बढ़ता शहरीकरण और टीबी

शहरों में पलायन कर बसने वाला समुदाय अत्यंत भीड़ भरे एवं अस्वास्थ्य परिस्थितियों में जीवनयापन करता है। घटती आमदनी और बढ़ती महंगाई ने गरीब आदमी से उसका पौष्टिक भोजन भी छीन लिया और बदले में उससे हिस्से में टीबी जैसी बीमारियां आ गई हैं। टीबी का प्रतिवर्ष बढ़ते जाना वास्तव में चिंता का विषय है। साथ ही नियमित दवाई न लेने से इस रोग के प्रति बढ़ती प्रतिरोधकता से संकट और गहरा गया है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के मीरा नगर की राधा बाई (परिवर्तित नाम) का वजन टीबी से ग्रसित होने के कारण लगातार कम हो रहा है। यहां के खदान क्षेत्र में कचरा बीनने वाले परिवार रहते हैं और उनकी जिंदगी बहुत बेतरतीब है। उनके दो लड़के और एक लड़की भी कचरा बीनती हैं।

इस परिवार के खाने का तरीका बहुत ही अलग है। वे अलसुबह 4 बजे के आसपास घर छोड़ती हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा कचरा उन्हें मिल सके। औसतन 5-6 किलोमीटर के क्षेत्र में घूमकर वे दिन के 10 बजे तक पन्नी और कचरा बीनती हैं। इसके बाद शुरू होता है कचरा छंटाई का काम।

कांच, कागज, पन्नी, टीन, लोहा आदि को अलग-अलग करने के बाद उसे बेचना, बेचकर पैसे लेना और उसका खाने का सामान खरीद कर लाना, यह सब करते-करते राधा बाई को दोपहर के दो और घर पहुंचकर खाना बनाते हुए चार बज जाते हैं। इतने समय वे भूखी रहती हैं और बच्चे भी कुछ-कुछ खाते पीते रहते हैं। अंत में चार बजे के आसपास उन सबको भोजन मिल पाता है।

यह वैसे तो एक समय का भोजन है लेकिन राधा बाई के परिवार के लिए यह दोनों समय का भोजन है। इसके बाद रात को खाना नहीं बनता और अगली सुबह से फिर वही दिनचर्या शुरू हो जाती है।

यहां के अधिकांश परिवार राज्य के खंडवा जिले से पलायन करके आए हैं। यानी प्रवास करके आए इन परिवारों के सामने दो वक्त की रोटी पाने के साथ ही शहर में आसरे का भी संकट है।

यहां के औसतन हर परिवार में 5-7 सदस्य हैं और एक कमरे का घर है। जिस जगह ये रहते हैं वहां आस-पास गंदगी का जमावड़ा होता है और यहां पर रहना उनकी मजबूरी है। टीबी के फलने-फूलने की यह आदर्श स्थिति है। लिहाजा राधा बाई टीबी का आसान शिकार थीं।

पर्याप्त भोजन और पोषण न मिलने के कारण उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हुई और अंततः टीबी ने उन्हें दबोच ही लिया। उसका इलाज चल रहा है और डाट्स पद्धति से दवाई दी जा रही है। वह दवाई तो खाती हैं, लेकिन उसे यह पता नहीं है कि एक दिन भी दवा न लेने से या बीच में ही दवाई रोक देने से उन्हें एमडीआर टीबी हो सकती है, जो कि इससे भी ज्यादा घातक है।

बढ़ता शहरीकरण, टीबी के फैलने का एक मुफीद कारक है। शहरीकरण के कारण जनसंख्या घनत्व में बढ़ोतरी होती है, जिससे भीड़-भाड़ वाली रहन-सहन की परिस्थितियों का निर्माण होता है तथा अस्थाई काम के लिए नए आने वालों की संख्या बढ़ती जाती है।

शहरी भारत का एक बड़ा हिस्सा झुग्गी बस्तियों में रहता है। भोपाल की भी लगभग 53 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों में रहती है। शोध से पता चला है कि गांवों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में टीबी का जोखिम 69 प्रतिशत अधिक है। यह हालात तब और भी चेताने वाले हो जाते हैं, जब हमें यह पता चलता है कि सन् 2030 तक दुनिया की दो तिहाई आबादी शहरों में रहेगी।

भारत में भी शहरी आबादी सन् 2021 तक 55 करोड़ तथा 2041 तक 80 करोड़ हो जाएगी। शहरीकरण में आवास भी एक बड़ी समस्या है। एक अनुमान के मुताबिक देश के लगभग 40 फीसदी लोगों के पास पर्याप्त आवास नहीं है।

भारत में रोजाना लगभग 4 हजार लोग टीबी की चपेट में आते हैं और 1000 मरीजों की इस बीमारी की चपेट में आने से मौत हो जाती है। यानी हमारे देश में हर दो मिनटों में तीन लोग टीबी (तपेदिक) से मरते हैं। यह आंकड़ा सालाना 3 लाख के पार जाता है और मरने वालों में पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी होते हैं।

विश्व भर में लगभग बच्चों की टीबी के सालाना 10 लाख प्रकरण सामने आते हैं, जो कि कुल टीबी के प्रकरणों का 10 से 15 फीसदी है। इस बीमारी का पांचवा हिस्सा भारत से आता है।

भारत में विश्व के टीबी के लगभग 21 फीसदी मरीज हैं। यह इतना खतरनाक है कि टीबी का सक्रिय जीवाणु साथ में लेकर चलने वाला व्यक्ति एक साल में 10-15 अन्य लोगों को संक्रमित कर सकता है।

टी.बी. के कारण पारिवारिक आमदनी में हर साल औसतन 20 प्रतिशत तक का नुकसान होता है। इसकी देश पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वार्षिक लागत 23.7 अरब डॉलर आती है। यह सब भी तब है, जबकि टीबी एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज और रोकथाम संभव है।

हालांकि टीबी को लेकर विगत वर्षों में काम तो हुआ है, लेकिन अभी भी सरकारों ने इसे अत्यंत गंभीरता के साथ नहीं देख लिया है। मध्य प्रदेश सरकार भी टीबी को लेकर किस हद तक संवेदनशील है और इसकी की जागरूकता को लेकर प्रदेश में कितना काम हुआ है, इसका अंदाजा भी हम इस बात से ही लगा सकते हैं कि प्रदेश को भारत सरकार के मापदंडों के अनुरूप 216 प्रति लाख केस डिटेक्शन (मामलों की खोज) का लक्ष्य रखा गया है जबकि वर्ष 2011 में यह केवल 126 प्रति लाख और 2012 में और घटकर 121 प्रति लाख प्रति वर्ष पर पहुंच गया। यानी अभी भी हम राष्ट्रीय औसत से 40 प्रतिशत पीछे चल रहे हैं।

इसी के साथ टीबी के मामलों में कान्टेक्ट ट्रेसिंग भी एक महत्वपूर्ण मसला है, लेकिन बच्चों और वयस्कों दोनों ही मामलों में इसके लिए कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं है, जिसके चलते कान्टेक्ट ट्रेसिंग की नहीं जाती है। खून की कमी के कारण महिलाओं में टीबी ज्यादा है। प्रदेश की 67 फीसदी महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं।

हाल ही में आई इंडिया टीबी रिपोर्ट 2013 के अनुसार प्रदेश टीबी के निराकरण में लगभग औसत है। प्रदेश को इस रिपोर्ट कार्ड के अनुसार टीबी के इलाज के लिए लगने वाले मानव संसाधन, वित्तीय प्रबंधन, दवा, केस पता करना, गुणवत्ता पूर्व सेवाओं के लिए केवल 59 प्रतिशत नंबर प्राप्त हुए हैं। इसमें भी सबसे कम नंबर याने की (32 प्रतिशत) उन्हें नए केस पता करने के विषय में दिए गए हैं।

हालांकि 12वीं पंचवर्षीय योजना में टीबी से निपटने के लिए विशेष योजना की बात कही गई है। जमीनी स्थिति इतनी खराब होने के बाद भी टीबी को लेकर न तो सरकारी मशीनरी में है और न ही विभागों में बेचैनी दिखती है। टीबी को गरीबों की बीमारी कहा जाता है शायद इसलिए भी यह मुद्दा सरकारों और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है। जबकि यह सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक अहम मुद्दा है।

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