होशंगाबाद जिले की दुधी, मछवासा, ओल, कोरनी आदि सभी नदियां सतपुड़ा से निकली हैं। नाम भी बहुत अच्छे हैं। दुधी यानी दूध जैसा साफ पानी। इसे स्थानीय भाषा में दूधिया पानी कहते हैं। नरसिंहपुर जिले में शक्कर नदी है यानी शक्कर की तरह मीठा पानी। लेकिन अब ये सदानीरा नदियां बरसाती नाले में बदल गई हैं। बरसात में ही प्रकट होती है बाकी समय ग़ायब हो जाती हैं। दुधी कभी बारहमासी नदी थी। साल भर पानी रहता था। अब मार्च अप्रैल तक आते-आते दम तोड़ देती है। मध्य प्रदेश में हाल ही हुई तेज बारिश ने बाढ़ की स्थिति को विकराल बना दिया। नर्मदा पर बने बरगी बांध, तवा नदी पर बने तवा बांध व बारना नदी पर बने बारना बांध के गेट खोलने से कई गांव जलमग्न हो गए। कुछ जान-माल की हानि भी हुई। निचली बस्तियों के लोगों को अपने घरों से हटाकर राहत शिविरों में रखा गया। हरे-भरे खेत पानी में डूब गए। नेताओं ने हवाई दौरा कर बाढ़ क्षेत्रों का जायजा लिया। होशंगाबाद जिले में पिछले दिनों से हो लगातार बारिश से नदी-नालों का जलस्तर बढ़ गया। नर्मदा खतरे के निशान से ऊपर थी। पलकमती, मछवासा, दुधी, ओल आदि नदियां पूरे उफान पर रहीं। नरसिंहपुर की शक्कर, सींगरी, बारू रेवा, शेढ़ आदि में भी बाढ़ आ गई। इसी प्रकार हरदा जिले में गंजाल और कालीमाचक और अजनाल समेत 9 नदियां हैं। ये नदियां नर्मदा में आकर मिलती हैं। हरदा जिले में 21 से 24 अगस्त के बीच बाढ़ की स्थिति गंभीर हो गई। हरदा के ऊपर बरगी, तवा और बारना बांध हैं, इन तीनों के गेट खोल दिए और नीचे इंदिरा सागर बांध है। इंदिरा सागर के बैकवाटर व ऊपर के तीनों बांधों के पानी से बाढ़ आ गई और कई गांव पानी में जलमग्न हो गए।
इस भयानक बाढ़ से हरदा, खिड़किया और टिमरनी विकासखंड के कई गांव प्रभावित हुए। कई लोग राहत शिविरों में रहे। सैकड़ों एकड़ की फसल बर्बाद हो गई। इस बीच खबर है इंदिरा सागर और सरदार सरोवर बांध के आसपास के कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। अक्सर जब आखिर बाढ़ आती है तब हम जागते हैं। इसे प्राकृतिक आपदा मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। लेकिन क्या यह बाढ़ इसी साल आई है? यह तो प्रायः हर साल आती है। लेकिन जब बाढ़ आती है तभी हम जागते हैं। अखबार- टीवी चैनल बाढ़ग्रस्त इलाकों में पहुंच जाते हैं और सीधे लाइव खबरें दिखाते हैं। उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ में हद ही हो गई जब एक टीवी पत्रकार एक बाढ़ पीड़ित के कंधे पर बैठकर शॉट ले रहा था। इस इलाके की ज्यादातर नदियां दक्षिण से सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं और नर्मदा में आकर मिलती हैं। सतपुड़ा यानी सात पुड़ा। सतपुड़ा की घाटी अमरकंटक से शुरू होकर पश्चिमी घाट तक जाती है। इससे कई नदियां निकलती हैं जिनके नाम मोहते तो हैं और वे उनकी महिमा बखान भी करते हैं।
होशंगाबाद जिले की दुधी, मछवासा, ओल, कोरनी आदि सभी नदियां सतपुड़ा से निकली हैं। नाम भी बहुत अच्छे हैं। दुधी यानी दूध जैसा साफ पानी। इसे स्थानीय भाषा में दूधिया पानी कहते हैं। नरसिंहपुर जिले में शक्कर नदी है यानी शक्कर की तरह मीठा पानी। लेकिन अब ये सदानीरा नदियां बरसाती नाले में बदल गई हैं। बरसात में ही प्रकट होती है बाकी समय ग़ायब हो जाती हैं। दुधी कभी बारहमासी नदी थी। साल भर पानी रहता था। अब मार्च अप्रैल तक आते-आते दम तोड़ देती है। यही हाल पिपरिया कस्बे की मछवासा व सोहागपुर की पलकमती का भी है। सतपुड़ा और विन्ध्यांचल के बीच से बहती है नर्मदा। दक्षिण में सतपुड़ा है और उत्तर में नर्मदा। सतपुड़ा पहाड़ है यानी ऊंचा, वहां से नदियां सर्पाकार बहती हुई नर्मदा में आकर मिलती हैं। लेकिन ये नदियां तो पहले से हैं, बाढ़ भी पहले से आती है, फिर अब क्यों बाढ़ की समस्या बढ़ रही है।बाढ़ के कई कारण हैं। अधिक वर्षा तो है, बांध भी बड़ा कारण है। जिन बांधों का एक फायदा कभी बाढ़ नियंत्रण गिनाया जाता था, अब वही बांध बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। नर्मदा पर कई बांध बन गए हैं। नर्मदा पर बने बरगी बांध , इंदिरा सागर बांध और महेश्वर बांध के पानी छोड़ने और उसके बैक वाटर के कारण नर्मदा में मिलने वाली नदियों का पानी आगे न जाने के कारण पानी गाँवों में या खेतों में घुस जाता है, जो परेशानी का सबब बन जाता है।
कुछ साल पहले ओडिशा में आई बाढ़ ने भयानक तबाही मचाई थी। वह बाढ़ भी हीराकुंड बांध से छोड़े गए पानी को बताया गया था। देश में ऐसे कई छोटे-छोटे बांध हैं, जिनसे समय-असमय पानी छोड़ा जाता है, जिसके चलते उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बांध के निचले भागों की फसल नष्ट हो जाती है और लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। यानी जो बांध कभी बाढ़ नियंत्रण के उपाय बताकर बनाए गए थे, वही अब बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। पहले भी बाढ़ आती थी और उससे नुकसान होता था लेकिन बांधों के कारण ज्यादा नुकसान हो रहा है। लेकिन उन बाढ़ों में पानी का वेग भी कम होता था और नुकसान भी अपेक्षाकृत कम होता था। क्योंकि उनमें नदियों में बारिश का पानी ही आता था, जिसका वेग बांध से छोड़े गए पानी की अपेक्षा कम ही होता होगा।इसके अलावा, सर्पाकार सरपट भागने वाली नदियों की रेत धड़ल्ले से उठाई जा रही है, जो पानी के बहाव को नियंत्रित करती है। रेत पानी को सोखकर अपने में जज्ब करके रखती है, वह स्पंज की तरह है। वह भूगर्भ के जलस्तर को भी शुद्ध करने का काम करती है। वैसे तो नदियां अपना मार्ग बदलती रहती हैं लेकिन रेत खनन के कारण भी नदियां मार्ग बदल देती हैं, वे वापस नहीं लौटती। या जिन नालों व नदियों के बीच में निर्माण कार्य हो जाते हैं, तब भी बाढ़ की स्थिति विकट हो जाती है।
इसके अलावा, नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को अवरूद्ध करने, उनके किनारों पर अतिक्रमण करने और जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी बाढ़ की स्थिति पैदा करती हैं। कुछ बरस पहले मुंबई में बाढ़ का प्रमुख कारण वहां की मीठी नदी के रास्ते को बदलना और उसके बीचोंबीच व्यावसायिक परिसर का निर्माण करना था। नदियों के किनारे पहले बहुत पेड़ पौधे व हरी घास हुआ करती थी। तटों के आसपास की पड़ती ज़मीन पर झाड़ियां होती थीं। जैसे दुधी नदी के किनारे कुहा अर्जुन व गूलर के पेड़ थे और कई तरह की झाड़ियां थीं। उनसे बाढ़ तो नहीं रूकती थी, लेकिन पानी का वेग कम हो जाता था। अब दुधी में बाढ़ आती है तो उसका पानी नदी किनारे के गाँवों में घुस जाता है। जबकि वही दुधी गर्मी के दिनों में सूख जाती है। इसके अलावा, पहले नदियों की बाढ़ के साथ जो कपासीय मिट्टी आती थी, वो हमारे खेतों को उपजाऊ बनाती थी, लेकिन अब हमें रासायनिक खादों के कारण उसकी जरूरत रही नहीं। अब बाढ़ कहर ढाती है। इसका बड़ा कारण हमने छोटे-छोटे नदी-नालों के बहाव को रोक दिया है। इसलिए थोड़ी भी बारिश होती है तो शहरों में पानी भर जाता है। बाढ़ के लिहाज से सबसे आशंका वाले उत्तर बिहार की कई नदियां, जो ज्यादातर हिमालय से निकलती हैं, के पानी के सहेजने के परंपरागत ढांचे यानी तालाब, बंधान, कुएं, बाबड़ी सब खत्म हो गए हैं, इसलिए वहां बाढ़ का कई गुना खतरा बढ़ गया है। इसी प्रकार सतपुड़ा से निकलने वाली नदियों में बाढ़ का कारण यही माना जा सकता है। यहां भी हर गांव में तालाब थे, अब दिखाई नहीं देते।
मंथन अध्ययन केंद्र से जुड़े रहमत कहते हैं कि बाढ़ का एक कारण और है और वह कैचमेंट एरिया का प्रवाह इंडेक्स कम होना। यानी जो घना जंगल था, वो कम हो गया। जंगल ही बारिश के पानी के प्रवाह को कम रखते थे या रोकते थे। अब जंगल कम हो गया इसलिए सीधे बिना रूके सरपट पानी खेतों व गाँवों में चला आता है। इसके अलावा, रासायनिक खेती भी एक कारण है। यह खेती मिट्टी की जलधारण क्षमता को कम कर देती है। उसमें पानी पीने या जज्ब करने की क्षमता कम हो जाती है। पहले सूखा और बाढ़ की स्थिति कभी-कभार ही उत्पन्न हुआ करती थी। अब यह समस्या लगभग नियमित और स्थाई हो गई है। हर साल सूखा और बाढ़ का कहर हमें झेलना पड़ रहा है। सूखा यानी पानी की कमी। अगर पानी नहीं है तो किसानों को भयानक सूखा का सामना करना पड़ता है। इस संकट को भी किसानों को लगभग सहना पड़ता है। दूसरी ओर बाढ़ से भी भयंकर स्थितियों का सामना करना पड़ता है। सिर्फ बाढ़ ही नहीं, सूखे की स्थिति भी मानव निर्मित है। लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। ये जंगल ही पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वे ही नहीं रहेंगे तो पानी कम होगा ही।
सूखे की वजह से गांवों से शहरों की ओर लोग भागते हैं पर बाढ़ में तो भागने का मौका भी नहीं मिलता। हर साल बाढ़ से लोग मरते हैं। उनकी फसलें जलमग्न हो जाती हैं। कई गाँवों से संपर्क टूट जाता है। प्रशासन फौरी तौर पर राहत वगैरह की घोषणा करता है, कहीं कुछ देता भी है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बाढ़ पीड़ितों को राहत पैकेज देने जैसे फौरी उपायों के अलावा इसे रोकने के स्थाई उपायों की ओर बढ़ना चाहिए जिससे ऐसा ढांचा विकसित हो जिसमें बाढ़ की विभीषिका को कम किया जा सके। पहले भी बाढ़ आती रही है, पर समाज से इससे अपनी बुद्धि और कौशल से निपटता रहा है। लेकिन हमने उन तरीकों को भुला दिया है। परंपरागत ढांचों को खत्म कर दिया। इसलिए हमें नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाना चाहिए और नए पेड़ लगाना चाहिए। क्योंकि यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए, क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। इसके अलावा, हमें बाढ़ से निपटने के लिए पहले से तैयारी करनी चाहिए। नदियों के किनारे रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाना, उन्हें बुनियादी सुविधाएँ मुहैया करना भी जरूरी है। नावें, तैराक व राहत शिविरों की व्यवस्था होना चाहिए। अगर हम इन सभी पहलुओं पर विचार करेंगे तभी बाढ़ को नियंत्रित कर पाएंगे।
इस भयानक बाढ़ से हरदा, खिड़किया और टिमरनी विकासखंड के कई गांव प्रभावित हुए। कई लोग राहत शिविरों में रहे। सैकड़ों एकड़ की फसल बर्बाद हो गई। इस बीच खबर है इंदिरा सागर और सरदार सरोवर बांध के आसपास के कई गांव बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। अक्सर जब आखिर बाढ़ आती है तब हम जागते हैं। इसे प्राकृतिक आपदा मानकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। लेकिन क्या यह बाढ़ इसी साल आई है? यह तो प्रायः हर साल आती है। लेकिन जब बाढ़ आती है तभी हम जागते हैं। अखबार- टीवी चैनल बाढ़ग्रस्त इलाकों में पहुंच जाते हैं और सीधे लाइव खबरें दिखाते हैं। उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़ में हद ही हो गई जब एक टीवी पत्रकार एक बाढ़ पीड़ित के कंधे पर बैठकर शॉट ले रहा था। इस इलाके की ज्यादातर नदियां दक्षिण से सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं और नर्मदा में आकर मिलती हैं। सतपुड़ा यानी सात पुड़ा। सतपुड़ा की घाटी अमरकंटक से शुरू होकर पश्चिमी घाट तक जाती है। इससे कई नदियां निकलती हैं जिनके नाम मोहते तो हैं और वे उनकी महिमा बखान भी करते हैं।
होशंगाबाद जिले की दुधी, मछवासा, ओल, कोरनी आदि सभी नदियां सतपुड़ा से निकली हैं। नाम भी बहुत अच्छे हैं। दुधी यानी दूध जैसा साफ पानी। इसे स्थानीय भाषा में दूधिया पानी कहते हैं। नरसिंहपुर जिले में शक्कर नदी है यानी शक्कर की तरह मीठा पानी। लेकिन अब ये सदानीरा नदियां बरसाती नाले में बदल गई हैं। बरसात में ही प्रकट होती है बाकी समय ग़ायब हो जाती हैं। दुधी कभी बारहमासी नदी थी। साल भर पानी रहता था। अब मार्च अप्रैल तक आते-आते दम तोड़ देती है। यही हाल पिपरिया कस्बे की मछवासा व सोहागपुर की पलकमती का भी है। सतपुड़ा और विन्ध्यांचल के बीच से बहती है नर्मदा। दक्षिण में सतपुड़ा है और उत्तर में नर्मदा। सतपुड़ा पहाड़ है यानी ऊंचा, वहां से नदियां सर्पाकार बहती हुई नर्मदा में आकर मिलती हैं। लेकिन ये नदियां तो पहले से हैं, बाढ़ भी पहले से आती है, फिर अब क्यों बाढ़ की समस्या बढ़ रही है।बाढ़ के कई कारण हैं। अधिक वर्षा तो है, बांध भी बड़ा कारण है। जिन बांधों का एक फायदा कभी बाढ़ नियंत्रण गिनाया जाता था, अब वही बांध बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। नर्मदा पर कई बांध बन गए हैं। नर्मदा पर बने बरगी बांध , इंदिरा सागर बांध और महेश्वर बांध के पानी छोड़ने और उसके बैक वाटर के कारण नर्मदा में मिलने वाली नदियों का पानी आगे न जाने के कारण पानी गाँवों में या खेतों में घुस जाता है, जो परेशानी का सबब बन जाता है।
कुछ साल पहले ओडिशा में आई बाढ़ ने भयानक तबाही मचाई थी। वह बाढ़ भी हीराकुंड बांध से छोड़े गए पानी को बताया गया था। देश में ऐसे कई छोटे-छोटे बांध हैं, जिनसे समय-असमय पानी छोड़ा जाता है, जिसके चलते उन इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बांध के निचले भागों की फसल नष्ट हो जाती है और लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। यानी जो बांध कभी बाढ़ नियंत्रण के उपाय बताकर बनाए गए थे, वही अब बाढ़ के कारण बनते जा रहे हैं। पहले भी बाढ़ आती थी और उससे नुकसान होता था लेकिन बांधों के कारण ज्यादा नुकसान हो रहा है। लेकिन उन बाढ़ों में पानी का वेग भी कम होता था और नुकसान भी अपेक्षाकृत कम होता था। क्योंकि उनमें नदियों में बारिश का पानी ही आता था, जिसका वेग बांध से छोड़े गए पानी की अपेक्षा कम ही होता होगा।इसके अलावा, सर्पाकार सरपट भागने वाली नदियों की रेत धड़ल्ले से उठाई जा रही है, जो पानी के बहाव को नियंत्रित करती है। रेत पानी को सोखकर अपने में जज्ब करके रखती है, वह स्पंज की तरह है। वह भूगर्भ के जलस्तर को भी शुद्ध करने का काम करती है। वैसे तो नदियां अपना मार्ग बदलती रहती हैं लेकिन रेत खनन के कारण भी नदियां मार्ग बदल देती हैं, वे वापस नहीं लौटती। या जिन नालों व नदियों के बीच में निर्माण कार्य हो जाते हैं, तब भी बाढ़ की स्थिति विकट हो जाती है।
इसके अलावा, नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को अवरूद्ध करने, उनके किनारों पर अतिक्रमण करने और जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी बाढ़ की स्थिति पैदा करती हैं। कुछ बरस पहले मुंबई में बाढ़ का प्रमुख कारण वहां की मीठी नदी के रास्ते को बदलना और उसके बीचोंबीच व्यावसायिक परिसर का निर्माण करना था। नदियों के किनारे पहले बहुत पेड़ पौधे व हरी घास हुआ करती थी। तटों के आसपास की पड़ती ज़मीन पर झाड़ियां होती थीं। जैसे दुधी नदी के किनारे कुहा अर्जुन व गूलर के पेड़ थे और कई तरह की झाड़ियां थीं। उनसे बाढ़ तो नहीं रूकती थी, लेकिन पानी का वेग कम हो जाता था। अब दुधी में बाढ़ आती है तो उसका पानी नदी किनारे के गाँवों में घुस जाता है। जबकि वही दुधी गर्मी के दिनों में सूख जाती है। इसके अलावा, पहले नदियों की बाढ़ के साथ जो कपासीय मिट्टी आती थी, वो हमारे खेतों को उपजाऊ बनाती थी, लेकिन अब हमें रासायनिक खादों के कारण उसकी जरूरत रही नहीं। अब बाढ़ कहर ढाती है। इसका बड़ा कारण हमने छोटे-छोटे नदी-नालों के बहाव को रोक दिया है। इसलिए थोड़ी भी बारिश होती है तो शहरों में पानी भर जाता है। बाढ़ के लिहाज से सबसे आशंका वाले उत्तर बिहार की कई नदियां, जो ज्यादातर हिमालय से निकलती हैं, के पानी के सहेजने के परंपरागत ढांचे यानी तालाब, बंधान, कुएं, बाबड़ी सब खत्म हो गए हैं, इसलिए वहां बाढ़ का कई गुना खतरा बढ़ गया है। इसी प्रकार सतपुड़ा से निकलने वाली नदियों में बाढ़ का कारण यही माना जा सकता है। यहां भी हर गांव में तालाब थे, अब दिखाई नहीं देते।
मंथन अध्ययन केंद्र से जुड़े रहमत कहते हैं कि बाढ़ का एक कारण और है और वह कैचमेंट एरिया का प्रवाह इंडेक्स कम होना। यानी जो घना जंगल था, वो कम हो गया। जंगल ही बारिश के पानी के प्रवाह को कम रखते थे या रोकते थे। अब जंगल कम हो गया इसलिए सीधे बिना रूके सरपट पानी खेतों व गाँवों में चला आता है। इसके अलावा, रासायनिक खेती भी एक कारण है। यह खेती मिट्टी की जलधारण क्षमता को कम कर देती है। उसमें पानी पीने या जज्ब करने की क्षमता कम हो जाती है। पहले सूखा और बाढ़ की स्थिति कभी-कभार ही उत्पन्न हुआ करती थी। अब यह समस्या लगभग नियमित और स्थाई हो गई है। हर साल सूखा और बाढ़ का कहर हमें झेलना पड़ रहा है। सूखा यानी पानी की कमी। अगर पानी नहीं है तो किसानों को भयानक सूखा का सामना करना पड़ता है। इस संकट को भी किसानों को लगभग सहना पड़ता है। दूसरी ओर बाढ़ से भी भयंकर स्थितियों का सामना करना पड़ता है। सिर्फ बाढ़ ही नहीं, सूखे की स्थिति भी मानव निर्मित है। लगातार जंगल काटे जा रहे हैं। ये जंगल ही पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। वे ही नहीं रहेंगे तो पानी कम होगा ही।
सूखे की वजह से गांवों से शहरों की ओर लोग भागते हैं पर बाढ़ में तो भागने का मौका भी नहीं मिलता। हर साल बाढ़ से लोग मरते हैं। उनकी फसलें जलमग्न हो जाती हैं। कई गाँवों से संपर्क टूट जाता है। प्रशासन फौरी तौर पर राहत वगैरह की घोषणा करता है, कहीं कुछ देता भी है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बाढ़ पीड़ितों को राहत पैकेज देने जैसे फौरी उपायों के अलावा इसे रोकने के स्थाई उपायों की ओर बढ़ना चाहिए जिससे ऐसा ढांचा विकसित हो जिसमें बाढ़ की विभीषिका को कम किया जा सके। पहले भी बाढ़ आती रही है, पर समाज से इससे अपनी बुद्धि और कौशल से निपटता रहा है। लेकिन हमने उन तरीकों को भुला दिया है। परंपरागत ढांचों को खत्म कर दिया। इसलिए हमें नदियों के जल-भराव, भंडारण और पानी को रोकने और सहेजने के परंपरागत ढांचों को फिर से खड़ा करना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाना चाहिए और नए पेड़ लगाना चाहिए। क्योंकि यही पेड़ पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण वाली जैविक खेती की ओर बढ़ना चाहिए, क्योंकि रासायनिक खेती से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। इसके अलावा, हमें बाढ़ से निपटने के लिए पहले से तैयारी करनी चाहिए। नदियों के किनारे रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाना, उन्हें बुनियादी सुविधाएँ मुहैया करना भी जरूरी है। नावें, तैराक व राहत शिविरों की व्यवस्था होना चाहिए। अगर हम इन सभी पहलुओं पर विचार करेंगे तभी बाढ़ को नियंत्रित कर पाएंगे।
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