बाढ़ और सूखा वन-विनाश के दो पहलू

बाढ़ और सूखा वन-विनाश के दो पहलू
बाढ़ और सूखा वन-विनाश के दो पहलू

आज आधुनिकता की अन्धी सड़क और बढ़ती आबादी के अन्धे स्वार्थ ने पेड़ों का पीछा कर रही है। मूक और अचल जंगल भाग नहीं सकते। मनुष्यों की क्रूरता के कारण वे नष्ट हो रहे हैं। रोज लाखों-करोड़ों वृक्षों का जीवन समाप्त कर देता है मनुष्य ! पेड़ प्रतिशोध नहीं लेते, किन्तु प्रकृति का अदृश्य सन्तुलन चक्र वन-विनाश के भावी परिणामों का हल्का संकेत तो देता ही है-प्रलयकारी बाढ़ों और भयावह सूखे के रूप में।

हर वर्ष हज़ारों जानें और करोड़ों की सम्पत्ति की बलि लेने वाली यह स्थिति हमारे लिए एक नियमित घटना बन गयी है। 1978 की बाढ़ से देश सम्भला भी नहीं था कि 1979 में सूखे ने देश को दबोच लिया। 1979 बीत गया है, लेकिन उत्तर भारत के हजारों गांव प्यास से तड़प रहे हैं। लोग, पशु मर रहे हैं। गहराई से देखें तो बाढ़ और सूखा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों का मूल कारण है वन-विनाश प्रारम्भ में धरती का दो-तिहाई भाग 12 अरब 80 करोड हेक्टेयर से वनों से आच्छादित था, परन्तु आज तो केवल 16 प्रतिशत भू-भाग 2 अरब हेक्टेयर पर ही वन हैं और वे भी लुप्त होते जा रहे हैं। वन-विनाश का मुख्य कारण मानव का धरती के साथ अविवेकपूर्ण व्यवहार रहा है।

मनुष्य ने अपनी सुख-सुविधा के लिए प्राकृतिक उपजों से पोषण पाने की बजाय पेड़-पौधों को काटकर खेती प्रारम्भ की। विश्वविख्यात वृक्ष मित्र रिचर्ड सेंट बार्ब बेकर के शब्दों में अंग्रेजी का 'फील्ड' शब्द, जो खेत का पर्यायवाची है फेल्ड (पेड़ गिराने) से आया है। जिस दिन मनुष्य ने लोहे के हल से धरती को चीरना प्रारम्भ किया, उसी दिन से वन-विनाश हो गया। स्थायी और निश्चित खेती से भी अधिक विनाशकारी 'झूम खेती' की पद्धति सिद्ध हो रही है। उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में जंगल जलकार 'झूम खेती' करने की पद्धति प्रचलित है। विश्व के तीन करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रहने वाले 20 करोड़ लोग 'झूम खेती' करते हैं। आइवरी कोस्ट में 'झूम खेती' सन् 1956 और 1966 के बीच 30 प्रतिशत वन-क्षेत्र नष्ट हो गया। वहां पर 1,50,000 वर्ग किलोमीटर में से केवल 50,000 वर्ग किलो- मीटर वन क्षेत्र ही शेष रह गया। उत्तर-पूर्वी भारत, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, असम, अरुणाचल और त्रिपुरा तथा कुछ अन्य आदिवासी-क्षेत्रों में 'झूम खेती' की पद्धति प्रचलित है। उत्तर-पूर्वी भारत में 4,92,000 आदिवासी परिवार प्रतिवर्ष 4,53,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर 'झूम-खेती करते हैं। इससे कुछ प्रभावित क्षेत्र 26,94,000 हेक्टेयर है।

पहले जब जनसंख्या कम थी, तो 'झूम खेती' का चक्र लम्बा था, परन्तु अब 7-8 वर्षों के बाद ही पुराने क्षेत्र में लोग खेती के लिए लौट आते हैं। इतने कम समय में तो वनस्पति-विहीन होने और जलने के कारण हुए धरती के पुराने घाव ही नहीं भरतेफलतः भू-क्षरण की प्रक्रिया तेज हो गयी है, भूमि की उर्वरा शक्ति का तेजी से ह्रास हो रहा है। एक ओर आदिवासियों के भूखे मरने की नौबत आ रही है, तो दूसरी ओर अधिकाधिक क्षेत्र वन-विहीन होता जा रहा है।

परन्तु आदिवासियों को ही अकेले दोष क्यों दें ? उनसे अधिक तो कथित सभ्य लोगों ने खेती के लिए वन-भूमि को हड़प लिया है। हमारे यहां आज़ादी के बाद इसकी गति कितनी तीव्र हुई है, इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभिन्न प्रयोजनों के लिए ली गयी 41 लाख 34 हजार, 750 हेक्टेयर वन-भूमि में से सबसे अधिक भूमि (25 लाख, 6 हजार, 900 हेक्टेयर) कृषि के लिए ली गयी। हमारी आज़ादी बड़ी संख्या में विस्थापितों के पुनर्वास और अन्न की कमी की समस्याओं को लेकर आयी। इसलिए तराई (उत्तर प्रदेश) दण्डकारण्य और सुन्दरवन जैसे विस्तृत वन-क्षेत्रों को कृषि विस्तार के लिए वृक्ष-विहीन किया गया। कई स्थानों पर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए राजनीतिक नेताओं ने वन-क्षेत्रों में कृषि के लिए अतिक्रमण को बढ़ावा दिया। मध्य प्रदेश की जनता सरकार ने तो 27,02,31,000 हेक्टेयर वन-क्षेत्र में
1,11,320 व्यक्तियों द्वारा किये गये अतिक्रमण को नियमित करने के लिए एक महकमा ही कायम कर दिया था।

कृषि विस्तार के अलावा नदी घाटी बांध परियोजनाओं के लिए भी 1975-76 तक 4 लाख 79 हजार हेक्टेयर वन-भूमि ली जा चुकी थी। इसमें कुछ भूमि तो जलमग्न हो गयी। नदी घाटी और जल-विद्युत योजनाएँ वन-विनाश की गति को किस प्रकार तीव्र करती है, इसका उदाहरण केरल की इदुकी परियोजना है, इसके लिए केवल 62 वर्ग किलोमीटर जंगल काटा गया। परन्तु इस क्षेत्र में यातायात के साधन सुलभ हो जाने से लोगों को पहाड़ी ढलानों केवन, खेती के लिए साफ करने का रास्ता खुल गया और 30 वर्षों में 480 वर्ग किलोमीटर का पूरा जंगल समाप्त हो गया। केरल में  विवादास्पद मूक घाटी परियोजना के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिकों और संरक्षण-प्रेमियों की यही आशंका है।

उड़ीसा में रिंगली बाँब परियोजना अविवेकपूर्ण वन विनाश की दूसरी मिसाल है। इस परियोजना के लिए 26,000 हेक्टेयर वन काटा और डूबे क्षेत्र के विस्थापितों के पुनर्वास के लिए 14,200 हेक्टेयर अतिरिक्त वन काटा जाएगा। इस प्रकार कुल 40,000 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में भागीरथी पर बनाने वाले विवादास्पद टिहरी के बांध के विस्थापितों के पुनर्वास के लिए दून घाटी और सहारनपुर के पथरी ब्लॉक में लगभग 4,000 हेक्टेयर वन काटे जा रहे हैं। स्वयं टिहरी गढ़वाल में ही नये टिहरी नगर को बसाने और बाँध के डूबे क्षेत्र की सड़कों के स्थान पर वैकल्पिक सड़कें बनाने के लिए फिसलते हुए पहाड़ों को रोककर रखने वाले हज़ारों पेड़ों की कटाई एक दुःखद घटना है। नयी सड़कों का निर्माण, उद्योगों की स्थापना और नगरों का विस्तार वन-विनाश के दूसरे कारण हैं। जहां-जहां हमारी सभ्यता का विस्तार होता है, वनस्पति का विनाश होता है।

स्रोत-आल इण्डिया पिंगलवाड़ा चैरीटेबल सोसाइटी

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