जब बाबा महरिया ने मध्य प्रदेश में झाबुआ जिला स्थित अपनी जमीन पर नर्मदा नदी पर बनाए जाने वाले सरदार सरोवर बाँध की योजना के बारे में पहली बार सुना तो उसने उसका विरोध किया। बाँध निर्माताओं ने उन्हें तथा अन्य लाखों विस्थापित होने वाले लोगों को समझाया कि ज्यादा लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिये सिर्फ कुछ लोगों को हटना पड़ेगा। उन्होंने बाबा महरिया एवं उसके समुदाय को जमीन, जल आपूर्ति, स्कूल एवं नये घर देने का वादा किया।
लेकिन वादा पूरा नहीं किया गया। बाबा महरिया ने बताया कि, ‘‘जब हमें पर्याप्त जमीन तथा अन्य पुनर्वास सुविधा नहीं मिलती, तो वह हमारे बच्चों एवं भावी पीढ़ी के मौत का कारण बनता है क्योंकि उनके पास भविष्य में आजीविका चलाने के लिये कुछ नहीं होगा।’’
यह सिर्फ बाबा महरिया की कहानी नहीं है। विश्व बाँध आयोग के आँकड़ों के अनुसार करीब 4 करोड़ से 8 करोड़ के बीच लोग बाँधों के बनने से अपने घरों एवं जमीनों से हटने के लिये बाध्य हुए हैं। उनमें से ज्यादातर अब और गरीब हो गये हैं। उनकी आजीविकाएँ, संस्कृतियाँ एवं समुदाय नष्ट हो चुकी हैं।
विश्व बाँध आयोग के लिये भारत के बड़े बाँधों पर किए गये अध्ययन के आधार पर उपलब्ध आँकड़ों से लगता है कि भारत में बड़े बाँधों से 5.67 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। इस अध्ययन के लेखकों का अनुमान है कि ये संख्या वास्तविकता से शायद 25 प्रतिशत ज्यादा हो। मतलब कि भारत में बड़े बाँधों से वर्ष 2000 तक कम से कम 4.25 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें से 62 प्रतिशत आदिवासी या दलित लोग हैं, जो बताता है कि बाँधों की कीमत कौन चुकाता है। सैण्ड्रप के अध्ययन के अनुसार भारत में 4528 बड़े बाँधों के जलाशय में करीब 44.2 लाख हेक्टेयर जमीन डूब में गई है।
बाँधों ने विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण जन्तु आवासों एवं उपजाऊ कृषि भूमि को डुबो दिया है। नदियाँ नष्ट हो गई हैं। कुछ मछलियाँ, जीवों एवं पौधों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं।
यह अध्याय समुदायों एवं प्राकृतिक संसाधनों पर बाँधों के प्रभावों के बारे में वर्णन करता है। विस्थापित परिवारों एवं बाँध के डाउनस्ट्रीम में रहने वाले समुदायों पर बाँधों से होने वाले विशिष्ट असरों के बारे में अध्ययन करते हैं। इस बात पर चर्चा करेंगे कि बड़े बाँधों से अपने जीवन एवं आजीविका की रक्षा के लिये झाबुआ जिले के समुदाय क्या कर रहे हैं।
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ऐसा प्रचार किया जाता है कि रन ऑफ रिवर पनबिजली परियोजनाएँ पर्यावरण तथा समाज के लिये कम नुकसानदेह होती है। यह हमेशा सही नहीं होता। यह सही है कि बड़े जलाशय की तुलना में उस स्थान पर यदि रन ऑफ रिवर परियोजना बनाई जाए तो वह कम नुकसानदेह होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन परियोजनाओं से समाज व पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को नकारा जाये। इन योजनाओं से कई किमी तक नदी सूख जाती है। नदी में मछली तथा अन्य जीव-जन्तु करीब-करीब समाप्त हो जाते हैं। कई किमी लम्बी सुरंग के लिये किये जाने वाले विस्फोटों से तथा संलग्न काम से दूर-दूर के घर, अन्य मकानों एवं ढाँचों को नुकसान होता है तथा भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। सुरंग खुदाई तथा अन्य काम से पैदा हुए मलबा को सही तरीके से डालने की योजना अक्सर नहीं बनती है, जिससे नुकसान बढ़ जाता है। नदी में पानी के प्रभाव में होने वाले त्वरित व व्यापक बदलाव अपने दुष्परिणाम लाते हैं। ऐसी योजनाएँ अक्सर हिमालय के पहाड़ी इलाकों में बनते हैं, जहाँ का सूक्ष्म पर्यावरण नष्ट हो जाता है और वहाँ की कृषि प्रभावित होती है। इन परियोजनाओं के लिये बड़ी मात्रा में जरूरी सामग्री (रेत, बजरी, गिट्टी, मिट्टी, सीमेंट, सरिया) जहाँ से लाई जाती है वहाँ वे और पर्यावरण तथा सामाजिक असर लाते हैं। हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की स्थिति में इनका भविष्य अंधकारमय है।
विस्थापन की असलियत
विस्थापित समुदाय परेशानी उठाते हैं : बाँध के सबसे बड़े असरों में से एक है लोगों का अपने घरों से जबरदस्ती विस्थापन। जलाशय उन इलाकों को डुबो देते हैं जहाँ लोग रहते हैं, फसलें, मछली पैदा करते हैं एवं जानवर पालते हैं। कई बार परिवार उस जमीन पर सदियों से रह रहे होते हैं। इसके बावजूद, सरकारें एवं बाँध निर्माता लोगों को अपने घर एवं जमीन छोड़ने को बाध्य करती हैं। बड़ी संख्या में पूरे के पूरे गाँव डुबो दिये जाते हैं।
विस्थापन लोगों को गरीब बना देता है। उन्हें खाने के लिये पर्याप्त खाद्यान्न एवं अपने परिवार की मदद के लिये पर्याप्त आमदनी जुटाने में परेशानी होती है। वे ज्यादा समय तक खेती एवं मछली पकड़ने की स्थिति में नहीं रह जाते हैं। ग्रामीण समुदायों को जबरदस्ती शहरों या कस्बों की ओर जाना पड़ता है, जहाँ उन्हें जीने के नये तरीके अपनाने पड़ते हैं। शहरों में, उन्हें अपराध एवं नशीली दवाइयों जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
विस्थापन समुदायों एवं संस्कृतियों को नष्ट कर देते हैं। गाँव का समुदाय अक्सर अलग होकर बिखर जाते हैं, इस तरह लोग ज्यादा दिन तक अपने साथियों एवं रिश्तेदारों के साथ नहीं रह पाते। आदिवासी एवं दलित लोग अक्सर बाँध निर्माण के कारण पीड़ित होते हैं। सांस्कृतिक स्थल एवं पुरखों के स्मृति स्थल डूब सकते हैं। लोगों का अपने पुरखों की जमीन से नाता टूट सकता है।
मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बाँध के कारण जबरदस्ती विस्थापित आदिवासियों का कहना है कि, ‘‘कुछ लोगों ने सोचा कि वे विस्थापित होंगे तो बीमार हो जाएँगे। उन लोगों ने सोचा कि वहाँ हमारी अपनी जमीन नहीं है। यह तो दूसरे देश में जाने जैसा है। हमारे गाँव तथा समुदाय की आत्मीयता, घर की आत्मीयता नष्ट हो गयी है।’’
पुनर्वास से जुड़ी समस्याएँ
कुछ लोग जो बाँध से विस्थापित होते हैं, उन्हें नये घर दिये जाते हैं। इसे पुनर्वास कहा जाता है। लोग मौजूदा गाँवों में या बाँध प्रभावित लोगों के लिये बने नये गाँवों में बस सकते हैं।
बाँध निर्माता अक्सर यह वादा करते हैं कि पुनर्वास के बाद लोगों का जीवन बेहतर हो जाएगा। वे वादा करते हैं कि लोगों को नौकरियाँ एवं पानी व बिजली से युक्त नये बड़े घर मिलेंगे। जबकि, ये वादे सामान्यतया झूठ साबित होते हैं। वे घर अक्सर छोटे एवं बेकार तरीके से बने होते हैं। लोग नये गाँवों में बिजली एवं पानी की कीमत अदा नहीं कर पाते हैं। वे जमीन हासिल कर भी पाए तो सामान्यतया पहले के मुकाबले कम जमीन हासिल कर पाते हैं। उनकी पुरानी जमीन के मुकाबले नयी जमीन में खेती करना ज्यादा कठिन होता है।
पुनर्वसित लोग अक्सर उस तरह से खेती करने, मछली पकड़ने या पशु पालने में असमर्थ रहते हैं, जैसा वे पहले किया करते थे। कई बार बाँध निर्माता उन्हें पशु चराने या बाजार में बेचने लायक फसल उगाने जैसी नयी आजिविका अपनाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। जबकि, सामान्यतया ये असफल रहते हैं एवं लोगों का जीवन पहले के मुकाबले ज्यादा कठिन हो जाता है।
पर्याप्त मुआवजा नहीं मिलता
मुआवजा वह रकम या अन्य वस्तुएँ होती हैं जो बड़े बाँध परियोजना से लोगों को हुए नुकसान के बदले दी जाती है। जब लोगों को नकद रकम दी जाती है, वह अक्सर उनके जीवन-यापन के लिये पर्याप्त नहीं होती। यदि लोगों को नकद रकम इस्तेमाल करने की आदत नहीं होती है तो, वे नहीं समझ पाते कि रकम को लंबी अवधि तक कैसे चलाया जाए। कई लोगों को मुआवजा नहीं मिलता है। सरकार अक्सर कहती है कि उन लोगों को मुआवजे का अधिकार नहीं है क्योंकि उनकी जमीन पर उनका कानूनी मालिकाना हक नहीं है। समुदाय जमीन में भागीदारी कर रहे होते हैं या कुछ लोग दूसरों की जमीन में खेती कर रहे होते हैं। या सरकार का प्रभावित लोगों के बारे में आकलन गलत होता है और हजारों प्रभावित लोगों की गिनती ही नहीं होती। कई जगह जमीन के पट्टे पर पीढ़ियों तक नाम नहीं बदलता, जिससे नयी पीढ़ी के लोगों का नाम प्रभावित सूची में नहीं होता। तदोपरांत परियोजना से लोग कई तरीके से प्रभावित होते हैं। जैसे नहर, कालोनी, डाउनस्ट्रीम इत्यादि, लेकिन जलाशय से प्रभावित लोगों को छोड़कर अन्य प्रभावितों का नाम सूची में नहीं आता। जलाशय के भी बैकवाटर से प्रभावित लोगों का नाम सरकारी सूची में नहीं होता।
भारत में टिहरी बाँध बनाने के लिये विस्थापित हुए एक परिवार ने बताया कि, ‘‘सरकारी अधिकारी ने हमें कहा, ‘बड़े घर (राष्ट्र) के हित के लिये अपना छोटा घर छोड़ दो। हमारे घर एवं खेती की जमीन के बदले उन्होंने उचित मुआवजा देने का वादा किया था। लेकिन अब तक, हमें कुछ नहीं मिला, कोई नकद रकम नहीं। हमारे परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के पास अच्छी गुणवत्ता वाली दो-दो एकड़ जमीन थी, और जब हम नये गाँव को गये तो हमें जमीन मिली सिर्फ उससे आधी एवं उससे बहुत खराब स्थिति वाली।’’
डाउनस्ट्रीम में प्रभावित लाखों लोग
बाँध के डाउनस्ट्रीम में रहने वाले लाखों लोगों की आजीविका को बाँध ने बर्बाद कर दिया है। सबसे बड़ा असर तो मछली पकड़ने एवं खेती पर पड़ा है।
मात्स्यिकी नष्ट बाँध ने पानी के प्रवाह को बदलकर एवं मछलियों को बाँध के अपस्ट्रीम में प्रजनन स्थल पर जाने में बाँध द्वारा रोक लगाकर मात्स्यिकी को नष्ट कर दिया है। सामान्यतया मछलियों की संख्या में कमी आती है। कुछ प्रजातियाँ लुप्त हो जाती हैं। फलस्वरूप, लोग प्रोटीन एवं आय के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत को खो बैठते हैं। उनके पारम्परिक जीवनशैली भी नष्ट हो सकते हैं।
फसलों में कमी लोगों को अपनी फसलों के नुकसान उठाना पड़ सकता है। पानी के प्रवाह में बदलाव से बाँध के डाउनस्ट्रीम में नदियों के तट कट सकते हैं। कई बार लोगों के नदी के तट के बागान, जमीन एवं फसल नदी में बह जाते हैं। नदी में पानी का प्रवाह बरसात के बाद रुक जाता है और इससे नदी किनारे के क्षेत्रों में भूजल का रिचार्ज कम हो जाता है। पानी में प्रदूषण बढ़ जाता है और समुद्र का पानी भी अंदर के क्षेत्रों को प्रभावित करता है।
नदियाँ महत्त्वपूर्ण पोषक तत्व एवं गाद लाती हैं जोकि बाढ़ के बाद जमीन को उपजाऊ बनाती हैं। बाँध इन पोषक तत्वों एवं गादों को डाउनस्ट्रीम में बहने से रोकते हैं। इन पोषक तत्वों के बगैर फसलों की पैदावार में कमी आ सकती है। लोगों को रासायनिक खाद खरीदना पड़ सकता है। यदि वह बहुत महँगा हुआ तो, लोग खेती करना बंद कर सकते हैं।
साफ पानी की कमी बाँधों के डाउनस्ट्रीम में पानी अक्सर गंदा या प्रदूषित हो जाता है। यदि व्यक्ति एवं जानवर उस पानी को पीते हैं तो बीमार पड़ सकते हैं, खासकर उस समय जब नदी में पानी का बहाव कम होता है। लोग यदि उस पानी में नहाते हैं तो उन्हें त्वचा में संक्रमण या खुजली हो सकती है। सिंचाई के लिये भी कम पानी उपलब्ध होता है।
अचानक पानी छोड़ने के कारण नुकसान कई बार बाँध संचालक जलाशय से अचानक पानी छोड़ने का निर्णय लेते हैं। पानी का स्तर तेजी से बढ़ सकता है। नदी का उपयोग करने वाले लोगों को चेतावनी नहीं मिल पाती। पानी का तल बढ़ने से उनकी नौकाएँ एवं मछली पकड़ने के औजार बह सकते हैं। कई मामलों में, लोग बह जाते हैं। अक्तूबर 2006 में मध्य प्रदेश के दतिया जिले में सिंध नदी में आये तेज बहाव से करीब 40 श्रद्धालुओं की मौत हो गई। यह दुघर्टना सिंध नदी पर निर्मित मनिखेड़ा बाँध द्वारा अचानक किसी चेतावनी के ही भारी मात्रा में पानी छोड़ने से नदी में पानी का बहाव अचानक बढ़ने के कारण हुई। एक अन्य घटना में अप्रैल 2005 में मध्य प्रदेश के ही देवास जिले में नर्मदा नदी पर बने इंदिरा सागर बाँध से अचानक पानी छोड़े जाने से करीब 65 से ज्यादा श्रद्धालुओं की पानी में बहकर मौत हो गई थी।
लिसोथो में समुदायों द्वारा गरीबी के खिलाफ संघर्ष लिसोथो में कात्से बाँध बनने से पहले, स्थानीय समुदाय पूरे साल फसल उगा सकते थे। वे कद्दू, मटर, फलियाँ, आलू एवं अन्य सब्जियाँ उगाते थे। उनके बड़े खेत दूसरों के लिये भी पर्याप्त खाद्यान्न पैदा कर सकते थे। लेकिन उनके विस्थापित होने के बाद, समुदाय गरीब हो गये। मुआवजा एवं नयी आजीविका के वादे निभाये नहीं गये। यहाँ तक कि कुछ लोगों की मौत हो गई। कात्से बाँध के लिये पुनर्वसित खोना मासेइपति का कहना है कि, ‘‘पुनर्वास स्थल पर जीना बहुत कठिन है। हम हरेक चीज हासिल करने के लिये संघर्ष करते हैं, यहाँ तक कि जंगली सब्जियों के लिये भी। मोलिकालिको (पूर्व स्थल) में, हमारे पास पूरे साल खाद्यान्न रहता था। यहाँ, हमें पूरे साल भूखे रहना पड़ता है।’’ लिसोथो में समुदाय अब भी बेहतर मुआवजा के लिये संघर्ष कर रहे हैं। उन लोगों ने बाँध निर्माताओं के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है, अपनी चिन्ताओं को प्रकाशित किया है एवं प्रदर्शन आयोजित किये हैं। सन 2005 के उत्तरार्द्ध में, एक सरकारी अधिकारी ने समुदायों की हरेक माँग को पूरा करने का आश्वासन दिया है। क्या ये नये वादे पूरे होंगे? यदि आप यह सुनते हैं कि आपके इलाके में बाँध बन सकता है, तो इस प्रकार के उदाहरणों को याद रखना महत्त्वपूर्ण है। सोचिए कि यदि आपके आस-पास बाँध बन जाता है तो आपकी जिन्दगी कैसे बदल जाएगी। कल्पना करें कि यह आपके परिवार, आजीविका, संस्कृति एवं समुदाय को कैसे प्रभावित करेगी। |
बाँध, नदी एवं अधिकार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) |
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