बदलती जलवायु के खतरे

climate change
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धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय के नजारे दिखा सकता है। ताजे शोध के अनुसार समुद्र का जलस्तर एक मीटर तक बढ़ सकता है। इससे कई देश और भारत के तटीय नगर डूब जाएंगे। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत समेत पूरी दुनिया का तापमान 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्थों का कोई वैकल्पिक ईंधन ढूंढ़ने में विफल दुनिया भर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं…दुनिया भर के देश अपने विकास के लिए जिस आधुनिक रास्ते पर चल रहे हैं, वह वास्तव में विकास नहीं, बल्कि महाविनाश का रास्ता है। इसका नतीजा यह है कि आज हमारे सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी बचा है। लेकिन अब खतरा इससे भी बड़ा आने वाला है। भविष्य की तस्वीर बड़ी भयावह है, अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो 2030 तक 10 करोड़ लोग सिर्फ जलवायु परिवर्तन की वजह से मौत के मुंह में समा जाएंगे। 20 विकासशील देशों की ओर से करवाए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है। जलवायु परिवर्तन के कारण 2030 तक अमेरिका और चीन के जीडीपी में 2.1 फीसदी जबकि भारत के जीडीपी में पांच फीसदी तक की कमी आ सकती है। इसके अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इससे धरती के ध्रुवों पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है, जो समुद्र के जलस्तर को बढ़ा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण वायु प्रदूषण, भूख और बीमारी से हर साल पचास लाख लोग मारे जा रहे हैं। 2030 तक हर साल साठ लाख लोग इस वजह से मारे जाएंगे। इस दर से अगले 18 साल यानि 2030 तक 10 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन का शिकार होंगे। इनमें से 90 फीसदी मौतें विकासशील देशों में होंगी।

विकासशील देशों की इस अध्ययन रिपोर्ट में 2010 और 2030 में 184 देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आंकलन किया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल विश्व के जीडीपी में 1.6 फीसदी यानि 1200 खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो 2030 तक यह कमी 3.2 फीसदी हो जाएगी और 2100 तक यह आंकड़ा 10 फीसदी को पार कर जाएगा। जबकि जलवायु परिवर्तन से लड़ते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में विश्व जीडीपी का मात्र आधा फीसदी खर्चा होगा। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर होगा। 2030 तक उनके जीडीपी में 11 फीसदी तक की कमी आ सकती है। एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी से कृषि उत्पादन में 10 फीसदी की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसके खाद्यान्न उत्पादन में 40 लाख टन की कमी आएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों समेत प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीने योग्य पानी की कमी है। लिहाजा भूकंप, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं।

एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी से कृषि उत्पादन में 10 फीसदी की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसके खाद्यान्न उत्पादन में 40 लाख टन की कमी आएगी।धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय के नजारे दिखा सकता है। ताजे शोध के नतीजों के अनुसार समुद्र का जलस्तर एक मीटर तक बढ़ सकता है। इससे कई देश और भारत के तटीय नगर डूब जाएंगे। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक वातावरण परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत समेत पूरी दुनिया का तापमान 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्थों का कोई वैकल्पिक ईंधन ढूंढ़ने में विफल दुनिया भर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं।

पीडब्ल्यूसी के अर्थशास्त्रियों ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि अब वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर तक रखना असंभव हो गया है। इसलिए इसके घातक नतीजे सारी दुनिया को भोगने होंगे। वैज्ञानिकों ने वातावरण परिवर्तन की किसी घातक और अविश्वसनीय स्थिति को टालने के लिए वैकल्पिक तापमान का औसत 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य के साथ ही वैज्ञानिकों ने कहा था कि कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाले इस ईंधन के बदले किसी कम प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन की तलाश की जाए। पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल ने पाया कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अब काफी देर हो चुकी है। 2 डिग्री सेल्सियस तापमान के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को अगले 39 सालों में कमोबेश 5.1 फीसदी प्रति वर्ष की दर से पूरी तरह कार्बन रहित बनाना होगा। जबकि द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद से दुनिया ने इस लक्ष्य को कभी छुआ तक नहीं है।

इस मसले पर पीडब्ल्यूसी के साझीदार लोओ जॉनसन का कहना है कि इस सदी के कगार पर वातावरण परिवर्तन से ये दुनिया बदलने वाली है। अगर कार्बन रहित कामकाज की दर को दोगुना भी कर दिया जाए तो भी इस सदी के अंत तक निरंतर कार्बन उत्सर्जन के कारण 6 डिग्री सेल्सियस तक तापमान और बढ़ जाएगा। लेकिन अगर अभी भी 2 डिग्री के लक्ष्य का पचास फीसदी प्रयास भी किया जाए तो कार्बन रहित वातावरण में छह स्तरीय सुधार हो सकता है। अब हम किसी खतरनाक परिवर्तन से बचने की कगार को तो पार कर ही चुके हैं। इसलिए हमें एक गर्म दुनिया में खुद को बनाए रखने की योजना बनानी होगी।

एक ताजा शोध में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले दशकों में बारिश 40 से 70 फीसदी तक कम हो जाएगी। इससे मानसूनी बारिश से आने वाला ताजा पानी देशवासियों के लिए कम पड़ेगा। खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं होगा। इससे देश में जल की ही नहीं, खाद्यान्नों की भी कमी हो जाएगी। इस ग्लोबल वार्मिग के कहर से सबसे ज्यादा एशियाई देश प्रभावित होंगे। अगले दो सौ सालों में ग्लोबल वार्मिग के कारण भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इससे बारिश और जल की अत्यधिक कमी होगी। जबकि कृषि प्रधान देश में आज भी खेती पूरी तरह से मानसून पर ही निर्भर है। साथ ही देश के मौसमों में भी इसमें आमूल-चूल परिवर्तन होने की पूरी आशंका है। एक ताजा शोध में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले दशकों में बारिश 40 से 70 फीसदी तक कम हो जाएगी। इससे मानसूनी बारिश से आने वाला ताजा पानी देशवासियों के लिए कम पड़ेगा। खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं होगा। इससे देश में जल की ही नहीं, खाद्यान्नों की भी कमी हो जाएगी।

भारत में मानसून जून से लेकर सितंबर तक कमोबेश चार महीने रहता है। ये मौसम देश की एक अरब बीस करोड़ आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में धान, गेहूं और मक्का जैसी उपयोगी फसलों उगाने के लिए बहुत जरूरी होता है। ये सारी प्रमुख फसलें मानसूनी बारिश पर ही निर्भर करती है। दक्षिण-पश्चिम का ये मानसून देश में 70 फीसदी बारिश के लिए जिम्मेदार है।

पोस्टडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेंट इंपैक्ट रिसर्च एंड पोस्टडैम यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने अपने ताजा शोध में पाया कि मानव जाति 21वीं सदी के अंत तक पहुंचने की कगार पर है। लेकिन 22वीं सदी में ग्लोबल वार्मिंग की अधिकता के कारण दुनिया का तापमान हद से ज्यादा बढ़ चुका होगा।

इनवायरमेंट रिसर्च सेंटर नाम की पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में बताया गया है कि बसंत ऋतु में प्रशांत क्षेत्र के वाकर सर्कुलेशन की आवृत्ति बढ़ सकती है। इसलिए मानसूनी बारिश पर बहुत बड़ा फर्क पड़ सकता है। वाकर सर्कुलेशन पश्चिमी हिंद महासागर में अक्सर उच्च दबाव लाता है। लेकिन जब कई सालों में अलनीनो उत्पन्न होता है तब दबाव का ये पैटर्न पूर्व की ओर खिसकता जाता है। इससे भारत के थल क्षेत्र में दबाव आ जाता है और मानसून का इलाके में दमन हो जाता है। ये स्थिति खासकर तब उत्पन्न होती है जब बसंत में मानसून विकसित होना शुरू होता है।

अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार भविष्य में जब तापमान और अधिक बढ़ जाएगा तब वाकर सर्कुलेशन औसत रहेगा और दबाव भारत के थल क्षेत्र पर पड़ेगा। इससे अलनीनो भी नहीं बढ़ पाएगा। इससे मानसून प्रणाली विफल हो जाएगी और सामान्य बारिश के मुकाबले भविष्य में 40 से 70 फीसदी बारिश ही होगी।

भारतीय मौसम विभाग ने सामान्य बारिश का पैमाना 1870 के दशक के अनुसार बनाया था। मानसूनी बारिश में कमी सब जगह समान रूप से नहीं होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण मानसूनी बारिश कम होने से भी ज्यादा भयावह स्थितियां पैदा हो सकती हैं। इसलिए हमें एक ऐसी दुनियां में जीने की तैयारी कर लेनी चाहिए जहां सब कुछ हमारे प्रतिकूल होगा।

प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन ऐसे हालात प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और आधुनिक तकनीक के कारण ही पैदा हो रहे हैं इसलिए हम एक महाविनाश की ओर जा रहे हैं जिसकी कल्पना हमारे पुराणों में कलयुग के अंत के रूप में पहले से ही घोषित की जा चुकी है।

लेखक का ई-मेल : nirankarsi@gmail.com

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