बदलते परिवेश का फलोत्पादन पर प्रभाव


फलों की कम उत्पादकता हेतु जलवायु, कार्यिक एवं जैविक कारक उत्तरदायी होते हैं। परन्तु हाल ही के वर्षों में जलवायु सम्बन्धी कारकों ने न केवल विश्व स्तर पर परन्तु हमारे देश में भी फलों की उत्पादन एवं उनकी गुणवत्ता को प्रभावित किया है। इस तेजी से बदलते परिवेश का असर भूमंडलीय तापमान में बढ़ोत्तरी, मौसमी चक्र में बदलाव, कहीं सूखा तो कहीं अधिकाधिक वर्षा, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी आदि अत्यन्त कठिन परिस्थितियों को जन्म दिया है। निश्चित तौर पर ये सभी स्थितियाँ फलों की उपज एवं गुणवत्ता को प्रभावित करेंगी।

हमारे देश में जलवायु की विभिन्न दशाएँ होने के कारण यहाँ लगभग हर एक प्रकार के फल उगाए जा सकते हैं। इस समय हम फलों (88.9 मि. टन) के उत्पादन में विश्व में चीन के बाद दूसरे पायदान पर हैं। फलों के उत्पादन की इस उन्नति का श्रेय एक ओर जहाँ वैज्ञानिकों द्वारा मानकीकृत प्रौद्योगिकियों को दिया जाता है वहीं हमारे किसान भी इसके कम हकदार नहीं जिनके अथक प्रयासों से ही यह सम्भव हो पाया है।

कुछ वर्षों तक हम खाद्य सुरक्षा की बात करते थे परन्तु 60 के दशक में आई हरित क्रान्ति से अब हमारे खाद्य भण्डार भरे रहते हैं। खाद्य सुरक्षा के बाद विश्व के अन्य देशों की भाँति देश में भी पोषण सुरक्षा की बातें होने लगीं क्योंकि भरपेट खाना तो मिलने लगा लेकिन शरीर को आवश्यक सभी विटामिनों एवं पोषक तत्वों की पूर्ति अनाजों से नहीं हो पाती है। अतः मेडिकल विशेषज्ञों ने पोषण सुरक्षा हेतु सन्तुलित आहार की आवश्यकता पर बल दिया एवं इस कार्य हेतु फलों व सब्जियों को सन्तुलित आहार में सम्मिलित करने के लिये जोर दिया गया। वर्ष 1980 तक इस बात पर जोर दिया गया कि सन्तुलित आहार में कम-से-कम 120 ग्राम फल एवं 200 ग्राम सब्जियाँ आवश्यक तौर पर शामिल होनी चाहिए। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए पाँचवी पंचवर्षीय योजना में पहली बार हार्टिकल्चर (बागवानी) के विकास हेतु काफी धन की व्यवस्था की गई। देश में कई कृषि विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त फल आधारित शोध संस्थान स्थापित किये गये हैं एवं वैज्ञानिकों द्वारा किये अनुसन्धान किसानों तक पहुँच रहे हैं जिसका लाभ उठाकर किसानों ने देश में ‘सुनहरी क्रान्ति’ स्थापित करने में सहायता की है।

इस समस्या के समाधान हेतु जहाँ वैज्ञानिक दिन-रात शोध करते हैं वहीं आए दिन नई समस्याएँ जन्म लेती हैं। आजकल जो समस्या विश्वभर में बागवानी वैज्ञानिकों हेतु चिन्ता का विषय है वह है जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन के बारे में विश्वस्तर पर कई संगोष्ठियाँ हुई हैं। इस लेख में जलवायु परिवर्तन का फलों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा करेंगे।

फलों की कम उत्पादकता हेतु जलवायु, कार्यिक एवं जैविक कारक उत्तरदायी होते हैं परन्तु हाल ही के वर्षों में जलवायु सम्बन्धी कारकों ने न केवल विश्व स्तर पर परन्तु हमारे देश में भी फलों के उत्पादन एवं उनकी गुणवत्ता को प्रभावित किया है। इस तेजी से बदलते परिवेश का असर भूमंडलीय तापमान में बढ़ोत्तरी, मौसमी चक्र में बदलाव, कहीं सूखा तो कहीं अधिकाधिक वर्षा, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी आदि अत्यन्त कठिन परिस्थितियों को जन्म दिया है। निश्चित तौर पर ये सभी स्थितियाँ फलों की उपज एवं गुणवत्ता को प्रभावित करेंगी।

शीतोष्ण-वर्गीय फलों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
शोध कार्यों से पता चला है कि सेब हेतु आवश्यक प्रशीतन घंटों में कमी (लगभग 27 प्रतिशत कमी) आने के कारण हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी एवं शिमला जिलों के निचले क्षेत्रों से सेब का उत्पादन क्षेत्र लगातार घटता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर यह उत्पादन क्षेत्र लाहौल एवं स्पीति घाटी में दिनोंदिन बढ़ता (लगभग 10 प्रतिशत) जा रहा है। यहाँ तक की कश्मीर घाटी के निचले क्षेत्रों में सेब उत्पादन क्षेत्र में कमी आने की खबरें आ रही हैं। ठीक इसी प्रकार उत्तराखंड में भी सेब के उत्पादन क्षेत्र में कमी दर्ज की गई है।

कली प्रफूटन पर प्रभाव
तापमान बढ़ने के कारण कुछ फल वृक्षों जैसे सेब, बादाम, चेरी आदि में कलियाँ 2-3 सप्ताह पहले खिल जाती हैं। यही कारण है कि लगभग 70 प्रतिशत वृक्षों में मध्य मार्च में ही कलियाँ खिल जाती हैं तथा मार्च के अन्त में अकस्मात बर्फ गिरने पर वे क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। तापमान में वृद्धि एवं वर्षा में कमी के कारण कश्मीर घाटी के कुछ क्षेत्रों से चेरी एवं खुमानी के क्षेत्र में बड़ी तेजी से कमी आ रही है। ठीक इसी प्रकार आकस्मिक ओलों के गिरने एवं भारी तूफान के कारण भी जम्मू एवं कश्मीर के गर्म क्षेत्रों में उगाए जाने वाले सेब, आलू बुखारे, आडू एवं खुमानी को काफी क्षति हो रही है। कश्मीर घाटी में हाल ही के वर्षों में बर्फबारी के स्वरूप में बदलाव के कारण लगभग सभी प्रकार के शीतोष्ण वर्गीय एवं गुठलीदार फलों के उत्पादन एवं गुणवत्ता पर सार्थक प्रभाव पड़ रहे हैं।

रंग के विकास पर प्रभाव
कहते हैं कि यदि सेब लाल नहीं तो वो सेब कैसा। शोध कार्यों एवं बागवानी के अनुभवों के आधार पर यह बात सामने आई है कि बदलते जलवायु के प्रभाव के कारण सेब उत्पादित निचले क्षेत्रों में सेब में वो आकर्षक रंग नहीं आ पाता जो आज से कई वर्ष पहले आता था। सेब में आकर्षक लाल रंग साइनिड़िन 3-ग्लुकोसाइड नामक एंथोसायनिन से विकसित होता है। एंथोसायनिन के विकास हेतु तुड़ाई-पूर्व तापमान न केवल अत्यन्त कम होना चाहिए बल्कि उसमें उतार-चढ़ाव भी न के बराबर होना चाहिए। वातावरण की अनुकूलतम परिस्थितियाँ ना होने पर सेब में वांछित लाल रंग विकसित नहीं हो पाता। तापमान के बदलते परिवेश के कारण कश्मीर का लद्दाख क्षेत्र एवं हिमाचल प्रदेश का लाहौल स्पीति का क्षेत्र सेब हेतु अत्यन्त उपयुक्त क्षेत्र बनता जा रहा है। इन ऊँचाई वाले क्षेत्रों में उत्पादित सेब की गुणवत्ता में काफी अधिक सुधार हुआ है। बढ़ते तापमान का असर यह हुआ है कि हिमाचल प्रदेश एवं कश्मीर घाटी के कुछ क्षेत्रों में सेब में भी ‘आपत दाह’ की रिपोर्टें आने लगी हैं।

 

अधिक तापमान का फलों पर प्रभाव

फल

प्रभाव

सेब

आतपदाह, रंग का कम विकास एवं गुणवत्ता में कमी, जलीय क्षेत्रों का विकास।

एवोकेड़ो

फलों के छिलके में भूरापन, सड़न के प्रति गहनशीलता में बढ़ोत्तरी।

लाइम, लेमन

फलों एवं जूस की थैलियों का फटना, छिलकों पर भूरी चित्तियों का विकास।

अनन्नास

फलों के कई हिस्सों में जलीय क्षेत्र बनना, गूदा पारदर्शी हो जाना।

अनार

आतपदाह एवं फलों का फटना।

लीची

फलों का फटना, गुणवत्ता का प्रभावित होना।

टमाटर

आतपदाह, लाइकोपीन में कमी, फल के कई भागों में पीले दाग-धब्बे विकसित होना।

 

द्रुतशीतन घंटों की आवश्यकता पर प्रभाव


बहुत से पतझड़ी फलवृक्षों को वांछित द्रुतशीतन घंटों की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ सेब हेतु 1000-1500, चेरी हेतु 1800-2000, आलूबुखारे हेतु 700-900 एवं आडू हेतु 400 से 600 आदि द्रुतशीतन घंटों की आवश्यकता होती है। इन द्रुतशीतन घंटों के कारण ही कलियाँ शीत ऋतु में आराम करती हैं एवं बर्फबारी होने पर क्षतिग्रस्त नहीं हो पाती हैं। द्रुतशीतन घंटों की पूर्ति होने पर कलियाँ फूटती एवं खिलती हैं। बदलते जलवायु के कारण भारत के उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में मध्यम दर्जे की शीत ऋतु हो रही है। यही कारण है कि वहाँ कई शीतोष्ण वर्गीय फलों की द्रुतशीतन घंटों की माँग की पूर्ति नहीं हो पा रही है एवं कुछ फलों जैसे चेरी, रसभरी, ब्लैक करंट, ब्लैकबेरी आदि के उत्पादन में काफी कमी आ रही है।

परागण पर प्रभाव


हमारे देश में सेब के लगभग 70 प्रतिशत बागों में 20 प्रतिशत से भी कम परागद पेड़ हैं जबकि सेब के बागों में व्यावसायिक बागवानी हेतु कम-से-कम 30-33 प्रतिशत परागद पेड़ होने चाहिए। इसके अतिरिक्त शीतोष्ण-वर्गीय फलों में प्रभावी परागण हेतु मधुमक्खियाँ सबसे आवश्यक कीट होते हैं परन्तु अनियमित तापमान या तापमान के उतार चढ़ाव या अकस्मात वर्षा होने के कारण मधुमक्खियाँ प्रभावी ढंग से क्रियाशील नहीं हो पाती जो शीतोष्ण वर्गीय फलों में अफलन का मुख्य कारण बनता है।

फल पक्वन पर प्रभाव


वायुमण्डल में लगातार तापमान के बढ़ने से फलों में वृक्षों पर ही पक्वन एवं अन्य सम्बन्धित क्रियाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है। प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि जो फल वृक्ष की बाहरी छत्रक पर होते हैं वे छायादार हिस्से की अपेक्षा दो या तीन दिन पहले ही पककर तैयार हो जाते हैं। जल्दी पककर तैयार होने के कारण फलों की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि फलों को उचित वृद्धि एवं विकास हेतु उतनी अवधि नहीं मिल पाती जितनी फलों को आवश्यकता होती है।

क्रियात्मक विकारों के आपतन पर प्रभाव


शोध कार्यों से यह पाया गया है कि भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि के कारण सेब उत्पादित कुछ क्षेत्रों में तापमान कभी-कभी 400 सेल्सियस या इससे भी अधिक हो जाती है जिस कारण अधिक तापमान के कारण सेब में आपत दाह (सन बर्न) नामक क्रियात्मक विकार हो जाता है। इसी कारण भण्डारण के दौरान ‘जलीय क्रोड’ (वाटर कोर) क्रियात्मक विकार की सम्भावना भी बढ़ जाती है। भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि के कारण आपत दाह की समस्या अनार में भी काफी क्षति पहुँचाती है। तापमान में उतार चढ़ाव एवं वृद्धि के कारण नींबू वर्गीय फलों, अनार, लीची, अंजीर, चेरी आदि के फलों में फटन और भी गम्भीर रूप धारण कर लेती है।

कीट एवं रोगों पर प्रभाव


तापमान एवं वर्षा में बेतरतीब बदलाव के कारण शीतोष्ण वर्गीय फलों में लगने वाले कीटों एवं रोगों में भी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। हाल ही के कुछ वर्षों में स्कैब, चूर्णिल आसिता, उड़न भृंग एवं माईट आदि के प्रकोप में लगभग प्रत्येक शीतोष्ण वर्गीय फल में बढ़ोत्तरी हुई है।

उपोष्ण एवं उष्णवर्गीय फलों पर प्रभाव


आम

उष्णवर्गीय फलों की सफलता हेतु जलवायु सबसे बड़ा कारक होता है। हवा का तापमान आम की कायिक वृद्धि, पुष्पन एवं फलन की क्रियाओं को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित करता है। हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों जहाँ तापमान बढ़ने से आम का उत्पादन सम्भव हो पाया है वहीं अत्यधिक गर्मी के कारण सूखा पड़ने से आम के उत्पादन क्षेत्र में कमी भी आ रही है। उत्तरी भारत में आम में गुच्छा रोग/विकार सबसे अधिक क्षति पहुँचाता है। इस रोग/विकार का कहीं-ना-कहीं तापमान से सीधा सम्बन्ध है। उत्तरी भारत में दिसम्बर-जनवरी के महीनों में अधिकाधिक कम तापमान की दशाओं में यह रोग/विकार अधिक पनपता है। दक्षिण भारत में इन महीनों में अपेक्षाकृत अधिक तापमान होता है एवं इस रोग/विकार की सम्भावनाएँ नहीं के बराबर होती हैं। अतः वायुमण्डल में तापमान में वृद्धि के कारण इस विकार में कमी आने के आसार हैं। हालाँकि इस दिशा में व्यापक शोध कार्यों की आवश्यकता है।

केला


विश्व में केले को मुख्यतः (लगभग 70 प्रतिशत) उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। जलवायु सम्बन्धी शोध कार्यों से प्रतीत होता है कि तापमान में वृद्धि के कारण केले की व्यावसायिक खेती उपोष्ण-कटिबन्धीय क्षेत्रों में सम्भव होगी। हालाँकि तापमान के साथ वर्षा दूसरा अति महत्त्वपूर्ण जलवायु का मुख्य कारक है जो केले को अत्यधिक प्रभावित करता है। कम वर्षा या सूखा होने की स्थिति में केले की खेती उपोष्ण-कटिबन्धी क्षेत्रों के साथ-साथ उष्ण-कटिबन्धी क्षेत्रों में भी प्रभावित होगी।

अंगूर


जलवायु के घटकों में परिवर्तन से सर्वाधिक अंगूर प्रभावित होता है। कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता में अधिकता के कारण शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में उत्पादकता में वृद्धि तो हो सकती है परन्तु अधिकाधिक जल की माँग के कारण ऐसे लाभ बौने सिद्ध होते हैं। तापमान में वृद्धि के कारण अंगूरों में पक्वन शीघ्र हो जाता है वहीं ताजे खाने एवं शराब तैयार करने वाले अंगूरों का गुणवत्ता आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित होती है। अपर्याप्त या अधिक वर्षा से रोगों विशेषकर श्यामव्रण, चूर्णिल आसिता आदि का प्रकोप तो बढ़ता ही है इसके साथ गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। राष्ट्रीय द्रव्य अनुसन्धान केन्द्र, पुणे में किए गए अनुसन्धान कार्यों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण डाउनी मिल्ड्यू रोग में कमी हुई है एवं चूर्णिल मत्कुण (मिली बम), माइट एवं थ्रिप्स के आपतन में बढ़ोत्तरी हुई है।

लीची


लीची के फलों में वृद्धि/विकास के दौरान वातावरण के किसी भी कारक (विशेषकर तापमान, नमी) में अत्यधिक कमी या अधिकता सम्पूर्ण फसल को नष्ट कर देती है। लीची उत्पादित प्रमुख क्षेत्रों (मुख्यतः बिहार) में पिछले 50 वर्षों में लगभग 30 सेल्सियस तापमान में वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु के इस परिवर्तन का विशिष्ट प्रभाव लीची की पुष्पन क्रिया, फल विकास एवं तुड़ाई अवधि पर पड़ा है। इसके अतिरिक्त तापमान में वृद्धि एवं सापेक्ष आर्द्रता में बदलाव के कारण ‘फलों का फटना’ आजकल एक अत्यन्त गम्भीर क्रियात्मक विकार बन चुका है।

नींबूवर्गीय फल


ऐसा माना जाता है कि अन्य फलों की अपेक्षा नींबू वर्गीय फल जलवायु परिवर्तन के कारकों से बहुत ही कम प्रभावित होते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि उनमें पुष्पन मुख्यतः गर्मी में होता है। विश्वस्तर पर किए गए जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अनुसन्धान कार्यों से प्रतीत हुआ है कि वर्ष 2055 तक सन्तरे की बागवानी में सार्थक वृद्धि होगी परन्तु नींबू के क्षेत्र में लगभग 10 प्रतिशत कमी आने की सम्भावना है। इसमें भी बीजरहित नींबू बीज वाले नींबू की अपेक्षा अधिक प्रभावित होंगे। अन्य फलों की अपेक्षा उत्पादन क्षेत्र में यह कमी नगण्य है।

कुछ अनुसन्धानकर्ताओं ने यह मत व्यक्त किया है कि नींबू वर्गीय फलों में हरितन जीवाणु रोग के अधिक प्रकोप की सम्भावनाएँ हैं जिस कारण कई बाग नष्ट हो जाएँगे एवं इन फलों के उत्पादन क्षेत्र में कमी आएगी। इसके अतिरिक्त वांछित/पर्याप्त वर्षा ना होने के कारण भी कई क्षेत्रों में नींबू वर्गीय फलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

कार्बन डाइऑक्साइडों की उच्च सान्द्रता के प्रभाव


पौधों में प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया हेतु कार्बन डाइऑक्साइड की उच्च सान्द्रता आवश्यक होती है। यही कारण है कि उच्च सान्द्रता होने से पौधे भोजन का अधिक निर्माण करते हैं जो उनकी वृद्धि, विकास एवं उपज को बढ़ाते हैं। शोध कार्यों से यह सिद्ध हो चुका है कि हरित गृहों में कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता अत्यधिक बढ़ाने से स्टोमेटा की क्रियाशीलता/सक्रियता प्रभावित होती है जिसका पौधों की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता किसी स्तर तक ही अनुकूल प्रभाव डालती है। विश्वभर में किए शोध कार्यों से प्रतीत होता है कि कार्बन डाइऑक्साइड की उच्च सान्द्रता के कारण कई फलों में श्वसन दर, दृढ़ता एवं गुणवत्ता के कई कारक प्रभावित होते हैं।

लेखक परिचय


डॉ. राम रोशन शर्मा
खाद्य विज्ञान एवं फसलोत्तर प्रौद्योगिकी संभाग, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान
नई दिल्ली-110 012, (मो. : 9968284510)

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