बाँधों को डालने से नदी-सोते के पानी का स्तर ऊपर आ जाता था और फिर उसे नहरों-नालियों से खेतों तक पहुँचाया जाता था। ये बाँध दो तरह के होते थे। पहले तरह का बाँध मई के आखिर में बनता था और अगले अप्रैल तक रहता था। कई बार धान की तीसरी फसल की सिंचाई कर लेने के बाद बाँध से लक्कड़-बाँस वगैरह को निकालकर इसे तोड़ दिया जाता था। इन चीजों का उपयोग फिर मई में बाँध बनाते समय किया जाता था। ऐसे मजबूत बाँधों से खरीफ और रबी दोनों फसलों की सिंचाई हो जाती थी। केरल में लघु सिंचाई की अर्थव्यवस्था पर कालीकट विश्वविद्यालय में जमा कराए गए अपने शोध प्रबन्ध में सी. जे. जोसेफ दावा करते हैं, “यह पुराना चलन है कि छोटे सोतों-नदियों पर बाँध डाले जाएँ और उससे निकले पानी को निचली जमीन को सींचने के काम में लाया जाये। खेती के समय किसान खुद ही ऐसे अस्थायी बाँध बनाते थे जो मानसून के समय आने वाली बाढ़ में बह जाते थे।”
इस शोध प्रबन्ध में मालाबार (उत्तर केरल) में बनने वाले उन अस्थायी बाँधों के बारे में विस्तृत अध्ययन है जिन्हें लोग बनाते थे और जब सरकार ने यह काम अपने हाथों में लिया है तब इनकी जगह पक्के बाँध बनाए जाने लगे हैं।
यह अध्ययन कासरगोड जिले के उस स्थान का है जो पश्चिमी समुद्र तट से 4 किमी पूरब में स्थित है। दक्षिण-पश्चिमी मानसून के समय यहाँ भरपूर पानी बरसता है, पर बरसात में बहुत कमी-ज्यादा होती रहती है। अक्टूबर-नवम्बर में काफी कम पानी-कुल सालाना वर्षा का 10 फीसदी बरसता है। यह पूरा इलाका ढलवाँ है।
पश्चिमी घाटों से लगे इलाके में ढलान तीखी है, जबकि तट के पास कम। घाटियों में असंख्य सोते-चश्मे हैं और इनमें बरसात के दिनों में खूब पानी आता है। बाद में रिसाव वाला पानी बहुत कम मात्रा में आता है। मानसून के तत्काल बाद इसकी मात्रा कुछ अधिक रहती है, जो धीरे-धीरे कम होती जाती है और गर्मियों में एकदम कम पानी आता है।
जमीन की बनावट के हिसाब से ही तय होता है कि किस जमीन में खेती हो सकती है। पहाड़ियों के ऊपर जंगल हैं। इसके नीचे की जमीन पर गाँव बसे हैं और बाग लगे हैं। इनमें नारियल, सुपारी, केला, कटहल और आम के बाग हैं। पहाड़ी के चोटी और बागों के बीच में स्थित अच्छी जमीन पर भी खेती होती है। बागों के नीचे खेत हैं जिन्हें दो श्रेणियों- एक फसली और दो फसली में बाँटा जा सकता है।
खेतों को मजबूत मेंड़ डालकर बराबर कर दिया जाता है जिससे पानी बराबर मात्रा में चारों ओर रहे। पहाड़ियों और बागों के बीच वाले खेतों से सिर्फ घास-फूस या झाड़ निकाल दिये जाते हैं। खेतों में धान की एक फसल हो या दो, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि सोतों पर बनने वाले बाँधों से उन तक कितना पानी पहुँचता है।
पहाड़ियों के ऊपर या ढलान वाले खेतों में कभी-कभार शकरकंद लगाई जाती है। फिर सितम्बर के बाद इन खेतों और धान के एक फसली खेतों में दलहन लगाई जाती है, जबकि दो फसली खेतों में दोबारा धान लगा दिया जाता है। अगर लिफ्ट सिंचाई का इन्तजाम हो तो कुछ खेतों में तिबारा भी धान की फसल ली जाती है। सिंचाई के इतने पक्के इन्तजाम वाले खेतों में सब्जियों वगैरह की भी खेती होती है।
पारम्परिक सिंचाई
पारम्परिक रूप से हर तरह की जमीन के लिये हर मौसम में सिंचाई की अलग-अलग तकनीक अपनाई जाती थी और पानी की उपलब्धता के अनुसार ही कौन सी फसल लगे, यह फैसला किया जाता था। बागों की जमीन तो नवम्बर में भी कुओं से पेकोट्टाह के सहारे पानी निकालकर सींच ली जाती थी। धान के एक फसली खेत तो नदी के तल से जरा ही ऊपर होते थे।
बाँधों को डालने से नदी-सोते के पानी का स्तर ऊपर आ जाता था और फिर उसे नहरों-नालियों से खेतों तक पहुँचाया जाता था। ये बाँध दो तरह के होते थे। पहले तरह का बाँध मई के आखिर में बनता था और अगले अप्रैल तक रहता था। कई बार धान की तीसरी फसल की सिंचाई कर लेने के बाद बाँध से लक्कड़-बाँस वगैरह को निकालकर इसे तोड़ दिया जाता था। इन चीजों का उपयोग फिर मई में बाँध बनाते समय किया जाता था। ऐसे मजबूत बाँधों से खरीफ और रबी दोनों फसलों की सिंचाई हो जाती थी। इनका निर्माण इस तरह किया जाता था कि सिर्फ जरूरत लायक पानी ही नालियों से निकलता था और बाकी बाँध के ऊपर से गुजरते हुए नदी में पहुँचकर आगे बढ़ जाता था। दूसरे तरह के बाँध अक्टूबर में डाले जाते थे जब रबी की फसल के लिये तैयारी शुरू हो जाती थी और ये अप्रैल तक रहते थे। इनसे सर्दियों और गर्मियों में पानी मिलता था।
इन बाँधों को लगाने की जगह का चुनाव इस हिसाब से किया जाता था कि प्रवाह में ऊपर पड़ने वाले खेत डूबें और नीचे बँधा बाँध उन खेतों से जल निकासी में बाधक न बनें। इस प्रकार बाँध ही तय करता था कि उसका पानी कहाँ तक पहुँचेगा और नहरों में कितना पानी जाएगा। अगर बरसात में पानी न पड़ने से बाँध में पानी का स्तर कम हो गया तो एक-दो मजदूर लगाकर की जाने वाली नई व्यवस्था पानी को ऊपर तक ला देती थी। मानसून के बाद वाले दौर में तो यह तकनीक खूब प्रयोग में लाई जाती है। पर पानी का स्तर एकदम गिर जाये तब यह कारगर नहीं रहता। आमतौर पर यह प्रबन्ध रबी की फसल कटने तक रहता है।
बाँधों का निर्माण
इन बाँधों का निर्माण सदा से नारियल के पेड़ों, पत्तों और डालियों तथा मिट्टी से किया जाता है। अक्सर दोनों किनारों को छूता हुआ पूरा नारियल का पेड़ पहले उस ऊँचाई पर टिका दिया जाता है जितने पर बाँध को बाँधा जाना है। फिर जमीन और इस शहतीरनुमा पेड़ से टिकाकर छोटे लक्कड़ या नारियल के डंठल खड़े किये जाते हैं। फिर पत्तों, डंठल को लगाकर टोकरी जैसी बुनावट कर दी जाती है। इसके ऊपर गीली मिट्टी डाली जाती है। इस मिट्टी के ऊपर घास-फूस भी डालते और लगाते हैं। खेत की मेड़ों से जड़ समेत घास छीलकर बाँध पर जमा दी जाती है। घास बाँध की मिट्टी को बहने नहीं देती।
बाँध में लगने वाली सामग्री और श्रम इससे लाभान्वित होने वाले किसानों से जुटाई जाती है। जिसकी जितनी जमीन होती है उसका योगदान उसी अनुपात में होता है। इस सामग्री और मजदूरी में हिस्सेदारी करने के बाद ही किसी भी किसान को पानी लेने का हक मिलता है।
पानी की कमी नहीं होती और हर खेत को भरपूर पानी मिलता है, सो पानी के बँटवारे सम्बन्धी नियमों की जरूरत नहीं रहती। जब पानी का प्रवाह कम हो जाता है और कई तरीकों से पानी ऊपर निकालकर सिंचाई करने की स्थिति आती है तब इनकी भी जरूरत पड़ती है। ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा जमीन वाले का नम्बर सबसे पहले आता है। पर बाद वालों का कोई पक्का निर्धारित क्रम आमतौर पर पूरे वर्ष चलता है। क्रम में आगे आने वाले किसान को अपने खेतों की सिंचाई शुरू होने से पहले नाली के मुहाने पर मौजूद होना चाहिए। अगर तब मौका चूक गया तो उसकी बारी आखिर में आती है। धान की खेती जरूरत नहीं है। इन्हीं के सहारे ग्रामीण समुदाय पूरे अयाकट में दो फसल और कहीं-कहीं तीसरी फसल भी ले पाता है।
जिस इलाके का अध्ययन शोध के दौरान हुआ वहाँ 1960 के दशक के शुरू में सिर्फ 50 फीसदी जमीन ही काश्त होती थी, पर 1970 से सीधी जोत या बटाई खेती के तहत आने वाली जमीन का अनुपात बढ़ा। जब बड़ी जोत के मालिकों ने अपनी रेतीली जमीन में बाँधों से पानी न मिलने के चलते पम्पसेट लेना शुरू किया तब से पूरा परिदृश्य बदल गया है। तब ये पानी पर मिल्कियत के विवाद भी बढ़ गए हैं।
दो पम्पसेटों के लगने के बाद ही बाँध के आयाकट वाले किसानों ने पानी कम मिलने की शिकायत की और पम्पसेट हटाने की माँग की। जब यह माँग नहीं मानी गई तब रात में पम्पसेट के पाइपों को नुकसान पहुँचाया गया और इतने पर भी बात नहीं बनी तो सोते के किनारे अपने-अपने खेतों में कुएँ खोदे गए। विवाद का असली कारण यह था कि डीजल और किरासन तेल वाले पम्पसेटों ने अपने से नीचे स्थित बाँध पर पानी का स्तर गड़बड़ कर दिया था। बाँधों को बनाने में पहले के लम्बे अनुभव के आधार पर ही उनकी ऊँचाई रखी जाती थी। अब यह हिसाब गड़बड़ा गया।
सरकारी दखल
साठ के दशक के शुरू तक शायद ही कहीं-कहीं पम्पसेट आये थे। पारम्परिक सिंचाई व्यवस्थाओं पर उनका खास असर नहीं पड़ा था। साठ के दशक के मध्य में कच्चे बाँध वाली जगह पर सरकार द्वारा पत्थर और कंकरीट के पक्के बाँध बनवा देने से काफी बड़ा बदलाव आ गया। किसानों से इस बारे में न कोई बातचीत की गई, न निर्माण में कोई मदद ली गई। इस बाँध से जुड़ी 15 मीटर नाली बनी और उसमें लकड़ी के फाटक लगाए गए। पर इस बाँध में जहाँ-तहाँ सुराख छूट गए थे और इससे साल भर पानी मिलना मुश्किल हो गया।
दूसरे वर्ष धान की दूसरी फसल के समय इतना कम पानी आया कि किसानों को लिफ्ट सिंचाई वाली पुरानी तकनीकों की मदद लेनी पड़ी। अगले दो वर्षों के दौरान पानी के स्तर को ऊँचा करने वाली पुरानी तकनीक का उपयोग बार-बार करना पड़ा। 1969 में बाँध की मरम्मत हुई, पर खास फर्क नहीं पड़ा। सुराख बड़े होते गए और ‘स्कूप’ वाली पुरानी तकनीक भी कारगर नहीं होने लगी, क्योंकि पानी की मात्रा बहुत कम हो गई। तब जिन किसानों को मजदूर रखकर सिंचाई का इन्तजाम करना पड़ता था उन्होंने बड़ी संख्या में पम्पसेट लिये। इन पम्पों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर भी सिंचाई की गई। जल्दी ही किसानों को लगा कि पम्पसेट बागवानी के लिये ज्यादा उपयोगी हैं, क्योंकि वहाँ चार-पाँच दिनों में सिंचाई करनी ही होती है।
सत्तर के दशक में बिजली आ गई और अनेक समृद्ध किसानों ने डीजल और किरासन वाले पम्पसेटों के साथ ही बिजली वाले पम्प भी लगा लिये। इस प्रकार सरकारी दखल ने समृद्ध किसानों को तो सिंचाई के ज्यादा पक्के और अच्छे साधन दिलवा दिये, पर पारम्परिक व्यवस्थाएँ ध्वस्त होती गईं। अब छोटे किसान ही इन पर आश्रित रहे।
सरकार ने 1975 और 1981 में पक्के बाँध के सुराखों की मरम्मत का काम करवाया। किसानों के अनुसार, 1975 वाली मरम्मत ने बाँधों को काफी नुकसान पहुँचाया, जबकि 1981 वाले काम ने नालियों को चौपट कर दिया और बरसात के मौसम में भी इससे पानी नहीं निकलता।
इस बाँध वाली नौटंकी ने सर्दियों वाली खेती को खास प्रभावित नहीं किया, क्योंकि पहले भी यह खेती इसके बहुत भरोसे से नहीं की जाती थी। गर्मियों वाली खेती जरूर इसके सहारे होती थी, पर अब पम्पों ने इस समय धान लगाने वाले खेतों का क्षेत्रफल बढ़ा दिया। सर्दियों के बाद वाली खेती पर बहुत बुरा असर हुआ। अब तो इस बाँध से इन दिनों में एकदम पानी नहीं निकलता। जो थोड़ा-बहुत पानी सोतों में होता है उसे ऊपर लाकर 28 में से 12 परिवारों के लोग सिंचाई कर पाते हैं।
सर्दियों वाली खेती के लिये पानी तो सिर्फ पाँच परिवारों के खेतों को ही मिल पाता है। सिंचाई व्यवस्था में इस भारी बदलाव के पहले सारा पानी बाँध और नालियों से और कमी पड़ी तो पानी ऊपर लाने की साधारण और सरल विधियों से काम चला लिया जाता था। आज सर्दियों वाली 87 फीसदी खेती पम्पों से होने लगी है और बाँध से 13 फीसदी खेतों का काम भी बमुश्किल चलता है।
पेकोट्टाह वाली सिंचाई वही लोग कर सकते हैं जो खुद या जिनके परिवार वाले पानी खींचने का श्रम करने को तैयार हों। इसकी मजदूरी 60 रुपए होती है। पम्पसेटों से पानी खरीदने पर 340 रुपए खर्च होते हैं। इसलिये यह सवाल कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कौन किसान इस खर्च का वहन कर सकता है। इस बाँध वाले इलाके के 14 परिवारों के पास कुल 18 पम्पसेट हैं। 1977 के बाद से सिर्फ बिजली वाले पम्पसेट लगे हैं, क्योंकि डीजल या किरासन वाले की तुलना में ये काफी सस्ते हैं। जिन 14 परिवारों के पास पम्पसेट हैं वे औरों से समृद्ध हैं-छह परिवारों के लोग नौकरियों में हैं, चार अन्य में व्यापार होता है और सिर्फ चार ही खेती पर निर्भर हैं। इनमें से एक के पास सबसे बड़े बाग हैं तो दूसरे के पास धान के सबसे ज्यादा खेत। पम्पवालों के पास औरों से ज्यादा जमीन तो है ही, उनके खेत ज्यादा बार और बेहतर ढंग से सींचते हैं तथा वे अपने खेतों के साथ बागों की सिंचाई भी कर लेते हैं।
इस बात में सन्देह नहीं है कि केरल जैसे राज्य के लिये लघु सिंचाई व्यवस्थाएँ महत्त्वपूर्ण हैं, पर इस दिशा में सरकारी काम मुख्यतः ग्रामीण समुदायों द्वारा किये जाने वाले प्रबन्धों की जगह सरकारी खजाने की स्थायी व्यवस्थाएँ कर देना है। इनकी योजना बनाने और इनके निर्माण में स्थानीय समुदाय की भागीदारी लगभग शून्य होती है। ऐसे बदलावों का दूरगामी असर पड़ता है। इससे किसानों द्वारा हर साल अपने साधन और श्रम से नई व्यवस्थाएँ खड़ी करने का बोझ समाप्त हो जाता है। मौसमी व्यवस्थाएँ एक पूरी परम्परा और पीढ़ियों के अनुभव तथा कौशल से विकसित हुई थीं। नए डिजाइन में खोट हो सकती है, जैसे अध्ययन के क्षेत्र में ही अब एक ऐसा बाँध बना है जिसकी ऊँचाई इतनी है कि सारे फाटक बन्द करने पर उससे उठा पानी सबसे ऊँचाई वाले खेतों को भी डुबा देता है। अगर पारम्परिक बाँधों वाले सिद्धान्त पर अमल होता तो ऐसा नहीं होता। नई व्यवस्था में किसानों की भागीदारी सिर्फ कागजों पर जिक्र करने की चीज रह गई है।
स्थानीय तथा देसी सिंचाई संगठनों में सरकारी दखलंदाजी ने और बंटाधार किया है। पारम्परिक संगठनों के लिये निर्माण, रख-रखाव, सबमें सामूहिक भागीदारी अनिवार्य थी। उसमें श्रम का खर्च कुछ लगता ही नहीं था। अब पम्पसेटों में डीजल, तेल, बिजली का खर्च ही बहुत ज्यादा हो गया है। पहले की सिंचाई व्यवस्थाएँ सामूहिक थीं और इसके चलते पानी का समान बँटवारा होता था। अब पम्पों से जो जितना पानी ले ले, उसे उतना पानी मिल जाता है और बाकी देखते रह जाते हैं। सो, सरकारी नीतियों और खर्च पर एक नया समृद्ध वर्ग उभर आया है और यह बिना पम्पवालों को पानी बेचकर भी अमीर बन रहा है। और विकास की धारा के इधर मुड़ जाने के बाद पारम्परिक विधियों की तरफ लौटने का रास्ता नहीं रह गया था।
सो, यह सवाल उठाना अप्रासंगिक नहीं है कि शासन को छोटे कामों में भी दखल देना चाहिए या नहीं। सरकार पानी पर जो कर लेती है वह इन व्यवस्थाओं के रख-रखाव के लिये पूरा नहीं पड़ता है। नए निर्माण और उपकरणों पर लगा धन तो अलग से लाना ही पड़ता है। भूजल का इस्तेमाल भी पारम्परिक बाँधों जैसी व्यवस्थाओं के बिना बहुत टिकाऊ नहीं बन सकता। चीन में सिंचाई साधनों का लाभ लेने वाले लोग उनकी लागत का बड़ा हिस्सा खुद से देते हैं।
जैसा कि सिंचाई के विशेषज्ञ ए. वैद्यनाथन कहते थे, “भारत की तुलना में चीन और जापान की सरकारें बहुत सीमित भूमिका निभाती हैं और उपभोक्ता ही निर्माण का ज्यादा खर्च उठाते हैं और इसके लिये साधन जुटाते हैं।”
सीएसई से वर्ष 1998 में प्रकाशित पुस्तक ‘बूँदों की संस्कृति’ से साभार
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Post By: Editorial Team