बचेगी भाषा-संस्कृति

1993 में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ने आदिवासी भाषाओं में लिखे गए साहित्य को संगृहीत करने का बीड़ा उठाया। उस दरम्यान 48 आदिवासी भाषाओं में प्रकाशित लगभग 3,500 पुस्तकें संग्रह की गईं। इनमें जर्नल और समाचार पत्र को शामिल नहीं किया गया था। अगर इन जर्नलों और समाचार पत्रों को भी शामिल कर लिया जाए तो इसकी संख्या 4,000 को छुएगी। यह आंकड़ा 10 वर्ष पूर्व का है। इस आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसी 10,000 पुस्तकें होंगी, जो विभिन्न आदिवासी भाषाओं में लिखी गई हैं।

अगर अविभाजित बिहार में आदिवासी भाषाओं में लिखी गई किताबो की चर्चा करें तो यह ज्यादा दुखद नहीं है। खड़िया में 22, कुडुख में 36, मुण्डारी में 32, सन्थाली में 305 (इसमें झारखण्ड के अलावा पश्चिम बंगाल और उड़ीसा भी सम्मिलित हैं) और सादरी में चार पुस्तकें आज से 10 वर्ष पूर्व संग्रहालय में रखी जा चुकी थीं। हमारे बहुतेरे झारखण्डी आदिवासी राज्यों का सांस्कृतिक सीमांकन नहीं होने के कारण कई राज्यों में विभक्त हो गए हैं। ग्रेटर झारखण्ड की परिकल्पना में उड़ीसा के भी जिले शामिल हैं। वहाँ भी उनकी कोई अपनी मानक लिपि नहीं है, यह विडम्बना सभी जगह की है। फिर भी उड़ीसा की हो भाषा में ग्यारह, कोया भाषा में दो, कुईं कोंड भाषा में आठ, सादरी में दस और मिक्स्ड ट्राइबल लैंग्वेज उड़िया-आदिवासी में तिरानवे पुस्तकें लिखी गई हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र की भाषाओं, महाराष्ट्र में गोंडी भाषाओं, आंध्र प्रदेश में कोलम और वारली भाषाओं में किताबें लिखी गई हैं। इस तरह से अपनी मातृभाषा में साहित्य की रचना करना यह दर्शाता है कि कैसे हम एक औपनिवेशिक व्यवस्था में रहते हुए औपनिवेशिक भाषा का प्रयोग नहीं करने का सामर्थ्य दिखाते हैं। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अफ्रीकी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो को अफ्रीकी भाषा में पुस्तक लिखने और उसी भाषा में नाटक का मंचन करने के लिए बिना वारण्ट के गिरफ्तार कर मुकदमा चलाए बिना एक वर्ष तक जेल में ठूंसा गया। यह तो रही अपनी मातृभाषा में लिखने की एक छोटी कहानी।

हम अपनी भाषाओ में प्रकाशित किताबों की संख्या गिनाकर अधिक समय तक खुश नहीं रह सकते हैं। हम सभी जानते हैं आदिवासियों के अच्छे साहित्य अंग्रेजी में है और वे गैर आदिवासियों द्वारा लिखे गए हैं। यहाँ पर एक प्रश्न उठाने का साहस कर सकता हूँ कि क्या आदिवासी साहित्य का दर्जा उस साहित्य को देंगे, जो आदिवासी के बारे में गैर अदिवासी द्वारा लिखी गई हो। क्या यूरोपीय लेखकों अथवा विदेशी मिशनरियों द्वारा लिखे गए साहित्य को आदिवासी साहित्य कहेंगे? किसी गैर झारखण्डी द्वारा झारखण्ड के बारे में लिखी गई पुस्तक को झारखण्डी साहित्य मानेंगे? मैं अपनी मातृभाषा में नहीं लिखता हूँ, फिर भी मेरा मानना है कि नहीं, क्योंकि साम्राज्यवादी यूरोप और अमेरिका ने तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की भाषा विशेषकर आदिवासी भाषाओं में अपनी भाषा और संस्कृति का प्रभुत्व स्थापित किया है। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में बची-खुची हमारी मातृभाषा के भी विलुप्त होने की पूरी सम्भावना व्याप्त है। अगर हम अंग्रेजी और हिंदी से मोह छोड़ें तो इसे बचाया जा सकता है। हम अलग-अलग समय में, अलग-अलग देशों की जनता के संघर्षों और अत्यंत समृद्ध मानवीय तथा लोकतांत्रिक विरासत को अपना विषय बनाकर अपनी भाषा को समृद्ध क्यों नहीं बना पाते हैं? तो हमारी आदिवासी भाषा सन्थाली, मुगरी, हो, खड़िया, और कुडुख में मार्क्स, लेनिन, आइंस्टीन, अरस्तू, प्लेटो, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर आदि क्यों नहीं हैं? हम क्यों नहीं अपनी मातृभाषा में समाचार पत्रों में स्तंभ लिखें?

www.joharadivasi.com, www.tribalzone.net, www.kharia.org, www.vikasmaitri.org, www.wesanthals.tripod.org www.aceca.org आदि कुछ उल्लेखनीय साइट्स हैं, जिनमें आदिवासी अस्मिता को साइट्स पर अंकित करने की पहल की गई है। www.wesanthals.tripod.org ने आदिवासी भाषाओं को उसी की लिपि में लाने का काम किया है। kharia.org सम्भवत: झारखण्ड की पहली बहुभाषी इंटरनेट पहल है, जो खड़िया, हिंदी और अंग्रेजी तीनो भाषाओं में एक साथ उपलब्ध है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए तमाम बदलावों में भाषा एक प्रमुख औजार रही है। नई व्यापार प्रणाली एवं विभिन्न राष्ट्रों के बीच विकसित राजनीतिक-आर्थिक सम्बन्धों के कारण अंग्रेजी विश्व-भाषा बनी और वैश्वीकरण के नए माहौल में इसे सभी क्रियाओं में लागू किया जा रहा है। यह स्थिति दुनिया के आदिवासी एवं उनकी भाषाओं के लिए बहुत ही चिन्ताजनक है। अध्ययन बताते हैं कि 6,000 भाषाएं (90 फीसदी) इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। ऐसी परिस्थिति में हमें केन्या के महान उपन्यासकार न्गुगी वा थ्योंगों के भाषाई आन्दोलन का संस्मरण करना चाहिए।

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