रहे हैं कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन जनित यह जलवायु परिवर्तन जो कि पिछली शताब्दी या उससे थोड़े अधिक समय से जीवाश्म ईंधन के अत्यन्त दुरुपयोग से बढ़ता जा रहा है, की वजह से प्राकृतिक पूँजी का पुनर्आबंटन हो सकता है, सभी प्रकार की पूँजी के मूल्य में परिवर्तन हो सकता है और इससे सम्पदा का व्यापक स्तर पर पुनर्वितरण सम्भव हो सकता है।

उनका मानना है कि हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि बेहतर आर्थिक स्थिति वाले प्राकृतिक पूँजी के सम्भाव्य परिवर्तन जैसे मछलियों के निवास स्थान में परिवर्तन होने से अनिवार्यतः लाभान्वित होंगे ही होंगे। उत्तरी विश्व के अधिकांश मछली मारने वाले बन्दरगाहों पर इच्छित प्रजातियों के अन्तर्वाह का वास्तविक प्रभाव यह पड़ेगा कि पकड़ी गई मछली का मूल्य वास्तव में घट जाएगा। डॉ. फेनिचेल का कहना है कि यदि उत्तरी समुदाय विशेष रूप से अच्छे प्रबन्धकों जैसा कार्य नहीं करेंगे तो जिस असाधरण सम्पत्ति के वे वारिस हैं उसकी कीमत बहुत कम आँकी जाने लगेगी। ऐसे में उनका एकत्रीकरण भी कम होता जाएगा।

सम्पन्न ही लाभ में


यह तो स्पष्ट है कि उन्हें ही ज्यादा फायदा हो रहा है जो ज्यादा सम्पन्न हैं। जिनसे छिन रहा है वे उनसे बहुत ज्यादा खो रहे हैं, जितना ही फायदा लेने वालों को फायदा मिल रहा है। अन्त में पाने वाले भी खोने तो वालों के मुकाबले बहुत अधिक अर्जित नहीं कर पाएँगे। अन्ततः होगा यही कि सम्पदा का कुशल पुनर्आबंटन सम्भव नहीं हो पाएगा।

जलवायु वैज्ञानिक इस बात की लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन गरीबों पर सबसे कठोर मार करेगा। उदाहरण के जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व के सूखे क्षेत्रों के और अधिक सूख जाने की आशंका है और विश्व के तमाम निर्धनतम लोग अभी से ही इस तरह का दबाव महसूस करने लगे हैं। उष्णकटिबन्धीय वन एवं समुद्री चट्टानें जैव विविधता सम्बन्धी ‘प्राकृतिक पूँजी’ में अधिक समृद्ध हैं, परन्तु वैश्विक तापमान वृद्धि से इनमें से कुछ के सामने खतरा पैदा हो गया है।

रुटगेर्स विश्वविद्यालय के एक पर्यावरणविद और उपरोक्त रिपोर्ट के सह लेखक मालिन प्लिन्सिकी का कहना है, हम अब तक यही सोचते थे कि जलवायु परिवर्तन मात्र भौतिकशास्त्र और जीवशास्त्र सम्बन्धी समस्या है। परन्तु अब लोगबाग भी जलवायु परिवर्तन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। परन्तु हाल-फिलहाल हमारे पास जलवायु परिवर्तन से प्रभावित प्राकृतिक संसाधनों की वजह से मनुष्य के स्वभाव पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर बेहतर समझ मौजूद नहीं है।

श्री टिम रेडफोर्ड सन 1988 से जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी रिपोर्टिंग कर रहे हैं। उन्होंने 32 वर्षों तक ‘गार्डियन’ समाचारपत्र में अधिकांशतः विज्ञान सम्पादक के रूप में ही कार्य किया है।

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Post By: RuralWater
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