छोटे-छोटे अंतराल वाली तेज बारिश की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण भारत में उपयोग के लायक पानी दुर्लभ होता जा रहा है.
अर्चिता भट्ट
अगर आप इस खबर को नजरअंदाज करने का फैसला कर रहे हैं तो आप गलती कर रहे हैं, क्योंकि अब यह सब एक खास तारतम्य में और बार-बार देश भर में हो रहा है. किसानों को इसकी वजह मालूम नहीं, न ही इसके कारण होने वाली फसलों की क्षति से उबरने के उपाय। वैज्ञानिकों और मौसम विशेषज्ञों को इसकी एक वजह मालूम है और वह है ग्लोबल वार्मिंग.
1997 में ऑस्ट्रेलिया निवासी कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑरगेनाइजेशन के वैज्ञानिक केजे हेनेसी ने गणितीय गणना और अनुभवजन्य साक्ष्य के उपयोग के आधार पर भविष्यवाणी की थी कि क्लाइमेट वार्मिंग की वजह से तेज बारिश और बाढ़ का खतरा बढ गया है. उनकी यह भविष्यवाणी भारत के लिए सच साबित हो रही है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्योरोलॉजी (IITM), पुणे के वैज्ञानिकों का कहना है कि अब एक दिन में 150 मिमी बारिश हो रही है, जो पिछले 50 सालों में 10 प्रतिशत की दर से बढ रही है. इस टीम के निष्कर्ष अमेरिकी पत्रिका साइंस में 1 दिसंबर, 2006 को प्रकाशित हुए हैं. द सेंटर फॉर मैथेमेटिकल मॉडलिंग एंड कंप्यूटर सिमुलेशन, बंगलुरू ने मार्च 2007 में अपनी रिपोर्ट में, दक्षिण गुजरात, उत्तर मध्य प्रदेश और दक्षिण उड़ीसा जैसे सूखे क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होने के उदाहरण का जिक्र किया है. ऐसा ही कुछ-कुछ उत्तर भारत के अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में भी हो रहा है.
क्या इस तरह की बारिश ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी हो सकती है ? एक अध्ययन में ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र के तापमान में वृद्धि और चरम वर्षा की घटनाओं में एक मजबूत सांख्यिकीय संबंध पाया गया है.
यह रिसर्च राष्ट्रीय वायुमंडलीय अनुसंधान प्रयोगशाला, तिरुपति के शोधकर्ताओं द्वारा एम राजीवन के नेतृत्व में किया गया है और इसकी रिपोर्ट भूभौतिकीय अनुसंधान पत्र जर्नल में 20 सितम्बर 2008 को प्रकाशित हुआ है.
सागर अपनी गर्मी को बारिश में बदल देता है . 26 जुलाई 2005 को मुंबई में 944 मिमी की अप्रत्याशित बारिश ने इस शोध के लिए राजीवन में जिज्ञासा जगाई. फिर उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर 1901 से 2004 के बीच के वर्षा के आकडों का विश्लेषण शुरू किया. उन्होंने भी पाया कि इसमें बढोत्तरी हो रही है. लेकिन राजीवन ग्लोबल वार्मिंग के साथ गहन वर्षा में वृद्धि को जोड़ने वाले ठोस प्रमाण की तलाश में थे. इसके लिए उन्होंने पिछले 104 वर्षों के समुद्र की सतह के तापमान पर नजर डाली. उन्होंने गौर किया कि समुद्र की सतह के तापमान और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में एक पैटर्न है.
राजीवन बताते हैं, 'ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि के प्रतिक्रियास्वरूप मौसम गर्म हो जाता है, समुद्र की सतह से वाष्पीकरण भी तीव्र गति से होने लगता है. यह वाष्प वातावरण में मौजूद रहता है और जब तापमान नीचे आता है तो गहन वर्षा के रूप में बरस जाता है, ' मेरीन ऑब्जर्वेशन के अंतर्राष्ट्रीय आकडों से भी उनके निष्कर्षों की पुष्टि हुई है, जिसके मुताबिक पिछले 50 वर्षों में समुद्री सतह से वाष्प उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
उनके अध्ययन के मुताबिक पिछले 50 सालों में चरम वर्षा की घटनाओं में प्रति दशक 14.5 प्रतिशत की दर से बढोत्तरी हो रही है.
प्यासा छोड जाता मानसून
हालांकि देश के कुछ हिस्सों में अत्यधिक वर्षा हो रही है, पर फसलों को लाभ देने वाली समग्र मध्यम वर्षा कम हो रही है. आईआईटीएम के वैज्ञानिक एन सिंह के अध्ययन के अनुसार देश के दो तिहाई इलाकों में मानसून वर्षा घट रही है. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में औसत वार्षिक वर्षा 1927 के 1500 मिमी के मुकाबले 2000 में महज 900 मिमी रह गई है. 12 मिमी से अधिक बारिश वाले दिनों की संख्या में भी पिछले 53 वर्षों में 78 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. यह खास तौर पर किसानों के लिए बुरी खबर है जो भारी मानसून पर निर्भर रहते हैं.
आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिक एस के दास कहते हैं कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि भूमि की ओर बढ़ रही मानसूनी हवाओं को रोकती है. मानसून तभी आकार लेता है जब तापमान में अंतर के कारण नमी से भरी हवा समुद्र से धरती की ओर चले. अब अगर गर्मियों में समुद्र के तापमान में वृद्धि हो रही है तो समुद्र और भूमि के बीच के तापमान का अंतर भी घट रहा है. जाहिर है कि इसका नकारात्मक असर मानसून पर पडता है. हालांकि भूमि और समुद्र की सतह के तापमान के बीच अंतर कम होने की बात को अभी तक साबित नहीं किया गया है और इसके लिए आगे के अध्ययन की आवश्यकता है.
हालांकि एक अन्य शोध के मुताबिक मानसून घटा है और मध्यम और गंभीर सूखे में पिछले दशक में वृद्धि हुई है. बाड़मेर, राजस्थान पिछली सदी में 20 गंभीर सूखे से प्रभावित हुआ, जिनमें से चार 1991 और 2000 के बीच पडे. चरम वर्षा और मानसून में कमी के कारण बारिश की भविष्यवाणी कठिन हो गई है.
प्रवाह पर निम्न,बाढ़ पर उच्च
बढ़ते तापमान का असर हिमालयी ग्लेशियरों पर देखा जा सकता है. धर्मशाला के शासकीय कॉलेज, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन औऱ हिमाचल प्रदेश रिमोट सेंसिंग सेल के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार 1962 से 2001 के बीच 466 बड़े ग्लेशियर 21 प्रतिशत और 127 छोटे ग्लेशियरों 38 प्रतिशत तक सिकुड़ चुके हैं. चिनाब, सतलज और ब्यास नदियों को जल उपलब्ध कराने वाले ग्लेशियर 2077 वर्ग किमी से सिकुड़ कर 1628 वर्ग किलोमीटर रह गए हैं. हिमनदों के आवरण में इस कमी ने नदियों के प्रवाह को प्रभावित किया है. कई हिमालयी नदियों मानसून सहित वर्ष भर में कम जलप्रवाह होता है. लेकिन अगर गहन वर्षा हो गई तो गांवों और शहरों में बार-बार उन मानसून की बाढ़ आ जाती है.
साबरमती, कावेरी और माही सहित देश की छह प्रमुख नदी घाटियों में अक्सर पानी काफी कम हो जाता है. ऐसा अनुमान है कि 2025 तक गंगा, ताप्ती और कृष्णा सहित पांच नदियों में पानी की किल्लत पड़ने लगेगी. नदियों में ताजे पानी की मात्रा और कम हो जाएगा.
किसानों के साथ विश्वासघात
तेज बारिश फसलों के लिए अच्छी खबर की तरह लगती है, मगर ऐसा नहीं है. क्योंकि मिट्टी में इस पानी को रोकने की क्षमता नहीं है लिहाजा अधिकांश पानी बह जाता है. आईआईटीएम के वैज्ञानिक नित्यानंद सिंह बताते हैं 'यह बारिश न तो भूजल में वृद्धि करता है और न ही जमीन की नमी में. यह कृषि में मदद नहीं करता है, बल्कि फसलों को नष्ट कर देता है. ' उनके मुताबिक मानसून की लंबी अवधि ही फसलों के लिए फायदेमंद है.
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