बांधों की निगरानी

मंत्रालय ने ये भी नहीं देखा कि टिहरी बांध परियोजना के नीचे गंगा का क्या हाल है? नीचे भागीरथी गंगा को मक डालने का क्षेत्र बनाया हुआ है। पहले से ही सूखती-भरती गंगा की स्थिति और पारिस्थितिकी बर्बाद हुई। उर्जा मंत्रालय ने भी कभी पलट कर नहीं देखा। अलकनंदा गंगा पर विष्णुप्रयाग जविप राज्य का पहला निजी बांध है। इसकी सुरंग के कारण से धसके चाई गांव के लोगो में न तो सबको ज़मीन मिली न समुचित मुआवजा कि वे अपना मकान बना सके। सरकार ने रुड़की यूनिवर्सिटी से इस बात की जांच करवाई की उनके मकान परियोजना के कारण धंसे या प्राकृतिक आपदा की वजह से। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के कई विभाग हैं जिसमें आई. ए. डिविजन यानि प्रभाव आकलन, बड़ा ही प्रमुख विभाग है। उसका काम है कि विभिन्न परियोजनाओं के पर्यावरणीय असरों की निगरानी करना। किसी भी परियोजना को पहले मंत्रालय से पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति लेनी पड़ती है। दोनों ही वास्तव में मज़ाक जैसे हो गये है क्योंकि ये पत्र जारी करने के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने कभी अपनी दी गई इन स्वीकृतियों के पालन का कोई संज्ञान नही लिया। पर्यावरण मंत्रालय के लखनऊ स्थित क्षेत्रीय कार्यालय में सिर्फ चार-पांच कर्मचारी हैं। जिन पर हजारों परियोजनाएं देखने की ज़िम्मेदारी है। समझा जा सकता है कि वे कितनी निगरानी कर पाते होंगे। लोहारीनाग पाला जविप भागीरथीगंगा पर आज की तारीख में बंद है। माटू जनसंगठन की जांच से मालूम पड़ा जिस समय सुरंग से मक निकाली जाती थी तो उसे पहाड़ पर जहां-तहां और गंगा में भी सीधे भी फेंका गया। इसके चित्र लेखक के पास मौजूद है। वहां पर काम कर रही पटेल कंपनी पर बहुत बड़ा प्रश्न भी आया उसकी जांच की भी बात आई। मक को सड़क के किनारे डाला गया जिससे रास्ता कम हुआ और मई 2008 में कम रास्ते के कारण बस गंगा में गिरी। इस बड़ी दुर्घटना के कारण 45 लोग मारे गए। इस पर कोई जांच नहीं हुई। सब ठंडे बस्ते में है। ये सब अपने में खतरनाक परिस्थिति है। मंत्रालय ने ये भी नहीं देखा कि जिस गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया उस गंगा में विस्फोटकों से भरी जो मक फेंकी गई उससे जलीय जीव-जंतुओं पर क्या असर हुआ।

भागीरथीगंगा पर ही कार्यरत मनेरीभाली जलविद्युत परियोजना (जविप) चरण-एक से 2006 में पानी को रेगूलेट करने वाली मशीन अचानक से खुल गई उसकी वजह से हजारों क्यूसेक पानी बाहर निकला और नीचे नदी किनारे नहा रहे 4 लोग बह गये। जांच से मालूम पड़ा कि पन्द्रह साल से इस मशीन को देखने के लिए नीचे कोई उतरा ही नहीं था। मनेरीभाली चरण-दो में भी यही हुआ। 2007 में 13 नवंबर को टेस्ट करने के लिये पानी छोड़ा गया। नीचे क्योंकि सूखी नदी का तल सूखा था। दो युवा लोहा बीनने के लिए गए थे। वे बह गए। एक को किसी तरह बचा लिया गया और एक मारा गया। देवप्रयाग में टिहरी बांध में से आने वाली भागीरथी का पानी विद्युत उत्पादन के अनुसार बहुत ऊपर-नीचे होता रहता है। 2007-08 में आई0आई0टी0 रुड़की से आए हुए छात्र नदी किनारे नहा रहे थे। पानी की मात्रा अधिक आई उनको मालूम नहीं पड़ा। वे गंगा में बह गए।

माननीय उच्चतम न्यायालय में टिहरी बांध पर चल रहे एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार वाले मुकदमे के कारण केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को अपनी भूमिका पर ही अंतरमंत्रालयी समिति बनाई और उसके सहयोग के लिए एक परियोजना स्तरीय समिति बनाई। समितियों ने तीन रिर्पोटे एक के बाद एक दी। अगर आप रिर्पोटों को एक के बाद एक पढ़े तो मालूम होगा कि सात हजार हेक्टेयर जंगल तीन महीने में लग गया। समिति एक बार कहती है। मलेरिया बढ़ने वाला है। लगभग तीन से चार हजार लोगों पर असर होगा। टिहरी बांध के निर्माण के दौरान और बनने के बाद में मंत्रालय ने पलट कर नहीं देखा कि उसकी रिपोर्टों का क्या हुआ?

बांध जलाशय का पानी पहाड़ों में जाता है जब पानी ऊपर नीचे होता है तो अपने साथ में मिट्टी को खींच करके अंदर लाता है। जब मिट्टी नीचे धसकती है तो दरारें पड़ती हैं। हिमालय कच्चा पहाड़ है। 2010 में टिहरी बांध जलाशय के चारों ओर के लगभग अस्सी गाँवों के मकानों में, ज़मीन में दरारें आईं, भूस्खलन हुए। टिहरी बांध जलाशय के किनारों जिसे तकनीकी भाषा में रिम एरिया कहा जाता है, को ठीक करने के नाम पर 6 करोड़ रुपए दिए गए जिसमे वहां पर पेड़ व कांटेदार बाड़ लगनी थी। पेड़ लगे या नहीं, बाड़े कहां है? नामों निशान शायद न दिखें। “जलसंग्रहण क्षेत्र संरक्षण योजना” का पालन बहुत की कम हुआ है। नतीजा है कि टिहरी बांध जलाशय में तेजी से गाद भर रही है।

मंत्रालय ने ये भी नहीं देखा कि टिहरी बांध परियोजना के नीचे गंगा का क्या हाल है? नीचे भागीरथी गंगा को मक डालने का क्षेत्र बनाया हुआ है। पहले से ही सूखती-भरती गंगा की स्थिति और पारिस्थितिकी बर्बाद हुई। उर्जा मंत्रालय ने भी कभी पलट कर नहीं देखा। अलकनंदागंगा पर विष्णुप्रयाग जविप राज्य का पहला निजी बांध है। इसकी सुरंग के कारण से धसके चाई गांव के लोगो में न तो सबको ज़मीन मिली न समुचित मुआवजा कि वे अपना मकान बना सके। सरकार ने रुड़की यूनिवर्सिटी से इस बात की जांच करवाई की उनके मकान परियोजना के कारण धंसे या प्राकृतिक आपदा की वजह से। उसने कह दिया की यह प्राकृतिक आपदा है। इस बांध के लिये भारी मात्रा में विस्फोटों का इस्तेमाल हुआ। खेती पर बुरा असर पड़ा, वहां के जंगलों में बुरा असर पड़ा। स्थानीय लोग बताते हैं कि सैकड़ों की संख्या में वहां की मवेशी मारे गए क्योंकि उन्होंने जो चारा खाया वो विस्फोटों की वजह से दूषित हो गया था। यह बांध हिमालय के ऊपरी क्षेत्र आता है। जो कि पास्थितिकी रूप में भी बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र है। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण की रिपोर्टों को भी नहीं देखा गया। इस परियोजना के लिए कोई पर्यावरणीय जनसुनवाई नहीं हुई थी।

श्रीनगर जविप अलकनंदागंगा पर देवप्रयाग से ऊपर बन रही है। माटू जनसंगठन की जांच से मालूम हुआ कि स्थानीय लोगों में टीबी व फेफडों संबंधी अन्य बीमारियाँ तेजी में बढ़ी हैं। मलबा लोगों के लिए समस्या बने, उससे उड़ने वाली धूल से बीमारियाँ बड़े इस पर कोई निगरानी नहीं तो उपचार भी नहीं। राज्य सरकार के वन विभाग ने भी कहा की बहुत ही बेतरतीब तरह से मलबा फेंका जा रहा है, धूल से लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर हो रहा है। मगर कोई कार्यवाही नहीं की। कहानी एक ही है चाहे वो मंदाकिनी पर फाटा-ब्योंग, सिंगोली-भटवाड़ी हो या नंदाकिनी और बिरहीगंगा पर तथाकथित छोटी परियोजना हो। बस बांध बनाओ और बनाने की राह में कोई रुकावट नहीं आनी चाहि। आए तो देशहित में सब मान्य कर दो। बांध विरोध से डरी सरकारें ये भी नहीं देखती कि उनको संसद में चुनकर भेजने वाले मतदाताओं पर और जिस पर्यावरण पर हमारे मंत्री अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में व्यथा कहते हैं उन पर बांधों के क्या प्रभाव हुआ है। और बांधों का भी क्या हुआ। हां जी गंगा को उन्होंने राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया है।

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