बौने होकर हम बच जाएंगे

कुछ वैज्ञानिक समुद्र में लोहे का अंश बढ़ाने की बात करते हैं। उनका तर्क है कि इससे कार्बन सोखने वाले प्लैंकटन को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इससे समुद्र में मछलियों का जीना दूभर हो जाएगा। प्लैंकटन तैरने वाले सूक्ष्म जीव हैं और मछलियों व कुछ अन्य जीवों को इनसे भोजन मिलता है। पर्यावरण की दृष्टि से या आनुवंशिक तौर पर प्रकृति से छेड़छाड़ करने की कोशिशें अतीत में भी हुई थीं, जो विनाशकारी साबित हुईं।

पृथ्वी को बचाना है तो एक दिन हमें बौना होना पड़ेगा। यह अनोखा विचार आपको किसी सिरफिरे की बकवास लगेगा, लेकिन एक अमेरिकी प्रोफेसर ने बहुत ही गंभीरतापूर्वक यह विचार रखा है। उनका कहना है कि पर्यावरण पर बढ़ते दबाव या 'इकोलॉजिकल फुटप्रिंट' को कम करने के लिए मानव जाति को खुद को आनुवंशिक इंजीनियरिंग के जरिए छोटा करने जैसे चरम विकल्पों पर विचार करना चाहिए। उन्होंने मनुष्यों की मीट खाने की आदत छुड़ाने के लिए कुछ खास गोलियां या पिल्स बनाने का भी सुझाव दिया है। हमें पर्यावरण बचाने के लिए खनिज ईंधन पर निर्भरता कम करनी होगी और यात्रा के लिए कम ऊर्जा खर्च करने वाले साधन विकसित करने होंगे। जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए खुद मनुष्य को ही अपने तौर-तरीके बदलने ही पड़ेंगे। बहस सिर्फ यह है कि हम अपना आचरण सांस्कृतिक रूप से बदलेंगे या इसके लिए टेक्नोलॉजी की जरूरत पड़ेगी।

न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मैथ्यू लियाओ और उनके सहयोगियों ने 'एथिक्स, पॉलिसी एंड एन्वॉयरमेंट' पत्रिका के लिए तैयार किए गए अपने पेपर में कुछ ऐसे क्रांतिकारी उपाय सुझाए हैं, जिनके जरिए हम अपने भविष्य को बदल सकते हैं। प्रो. लियाओ का कहना है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए अभी तक सर्वमान्य अंतर्राष्ट्रीय समझौते नहीं हो पाए हैं। मसलन, क्योटो प्रोटोकाल से दुनिया में उत्सर्जन की दर में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। बिजली और पेट्रोल की मांग दुनिया में किसी भी सूरत में कम नहीं होगी। अत: जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमें उत्सर्जन में जैसी गिरावट चाहिए, वह सिर्फ कार्बन टैक्स जैसे कदमों से हासिल नहीं हो सकती। जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए इन दिनों अक्सर जियो-इंजीनियरिंग की बात भी कही जाती है, लेकिन यह एक जोखिम भरा सुझाव है।

सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि अभी तक इस टेक्नोलॉजी का परीक्षण नहीं हुआ है। कोई नहीं जानता कि विश्व स्तर पर इसे अपना लेने के नतीजे क्या निकल सकते हैं। एक चिंता यह भी है कि ये तकनीकें हमारी भावी पीढ़ियों के लिए किसी न किसी रूप में खतरा बन सकती हैं। उदाहरण के तौर पर सल्फेट एरोसोल से वायुमंडल की परावर्तकता (रिफ्लेक्टिविटी) में फेरबदल का सुझाव दिया जा रहा है। इससे सूरज की कुछ गर्मी को वापस अंतरिक्ष की ओर मोड़ा जा सकेगा। लेकिन ऐसा करते हुए हम ओजोन की परत को नष्ट करके अपने लिए एक नई मुसीबत खड़ी कर लेंगे। कुछ वैज्ञानिक समुद्र में लोहे का अंश बढ़ाने की बात करते हैं। उनका तर्क है कि इससे कार्बन सोखने वाले प्लैंकटन को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इससे समुद्र में मछलियों का जीना दूभर हो जाएगा। प्लैंकटन तैरने वाले सूक्ष्म जीव हैं और मछलियों व कुछ अन्य जीवों को इनसे भोजन मिलता है।

पर्यावरण की दृष्टि से या आनुवंशिक तौर पर प्रकृति से छेड़छाड़ करने की कोशिशें अतीत में भी हुई थीं, जो विनाशकारी साबित हुईं। किसी इलाके में नए जानवरों को छोड़ने से हमेशा जीव-जंतुओं की स्थानीय प्रजातियों पर असर पड़ता है। 18वीं शताब्दी में ऑस्ट्रेलिया में खरगोश लाए गए, जिन्होंने देश के बहुत बड़े इलाके से वनस्पति का सफाया कर दिया और कई खेतिहर इलाकों को बर्बाद कर दिया। इससे ऑस्ट्रेलिया का पर्यावरण चौपट हो गया और लाखों डॉलर का नुकसान हुआ। लियाओ का कहना है कि धरती पर मनुष्य के पर्यावरणीय प्रभावों का सीधा संबंध उसके आकार से है। बॉडी मास के प्रत्येक किलो को कुछ मात्रा में खाद्य पदार्थों और पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है। इस हिसाब से एक लंबे-चौड़े व्यक्ति को अपने पूरे जीवन काल में ज्यादा खाद्यान्न और ऊर्जा की जरूरत पड़ेगी। बात सिर्फ खाद्यान्न की ही नहीं है।

एक लंबा-चौड़ा व्यक्ति दूसरे मामलों में भी पृथ्वी पर भारी पड़ता है। मसलन, एक कार को किसी भारी भरकम व्यक्ति को ढोने के लिए प्रति किलोमीटर ज्यादा ईंधन खर्च करना पड़ता है। ज्यादा ऊंचे लोगों को ज्यादा कपड़ा चाहिए। ज्यादा भारी-भरकम लोगों के जूते और फर्नीचर जैसे सामान कम वजन वाले लोगों की तुलना में जल्दी खराब हो जाते हैं। लियाओ के मुताबिक यदि एक औसत अमेरिकी व्यक्ति की ऊंचाई सिर्फ 15 सेंटीमीटर घटा दी जाए तो पुरुषों के बॉडी मास में 21 प्रतिशत और महिलाओं में 25 प्रतिशत की कमी आ जाएगी। बॉडी मास कम होने से उनके मेटाबोलिज्म की दर में 15 से 18 प्रतिशत की कमी आएगी। यदि शरीर में टिशू कम होंगे तो ऊर्जा और पोषक तत्वों की खपत भी कम होगी। अत: हमें ऐसी भावी पीढ़ियों के बारे में गंभीरता के साथ सोचना चाहिए, जो धरती के संसाधनों पर भारी न पड़े। हमें छोटे कद के मनुष्यों के बारे में सोचना चाहिए। हमें आनुवंशिक इंजीनियरिंग या हारमोन थेरेपी की मदद लेनी चाहिए ताकि माता-पिता कम संसाधनों का इस्तेमाल करने वाली संतानों को जन्म दे सकें।

लियाओ का दूसरा आइडिया दुनिया में लोगों के आहार में मीट की भारी खपत कम करने के बारे में है। उनका कहना है कि पिल्स अथवा आनुवंशिक इंजीनियरिंग के जरिए लोगों में मीट के प्रति कुदरती चिढ़ पैदा की जा सकती है। इस मामले में कुछ ऐसा भी किया जा सकता है कि लोग मीट देखकर मुंह फेर लें। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 18 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मवेशी फार्मों से होता है। यह परिवहन से होने वाले उत्सर्जन से कहीं ज्यादा है। अभी हाल में आई एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों में मवेशी फार्मों का हिस्सा 51 प्रतिशत है। अनुमान है कि 9 प्रतिशत मानव उत्सर्जन मवेशियों के चरागाहों के लिए जंगल काटने से होता है। इसमें खाद या मवेशियों द्वारा खुद उत्पन्न किया जाने वाला उत्सर्जन शामिल नहीं है। चूंकि विश्व भर में ज्यादातर मवेशी फार्म मीट की मांग पूरी करने के हिसाब से ही विकसित किए जाते हैं, इसलिए यदि यह खपत कम हो जाए तो पर्यावरण पर बोझ काफी कम हो जाएगा। प्रो. लियाओ और उनके सहयोगियों की तकनीकें कई लोगों को बेतुकी लग सकती हैं, लेकिन उनके तर्क गौर करने लायक हैं।

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