बड़े भूकम्प में तबाह हो जाएगी अनियोजित बसी दिल्ली

नेपाल और उत्तर-पूर्व भारत में शनिवार को आए भूकम्प से लोग दहल गए हैं। नेपाल में जहाँ भूकम्प ने भारी तबाही मचाई है, वहीं दिल्ली के लिए राहत की बात यह रही कि यहाँ जान-माल का नुकसान नहीं हुआ। अगर इस भूकम्प का केन्द्र दिल्ली होता तो इसके नतीजे का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है।

दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बनाने का सपना दिखाने वाले अपना वादा पूरा कर पाए या नहीं। लेकिन लोगों की सुरक्षा के प्रति राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में दिल्ली आपदा के समय भयावह नतीजों वाला शहर साबित हो सकती है। चाँदनी चौक और सदर बाजार जैसे पुरानी दिल्ली के इलाके ही नहीं नई आबादी में भी तमाम मुहल्ले ऐसे हैं, जहाँ किसी आपदा की सूरत में पूरी बसावट मलबे में बदल सकती है। इन इलाकों में राहत कार्य पहुँचाना भी मुश्किल है। आधुनिक सुविधाओं से युक्त नई बनी या बन रही बहुमंजिली इमारतें भी भूकम्प के लिहाज से सुरक्षित नहीं हैं। सरकार भी उन पर ध्यान नहीं देती है। वहीं आपदा से निपटने के लिए बनाया गया प्राधिकरण भी मौजूदा सरकार की उपेक्षा और अदूरदर्शिता के कारण अपने मूल मकसद से भटक गया है। प्राधिकरण के आठ सदस्यों में से पाँच पद खाली पड़े हैं।

नेपाल और उत्तर-पूर्व भारत में शनिवार को आए भूकम्प से लोग दहल गए हैं। नेपाल में जहाँ भूकम्प ने भारी तबाही मचाई है, वहीं दिल्ली के लिए राहत की बात यह रही कि यहाँ जान-माल का नुकसान नहीं हुआ। अगर इस भूकम्प का केन्द्र दिल्ली होता तो इसके नतीजे का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है। भूगर्भ विज्ञानियों के हिसाब से दिल्ली भूकम्प के लिए सबसे अनुकूल जोन चार में आता है। यानी जहाँ रिक्टर स्केल सात या उससे अधिक का भूकम्प आने की आशंका है।

भूकम्प आने व इसकी तीव्रता नापने की आधुनिकतम मशीन भी महज दो मिनट पहले ही यह माप सकती है कि भूकम्प आने वाला है। यानी आपदा आने व बचाव के बीच मामूली सा फासला। इतनी देर में तो बचाव के लिए चेतावनी भी जारी नहीं की जा सकती।

बड़े भूकम्प में दिल्ली की 70 फीसद से अधिक आबादी मटियामेट हो सकती है। चाँदनी चौक, नई सड़क, सदर, दयाबस्ती, सब्जीमण्डी, शकूरबस्ती और तमाम इलाके ऐसे हैं जहाँ किसी प्राकृतिक आपदा में मरने वालों की तादात लाखों में हो सकती है। इन इलाकों की लगभग सभी इमारतें खस्ताहाल हैं, वह भी खतरनाक रूप से जर्जर हैं। इनमें से अधिकांश इमारतें सौ से दो सौ साल तक पुरानी हैं। इनमें से कई इमारतों को खाली करने का नोटिस मिलने के बाद भी उन्हें खाली नहीं किया गया है। लोग उसमें रह रहे हैं। वोट बैंक की राजनीति और सुविधा शुल्क से यह सब हो रहा है।

चाँदनी चौक जैसी पुरानी आबादी ही नहीं सीलमपुर, निजामुद्दीन, ओखला, समेत तमाम घनी आबादी वाली बस्तियों में आपदा भयावह नतीजे दे सकती है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के पूर्व सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल डॉक्टर जे.आर भारद्वाज ने बताया कि दिल्ली में करीब 70 फीसद आबादी अवैध बस्तियों में रहती है। जहाँ इमारतें बिना किसी कायदे-कानून के बनी हैं। यहाँ के लोग न तो इमारतों की डिजाइन इंजीनियरों से तैयार करवाते हैं और न ही इमारत बनाने में तय दूसरे मानकों का पालन किया जाता है। नियमों को धता बता कर इमारतों की मंजिलें खतरनाक स्तर तक बढ़ा ली जाती हैं। मकान खरीदते समय कोई सुरक्षा मानक नहीं देखता, खरीदार की नजर केवल कीमत पर ही रहती है।

कोई भी इमारत भूकम्परोधी होने के लिहाज से प्रमाणित नहीं है। कोई प्रामाणित नहीं करता। जबकि कानून में इसका प्रावधान है। सरकारी विभाग है जो इमारत की जाँच कर बता सकता है कि कोई मकान कितने स्तर तक भूकम्परोधी है। जो नए-नए निर्माण निजी बिल्डर कर रहे हैं, उनमें से किसी ने भी भूकम्परोधी होने का प्रमाणपत्र नहीं लिया है। लेकिन सरकार इन पर नियमन करने और नए प्रयास शुरू करने की बजाय पहले के प्रावधानों को भी खत्म करने में लगी हुई है।

राष्ट्रमण्डल खेलों के समय 2010 में माइक्रो जोनाइजेशन शुरू किया गया था, यानी दिल्ली के इलाकों का भूकम्प के लिहाज से आंकलन कर उसके मुताबिक निर्माण के नियम बनाने की कवायद की गई थी। केन्द्रीय शहरी विकास मन्त्रालय, भारतीय औद्योगिक प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी दिल्ली), आइआइटी रूड़की, डीडीए और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के विशेषज्ञों ने मिलकर इस पर काम किया था। भूकम्प के लिहाज से दिल्ली को सात जोनों में बाँटा गया था। यहाँ के मिट्टी के नमूनों की जाृँच की गई थी। इस दौरान यह भी परखा गया था कि इन इलाकों में किस स्तर तक भूकम्प आ सकता है। इन इलाकों के इमारत की क्षमता क्या है? इसमें पूर्वी दिल्ली के यमुना खादर का इलाका सबसे खतरनाक जोन पाया गया था। इसे देखते हुए इन इलाकों के लिहाज से इमारत बनाने और उसकी ऊँचाई को लेकर अलग-अलग मानक तय करने की सिफारिशें की गई थीं। नए बिल्डिंग बाइलाज का प्रारूप भी शहरी विकास मन्त्रालय को भी भेजा गया था। जिससे उसको गजट में अधिसूचित कर लागू किया जा सके। लेकिन उसके बाद क्या कार्रवाई हुई, उसका अता-पता नहीं है।

डॉक्टर भारद्वाज ने कहा कि चाँदनी चौक, सहित तमाम इलाके ऐसे हैं, जहाँ आपदा की सूरत में बचाव कार्य के लिए न तो एम्बुलेंस पहुँच सकती है और न दमकल की गाड़ियाँ। रिक्शे या पैदल कितने लोगों को और कितनी जल्दी राहत दी जा सकती है, इसका आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है। हालांकि प्राधिकरण ने राष्ट्रीय आपदा राहत बल जरूर तैयार किया है। इसमें सेना और अर्धसैनिक बलों के करीब दस हजार जवानों को आपदा राहत का प्रशिक्षण दिया गया है। उनके वहाँ पहुँचने के बाद भी राहत पहुँचाना आसान नहीं होगा।

पर्यावरणविद और यमुना पर काम कर रहे मनोज मिश्र का कहना है कि पूर्वी दिल्ली के अधिकांश इलाके यमुना के खादर में यानी वेटलैण्ड पर बसे हैं। ये भूकम्प के लिहाज से बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं। इसमें से लक्ष्मीनगर, गाँधीनगर, पांडवनगर, पटपड़गंज, गीता कालोनी सहित तमाम घनी आबादी वाले इलाके शामिल हैं। यहाँ किसी प्राकृतिक आपदा के समय भारी तबाही मच सकती है।

इसके अलावा मीठापुर, ओखला और नोएडा और ग्रेटर नोएडा के इलाके भी खतरनाक हैं। नोएडा और गाजियाबाद में खड़ा हो रहा कंक्रीट का जंगल भी आपदा की सूरत में कम भयावह नहीं होगा। लेकिन सरकारों को इसकी फिक्र नहीं है। वहाँ बेहिसाब ढंग से इमारतों की ऊँचाई और मंजिले बढ़ाने की होड़ लगी हुई है।

केन्द्र की नई सरकार मौजूदा व्यवस्था में भी कटौती पर आमादा है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण में कई साल से उपाध्यक्ष ही नहीं है। जहाँ पहले आठ सदस्य थे, वहाँ अब तीन बचे हैं। एक सचिव हैं, जो पूरे देश के लिए काम करने वाले प्राधिकरण को चलाते हैं। सरकार को यह सब देखना चाहिए। बचाव के लिहाज से सरकार अभी से चेत जाए तो भी काफी भला हो सकता है।

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