नई दिल्ली : भारत के विभिन्न हिस्सों में सूखे और ग्रीष्म लहर की घटनाएँ एक साथ मिलकर दोहरी चुनौती दे रही हैं। भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि देश भर में एक ही समय में सूखे और ग्रीष्म लहर की घटनाएँ न केवल बढ़ रही हैं, बल्कि उनका दायरा भी लगातार बढ़ रहा है।
अध्ययन में पाया गया है कि सूखे के साथ-साथ लम्बी अवधि की ग्रीष्म लहरों का प्रकोप देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ रहा है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार राजस्थान एवं गुजरात समेत देश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों, पूर्वोत्तर, पश्चिमी घाट एवं पूर्वी घाट के कई हिस्सों में ग्रीष्म लहर की घटनाओं में बढ़ोत्तरी स्पष्ट रूप से देखी जा रही है। पूर्वी घाट, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत पश्चिमी-मध्य भारत के कई इलाकों में ग्रीष्म लहर की आवृत्ति में भी वृद्धि देखी गई है। इसी के साथ सूखे से प्रभावित क्षेत्र का दायरा भी बढ़ रहा है। वर्ष 1951 से वर्ष 2010 के बीच पूर्वोत्तर भारत के मध्य क्षेत्र और देश के पश्चिमी-मध्य हिस्से में सूखे से प्रभावित क्षेत्रों की सीमा का विस्तार हुआ है।
बंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के शोधकर्ता मौसम विभाग द्वारा मुहैया कराए गए 1951 से 2010 तक साठ वर्षों के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे हैं। ग्रीष्म लहर तीव्रता सूचकांक और वर्षा सूचकांक से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह खुलासा किया गया है।
वरिष्ठ शोधकर्ता प्रोफेसर पी.पी. मजूमदार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “आमतौर पर सूखे की स्थिति के लिये कम वर्षा को जिम्मेदार माना जाता है, पर ग्रीष्म लहरों का प्रकोप और बरसात में गिरावट समेत दोनों घटनाएँ एक ही समय में हो रही हो तो इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। हमने एक ही समय में होने वाली सूखे एवं ग्रीष्म लहर की घटनाओं की आवृत्ति और उसके प्रभाव क्षेत्र में होने वाले बदलाव का विश्लेषण किया है और पाया कि वर्ष 1998 में ग्रीष्म लहर के प्रकोप का दायरा सबसे अधिक था। जबकि वर्ष 1983 की ग्रीष्म लहरों की तीव्रता सर्वाधिक दर्ज की गई है।”
अध्ययनकर्ताओं में शामिल शैलजा शर्मा के अनुसार “भारत में पूर्व के कई अध्ययनों में ग्रीष्म लहर एवं सूखे का विश्लेषण किया गया है, पर एक ही समय में होने वाली सूखे और ग्रीष्म लहर की घटनाओं का अध्ययन इससे पहले नहीं हुआ है। जबकि इसका प्रभाव अधिक होने के कारण दोहरी मार झेलनी पड़ती है।”
किसी इलाके में अगर वर्षा कम हो रही हो और तापमान भी रिकॉर्ड तोड़ रहा हो तो उस क्षेत्र में पानी की उपलब्धता पर भी विपरीत असर पड़ता है। ऐसे में ग्रीष्म लहर के कारण मौतों का खतरा बढ़ जाता है और जंगलों में आग लगने की घटनाओं को भी बढ़ावा मिलता है। जबकि सूखे के कारण जलधाराएँ सूखने लगती हैं और भूजल दोहन को बढ़ावा मिलता है। इस तरह की मौसमी परिस्थितियों से कृषि भी बड़े पैमाने पर प्रभावित होती है। इस तरह देखें तो एक ही समय में होने वाले सूखे और ग्रीष्म लहर का असर पर्यावरण के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक रूप से भी प्रभावित करता है।
हाल के दशकों में भारत में कई भीषण सूखे की घटनाएँ हुई हैं और ग्रीष्म लहरों के मामले भी बढ़े हैं। वर्ष 1982, 1987, 2002 और 2009 में पड़े सूखे के कारण कृषि उत्पादन में हुई कमी से भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था। वैज्ञानिकों का कहना यह भी है कि “समुद्री वातावरण में होने वाली उथल-पुथल के कारण वर्ष 2020 से लेकर वर्ष 2049 के आगामी वर्षों में सूखे की घटनाएँ बढ़ सकती हैं।”
शैलजा शर्मा के अनुसार “इस अध्ययन के नतीजे प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रभावी जल प्रबंधन करने में मददगार हो सकते हैं।” यह अध्ययन हाल में साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
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