बदहाल विरासत

Martand Sun Templeजब से कश्मीर में दहशतगर्दी कुछ थमी है, गर्मियों में सैलानियों का जमघट रहने लगा है। कभी-कभी तो इतने लोग पहुंच जाते हैं कि होटलों में कमरे कम पड़ जाते हैं। ज्यादातर लोग श्रीनगर के होटलों, हाउसबोटों में रुकते-ठहरते हैं, क्योंकि डल के किनारे कई ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल हैं। डल के नजारे तो हैं ही। फिर लोग वहां से पहलगाम, सोनमर्ग, गुलर्ग की ओर बढ़ते हैं।

कश्मीर में बहुत सारे ‘बल’ और ‘नाग’ हैं। ‘बल’ यानी जहां कोई धार्मिक स्थल हो। किसी देवी-देवता या संत-पीर का स्थान, जिसे कश्मीरी लोग जियारत कहते हैं। ‘नाग’ यानी चश्मा, जहां पहाड़ का पेंदा फोड़ कर निरंतर पानी निकलता रहता है। न सिर्फ खूबसूरती के लिहाज से ये बल और नाग देखने लायक हैं, बल्कि इनसे कई मिथ जुड़े हैं। इनका ऐतिहासिक और स्थापत्य की दृष्टि से काफी महत्त्व है। मगर गर्मी के हरे-भरे खुशनुमा मौसम में वहां के नजारे देखने पहुंचे सैलानियों में कम ही इन नागों को देखने जाते हैं। सबसे ज्यादा नाग अनंतनाग जिले में हैं। बेरीनाग, कुकरनाग वगैरह। कई बल भी-अच्छाबल, केहरबल या खैरबल वगैरह।

श्रीनगर से पहलगाम जाते हुए अनंतनाग बीच में पड़ता है। जम्मू से श्रीनगर जाएं तब भी रास्ता वहीं से होकर गुजरता है। जो लोग कश्मीर घूमने जाते हैं, उनमें से काफी लोग पहलगाम भी देखने पहुंचते हैं। अमरनाथ यात्रा तो पहलगाम से आगे चंदनबाड़ी से ही शुरू होती है। पहलगाम में ही यात्रियों की जामातलाशी ली जाती और पहचान वगैरह की जांच होती है। यात्रा के वक्त लाखों सैलानी अमरनाथ के रास्ते गुजरते हैं। मगर हैरानी की बात है कि अनंतनाग के बलों, नागों को देखने उनमें से शायद दो फीसद लोग भी नहीं पहुंचते। हो सकता है कि इसकी वजह यह हो कि अनंतनाग दहशतगर्दी के लिए ज्यादा बदनाम है। मगर राज्य सरकार की कोशिश भी नहीं दिखती कि लोग बेरीनाग, कुकुरनाग, अच्छाबल, खैरबल देखने जाएं।

बेरीनाग, कुकुरनाग और अच्छाबल जरूर पहलगाम या फिर श्रीनगर जाने के रास्ते से कुछ हट कर हैं। उन्हें देखने के लिए रास्ता बदलना पड़ता है। कुछ संकरे और सार्वजनिक परिवहन से परे रास्तों से होकर जाना पड़ता है। मगर, खैरबल पहलगाम के मुख्य रास्ते से थोड़ा ही भीतर है। खैरबल के नीचे मट्टन मंदिर है। सघन बस्ती के बीच। मट्टन नाम शायद ‘मार्तंड’ के घिसने से बना होगा। हालांकि, वहां सूर्य का नहीं, दूसरे देवी-देवताओं के मंदिर हैं। मट्टन मंदिर आधुनिक तरीके से बना है। हर समय वहां भीड़ रहती है। इस मंदिर के कर्ता-धर्ता अमरनाथ यात्रा में भी सहयोग करते हैं। इसलिए यहां एक बड़ी धर्मशाला है। यात्रा के समय वहां काफी लोग रुकते-ठहरते और फिर आगे को प्रस्थान करते हैं। फिर भी खैरबल देखने इक्का-दुक्का लोग ही पहुंचते हैं।

जिस दिन हम वहां पहुंचे, छुट्टी का दिन था, मौसम खुशनुमा। गर्मी की छुट्टियों का लुत्फ उठाने आए सैलानियों की भीड़ पहलगाम में उमड़ी पड़ी थी। यात्रा के लिए लोग जुटने शुरू हो चुके थे। मगर खैरबल में सैलानी के नाम पर हमारे अलावा एक-दो परिवार ही थे। सेब के बागों की रखवाली करने वाले या फिर घर के कामकाज से फुरसत पाए स्थानीय लोग घास पर लेटे धूप सेंक या आराम कर रहे थे। खैरबल का नाम वास्तव में केहरबल है। मुख-सुख की वजह से लोगों ने उसे खैरबल या खीरीबल बना दिया है। कुछ उसी तरह जैसे वहां की जेहलम नीचे उतर कर झेलम हो गई है।

खैरबल में आठवीं सदी में बना मार्तंड यानी सूर्य मंदिर है। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पहले बना था। इसका निर्माण ललितादित्य मुक्तपद नामक राजा ने 724 से 761 ई. के बीच कराया था। इसका स्थापत्य भी कोणार्क की तरह ही है। चारों ओर से खुला, बाहरी हिस्से में ऊंचे खंभों वाले गलियारे। मंदिर का गर्भगृह कुछ इस तरह बनाया गया है कि उसमें हर वक्त सूर्य की धूप पहुंच सके। कहते हैं, गर्भगृह के ऊपर गुंबद में हीरे जैसी काट का कोई बड़ा-सा पारदर्शी पत्थर लगाया गया था, जिससे छन कर सूर्य की धूप गर्भ-गृह में पूरे दिन गिरती रहती थी।

मंदिर विशाल पत्थरों को तराश कर बनाया गया है। इन पत्थरों को एक के ऊपर एक जमा कर कुछ इस तरह लाख से जोड़ा गया है कि कुदरती थपेड़ों के निशान इन पर कहीं नजर नहीं आते। ऐसे मंदिरों-भवनों को देख कर हैरानी होती है कि जिस जमाने में आज की तरह भवन निर्माण की तकनीक नहीं थी, कैसे इतने भारी पत्थरों को ऊपर तक पहुंचाया गया होगा। इसका जवाब भी मिल गया। दांतों से नाखून कुतरते एक ‘गाइड’ किस्म के व्यक्ति ने शायद मेरे चेहरे पर सवाल पढ़ लिया और नजदीक सरक आया।

बताना शुरू कर दिया : जैसे-जैसे दीवार बनती जाती थी, उसकी ऊंचाई तक मिट्टी भर दी जाती और फिर उस पर पत्थरों को ढुलकाते हुए ऊपर चढ़ाया जाता था। दीवार बनाने के लिए पत्थरों को काट कर खांचे बनाए जाते थे और फिर उनमें लाख भर दिया जाता। यह जोड़ के लिए सुर्खी-चूने और सीमेंट से ज्यादा भरोसेमंद तकनीक थी।

कश्मीरी काले पत्रों को काटना-तराशना वैसा आसान नहीं होता, जैसा बादामी बलुआ पत्थरों को। मगर आठवीं सदी में जब बिजली से चलने वाले पत्थर काटने के यंत्र नहीं थे, मार्तंड मंदिर में इस्तेमाल इन पत्थरों को छेनी-हथौड़ी से तराश कर न सिर्फ दीवार के रूप में जमाने लायक बनाया गया, बल्कि उन पर बहुत सार देवी-देवताओं के चित्र उकेरे गए, शारदा लिपि में मंदिर के चारों तरफ प्रार्थना के पद और ऐतिहासिक इबारत दर्ज की गई। पता नहीं, इस लिपि को पढ़ने का प्रयास इतिहासकारों ने किया है या नहीं। मंदिर की बाहरी और गर्भ-गृह की भीतरी दीवारों पर गंगा, यमुना जैसी नदियों को देवी रूप में और विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं के सुंदर चित्र उकेरे गए हैं।

डल झीलइसके अलावा मंदिर तक पानी पहुंचाने का तरीका भी अद्भुत है। पहाड़ की ऊंचाई पर बने इस मंदिर तक पहुंचाने के लिए पत्थरों को तराश कर नाली बनाई गई और लाख से जमा कर उन्हें पुख्ता किया गया। इनके जरिए पहलगाम के पहाड़ों से पिघलती बर्फ का पानी इस मंदिर तक पहुंचाया जाता।

इस मंदिर के बारे में इंटरनेट पर बहुत कम जानकारी मिलती है। सामान्य और अधूरी जानकारियों के बीच कुल मिला कर कश्मीर विश्वविद्यालय के एक इतिहासकार का मुकम्मल लेख उपलब्ध है। उसे पढ़ कर पता चलता है कि मार्तंड मंदिर को आक्रांता शासकों ने कई बार ध्वस्त करने की कोशिश की, मगर उसका मूल ढांचा नष्ट नहीं कर पाए। फिर कुछ राजाओं या उनकी रानियों ने उसका पुनरुद्धार कराया। इस तरह मंदिर का अस्तित्व बचा रहा। मगर अब भारत का यह सबसे पुराना सूर्य मंदिर उपेक्षित पड़ा है। न कश्मीर सरकार की तरफ इसका महत्व रेखांकित करने की कोशिश नजर आती है, न पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कोई प्रयास। राज्य सरकार की पर्यटक स्थलों या दर्शनीय स्थलों या दर्शनीय स्थलों की सूची में खैरबल नहीं है, अगर कहीं कोई उल्लेख मिलता भी है तो बहुत सामान्य तरीके से। वहां पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का पट्ट जरूर लगा है, पर इस विरासत के संरक्षण की जैसी कोशिश होनी चाहिए, वह नहीं दिखाई देती। मंदिर परिसर के करीब तक सेब के बाग हैं। बाहर की सड़क इस कदर संकुल है कि दो गाड़ियां मुश्किल से गुजर पाती है। मुख्य सड़क से वहां तक पहुंचने का रास्ता खासा टूटा-फूटा है। सामने का गांव सघन हो चला है, पर सार्वजनिक परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए भी सैलानियों को वहां तक पहुंचने में मुश्किल होती होगी। ऐतिहासिक स्थलों के प्रति सरकारों का आदरभाव इस बात से प्रकट होता है कि उन्हें संरक्षित और प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने क्या प्रयास किया है। मगर आधुनिक बाजारों, शॉपिंग मॉलों, रिहाइशी इलाकों वगैरह पर जोर देने और ऐसी विरासतों को खंडहर मान कर उन्हें अपने हाल पर बर्बाद होने के लिए छोड़ देने की जो प्रवृत्ति विकसित होती गई है, उसमें कश्मीर सरकार से भी बहुत उम्मीद क्या करना।

खैरबल अकेला ऐतिहासिक स्थल नहीं है, कश्मीर में अनेक ऐसे स्थान हैं, जो स्थानीय राजनीति और सरकार की उपेक्षा के शिकार हैं। अगर उन्हें संरक्षित करने और सैलानियों की उन तक पहुंच सुनिश्चित करने के प्रयास होते तो शायद कश्मीर की समावेशी संस्कृति की मुकम्मल पहचान सामने लाने और राजस्व के इजाफे में भी मदद मिलती।

ईमेल : suryansingh@gmail.com

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