किसानों को बेहतर मूल्य दिलाने की बात हर मंच पर उठाई जाती है लेकिन बेहतर उत्पादकता के साथ कम लागत में खेती करके भी किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं। इसी मकसद को हासिल करने के लिए इंदौर के मैकेनिकल इंजीनियर डॉ. मंगेश करमाकर ने एक योजना बनाई है, जिसे नाम दिया है ‘एग्रो पार्क’। उनका कहना है कि हर बूंद और हर उर्वरक के दाने से ज्यादा पैदावार करने के मॉडल का हम किसानों के समक्ष प्रदर्शन करेंगे। इसके फायदे देखने के बाद किसान खुद ही ‘एग्रो पार्क’ की मूल भावना समझने और इसे अपनाने के लिए आगे आएंगे।यद्यपि खाद्यान्न आपूर्ति के लिए अब भी अधिकतर भारतीय किसान परम्परागत खेती को ही महत्व देते हैं किंतु शिक्षित किसानों की पीढ़ी ने कुछ नया करने की सोच के साथ परम्परागत खेती की बजाय बाजार की मांग के अनुरूप खेती करना आरम्भ कर दिया है। उनका मानना है कि बीज, खाद, पानी आदि के खर्चे निकालने के बाद परम्परागत खेती से उन्हें कुछ खास लाभ नहीं हो पाता, इसलिए वे कुछ ऐसी फसलों का चयन कर रहे हैं जिनसे उन्हें निरन्तर अधिक आमदनी होती रहे। इसके अलावा, उन्हें इन फसलों में अपने तकनीकी ज्ञान का उपयोग करने का अवसर भी मिलता है।
एग्रो पार्क
इंदौर के सेंटर फॉर एडवांस टेक्नोलॉजी के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. करमाकर का कहना है कि एग्रो पार्क सिर्फ एक विचार है जिसके जरिए खेती का बेहतर तरीका अपनाया जाएगा। किसानों खासकर छोटे किसानों से खेती के लिए उनकी जमीन लेना खासा मुश्किल है क्योंकि दूर-दराज के गांवों में रहने वाले किसान बाहरी लोगों के प्रति काफी सशंकित रहते हैं। इसलिए डॉ. करमाकर ने अपने स्तर पर खेती करके अपने मॉडल का प्रदर्शन करने का फैसला किया है।
उन्होंने बताया कि शहरों में रहने वाले पांच निवेशकों (मध्यम वर्ग के लोग, जो सिर्फ कुछ लाख रुपये निवेश करने को तैयार हो) का ग्रुप बनाया जाएगा। इस ग्रुप का कुल निवेश करीब 30 से 50 लाख रुपये के बीच होगा। इस पूंजी का करीब दो तिहाई पैसा जमीन खरीदने में खर्च होगा। बाकी पैसा खेती करने के लिए इनपुट और बुनियादी सुविधाएं विकसित करने पर खर्च होगा।
डॉ. करमाकर के अनुसार फिलहाल वे इंदौर और भोपाल के पास जमीन की तलाश कर रहे हैं। उनकी कोशिश शहर से करीब 100 किलोमीटर दूर सस्ती खेतिहर जमीन खरीदने की है। दूरदराज के इलाके में ही सस्ती जमीन मिल सकेगी और दूरदराज के गांवों में ही किसानों को नई तकनीक की जानकारी की ज्यादा आवश्यकता है। जमीन मिलने के बाद ही उनका मॉडल मूर्तरूप लेना शुरू करेगा।
उन्होंने बताया कि एग्रो मॉडल को लागू करने के लिए पांच निवेशकों के समूह को संगठन का रूप दिया जाएगा। एग्रो मॉडल को स्थापित होने में तीन से पांच साल का समय लगेगा। डॉ. करमाकर के मुताबिक खेती के नए मॉडल का प्रदर्शन छह माह में नहीं हो सकता है। किसानों को प्रेरित करने के लिए जरूरी है कि शहरी निवेशक तीन से पांच साल तक खुद खेती करें। चूंकि शहरी निवेशक शिक्षित होने के अलावा नई तकनीकों से परिचित होंगे, ऐसे में वे खेती के नए प्रयोग कर सकेंगे।
उनका कहना है कि एग्रो पार्क के रूप में खेती करने पर कम से कम दस प्रतिशत रिटर्न अवश्य मिलना चाहिए। पहले समूह की शुरुआत के बाद इसका विस्तार होगा। पांच-पांच निवेशकों के समूह 300 गांवों में बनाए जाएंगे। ये समूह अपने स्तर पर अपनी जमीन में खेती करेंगे।
खेती का तरीका
एग्रो मॉडल के अनुसार हर समूह द्वारा करीब 50 हेक्टेयर जमीन पर खेती की जाएगी। इस जमीन में आधी जमीन सिंचित होगी और वास्तव में इसी जमीन पर खेती की जाएगी। बाकी जमीन असिंचित होगी और वहां खेती के बजाय दूसरे ग्रामीण प्रयोग होंगे जिससे खेती में सहूलियत हो। इस जमीन पर रेन वाटर हार्वेस्टिंग, गोबर गैस प्लांट, तालाब आदि के प्रयोग किए जाएंगे।
डॉ. करमाकर का कहना है कि 23 जुलाई 2010 उनका मकसद सिर्फ खेती करना ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्र में पानी और ऊर्जा का संरक्षण भी है। यही वजह है कि अनुपजाऊ जमीन खरीदकर उसके उपयोग का तरीका भी बताया जाएगा। उनका भरोसा है कि 300 गांवों तक समूहों द्वारा 3-5 साल तक खेती किए जाने पर किसानों को अपने आसपास ही नई तकनीक देखने को मिलेगी।
जल संरक्षण
डॉ. करमाकर का कहना है कि एग्रो पार्क का मूलमंत्र बूंद-बूंद पानी से उत्पादकता हासिल करना है। अनुपजाऊ जमीन लेकर वहां रेन वाटर हार्वेस्टिंग का प्रयोग किया जाएगा। इस जमीन पर तालाब बनाया जाएगा। पानी के बेहतर उपयोग के लिए ड्रिप वाटर सिंचाई की जाएगी।
ऊर्जा के लिए प्रयोग
अनुपजाऊ जमीन पर बायोगैस प्लांट लगाने की भी योजना है। गांवों में गोबर की कहीं कमी नहीं रहती है क्योंकि हर घर में पशुपालन आम बात है। गोबर और दूसरी वस्तुओं से बिजली पैदा की जा सकती है। सरकारी योजनाओं के तहत गांवों में गोबर गैस प्लांट तो लगे लेकिन तकनीकी जानकारी के अभाव और सही ढंग से रख-रखाव न होने के कारण आधे से ज्यादा प्लांट बंद पड़े हैं। एग्रो पार्क के तहत समूह ऊर्जा क्षेत्र में प्रयोग करेगा। इस ऊर्जा से ही खेती की गतिविधियां चलाई जाएंगी।
डॉ. करमाकर ने बताया कि खेती की पैदावार बढ़ाकर लागत में कमी लाई जा सकती है। लागत घटेगी तो निश्चित ही इससे रिटर्न बेहतर होगा। एग्रो पार्क के समूहों की सफलता के बाद किसान नई तकनीक अपनाने के लिए प्रेरित होंगे।
शेड नेट में सब्जियों की अगेती खेती
बेमौसमी सब्जियां जैसे गोभी, हरा धनिया, टमाटर, हरी मिर्च और बैंगन की खेती शेड नेट में गर्मियों के मौसम में भी हो सकती है। आमतौर पर सर्दियों में उगने वाली इन सब्जियों की बुवाई-रोपाई अगस्त के बाद होती है लेकिन शेड नेट के जरिए उच्च तापमान से पौधों को बचाकर ये सब्जियां करीब एक महीना पहले यानी जून-जुलाई में उगाई जा सकती हैं। ये सब्जियां सितंबर में ही तैयार हो जाएंगी। जल्दी फसल आने पर बाजार में इनका बेहतर मूल्य मिलेगा।
गर्मी होने के कारण धनिया और गोभी की फसल मौसम का तापमान घटने से पहले उगाना आसान नहीं होता है। लेकिन गर्मियों के दौरान इनकी बुवाई और अगेती फसल लेने के लिए शेड नेट का घर बेहतर विकल्प है। शेड नेट के घर में मई-जून की भीषण गर्मी में भी इनकी बुवाई की जा सकती है। इसकी वजह यह है कि शेड नेट के घर में 75 फीसदी छाया रहने से बीज और पौधे जलने से बच जाते हैं। शेड नेट के घर को चार वर्ष तक उपयोग किया जा सकता है। इसकी लागत दो सीजन में निकल आती है। वहीं मई में बुवाई करने से गर्मियों में धनिया और दीपावली पर गोभी की फसल तैयार हो जाती है। इसके अलावा जून में टमाटर, हरी मिर्च और बैंगन के पौधे उगाए जा सकते हैं। इस तरह ये फसलें सामान्य समय से करीब एक माह पहले तैयार हो सकती हैं।
उपयुक्त इलाके
जयपुर स्थित दुर्गापुरा कृषि अनुसंधान के अनुसंधानकर्ता डॉ. एस. मुखर्जी के अनुसार जिन इलाकों में दोमट या चिकनी मिट्टी हो, वहां ऑफ सीजन में धनिया व गोभी की पैदावार की जा सकती है। इस लिहाज से राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश समेत कई इलाकों में ऑफ सीजन में गोभी व धनिया की पैदावार की जा सकती है।
शेड नेट बनाने का तरीका
अगेती गोभी व धनिया की पैदावार के लिए खेत में एक हजार वर्ग मीटर में शेड नेट का घर तैयार करना होता है। शेड नेट का घर बनाने के लिए लोहे के पाइप या बांस के सहारे से करीब छह फीट ऊंचा ढांचा तैयार किया जाता है। इस ढांचे को शेड नेट से ढक दिया जाता है। शेड नेट बाजार में 20-25 रुपये प्रति मीटर की कीमत पर मिल जाता है। शेड नेट के घर में 75 फीसदी छाया रहने से तेज गर्मी में बीज व पौधे जलते नहीं हैं।
खेती करने की विधि
शेड नेट के घर में क्यारियां बनाकर बीजों को लाइन से बोया जाता है। लेकिन लाइन से बीज बोने से पहले क्यारियों में प्रति वर्ग मीटर में 15 किलो जीवाणु खाद डालना जरूरी है। जीवाणु खाद तैयार करने के लिए प्रति सौ किलो गोबर की खाद में दो सौ ग्राम ट्राइकोडर्मा मिलाकर किसी छायादार स्थान पर करीब बीस दिन के लिए रखते हैं। इसके साथ जीवाणुओं को पनपने देने के लिए खाद में नमी रखनी पड़ती है। तैयार खाद को क्यारियों में डालने के बाद बीजों को ट्राइकोडर्मा या केप्टन या थाइरम से उपचारित कर लाइन से बोने के साथ क्यारियों में रोजाना पानी देना जरूरी है।
धनिया के बीजों की मोटी दाल बनाकर इनको एक दिन पानी में भिगोने से अंकुरण जल्दी होता है। गोभी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर आधा किलो बीज उपचारित करने के लिए प्रति एक किलो बीज में तीन ग्राम केप्टन या थाइरम का उपयोग करना पड़ता है। इस तरीके से महीने भर में गोभी के पौधे तैयार हो जाते हैं। इन पौधों को खेत में प्रत्यारोपित कर हर तीसरे दिन पानी देने से इन पौधों में अक्टूबर-नवंबर में फूल आ जाते हैं।
अगेती खेती का फायदा
मई में बीज बोने से सामान्य समय से करीब एक-डेढ़ महीने पहले अर्थात अक्टूबर-नवंबर में ही गोभी की फसल तैयार हो जाती है। वहीं धनिया उगने में करीब एक महीना लगता है अर्थात जून में धनिया उग आता है। इन दोनों को एक साथ बोने से एक फायदा यह भी है कि किसानों को एक महीने बाद से कमाई मिलनी शुरू हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि गर्मी के दौरान धनिया आसानी से उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए गर्मियों में धनिया के मुंहमांगे दाम मिल जाते हैं। इसी तरह त्यौहारी सीजन के दौरान सब्जियों में गोभी भी हॉट आइटम रहती है।
पैकिंग का रखे ध्यान
पैकिंग पर ध्यान देने से खासकर गोभी को खराब होने से बचाया जा सकता है। आमतौर पर गोभी के फूलों को टोकरों में घास-फूस डालकर या जूट के बारदाने में पैक किया जाता है। इससे गोभी के फूल काले पड़ने के साथ खराब होने की आशंका रहती है। लेकिन गोभी के फूलों को टोकरों में कागज की कतरन या नरम कपड़ा डालकर पैक करें तो यह खराब नहीं होगी और दाम अच्छे मिलेंगे।
गुग्गल की खेती
गुग्गल एक छोटा पेड़ है जिसके पत्ते छोटे और एकांतर सरल होते हैं। यह सिर्फ वर्षा ऋतु में ही वृद्धि करता है तथा इसी समय इस पर पत्ते दिखाई देते हैं। शेष समय यानी सर्दी तथा गर्मी के मौसम में इसकी वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है तथा पर्णहीन हो जाता है। सामान्यतः गुग्गल का पेड़ 3-4 मीटर ऊंचा होता है। इसके तने से सफेद रंग का दूध निकलता है जो इसका उपयोगी भाग है।
प्राकृतिक रूप से गुग्गल भारत के कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात तथा मध्य प्रदेश राज्यों में उगता है। भारत में गुग्गल विलुप्तावस्था के कगार पर आ गया है, अतः बड़े क्षेत्रों में इसकी खेती करने की जरूरत है। हमारे देश में गुग्गल की मांग अधिक तथा उत्पादन कम होने के कारण अफगानिस्तान व पाकिस्तान से इसका आयात किया जाता है।
गुग्गल उगाने के लिए जलवायु एवं भूमि
गुग्गल उगाने के लिए उष्ण कटिबंधीय, कम वर्षा वाले तथा शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र उपयुक्त होते हैं। यह अन्य छायादार वृक्षों के साथ अधिक वृद्धि करता है। अतः इसे वनों या बगीचों में, खेतों की मेढों पर, छायादार पेड़ों के नीचे फैंसिंग के रूप में लगाया जा सकता है। रेतीली, पहाड़ी मृदा जिसमें जल निकास अच्छा हो, इसके लिए बहुत उपयुक्त है। यह शुष्क स्थानों में भी अच्छी वृद्धि करता है, इसलिए असिंचित क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है। गुग्गल भू-क्षरण या परती भूमि के विकास हेतु उपयुक्त है।
गुग्गल की बुवाई
बीज से गुग्गल की बुआई करने पर बहुत ही कम (सिर्फ 5) पौधे तैयार होते हैं, इसलिए गुग्गल संवर्धन ज्यादातर कलमों से ही किया जाता है। जून-जुलाई में करीब 10 मि.मी. मोटाई की मजबूत कलमें काटकर नर्सरी में पोलीबैग में एक वर्ष के लिए रखते हैं जिन्हें एक वर्ष बाद खेत में रोपित करते हैं। सिंचित दशा में रोपाई का काम फरवरी तक किया जा सकता है। पौधे से पौधे की दूरी एक मीटर तथा कतार से कतार की दूरी दो मीटर रखते हैं। एक एकड़ में लगभग दो हजार पौधे रोपित किए जाते हैं।
गुग्गल की देखभाल
रोपाई के समय प्रति पौधा दस किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद देने से पौधों का अच्छा विकास होता है। खाद में नीम की खली मिलाकर डालने से दीमक से बचाव हो जाता है। पौधे रोपित करने के प्रथम वर्ष में एक-डेढ़ माह के अंतर से पानी देना चाहिए। इसके बाद सामान्यतः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। गुग्गल को सामान्यतः अधिक निराई की आवश्यकता नहीं होती। समय-समय पर गुड़ाई करके पौधों के आसपास की भूमि को भुरभुरा बनाना चाहिए।
उपज व आय
गुग्गल के पौधों से पहली उपज करीब 8 वर्ष बाद प्राप्त होती है। इसके मुख्य तने को छोड़कर इसकी शाखाओं में चीरा लगाकर सफेद दूध या गोंद प्राप्त किया जाता है। एक पेड़ की छंटाई से शुरुआत में सोलवेंट प्रोसेस के द्वारा 600 ग्राम से एक किलोग्राम तक शुद्ध गुग्गल प्राप्त होता है जिसकी मात्रा हर कटाई के बाद, पेड़ की उम्र के साथ लगातार बढ़ती रहती है। सोलवेंट प्रोसेस से निकाले गए गुग्गल की शुद्धता चूंकि 100 प्रतिशत रहती है, अतः इसका बाजार भाव लगभग 250 रुपये प्रति किलो तक मिल जाता है। चूंकि यह जंगलों से तेजी से विलुप्त हो रहा है तथा इसका प्रयोग बढ़ रहा है अतः इसके बाजार भाव में लगातार तेजी की उम्मीद है।
एक एकड़ क्षेत्र में करीब 2000 पौधे लगाए जा सकते हैं। प्रत्येक पौधे से अगर हम एक साल छोड़कर फसल लें तो 800 ग्राम औसत शुद्ध गुग्गल के हिसाब से करीब 2 लाख रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष की आय प्राप्त होगी जिसमें हर साल तीव्र वृद्धि होती रहेगी। जो किसान इसे पूरे खेत में नही उगाना चाहते वे मेढ़ के सहारे 2 या 3 लाइन में लगा सकते हैं। गुग्गल की अच्छी किस्म आसानी से नहीं मिलती। अतः ध्यान से अच्छी किस्म के पौधे खरीदने चाहिए। इससे जल्दी उपज प्राप्त करने के लिए बड़े पौधे लगाये जा सकते हैं।
सर्पगंधा की खेती
सर्पगंधा एक अत्यंत उपयोगी पौधा है। यह 75 से.मी. से 1 मीटर ऊंचाई तक बढ़ता है। इसकी जड़ें सर्पिल तथा 0.5 से 2.5 से.मी. व्यास तक होती हैं तथा 40 से 60 से.मी. गहराई तक जमीन में जाती हैं। इस पर अप्रैल से नवंबर तक लाल-सफेद फूल गुच्छों में लगते हैं। सर्पगंधा की जड़ों में बहुत से एल्कलाईडूस पाए जाते हैं जिनका प्रयोग रक्तचाप, अनिद्रा, उन्माद, हिस्टीरिया आदि रोगों के उपचार में होता है। इसका उपयोगी भाग जड़ें ही हैं। सर्पगंधा 18 माह की फसल है। इसे बलुई दोमट से लेकर काली मिट्टी में उगाया जा सकता है।
उगाने के लिए खेत की तैयारी
जड़ों की अच्छी वृद्धि के लिए मई माह में खेत की गहरी जुताई करें तथा खेत को कुछ समय के लिए खाली छोड़ दें। पहली वर्षा के बाद खेत में 10-15 गाड़ी प्रति हेक्टेयर के हिसाब से गोबर को डालकर फिर से जुताई कर दें। पटेला से खेत एकसार करने के बाद उचित नाप की क्यारियां तथा पानी देने के लिए नालियां बना दें। सर्पगंधा को बीजों के द्वारा अथवा जड़, स्टम्प या तने की कटिंग द्वारा उगाया जाता है। सामान्य पीएच वाली जमीन से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
बीज द्वारा बुवाई
अच्छे जीवित बीजों को छिटक कर बोया जा सकता है। अच्छे बीजों के चुनाव के लिए उन्हें पानी में भिगो कर भारी बीज (जो पानी में बैठ जाएं) तथा हल्के बीजों को अलग कर दिया जाता है। भारी बीजों को बोने के लिए 24 घंटे बाद प्रयोग करते हैं। सर्पगंधा के 30 से 40 प्रतिशत बीज ही उगते हैं, इसलिए एक हेक्टेयर में करीब 6-8 किलो बीज की आवश्यकता होती है। इसका बीज काफी महंगा होता है। अतः पहले नर्सरी बनाकर पौध तैयार करनी चाहिए। इसके लिए मई के पहले सप्ताह में 10 गुना 10 मीटर की क्यारियों में पकी गोबर की खाद डालकर छायादार स्थान पर पौध तैयार करनी चाहिए। बीजों को 2 से 3 से.मी. जमीन के नीचे लगाकर पानी लगाते हैं। 20 से 40 दिन के अंदर बीज उपजना शुरू हो जाते हैं। मध्य जुलाई में पौधे रोपण के लिए तैयार हो जाते हैं।
जड़ों द्वारा बुवाई
लगभग 5 से.मी. जड़ कटिंग को फार्म खाद, मिट्टी व रेत मिलाकर लगाया जाता है। इसे उचित मात्रा में पानी लगाकर नम रखा जाता है। तीन सप्ताह में जड़ों से किल्ले फूटने लगते हैं। इनको 4530 से.मी. दूरी पर रोपित किया जाता है। एक हेक्टेयर के लिए लगभग 100 कि.ग्रा. जड़ कटिंग की आवश्यकता होती है।
तने द्वारा बुआई
15 से 22 से.मी. की तना कटिंग को जून माह में नर्सरी में लगाते हैं। जब जड़ें व पत्तियां निकल आएं तथा उनमें अच्छी वृद्धि होने लगे तो कटिंग को निकाल कर खेतों में लगाया जा सकता है।
खाद तथा सिंचाई
करीब 20 से 25 टन कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर से अच्छी उपज प्राप्त होती है। वर्षा के दिनों में कम पानी तथा गर्मियों में 20 से 30 दिन के अंतर से पानी लगाना चाहिए।
फसल प्रबंधन
सर्पगंधा की फसल 18 महीने में तैयार हो जाती है। जड़ों को सावधानी से खोदकर निकाला जाता है। बड़ी व मोटी जड़ों को अलग तथा पतली जड़ों को अलग करते हैं तथा पानी से धोकर मिट्टी साफ करनी चाहिए। फिर 12 से 15 से.मी. के टुकड़े काटकर सुखा दें। सूखी जड़ों को पॉलिथीन की थैलियों में सुरक्षित रखा जाता है।
उपज व आय
अनुमानतः एक एकड़ से 7-9 क्विंटल शुष्क जड़ें प्राप्त हो जाती हैं। सूखी जड़ों का बाजार भाव लगभग 150 रुपये प्रति किलो है। चूंकि यह जंगलों से तेजी से विलुप्त हो रही है, अतः इसके बाजार भाव में लगातार तेजी की उम्मीद है।
अरण्डी की खेती
अरण्डी तेल का पेड़ एक पुष्पीय पौधा है। इस पौधे की बारहमासी झाड़ी होती है। इसकी चमकदार पत्तियां लम्बी, हथेली के आकार की, गहरी पीली और दांतेदार हाशिए की तरह होती हैं। इनके रंग कभी-कभी गहरे हरे रंग से लेकर लाल रंग या गहरे बैंगनी या पीतल लाल रंग तक के हो सकते हैं। तना और जड़ के खोल भिन्न-भिन्न रंग लिए होते हैं। इसके उद्गम व विकास की कथा अभी तक शोध का विषय है। यह पेड़ मूलतः दक्षिण-पूर्वी भूमध्य सागर, पूर्वी अफ्रीका एवं भारत की उपज है, किंतु अब उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में खूब पनपा और फैला हुआ है।
अरण्डी का बीज ही बहुप्रयोगनीय कैस्टर ऑयल (अरण्डी के तेल) का स्रोत होता है। बीज में तेल उपस्थित होता है जिसमें ट्राईग्लाइसराइड्स, खासकर रिसिनोलीन होती है। इस बीज में रिसिन नामक एक विषैला पदार्थ भी होता है जो लगभग पेड़ के सभी भागों में उपस्थित रहता है। अरण्डी का तेल साफ, हल्के रंग का होता है, जो अच्छे से सूखकर कठोर हो जाता है और गंध से मुक्त होता है। यह शुद्ध एल्कालोइड्स के लिए एक उत्कृष्ट सॉल्वेंट के रूप में नेत्रशल्य चिकित्सा में प्रयुक्त होता है।
यह मुख्य रूप से कृत्रिम चमड़े के विनिर्माण में उपयोग होता है। यह कृत्रिम रबर में एक आवश्यक घटक है। इसका सबसे बड़ा प्रयोग पारदर्शी साबुन के निर्माण में होता है। इसके अलावा इसके औषधीय प्रयोग भी होते हैं। यह अस्थायी कब्ज में, अपचयोग में काम आता है और यह बच्चों और वृद्धों के लिए विशेष उपयोगी होता है। यह पेट के दर्द और तीव्र दस्त में प्रयोग किया जाता है। अरण्डी तेल बाह्य रूप में दाद, खुजली आदि विभिन्न रोगों के लिए विशेष उपयोगी होता है। इसके ताजा पत्तों को कैनरी द्वीप में नर्सिंग माताओं द्वारा एक बाहरी अनुप्रयोग के रूप में, दूध का प्रवाह बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है।
यह आंखों में जलन को दूर करने के लिए डाला जाता है। लीमू मरहम के साथ संयुक्त रूप में यह आम कुष्ठ में एक सामयिक आवेदन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके सर्वोच्च उत्पादकों में भारत, चीन एवं ब्राजील हैं। इनके अलावा इथोपिया में भी इसका उत्पादन होता है। वहां बहुत से ब्रीडिंग कार्यक्रम भी सक्रिय हैं। भारत अरण्डी के उत्पादन में सबसे आगे है, जिसके बाद चीन और ब्राजील आते हैं।
प्याज के बीजों का उत्पादन
उत्तर भारत में रबी सीजन के दौरान अक्सर प्याज के बीजों की किल्लत हो जाती है। इतना ही नहीं, बेहतर क्वालिटी के बीज नहीं मिलने से किसानों की प्याज की पैदावार प्रभावित होती है। इसकी वजह यह है कि आज भी करीब अस्सी फीसदी प्याज के बीजों की सप्लाई महाराष्ट्र से ही होती है। वहां से पर्याप्त बीज सप्लाई न हो पाने की स्थिति में घटिया क्वालिटी के बीज बाजार में पहुंचने लगते हैं।
उत्तर भारत खासकर राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के अर्धशुष्क इलाकों के किसान रबी सीजन के लिए बेहतर किस्म के प्याज के बीज खुद तैयार कर सकते हैं। इस तरह न सिर्फ अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं बल्कि व्यावसायिक स्तर पर बीज का उत्पादन करके इससे आय भी हासिल कर सकते हैं। एक रोचक तथ्य यह भी है कि अप्रैल, मई व जून को छोड़कर वर्ष में नौ महीने प्याज महंगा ही बिकता है। ऐसे में प्याज की अगैती या पछैती खेती करके भी किसान लाभ पा सकते हैं। ऐसे में प्याज के बीज तैयार करने से ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
बीज तैयार करने की विधि
वैसे तो प्याज के बीज तैयार करने की कई विधियां हैं। उदाहरण के तौर पर बीज से बीज तैयार करना और प्याज की गांठ (कंध) से बीज तैयार हो सकते हैं। बीज से बीज तैयार करने की एक-वर्षीय विधि और गांठ से बीज तैयार करने की दो-वर्षीय विधि है। बेहतर किस्म के बीजों के लिए प्याज की गांठ से बीज तैयार करना ही उपयुक्त होगा। गांठ से बीज तैयार करने की एक-वर्षीय विधि के तहत मई-जून में नर्सरी में बीजों को बोया जाता है। इसके बाद तैयार पौधों को जुलाई-अगस्त में खेत में लगा दिया जाता है। नवंबर तक इन पौधों में कंध अर्थात गांठ तैयार हो जाती है। तब इनको उखाड़ लेना चाहिए। इनमें से बढ़िया किस्म की गांठों को छांटकर अलग कर लेना चाहिए। फिर पंद्रह-बीस दिन बाद छांटी गई गांठों को पुनः खेत में लगा दिया जाता है। इससे मई तक बीज तैयार हो जाएंगे।
इस विधि के तहत तैयार होने वाले एन-53, एग्री फाउंड डार्क रेड तथा अर्का कल्याण किस्म के बीजों का उपयोग केवल खरीफ सीजन में प्याज उगाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन गांठ से बीज तैयार करने की दो-वर्षीय विधि के तहत रबी सीजन के लिए प्याज के बीज तैयार किए जा सकते हैं। इस विधि के तहत अक्टूबर-नवंबर में नर्सरी में बीजों को बोया जाता है। इन बीजों से दिसंबर के मध्य तक पौधे निकल आते हैं। इनको नर्सरी से उखाड़ कर मध्य दिसंबर से मध्य जनवरी तक खेत में लगा देना चाहिए। ऐसा करने से मई के अंत तक इन पौधों में कंध तैयार हो जाते हैं।
इन गांठों को उखाड़ कर सही आकार की अच्छी गांठों की छंटनी कर लेनी चाहिए। छांटी गई गांठों को सुखाकर भंडारण कर लिया जाता है। इन कंधों को कवकनाशक घोल में 15-20 मिनट डुबोकर नमी रहित हवादार स्थान पर रखने से ये खराब नहीं होंगे। अक्टूबर-नवंबर में इन गांठों को खेत में लगा दिया जाता है। इनसे मई तक बीज तैयार हो जाते हैं। इस विधि में डेढ़ वर्ष का समय लगता है लेकिन इस तरह से तैयार बीजों से नलीदार प्याज उगने की समस्या से भी छुटकारा मिलता है। इस विधि से पूसा रेड, एग्री फाउंड लाइट रेड, नासिक रेड, उदयपुर-101, पूसा व्हाइट राउंड और उदयपुर-102 किस्म के बीज तैयार हो जाते हैं।
बीज उत्पादन
ड्रिप सिंचाई विधि के तहत अगर बीज तैयार किए जाएं तो बीजों की किस्म और बेहतर होगी। एक अनुमान के मुताबिक एक हेक्टेयर में आठ से दस क्विंटल बीज का उत्पादन होता है। बीज तैयार करने के लिए प्याज की खेती की तरह ही खाद व कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है। किसान चाहें तो प्याज की फसल के साथ बीज भी तैयार कर सकते हैं लेकिन बीज वाले हिस्से को फसल के हिस्से से अलग रखना होगा।
प्याज के बीजों का दाम
बाजार में प्याज के बीज के दाम एक हजार रुपये क्विंटल तक हैं। वहीं खाने योग्य प्याज बाजार में 400-500 रुपये प्रति क्विंटल तक बिकती है। इस तरह किसान प्याज की पैदावार के साथ बीज तैयार कर दोहरा मुनाफा ले सकता है।
अदरक की पैदावार
अदरक प्राचीनतम मसालों में से एक है तथा इसे अनूठे स्वाद और तीखेपन के लिए जाना जाता है। इसके अनेक उपयोग हैं जिसमें मृदु पेय पदार्थों में स्वाद के लिए उपयोग, रसोई में उपयोग, अल्कोहलिक और गैर-अल्कोहलिक पेय पदार्थ, कंफैक्शनरी, अचार और दवाइयों को बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।
भारत अदरक का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ-साथ दुनिया में सूखे अदरक यानी सौंठ का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। जिन अन्य देशों में अदरक की व्यापक पैमाने पर खेती की जाती है उनमें वेस्टइंडीज, ब्राजील, चीन, जापान और इंडोनेशिया शामिल हैं। भारत में केरल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मेघालय और पश्चिम बंगाल प्रमुख अदरक उत्पादक राज्य हैं।
केरल में अदरक उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र उपलब्ध है और यह राज्य देश के कुल अदरक उत्पादन में 25 प्रतिशत का योगदान देता है। कंद को नमी की 11 प्रतिशत मात्रा के स्तर तक सुखा लिया जाता है तथा भंडारित कीटों के संक्रमण से बचाव के लिए उन्हें अच्छी तरह से भंडारित किया जाता है। लम्बे समय तक सूखे अदरक का भंडारण वांछनीय नहीं है। किस्म तथा फसल कहां उगाई गई है, इस पर ताजे अदरक के मुकाबले 16-25 प्रतिशत उत्पादन निर्भर करता है।
भारत के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों में मानसून की वर्षा से पहले हुई बारिश के साथ ही अदरक की बुवाई का सर्वश्रेष्ठ समय मई के पहले पखवाड़े में है। सिंचित परिस्थितियों के तहत इसकी रोपाई अग्रिम में फरवरी के मध्य या मार्च की शुरुआत में की जा सकती है। केरल में आमतौर पर अदरक के लिए कसावा, लाल मिर्च, चावल, जिंजेली, रागी, मूंगफली और मक्का का फसल चक्र अपनाया जाता है। अदरक की खेती मक्का के साथ मिश्रित फसल के रूप में भी की जाती है तथा इसे नारियल और सुपारी के बागानों में अंतवर्ती फसल के रूप में भी उगाया जाता है।
अदरक हल्के गर्म एवं आर्द्र वातावरण में अच्छी तरह से बढ़ता है। इसकी खेती समुद्र तल से 1500 मीटर तक की ऊंचाई पर की जाती है। हालांकि इसकी सफल खेती के लिए और अधिकतम पैदावार के लिए समुद्र तल से 300 से 900 मीटर की ऊंचाई सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। बुवाई से लेकर अंकुरण तक थोड़ी वर्षा की आवश्यकता होती है तथा बढ़वार की अवधि में भारी तथा अच्छी बारिश की आवश्यकता होती है तथा इसकी सफल खेती के लिए फसल की खुदाई से लगभग एक महीने पहले शुष्क मौसम लाभकारी होता है। जल्दी बुवाई से फसल की अच्छी बढ़वार तथा पौधे के विकास और अधिक उपज में मदद मिलती है।
इस फसल की खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है जिसमें जल निकासी तथा वायु संचारण की अच्छी व्यवस्था हो। यह बलुई या चिकनी दोमट, लाल दोमट तथा लैटरीक दोमट मिट्टी में अच्छी बढ़वार हासिल करती है। रोगों की रोकथाम के लिए जल निकासी की अत्यधिक आवश्यकता है। अदरक की खेती एक ही खेत में साल-दर-साल नहीं करनी चाहिए। मल्चिंग से अंकुरण बढ़ता है, जैविक तत्वों की बढ़ोतरी होती है, मृदा में नमी का संरक्षण होता है तथा भारी वर्षा के कारण होने वाले मिट्टी के बहाव को रोकने में मदद मिलती है।
फसल में आमतौर पर दो बार खरपतवार प्रबंधन किया जाना चाहिए। पहला खरपतवार प्रबंधन दूसरी मल्चिंग से पहले तथा इसके बाद खरपतवार की सघनता के आधार पर किया जाना चाहिए। अगर आवश्यक हो तो तीसरी बार भी खरपतवार नियंत्रण किया जाना चाहिए। अदरक के बेड की मल्चिंग से मिट्टी एवं जल संरक्षण में मदद मिलती है। पहली मल्चिंग रोपाई के समय 12.5 टन हरी पत्ती प्रति हेक्टेयर की दर से की जानी चाहिए और दूसरी 40 दिनों बाद 5 टन हरी पत्तियों के प्रयोग से की जानी चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं कृषि विशेषज्ञ हैं)
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