औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी प्रशासकों ने तराई-भाबर क्षेत्र में सिंचाई के इंतज़ाम किए लेकिन पहाड़ी इलाकों में लोग अपने परंपरागत ज्ञान पर निर्भर रहे। कहीं उन्होंने जल समितियां बनाईं तो कहीं ‘हारा’ व्यवस्था के अंतर्गत ग्रामीण ठेकेदारों के जरिए नहरों का निर्माण व रखरखाव किया। आज भी उत्तराखंड के अनेक गाँवों में ‘हारा’ जरिए सिंचाई की जाती है। ‘हारा’ एक लिखित करार है, जो किसी ठेकेदार से नहर के निर्माण, संचालन व रखरखाव हेतु लंबी अवधि के लिए किया जाता है। बदले में किसान अपनी फसल का एक निश्चित हिस्सा ठेकेदार को देते हैं। हिमालय के किसी भी हिस्से को देखें इसके संपूर्ण विस्तार में फैली हरी-भरी पहाड़ियों की गोद में सीढ़ीदार खेतों का सिलसिला जैसे खत्म होने का नाम नहीं लेगा। इन उपजाऊ खेतों को सदियों पहले दुनिया के सबसे कठिन भूगोल में रहने वाले बाशिंदों ने हाड़तोड़ मेहनत से बनाया था। उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप इन खेतों में उगाए जाने वाले बीजों को ही नहीं खोजा, बल्कि इन्हें सींचने के लिए गहराई में बहती नदियों से पानी उठाने की तकनीकें भी विकसित कीं संपूर्ण हिमालय में खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए बनाई गई सदियों पुरानी गूलें (या कूलें) आज भी यहां के किसानों की समृद्ध जल-प्रबंध परंपरा की शानदार प्रतीक हैं।
कुमाऊँ की सोमेश्वर घाटी के सलोंज और लघूड़ा गाँवों के पास सिंचाई व्यवस्था की एक ऐसी ही विरासत हैं। पीढ़ियों पहले उन्होंने एक नाले से अपने खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए गूल (नहर) निकाली। 1855 में स्रोत के निचले हिस्से की ओर पड़ने वाले गाँवों- बयाला, द्यारी, डुमरकोट के साथ पानी के बँटवारे को लेकर विवाद पैदा हुआ। इसे सुलझाने के लिए ग्रामीणों ने एक अनोखी संस्था को जन्म दिया, जिसका नाम ‘सलोंज-लघूड़ा सिंचाई समिति’ रखा गया। संभवतः यह देश की सबसे पुरानी सिंचाई समिति है। अपने अनुभव और विवेक से हिमालय की दूरस्थ घाटियों के निवासियों ने इस विलक्षण व्यवस्था की बुनियाद रखी। लगभग एक सदी के बाद पानी के वितरण को लेकर ग्रामीणों के बीच 1944 में एक बार फिर कहासुनी हुई। मामला न्यायालय तक पहुंचा और यह निर्णय लिया गया कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक सिंचाई के पानी पर सलोंज-लघूड़ा गाँवों का और सूर्यास्त से सूर्योदय तक बयाला, द्यारी और डुमरकोट गाँवों का अधिकार होगा। पानी के बँटवारे की यह व्यवस्था आज भी कायम है। 95 किसान परिवारों के बीच चुनी गयी ग्यारह सदस्यों की कार्यकारिणी सिंचाई व्यवस्था का रखरखाव व संचालन करती है। कार्यकारिणी के बीच पांच सदस्यों का एक पंच मंडल भी चुना जाता है जो विवादों के निपटारे के अलावा गांव के किसी व्यक्ति को चौकीदार नियुक्त करता है। चौकीदार वेतन के रूप में प्रत्येक परिवार से प्रति फसल 2 किलो अनाज प्राप्त करता है। समिति नियमानुसार पानी का वितरण सुनिश्चित करती है और नियमों का पालन न होने की स्थिति में अर्थदंड भी वसूलती है।
सलोंज-लघुड़ा का उदाहरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज बड़े तमाशे के साथ ग्रामीणों को प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में साझीदार बनाने के अभियान चलाए जा रहे हैं। खास तौर पर जब जल-प्रबंध में आधी सदी से चल रहे सरकारी प्रयास मुंह के बल गिरे हैं। इन प्रयासों ने जलस्रोतों की बर्बादी तो की ही, समाज की परंपरागत स्वायत्तता को भी कमजोर किया है। और अब सरकार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के निर्देशों पर जल-प्रबंधन की संवैधानिक ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है। इसलिए ‘भागादारी’ के शब्दजाल में गांव समाज को उनके लुटे-पिटे जलस्रोत विश्व बैंक के कर्ज में डुबो कर सौंपे जाने की तैयारी हो रही है। उन्हें यह भी बताया जा रहा है कि पानी जैसा कुदरत का अनमोल तोहफ़ा अब मुफ्त में नहीं उठाया जा सकता। बल्कि इसके लिए चुकाना पड़ेगा। गाँवों की सूरत तक से अनजान महंगे ‘स्वयंसेवी’ विशेषज्ञ ग्रामीणों को प्रबंधन का प्रशिक्षण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि कैसे उन्हें जंगल और पानी जैसी सुविधाओं का दाम चुकाने की आदत डालनी चाहिए। ऐसे में हिमालयी समाजों की उस स्वायत्तता की याद आना स्वाभाविक है जो कमजोर ही सही आज भी उनकी सामुदायिक संस्कृति का हिस्सा है। हिमालयवासी प्राचीन काल से ही पानी के विभिन्न उपयोगों में दक्ष थे और इसके लिए बाहरी तंत्र का मुंह नहीं जोहते थे। सिंचाई के लिए उन्होंने पानी की उपलब्धता के अनुसार प्रबंधन तकनीकें विकसित की थीं। जहां नदियां या दूसरे जलस्रोत नहीं थे, वहां वे पहाड़ी ढलानों पर तालाब (खाल) खोद कर वर्षा जल संग्रह करते थे।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी प्रशासकों ने तराई-भाबर क्षेत्र में सिंचाई के इंतज़ाम किए लेकिन पहाड़ी इलाकों में लोग अपने परंपरागत ज्ञान पर निर्भर रहे। कहीं उन्होंने जल समितियां बनाईं तो कहीं ‘हारा’ व्यवस्था के अंतर्गत ग्रामीण ठेकेदारों के जरिए नहरों का निर्माण व रखरखाव किया। आज भी उत्तराखंड के अनेक गाँवों में ‘हारा’ जरिए सिंचाई की जाती है। ‘हारा’ एक लिखित करार है, जो किसी ठेकेदार से नहर के निर्माण, संचालन व रखरखाव हेतु लंबी अवधि के लिए किया जाता है। बदले में किसान अपनी फसल का एक निश्चित हिस्सा ठेकेदार को देते हैं। ज़िम्मेदारी का निर्वाह न कर पाने पर उसे भारी जुर्माना भी अदा करना पड़ता है। अल्मोड़ा जिले में सेराघाट के निकट ल्वैटा गांव के निवासियों ने 1920 में ऐसे ही एक ठेकेदार से गूल का निर्माण करवाया था। आज भी यह ‘हारा’ व्यवस्था के अंतर्गत संचालित हो रही है, जिसमें ठेकेदार को संचालन के एवज में फसल का 1/8 भाग दिया जाता है। निकट की बड़ौलीसेरा सिंचाई व्यवस्था भी 1/11 भाग ‘हारा’ के अंतर्गत संचालित होती है। इसे उत्तराखंड की सबसे पुरानी ‘हारा’ व्यवस्था बताया जाता है। इसी तरह द्वाराहाट विकास खंड के कामा-कनलगांव ग्रामसमूह तथा ताकुला विकासखंड के 16 गाँवों के किसान भी पीढ़ियों से अपने सिंचाई-व्यवस्था का संचालन करते आ रहे हैं। इनमें बैंगनियां गांव की कुछ गूलों को स्थानीय निवासी 400 वर्ष से भी अधिक पुरानी बताते हैं। कनलगांव की सिंचाई व्यवस्था का ज़िम्मा वहां के महिला मंडल के हाथ में है।
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ और पर्यावरण कार्यकर्ता डॉ. दीवान नागरकोटी ने परंपरागत व राज्य-प्रायोजित व्यवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन किया है। वे बताते हैं कि पिछले 50 सालों में पर्वतीय क्षेत्र के सिंचित क्षेत्रफल में गिरावट आई है। अल्मोड़ा जिले में यह गिरावट 1000 हेक्टेयर है। यह देखने लायक है कि जहां राज्य प्रायोजित सिंचाई व्यवस्थाएं बेहद महंगी और गुणवत्ता व क्षमता की दृष्टि से साधारण हैं, वहीं परंपरागत व्यवस्थाएं बेहद किफायती और क्षमतापूर्ण हैं। सरकारी नहरों का निर्माण भी ठेकेदार करते हैं लेकिन वे नहर बनने के बाद पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए जिम्मेदार नहीं होते। जबकि परंपरागत हारा व्यवस्था में पानी न आने की स्थिति में ठेकेदार पर जुर्माना आयत किया जाता है। परंपरागत व्यवस्था के प्रति ग्रामीणों में अपनेपन का भाव रहता है, जबकि सरकारी नहरों को वे चाह कर भी नहीं अपना सकते। हालांकि दू-दराज़ के कई गाँवों में लोगों ने सरकारी नहरों के संचालन के लिए अनौपचारिक तौर पर अपना कर्मचारी नियुक्त किया है। वे सरकारी राजस्व भी चुकाते हैं लेकिन रखरखाव के लिए सरकार के मुलाज़िम की बाट जोहने के बजाय तुरंत कार्यवाही के लिए अपना आदमी रख लेना ज्यादा फ़ायदेमंद समझते हैं। इसके विपरीत सिंचाई विभाग ने कई पुरानी ‘हारा’ सिंचाई प्रणालियों का अधिग्रहण किया लेकिन वह इनकी निरंतरता बरकरार नहीं रख सका। परिणामस्वरूप ये सिंचाई प्रणालियां आज बंद पड़ी हैं। सरकार के अतिकेंद्रीकृत सिंचाई विभाग अमूमन स्थानीय ज़रूरतों और विशिष्टताओं को नज़रअंदाज़ करते हैं। योजना बनाते समय वे फ़सलों की किस्मों और सिंचाई की ज़रूरतों के बारे में जानना जरूरी नहीं समझते। नहरों का निर्माण सार्वजनिक निविदाओं के जरिए पेशेवर ठेकेदारों के द्वारा करवाया जाता है। भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे विभाग में कदम-कदम पर बैठे भैरवों को हिस्सा चढ़ाने के बाद उन्हें अपने मुनाफ़े की भी चिंता करनी होती है। इस प्रक्रिया के बाद जो निर्माण होता है उसकी गुणवत्ता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। एक बार जहां ठेकेदार को निर्माण का भुगतान हुआ, उसकी ज़िम्मेदारी खत्म। उसके बाद नहर में पानी चले, न चले, उसे बुलाया जाना असंभव है। स्थानीय किसानों का जिनके लिए नहर बनाई जा रही है, पूरी प्रक्रिया में कहीं दखल नहीं होता।
इस परिदृश्य में परंपरागत सिंचाई प्रणालियां आज भी उम्मीद जगाती हैं। यदि विकास कार्यों के क्रियान्वयन का ज़िम्मा ग्राम पंचायतों को सौंप दिया जाय तो निश्चित तौर पर इसके बेहतर परिणाम निकलेंगे। संविधान का 73वां व 74वां संशोधन राज्य सरकारों को ऐसी इजाज़त देता है। सिंचाई के मामले में उत्तरांचल में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें गांव समाज ने अपनी परंपरागत सिंचाई व्यवस्था को सफलतापूर्वक जीवित रखा है। उन्होंने साबित किया है कि सरकारी महकमों की तुलना में वे बहुत कम खर्च पर बेहतर सिंचाई प्रणालियों का निर्माण व रखरखाव कर सकती हैं। लेकिन विकास के धन से अपनी आगामी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करने में लगी प्रशासनिक व तकनीकी नौकरशाही क्या इतनी आसानी से अपने मुंह का निवाला छोड़ने पर राजी होगी?
(यह आलेख सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली की मीडिया फेलोशिप के अंतर्गत तैयार किया गया है। )
कुमाऊँ की सोमेश्वर घाटी के सलोंज और लघूड़ा गाँवों के पास सिंचाई व्यवस्था की एक ऐसी ही विरासत हैं। पीढ़ियों पहले उन्होंने एक नाले से अपने खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए गूल (नहर) निकाली। 1855 में स्रोत के निचले हिस्से की ओर पड़ने वाले गाँवों- बयाला, द्यारी, डुमरकोट के साथ पानी के बँटवारे को लेकर विवाद पैदा हुआ। इसे सुलझाने के लिए ग्रामीणों ने एक अनोखी संस्था को जन्म दिया, जिसका नाम ‘सलोंज-लघूड़ा सिंचाई समिति’ रखा गया। संभवतः यह देश की सबसे पुरानी सिंचाई समिति है। अपने अनुभव और विवेक से हिमालय की दूरस्थ घाटियों के निवासियों ने इस विलक्षण व्यवस्था की बुनियाद रखी। लगभग एक सदी के बाद पानी के वितरण को लेकर ग्रामीणों के बीच 1944 में एक बार फिर कहासुनी हुई। मामला न्यायालय तक पहुंचा और यह निर्णय लिया गया कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक सिंचाई के पानी पर सलोंज-लघूड़ा गाँवों का और सूर्यास्त से सूर्योदय तक बयाला, द्यारी और डुमरकोट गाँवों का अधिकार होगा। पानी के बँटवारे की यह व्यवस्था आज भी कायम है। 95 किसान परिवारों के बीच चुनी गयी ग्यारह सदस्यों की कार्यकारिणी सिंचाई व्यवस्था का रखरखाव व संचालन करती है। कार्यकारिणी के बीच पांच सदस्यों का एक पंच मंडल भी चुना जाता है जो विवादों के निपटारे के अलावा गांव के किसी व्यक्ति को चौकीदार नियुक्त करता है। चौकीदार वेतन के रूप में प्रत्येक परिवार से प्रति फसल 2 किलो अनाज प्राप्त करता है। समिति नियमानुसार पानी का वितरण सुनिश्चित करती है और नियमों का पालन न होने की स्थिति में अर्थदंड भी वसूलती है।
सलोंज-लघुड़ा का उदाहरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आज बड़े तमाशे के साथ ग्रामीणों को प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में साझीदार बनाने के अभियान चलाए जा रहे हैं। खास तौर पर जब जल-प्रबंध में आधी सदी से चल रहे सरकारी प्रयास मुंह के बल गिरे हैं। इन प्रयासों ने जलस्रोतों की बर्बादी तो की ही, समाज की परंपरागत स्वायत्तता को भी कमजोर किया है। और अब सरकार अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के निर्देशों पर जल-प्रबंधन की संवैधानिक ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है। इसलिए ‘भागादारी’ के शब्दजाल में गांव समाज को उनके लुटे-पिटे जलस्रोत विश्व बैंक के कर्ज में डुबो कर सौंपे जाने की तैयारी हो रही है। उन्हें यह भी बताया जा रहा है कि पानी जैसा कुदरत का अनमोल तोहफ़ा अब मुफ्त में नहीं उठाया जा सकता। बल्कि इसके लिए चुकाना पड़ेगा। गाँवों की सूरत तक से अनजान महंगे ‘स्वयंसेवी’ विशेषज्ञ ग्रामीणों को प्रबंधन का प्रशिक्षण दे रहे हैं और बता रहे हैं कि कैसे उन्हें जंगल और पानी जैसी सुविधाओं का दाम चुकाने की आदत डालनी चाहिए। ऐसे में हिमालयी समाजों की उस स्वायत्तता की याद आना स्वाभाविक है जो कमजोर ही सही आज भी उनकी सामुदायिक संस्कृति का हिस्सा है। हिमालयवासी प्राचीन काल से ही पानी के विभिन्न उपयोगों में दक्ष थे और इसके लिए बाहरी तंत्र का मुंह नहीं जोहते थे। सिंचाई के लिए उन्होंने पानी की उपलब्धता के अनुसार प्रबंधन तकनीकें विकसित की थीं। जहां नदियां या दूसरे जलस्रोत नहीं थे, वहां वे पहाड़ी ढलानों पर तालाब (खाल) खोद कर वर्षा जल संग्रह करते थे।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी प्रशासकों ने तराई-भाबर क्षेत्र में सिंचाई के इंतज़ाम किए लेकिन पहाड़ी इलाकों में लोग अपने परंपरागत ज्ञान पर निर्भर रहे। कहीं उन्होंने जल समितियां बनाईं तो कहीं ‘हारा’ व्यवस्था के अंतर्गत ग्रामीण ठेकेदारों के जरिए नहरों का निर्माण व रखरखाव किया। आज भी उत्तराखंड के अनेक गाँवों में ‘हारा’ जरिए सिंचाई की जाती है। ‘हारा’ एक लिखित करार है, जो किसी ठेकेदार से नहर के निर्माण, संचालन व रखरखाव हेतु लंबी अवधि के लिए किया जाता है। बदले में किसान अपनी फसल का एक निश्चित हिस्सा ठेकेदार को देते हैं। ज़िम्मेदारी का निर्वाह न कर पाने पर उसे भारी जुर्माना भी अदा करना पड़ता है। अल्मोड़ा जिले में सेराघाट के निकट ल्वैटा गांव के निवासियों ने 1920 में ऐसे ही एक ठेकेदार से गूल का निर्माण करवाया था। आज भी यह ‘हारा’ व्यवस्था के अंतर्गत संचालित हो रही है, जिसमें ठेकेदार को संचालन के एवज में फसल का 1/8 भाग दिया जाता है। निकट की बड़ौलीसेरा सिंचाई व्यवस्था भी 1/11 भाग ‘हारा’ के अंतर्गत संचालित होती है। इसे उत्तराखंड की सबसे पुरानी ‘हारा’ व्यवस्था बताया जाता है। इसी तरह द्वाराहाट विकास खंड के कामा-कनलगांव ग्रामसमूह तथा ताकुला विकासखंड के 16 गाँवों के किसान भी पीढ़ियों से अपने सिंचाई-व्यवस्था का संचालन करते आ रहे हैं। इनमें बैंगनियां गांव की कुछ गूलों को स्थानीय निवासी 400 वर्ष से भी अधिक पुरानी बताते हैं। कनलगांव की सिंचाई व्यवस्था का ज़िम्मा वहां के महिला मंडल के हाथ में है।
प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ और पर्यावरण कार्यकर्ता डॉ. दीवान नागरकोटी ने परंपरागत व राज्य-प्रायोजित व्यवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन किया है। वे बताते हैं कि पिछले 50 सालों में पर्वतीय क्षेत्र के सिंचित क्षेत्रफल में गिरावट आई है। अल्मोड़ा जिले में यह गिरावट 1000 हेक्टेयर है। यह देखने लायक है कि जहां राज्य प्रायोजित सिंचाई व्यवस्थाएं बेहद महंगी और गुणवत्ता व क्षमता की दृष्टि से साधारण हैं, वहीं परंपरागत व्यवस्थाएं बेहद किफायती और क्षमतापूर्ण हैं। सरकारी नहरों का निर्माण भी ठेकेदार करते हैं लेकिन वे नहर बनने के बाद पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए जिम्मेदार नहीं होते। जबकि परंपरागत हारा व्यवस्था में पानी न आने की स्थिति में ठेकेदार पर जुर्माना आयत किया जाता है। परंपरागत व्यवस्था के प्रति ग्रामीणों में अपनेपन का भाव रहता है, जबकि सरकारी नहरों को वे चाह कर भी नहीं अपना सकते। हालांकि दू-दराज़ के कई गाँवों में लोगों ने सरकारी नहरों के संचालन के लिए अनौपचारिक तौर पर अपना कर्मचारी नियुक्त किया है। वे सरकारी राजस्व भी चुकाते हैं लेकिन रखरखाव के लिए सरकार के मुलाज़िम की बाट जोहने के बजाय तुरंत कार्यवाही के लिए अपना आदमी रख लेना ज्यादा फ़ायदेमंद समझते हैं। इसके विपरीत सिंचाई विभाग ने कई पुरानी ‘हारा’ सिंचाई प्रणालियों का अधिग्रहण किया लेकिन वह इनकी निरंतरता बरकरार नहीं रख सका। परिणामस्वरूप ये सिंचाई प्रणालियां आज बंद पड़ी हैं। सरकार के अतिकेंद्रीकृत सिंचाई विभाग अमूमन स्थानीय ज़रूरतों और विशिष्टताओं को नज़रअंदाज़ करते हैं। योजना बनाते समय वे फ़सलों की किस्मों और सिंचाई की ज़रूरतों के बारे में जानना जरूरी नहीं समझते। नहरों का निर्माण सार्वजनिक निविदाओं के जरिए पेशेवर ठेकेदारों के द्वारा करवाया जाता है। भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे विभाग में कदम-कदम पर बैठे भैरवों को हिस्सा चढ़ाने के बाद उन्हें अपने मुनाफ़े की भी चिंता करनी होती है। इस प्रक्रिया के बाद जो निर्माण होता है उसकी गुणवत्ता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। एक बार जहां ठेकेदार को निर्माण का भुगतान हुआ, उसकी ज़िम्मेदारी खत्म। उसके बाद नहर में पानी चले, न चले, उसे बुलाया जाना असंभव है। स्थानीय किसानों का जिनके लिए नहर बनाई जा रही है, पूरी प्रक्रिया में कहीं दखल नहीं होता।
इस परिदृश्य में परंपरागत सिंचाई प्रणालियां आज भी उम्मीद जगाती हैं। यदि विकास कार्यों के क्रियान्वयन का ज़िम्मा ग्राम पंचायतों को सौंप दिया जाय तो निश्चित तौर पर इसके बेहतर परिणाम निकलेंगे। संविधान का 73वां व 74वां संशोधन राज्य सरकारों को ऐसी इजाज़त देता है। सिंचाई के मामले में उत्तरांचल में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें गांव समाज ने अपनी परंपरागत सिंचाई व्यवस्था को सफलतापूर्वक जीवित रखा है। उन्होंने साबित किया है कि सरकारी महकमों की तुलना में वे बहुत कम खर्च पर बेहतर सिंचाई प्रणालियों का निर्माण व रखरखाव कर सकती हैं। लेकिन विकास के धन से अपनी आगामी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करने में लगी प्रशासनिक व तकनीकी नौकरशाही क्या इतनी आसानी से अपने मुंह का निवाला छोड़ने पर राजी होगी?
(यह आलेख सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली की मीडिया फेलोशिप के अंतर्गत तैयार किया गया है। )
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