राजनैतिक दलों को तो इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वे इस बुनियादी बात पर चिंतन करें कि किस तरह बड़े बांध विकास के बजाए विनाश के प्रतीक बन रहे हैं। शहर के रहने वाले अधिकांश लोग या तो इन तथ्यों से अनभिज्ञ हैं या संवेदनहीन हो गए हैं। अधिकांश विशेषज्ञ अर्थशास्त्री या इंजीनियर सरकारी भाषा बोलते हैं, ब्यूरोक्रेट बहरे हो गए हैं, लेकिन आशा की किरण यह है कि कुछ फक्कड़ किस्म के युवक और युवतियां बुनियादी संघर्षों में लगे हुए हैं तथा उनके साथ कुछ अर्थशास्त्री, विशेषज्ञ वैज्ञानिक एवं पर्यावरण शास्त्री भी जुड़ते चले आ रहे हैं। मध्य प्रदेश की नर्मदा नदी पर बन रहे नर्मदा सागर, बिहार के कोयलकारो, उत्तराखंड के टिहरी, आंध्र के पोलावरम एवं केरल के पोयमलुट्टी बांधों के खिलाफ संघर्ष तेज हो चुका है। जिसमें देश के विभिन्न प्रांतों से आए 80 पर्यावरणशास्त्री, मैदानी कार्यकर्ता एवं पत्रकार शरीक हुए थे। आनंदवन जो कि बाबा आमटे की कर्मस्थली है, में हुई इस संगोष्ठी के प्रारंभिक भाषण में बाबा आमटे ने कहा कि कुछ रोगियों की सेवा करते हुए मैं 40 वर्षों तक एक सीमित क्षेत्र में बंद रहा तथा बाहर जाकर सेमीनार तक में शरीक नहीं हुआ। बाबा ने आगे कहा कि मेरे पिछले अनुभव इस बात के द्योतक है कि इस समय सारा देश ही मानसिक रूप से कोढ़ग्रस्त है तथा यह मानसिक कोढ़ शारीरिक कोढ़ से अधिक भयावह और जानलेवा है। बाबा पिछले दिनों जख्मी पंजाब के गांव-गांव में घूमे हैं, इसके पूर्व वे ‘भारत जोड़ों अभियान’ पर दक्षिण से उत्तर की यात्रा पर निकले थे और अब वे पूर्व से पश्चिम की यात्रा पर निकलने वाले हैं। आज और इसी क्षण बड़े बांधों के खिलाफ प्रबल संघर्ष खड़ा होना चाहिए। यह प्रतिपादित करते हुए बाबा आमटे ने कहा कि ‘प्राकृतिक संसाधन केवल पूर्वजों की धरोहर ही नहीं है वे भावी पीढ़ी का हम पर कर्ज है, जिसे ब्याज समेत हमें सुरक्षित रखना है।’
उपरोक्त संगोष्ठी ने एक प्रस्ताव के द्वारा बड़े बांधों के विरोध करने का सामूहिक संकल्प जाहिर किया तथा कहा कि ये बड़े बांध विकास नहीं, विनाश है, आदर्श नहीं, तबाही लाने वाले हैं। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि बड़े बांधों के विरोध में हो रही व्यापक आलोचनाओं को सरकार ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है, आदिवासियों की मांगों को कुचल दिया है और सरकारी जांच समितियों की रपटें आने के पूर्व ही बड़े बांधों को स्वीकृति प्रदान कर दी है-इनमें सरदार सरोवर, नर्मदा सागर और टिहरी बांध विशेष है। यह भी कहा गया है कि इन बांधों के निर्माण के फलस्वरूप दुर्लभ वनस्पतियां और जीव लुप्त हो जाएंगे। इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया गया है कि स्वीकृति के पूर्व ही सरकारी समितियां जंगल नष्ट करने लगती हैं जो कि फारेस्ट कन्जरवेशन एक्ट का सरासर उल्लंघन है।
प्रस्ताव कहता है कि इन बड़े बांधों ने जल-चक्र को गड़बड़ा दिया है, जिसके फलसवरूप ‘निमाड़ क्षेत्र’ में रह रहे हजारों किसान एवं मछुआरे बर्बाद हो गए हैं तथा लाखों एकड़ जमीन दलदल एवं खारीकरण के कारण बंजर हो गई है। इसके अलावा इन बांधों से भूकंप के खतरे तो बढ़े ही हैं, लेकिन कुछ बांधों की भौगोलिक (स्ट्रेटजिक) अवस्था के कारण देश की सुरक्षा को भारी खतरा पैदा हो गया है।
संगोष्ठी ने एक मत से यह जाहिर किया है कि उन सभी परियोजनाओं को, जिन पर अभी काम शुरू नहीं हुआ है रद्द कर दिया जाए तथा जिन परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया है उनकी लाभ-हानि का अनुपात तथा सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण एक स्वतंत्र संगठन द्वारा करवाया जाए, जिसमें लोगों के प्रतिनिधि रहे। इसके अलावा जो लोग विस्थापित हो चुके हैं, उन्हें पूरी सुविधाएं देकर बसाया जाए।
संगोष्ठी ने अपना प्रस्ताव सरकार या ऐसी किसी अन्य संस्था को नहीं, बल्कि राष्ट्र को ही समर्पित किया है। देश के प्रमुख लोगों ने तीन दिन तक चर्चा करने बाद एक सामूहिक संकल्प लिया था जिसके कुछ मुद्दे ऊपर उल्लेखित हैं। इस संकल्प के अलावा संगोष्ठी ने बड़े बांधों के खिलाफ प्रबल अभियान चलाने के लिए एक कार्यक्रम भी बनाया। आरंभ में उल्लिखित बांधों के विरुद्ध विशेषतः अभियान चलाया जाएगा। प्रचार-प्रसार के लिए मेलों का विशेष उपयोग किया जाएगा। उपरोक्त कल्प पत्र की प्रतियां विधायकों एवं संसद सदस्यों को भी भेजी जाएगी। छोटी-छोटी पुस्तिकाएं प्रकाशित की जाएंगी, सभा, जुलूस और धरने आयोजित किए जाएंगे तथा अंत में बड़ी संख्या में लोगों को अप्रैल के तीसरे सप्ताह में हेमलकसा में एकत्रित किया जाएगा। हेमलकसा भी बाबा आमटे की कर्मस्थली है जहां उनके द्वितीय पुत्र भी प्रकाश अपनी पत्नी के साथ काम कर रहे हैं। बाबा आमटे ने भी घोषणा की कि वे अपनी आगामी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान बांधों के दुष्परिणामों के संबंध में लोगों को जागृत करेंगे।
संगोष्ठी में भाग लेते हुए श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा कि जंगल लकड़ी की खदान नहीं, पानी और मिट्टी की खदान है तथा विकास का अर्थ बाहुलयता नहीं बल्कि सुखशांति है। पर्यावरण शास्त्री श्री अनिल अग्रवाल ने विभिन्न भौगोलिक भू-भागों की विभिन्न पारिस्थितिकीय स्थितियों का जिक्र करते हुए कहा कि विकास की वर्तमान पद्धतियां इन विभिन्नताओं को नष्ट कर नई समस्याएं खड़ी कर रही हैं। वैज्ञानिक श्री अनिल सद्गोपाल ने ‘जानने के अधिकार’ और काम पर विशिष्ट वर्गों के नियंत्रण की चर्चा की। गांधीवादी कमला चौधरी ने बांध के सवाल को राष्ट्रीय सवाल के साथ जोड़ने का सुझाव दिया जैसा कि आजादी की लड़ाई के समय चम्पारन में हुआ था।
बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे संघर्षों में कार्यरत मेधा पाटकर एवं रमेश बिल्लौरे ने क्रमशः सरकार सरोवर एवं नर्मदा सागर के विरोध में चल रही गतिविधियों का वर्णन किया। ‘जनचेतना समाज’ बिहार के श्री मेघनाथ, ‘पश्चिमी घाट आंदोलन’ के श्री मोहन कुमार एवं ‘वृक्षमित्र’ के श्री मोहन हीरालाल ने क्रमशः कोयलकारो, पोयमकुट्टी एवं इंचमपल्ली भोपालपट्टनम के खिलाफ चल रहे आंदोलन का जिक्र किया। थाणे की सिराज बलसारा एवं अहमदाबाद की बेला भाटिया ने अपने अनुभवों के आधार पर विस्थापितों की दर्दनाक हालत का जिक्र किया। नवनिर्माण समिति गुजरात के श्री रमेश देसाई ने भी उकाई बांधों के विरुद्ध संघर्ष का विवरण सुनाया।
उपरोक्त के अलावा जिन लोगों ने संगोष्ठी में भाग लिया उनमें इंडियन सोशल इंस्टीट्यू, दिल्ली के श्री वाल्टर फर्नाडिंस, इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के श्री एन. डी. जुयाल, लोकायन क श्री स्मितू कोठारी, वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के भी थॉमस मेथ्यु, विज्ञान शिक्षा केंद्र के श्री भारतेंदु प्रकाश, आदिमजाति, एवं जनजाति के कमिशनर श्री ब्रह्मदेव शर्मा, ‘एसोशिएशन ऑफ इन्वायरमेंटल जर्नलिज्म’ के श्री डिमोंटे, सेंचुरी पत्रिका के भी बिट्टू सहगल और नई दुनिया, इंदौर के श्री राहुल बारपुते प्रमुख हैं।
राजनैतिक दलों को तो इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वे इस बुनियादी बात पर चिंतन करें कि किस तरह बड़े बांध विकास के बजाए विनाश के प्रतीक बन रहे हैं। शहर के रहने वाले अधिकांश लोग या तो इन तथ्यों से अनभिज्ञ हैं या संवेदनहीन हो गए हैं। अधिकांश विशेषज्ञ अर्थशास्त्री या इंजीनियर सरकारी भाषा बोलते हैं, ब्यूरोक्रेट बहरे हो गए हैं, लेकिन आशा की किरण यह है कि कुछ फक्कड़ किस्म के युवक और युवतियां बुनियादी संघर्षों में लगे हुए हैं तथा उनके साथ कुछ अर्थशास्त्री, विशेषज्ञ वैज्ञानिक एवं पर्यावरण शास्त्री भी जुड़ते चले आ रहे हैं। यह भी उत्साहवर्धक है कि कुछ युवा पत्रकार इन मानवीय त्रासदियों में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं।
साभार - (सप्रेस)
उपरोक्त संगोष्ठी ने एक प्रस्ताव के द्वारा बड़े बांधों के विरोध करने का सामूहिक संकल्प जाहिर किया तथा कहा कि ये बड़े बांध विकास नहीं, विनाश है, आदर्श नहीं, तबाही लाने वाले हैं। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि बड़े बांधों के विरोध में हो रही व्यापक आलोचनाओं को सरकार ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है, आदिवासियों की मांगों को कुचल दिया है और सरकारी जांच समितियों की रपटें आने के पूर्व ही बड़े बांधों को स्वीकृति प्रदान कर दी है-इनमें सरदार सरोवर, नर्मदा सागर और टिहरी बांध विशेष है। यह भी कहा गया है कि इन बांधों के निर्माण के फलस्वरूप दुर्लभ वनस्पतियां और जीव लुप्त हो जाएंगे। इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया गया है कि स्वीकृति के पूर्व ही सरकारी समितियां जंगल नष्ट करने लगती हैं जो कि फारेस्ट कन्जरवेशन एक्ट का सरासर उल्लंघन है।
प्रस्ताव कहता है कि इन बड़े बांधों ने जल-चक्र को गड़बड़ा दिया है, जिसके फलसवरूप ‘निमाड़ क्षेत्र’ में रह रहे हजारों किसान एवं मछुआरे बर्बाद हो गए हैं तथा लाखों एकड़ जमीन दलदल एवं खारीकरण के कारण बंजर हो गई है। इसके अलावा इन बांधों से भूकंप के खतरे तो बढ़े ही हैं, लेकिन कुछ बांधों की भौगोलिक (स्ट्रेटजिक) अवस्था के कारण देश की सुरक्षा को भारी खतरा पैदा हो गया है।
संगोष्ठी ने एक मत से यह जाहिर किया है कि उन सभी परियोजनाओं को, जिन पर अभी काम शुरू नहीं हुआ है रद्द कर दिया जाए तथा जिन परियोजनाओं पर काम शुरू हो गया है उनकी लाभ-हानि का अनुपात तथा सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण एक स्वतंत्र संगठन द्वारा करवाया जाए, जिसमें लोगों के प्रतिनिधि रहे। इसके अलावा जो लोग विस्थापित हो चुके हैं, उन्हें पूरी सुविधाएं देकर बसाया जाए।
संगोष्ठी ने अपना प्रस्ताव सरकार या ऐसी किसी अन्य संस्था को नहीं, बल्कि राष्ट्र को ही समर्पित किया है। देश के प्रमुख लोगों ने तीन दिन तक चर्चा करने बाद एक सामूहिक संकल्प लिया था जिसके कुछ मुद्दे ऊपर उल्लेखित हैं। इस संकल्प के अलावा संगोष्ठी ने बड़े बांधों के खिलाफ प्रबल अभियान चलाने के लिए एक कार्यक्रम भी बनाया। आरंभ में उल्लिखित बांधों के विरुद्ध विशेषतः अभियान चलाया जाएगा। प्रचार-प्रसार के लिए मेलों का विशेष उपयोग किया जाएगा। उपरोक्त कल्प पत्र की प्रतियां विधायकों एवं संसद सदस्यों को भी भेजी जाएगी। छोटी-छोटी पुस्तिकाएं प्रकाशित की जाएंगी, सभा, जुलूस और धरने आयोजित किए जाएंगे तथा अंत में बड़ी संख्या में लोगों को अप्रैल के तीसरे सप्ताह में हेमलकसा में एकत्रित किया जाएगा। हेमलकसा भी बाबा आमटे की कर्मस्थली है जहां उनके द्वितीय पुत्र भी प्रकाश अपनी पत्नी के साथ काम कर रहे हैं। बाबा आमटे ने भी घोषणा की कि वे अपनी आगामी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान बांधों के दुष्परिणामों के संबंध में लोगों को जागृत करेंगे।
संगोष्ठी में भाग लेते हुए श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा कि जंगल लकड़ी की खदान नहीं, पानी और मिट्टी की खदान है तथा विकास का अर्थ बाहुलयता नहीं बल्कि सुखशांति है। पर्यावरण शास्त्री श्री अनिल अग्रवाल ने विभिन्न भौगोलिक भू-भागों की विभिन्न पारिस्थितिकीय स्थितियों का जिक्र करते हुए कहा कि विकास की वर्तमान पद्धतियां इन विभिन्नताओं को नष्ट कर नई समस्याएं खड़ी कर रही हैं। वैज्ञानिक श्री अनिल सद्गोपाल ने ‘जानने के अधिकार’ और काम पर विशिष्ट वर्गों के नियंत्रण की चर्चा की। गांधीवादी कमला चौधरी ने बांध के सवाल को राष्ट्रीय सवाल के साथ जोड़ने का सुझाव दिया जैसा कि आजादी की लड़ाई के समय चम्पारन में हुआ था।
बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे संघर्षों में कार्यरत मेधा पाटकर एवं रमेश बिल्लौरे ने क्रमशः सरकार सरोवर एवं नर्मदा सागर के विरोध में चल रही गतिविधियों का वर्णन किया। ‘जनचेतना समाज’ बिहार के श्री मेघनाथ, ‘पश्चिमी घाट आंदोलन’ के श्री मोहन कुमार एवं ‘वृक्षमित्र’ के श्री मोहन हीरालाल ने क्रमशः कोयलकारो, पोयमकुट्टी एवं इंचमपल्ली भोपालपट्टनम के खिलाफ चल रहे आंदोलन का जिक्र किया। थाणे की सिराज बलसारा एवं अहमदाबाद की बेला भाटिया ने अपने अनुभवों के आधार पर विस्थापितों की दर्दनाक हालत का जिक्र किया। नवनिर्माण समिति गुजरात के श्री रमेश देसाई ने भी उकाई बांधों के विरुद्ध संघर्ष का विवरण सुनाया।
उपरोक्त के अलावा जिन लोगों ने संगोष्ठी में भाग लिया उनमें इंडियन सोशल इंस्टीट्यू, दिल्ली के श्री वाल्टर फर्नाडिंस, इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज के श्री एन. डी. जुयाल, लोकायन क श्री स्मितू कोठारी, वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के भी थॉमस मेथ्यु, विज्ञान शिक्षा केंद्र के श्री भारतेंदु प्रकाश, आदिमजाति, एवं जनजाति के कमिशनर श्री ब्रह्मदेव शर्मा, ‘एसोशिएशन ऑफ इन्वायरमेंटल जर्नलिज्म’ के श्री डिमोंटे, सेंचुरी पत्रिका के भी बिट्टू सहगल और नई दुनिया, इंदौर के श्री राहुल बारपुते प्रमुख हैं।
राजनैतिक दलों को तो इतनी फुर्सत ही नहीं है कि वे इस बुनियादी बात पर चिंतन करें कि किस तरह बड़े बांध विकास के बजाए विनाश के प्रतीक बन रहे हैं। शहर के रहने वाले अधिकांश लोग या तो इन तथ्यों से अनभिज्ञ हैं या संवेदनहीन हो गए हैं। अधिकांश विशेषज्ञ अर्थशास्त्री या इंजीनियर सरकारी भाषा बोलते हैं, ब्यूरोक्रेट बहरे हो गए हैं, लेकिन आशा की किरण यह है कि कुछ फक्कड़ किस्म के युवक और युवतियां बुनियादी संघर्षों में लगे हुए हैं तथा उनके साथ कुछ अर्थशास्त्री, विशेषज्ञ वैज्ञानिक एवं पर्यावरण शास्त्री भी जुड़ते चले आ रहे हैं। यह भी उत्साहवर्धक है कि कुछ युवा पत्रकार इन मानवीय त्रासदियों में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं।
साभार - (सप्रेस)
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