बदहाली में जीते किसान

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आजादी के बाद से आज तक कृषि क्षेत्र सरकार द्वारा हमेशा ही उपेक्षित रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं में भी कृषि उपेक्षित रही। भारत में कृषि की कीमत पर औद्योगिक विकास को तरजीह दी गई। लेकिन अब देश के नीति निर्माताओं को यह अच्छी तरह से समझना होगा कि औद्योगीकरण से देश का पेट नहीं भरने वाला है। इतिहास में ज्ञात प्रथम मानवीय सभ्यता से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है। आज भी भारत की करीबन दो-तिहाई आबादी कृषि से जुड़ी हुई है। कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की मेरुदण्ड भी कहा जाता है। प्राचीनकाल में किसानों की हालत ठीक थी लेकिन ब्रितानी युग से किसानों की हालत में जो बिगड़ाव शुरू हुआ, वह आज भी सुधर नहीं सका।

यदि अंग्रेजों की कृषि नीति पर नजर डालें तो मालूम चलता है कि वे भारतीय किसानों को अपने मन मुताबिक फसल उगाने के लिए मजबूर करते थे और उन्हें अत्यन्त कम दामों पर खरीदकर विश्व बाजार में महँगे दामों पर बेचते थे। यानी कि किसानों की सारी मेहनत के फल का वही भक्षण करते थे।

देश जब आजाद हुआ तो किसानों के दिल में उम्मीद जगी कि अब हम अपनी इच्छानुसार फसलों का उत्पादन कर उन्हें महँगे दामों पर बेचेंगे और खूब सारा लाभ कमाएँगे लेकिन आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी ऐसा न हो सका। आज भी भारतीय किसानों की वही दुर्दशा है, जो औपनिवेशिक काल में थी। आज वह मन मुताबिक फसल उगाने के लिए जरूर स्वतंत्र है लेकिन उसके उचित दाम लेने के लिए नहीं।

आज जिन दामों पर किसानों से उनके उत्पादन की खरीदारी की जाती है उससे मुश्किल से ही किसानों की लागत और मेहनताने की भरपाई हो पाती है। इसीलिए आज खेती को घाटे का सौदा माना जाने लगा है। इसी घाटे की वजह से हमारे देश के किसान साहूकारों के कर्ज में डूबते जाते हैं और अंत में कर्ज न चुका पाने की स्थिति में फाँसी के फँदे को गले लगा लेते हैं।

एनसीआरबी द्वारा जारी की गई 1995-2013 तक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। केवल 2013 में ही भारत में किसानों की आत्महत्या की कुल संख्या 11,744 थी। यक्ष प्रश्न यह है कि इन आत्महत्याओं का जिम्मेदार कौन है? किसानों द्वारा आत्महत्या करने के पीछे एक ओर जहाँ सरकार जिम्मेदार है, वहीं दूसरी ओर बड़ी कम्पनियों और व्यापारियों की मुनाफाखोर प्रवृत्ति भी। उर्वरकों की खरीदारी से लेकर कृषि उत्पाद को मण्डियों में लाने तक हर जगह किसानों का शोषण होता है।

नेशनल और इण्टरनेशनल कम्पनियों ने बाजार पर अपना एकाधिकार जमा लिया है, जिन पर सरकारों का कोई नियन्त्रण नहीं है। दुर्भाग्य से शासन द्वारा इन पर नियन्त्रण की कोई पहल करना तो दूर, इस दिशा में अब तक विचार-विमर्श भी नहीं किया गया है। शासन की इस उदासीनता के कारण नेशनल और मल्टीनेशनल कम्पनियाँ चाँदी काट रही हैं।

यह अकसर देखा गया है कि देश सबसे बड़ी पंचायत में पहुँचने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधि अपने आपको कृषि व्यवसाय से जुड़ा हुआ दर्शाते हैं। लेकिन इसके बाद भी वे कृषि एवं कृषकों के सुधार हेतु कोई कदम नहीं उठाते। आजादी के बाद से आज तक कृषि क्षेत्र सरकार द्वारा हमेशा ही उपेक्षित रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं में भी कृषि उपेक्षित रही। भारत में कृषि की कीमत पर औद्योगिक विकास को तरजीह दी गई। लेकिन अब देश के नीति निर्माताओं को यह अच्छी तरह से समझना होगा कि औद्योगीकरण से देश का पेट नहीं भरने वाला है।

यह अकसर देखा गया है कि देश सबसे बड़ी पंचायत में पहुँचने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधि अपने आपको कृषि व्यवसाय से जुड़ा हुआ दर्शाते हैं। लेकिन इसके बाद भी वे कृषि एवं कृषकों के सुधार हेतु कोई कदम नहीं उठाते। लोकसभा व राज्यसभा के वर्तमान सदस्यों में आधे से ज्यादा लोगों के पास खेती है। कृषि से जुड़े लोगों के निरन्तर संसद में रहने के बावजूद न तो सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विस्तार हुआ, न कृषि उपजों को उचित दाम मिला और न ही आधुनिक तकनीक से कृषि करने में किसान समर्थ हो पाया। कारण साफ है कि किसान होने के बावजूद सांसदों ने कृषि के बारे में सोचा ही नहीं।

किसानों के लिए आन्दोलन भी उभरे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। शरद जोशी, महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों के अधिकारों के लिए लम्बा संघर्ष किया। उनका आन्दोलन देश के कई राज्यों में भी फैला। शरद जोशी और टिकैत ने अपने-अपने राज्यों में किसानों को संगठित कर उन्हें पहली बार निर्णायक राजनीतिक शक्ति बनाया। कालान्तर में जोशी और टिकैत के आन्दोलन राजनीति की भेंट चढ़ गए तथा कृषि क्षेत्र और किसान बदहाल ही रहा। किसान आत्महत्या के मामले नियन्त्रित नहीं हो पा रहे हैं और उनकी कोई खैरखबर पूछने वाला भी नहीं है।

प्राकृतिक आपदाओं की मार भी इन किसानों को झेलनी पड़ती है। कभी अत्यधिक बारिश तो कभी बारिश की कमी से फसलों को काफी नुकसान पहुँचता है, ऐसे में पूरे देश पर इसका असर पड़ता है। खेती चौपट होने से देश के नागरिकों को जहाँ महँगाई का सामना करना पड़ता है, वहीं किसानों को भी आर्थिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है। कुल मिलाकर यदि देश का किसान परेशान है तो देश के लोगों पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ता है।

प्राकृतिक आपदा आने पर किसानों की सबसे ज्यादा फजीहत होती है। किसानों को उतना मुआवजा नहीं मिल पाता है जितना कि उनका नुकसान होता है। कई बार संसद में भी किसानों की बातों को नहीं उठाया जाता है। ऐसे मौके पर किसानों की हमेशा से एक ही शिकायत रहती है कि जितना नुकसान होता है, उतना मुआवजा नहीं मिल पाता है। प्राकृतिक आपदा ही नहीं बल्कि ऐसी कई समस्याएं हैं, जिनका निराकरण नहीं हो पाता है।

आज भी कई किसान ऐसे हैं जो पुराने ढर्रे पर ही खेती करते हैं, ऐसे में वे उतनी पैदावार नहीं ले पाते हैं, जितनी कि होनी चाहिए। पैसे के अभाव में आज भी कई किसान आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। उन्नत किस्म की खाद व बीज की किल्लत तो हमेशा ही बनी रहती है।

बुवाई के बाद खेती के लिए जरूरी खाद भी किसानों को महँगे दामों में खरीदनी पड़ जाती है। जनप्रतिनिधि भी उनकी नहीं सुनते हैं और मजबूरन किसानों को महँगे दामों पर बीज, खाद की खरीदारी करनी पड़ती है लेकिन फसल तैयार होने के बाद इसका मनमाफिक दाम उन्हें नहीं मिल पाता है।

लेखक का ई-मेल : rajiv1965.jain@gmail.com

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