संघर्षों के परिणामस्वरूप सरकारें एक तरफ कानून बना रही हैं तो दूसरी तरफ उनसे बचने के प्रयास करती हैं। बांधों की निगरानी सही नहीं होती, मंत्रालयों के पास यह देखने के लिए स्टाफ तक नहीं है कि उसकी अपनी दी हुई स्वीकृतियों का पालन हुआ या नहीं? तब आंदोलन उनको दिखाते हैं कि सही स्थिति क्या है। इसके लिए भी संघर्ष है। अधिकारी मिलते नहीं। तो अदालत की शरण लेनी होती है। अदालत के आदेशों के पालन के लिए भी संघर्ष होता है। भारत के हिमालयी राज्यों में पिछले एक दशक से बांधों की पूरी श्रृंखला बनाने का प्रयास है। कोई भी नदी वो चाहे छोटी हो या बड़ी सभी जगह बांधों की योजनाएं हैं। भारत के पहाड़ी राज्यों में इसे रोज़गार का व क़ानूनन बांध प्रायोक्ता द्वारा राज्य को दी जाने वाली 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के लाभ के रूप में देखा जा रहा है। मैदानी नदियों से ज्यादा आसान यही लगता है। किंतु साथ ही वहां भी संघर्षों की कतार खड़ी हुई है। आसाम राज्य में दिसंबर 2011 में लोगों ने बांध से नीचे के क्षेत्र में पड़ने वाले प्रभावों को देखते हुए आंदोलन किया और सुबंसरी नदी पर निमार्णाधीन बांध के लिए जाने वाले सभी वाहनों को रोक दिया। कड़कती ठंड में लोग डटे रहे। रबर की गोलियां, पानी की बौछारें, लाठियां चली पर लोगों ने काम बंद की करके रखा। सिक्किम में ‘‘जोंगू क्षेत्र’’ के लेपचा आदिवासियों ने जोंगू की जैव-विविधता को बचाने के लिए लंबा संघर्ष किया। परिणामस्वरूप रंगयान नदी पर प्रस्तावित 5 में से 4 जलविद्युत परियोजनाए रोक दी गई है। हिमालयी पर्यावरण संरक्षण के लिए केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय को सिक्किम में प्रस्तावित 1047 मेगावाट क्षमता वाली छह पनबिजली परियोजनाओं पर रोक लगानी पड़ी है। हिमाचल प्रदेश में कुल्लु जिले की तीर्थन नदी पर 10 जल-विद्युत परियोजनाएं ट्राउट मछली के लिए संरक्षित करने के लिए सरकार को रोकनी पड़ी। राजस्थान में राष्ट्रीय चंबल घड़ियाल अभ्यारण्य की वन्य भूमि के हिस्से पर बनने वाले बांध पर रोक लगा दी है। उत्तराखंड में गंगा पर लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी व भैंरोघाटी आदि तीन जलविद्युत परियोजनाओं पर पूर्ण रोक लगा दी गई है। कई अन्य परियोजनाओं की पर्यावरण और वन स्वीकृति पर अदालत ने रोक लगाई। पिंडरघाटी में जनविरोध ने भी देवसारी बांध को कई वर्षों से पीछे धकेल रखा है। लिखे जाने तक स्वीकृति नहीं होने दी है।
देश के मैदानी राज्यों में दशकों पहले बनाए बाधों को तोड़ने की आवाज़ उठनी शुरू हुई है। महाराष्ट्र में जहां हजार से ज्यादा बांध है वहां आज़ादी से भी पहले बने बांध पर विस्थापितों ने पुनर्वास का प्रश्न उठाया है। जिससे दिखता है कि पुराना पुनर्वास तो नहीं पाया फिर आप नए बांधों की बात कैसे कर सकते हैं? अन्य राज्यों में भी बांध विरोधी आंदोलनों ने सफलताएं अर्जित की हैं। बिहार में कोयलकारो बांधों को आदिवासी समाज ने रोक रखा है। महाराष्ट्र में, केरल में देश में सभी स्थानों पर बांध विरोधी संघर्ष जारी है।
भारत के बांध विरोधी आंदोलनों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बांध विरोध के संघर्ष को मज़बूती दी है। 1998 में दक्षिण अफ्रीका के जलसंसाधन मंत्री श्री कादिर अस्माल अध्यक्षता में बने विश्वबांध आयोग में संसार भर से बांध परियोजनाओं के हर पक्षों की उपस्थिति इसमें थी। जिसके उपाध्यक्ष भारत के योजना आयोग के सदस्य व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्वर्गीय लक्ष्मीचंद जैन थे। भारत की प्रसिद्ध समाजनेत्री मेधा पाटकर भी इसकी एक सदस्य थीं। उनके, सरदार सरोवर बांध के सवाल को 1986 से समझते, उठाते हुए लम्बे जमीनी संघर्ष का फायदा विश्वबांध आयोग को मिला। यहां यह कहना जरूरी होगा की सुश्री मेधापाटकर के सदस्य होने के कारण गुजरात सरकार ने विश्वबांध आयोग को सरदार सरोवर क्षेत्र में जनसुनवाई नहीं करने दी। गुजरात राज्य की विधानसभा में विशेष सत्र का आयोजन हुआ और आयोग को सरदार सरोवर में ना आने देने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। केन्द्र की सरकार ने प्रोटोकॉल का बहाना करके विश्वबांध आयोग को भारत आने पर ही रोक लगा दी। यह बताता है कि सरकारें कितना डरती है। किंतु आयोग के लिए बनाई भारत के बांधों की स्थिति पर रिर्पोट ‘बड़े बांध, भारत का अनुभव’ ने बांधों की पोल के सारे तथ्य सामने ला दिए।
पर इस तथ्य को नहीं भूलना होगा की एक तरफ बांधों को इतिहास बनाने की कोशिशें जारी है। दूसरी तरफ बांध समर्थक लॉबी भी येन-केन-प्रकारेण बांधों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे है। पर्यावरण और पुनर्वास की समस्याओं का जानबूझ कर गलत आकलन, सही अध्ययनों का नकार, प्रशासन का जनविरोधी रुख, व्यापक भ्रष्टाचार, हिंसात्मक दमन और चुनावी राजनीति, विकास के भ्रम का प्रचार जिसका न्यायालयों पर भी असर दिखता है, जैसी चुनौतियां अभी सामने है।
एक और बड़ी चुनौती है नदी जोड़ परियोजना है। 56 लाख करोड़ की इस परियोजना में देश भर की नदियों को जोड़कर एक साथ लाने की योजना है। जिसमें बांध भी बनने है। इसका उद्देश्य है भविष्य में बाढ़ व सूखे की समस्या का निदान। किंतु मात्र भ्रष्टाचार का पेट भरने की कवायद दिखाई देती है। इन परियोजनाओं में सरकार किसी भी तरह के पर्यावरण प्रभावों आदि का आकलन नहीं कर रही है। इतिहास से सबक लिए बिना नई समस्याओं को आमंत्रण देने के सिवा कुछ नहीं है।
संघर्षों के परिणामस्वरूप सरकारें एक तरफ कानून बना रही हैं तो दूसरी तरफ उनसे बचने के प्रयास करती हैं। बांधों की निगरानी सही नहीं होती, मंत्रालयों के पास यह देखने के लिए स्टाफ तक नहीं है कि उसकी अपनी दी हुई स्वीकृतियों का पालन हुआ या नहीं? तब आंदोलन उनको दिखाते हैं कि सही स्थिति क्या है। इसके लिए भी संघर्ष है। अधिकारी मिलते नहीं। तो अदालत की शरण लेनी होती है। अदालत के आदेशों के पालन के लिए भी संघर्ष होता है। कई बार बांध कंपनियां मंत्रालय के आदेशों तक का पालन नहीं करती जैसे की उत्तराखंड में जीवीके कंपनी को जुलाई 2012 में आदेश किया गया की वो निमार्णाधीन श्रीनगर जलविद्युत परियोजना के बांध के दरवाज़े खोल दे ताकि जलाशय पीछे डूब ना आए। किंतु कंपनी ने नहीं माना। सरकार की ओर से कोई कार्यवाही भी नहीं हुई। यह प्रकरण बताता है कि यहां सरकारी मिलीभगत है।
जहां आंदोलन मजबूत है वहां लोग कंपनी को पकड़ते है। कुल मिलाकर तू डाल डाल मैं पात पात वाली स्थिति है। पर बड़े बांधों को इतिहास बनाने और पर्यावरण और पुनर्वास के नुकसान की पुरानी भरपाई करने के लिए अब आंदोलन कटिबद्ध है।
देश के मैदानी राज्यों में दशकों पहले बनाए बाधों को तोड़ने की आवाज़ उठनी शुरू हुई है। महाराष्ट्र में जहां हजार से ज्यादा बांध है वहां आज़ादी से भी पहले बने बांध पर विस्थापितों ने पुनर्वास का प्रश्न उठाया है। जिससे दिखता है कि पुराना पुनर्वास तो नहीं पाया फिर आप नए बांधों की बात कैसे कर सकते हैं? अन्य राज्यों में भी बांध विरोधी आंदोलनों ने सफलताएं अर्जित की हैं। बिहार में कोयलकारो बांधों को आदिवासी समाज ने रोक रखा है। महाराष्ट्र में, केरल में देश में सभी स्थानों पर बांध विरोधी संघर्ष जारी है।
भारत के बांध विरोधी आंदोलनों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बांध विरोध के संघर्ष को मज़बूती दी है। 1998 में दक्षिण अफ्रीका के जलसंसाधन मंत्री श्री कादिर अस्माल अध्यक्षता में बने विश्वबांध आयोग में संसार भर से बांध परियोजनाओं के हर पक्षों की उपस्थिति इसमें थी। जिसके उपाध्यक्ष भारत के योजना आयोग के सदस्य व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्वर्गीय लक्ष्मीचंद जैन थे। भारत की प्रसिद्ध समाजनेत्री मेधा पाटकर भी इसकी एक सदस्य थीं। उनके, सरदार सरोवर बांध के सवाल को 1986 से समझते, उठाते हुए लम्बे जमीनी संघर्ष का फायदा विश्वबांध आयोग को मिला। यहां यह कहना जरूरी होगा की सुश्री मेधापाटकर के सदस्य होने के कारण गुजरात सरकार ने विश्वबांध आयोग को सरदार सरोवर क्षेत्र में जनसुनवाई नहीं करने दी। गुजरात राज्य की विधानसभा में विशेष सत्र का आयोजन हुआ और आयोग को सरदार सरोवर में ना आने देने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। केन्द्र की सरकार ने प्रोटोकॉल का बहाना करके विश्वबांध आयोग को भारत आने पर ही रोक लगा दी। यह बताता है कि सरकारें कितना डरती है। किंतु आयोग के लिए बनाई भारत के बांधों की स्थिति पर रिर्पोट ‘बड़े बांध, भारत का अनुभव’ ने बांधों की पोल के सारे तथ्य सामने ला दिए।
पर इस तथ्य को नहीं भूलना होगा की एक तरफ बांधों को इतिहास बनाने की कोशिशें जारी है। दूसरी तरफ बांध समर्थक लॉबी भी येन-केन-प्रकारेण बांधों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे है। पर्यावरण और पुनर्वास की समस्याओं का जानबूझ कर गलत आकलन, सही अध्ययनों का नकार, प्रशासन का जनविरोधी रुख, व्यापक भ्रष्टाचार, हिंसात्मक दमन और चुनावी राजनीति, विकास के भ्रम का प्रचार जिसका न्यायालयों पर भी असर दिखता है, जैसी चुनौतियां अभी सामने है।
एक और बड़ी चुनौती है नदी जोड़ परियोजना है। 56 लाख करोड़ की इस परियोजना में देश भर की नदियों को जोड़कर एक साथ लाने की योजना है। जिसमें बांध भी बनने है। इसका उद्देश्य है भविष्य में बाढ़ व सूखे की समस्या का निदान। किंतु मात्र भ्रष्टाचार का पेट भरने की कवायद दिखाई देती है। इन परियोजनाओं में सरकार किसी भी तरह के पर्यावरण प्रभावों आदि का आकलन नहीं कर रही है। इतिहास से सबक लिए बिना नई समस्याओं को आमंत्रण देने के सिवा कुछ नहीं है।
संघर्षों के परिणामस्वरूप सरकारें एक तरफ कानून बना रही हैं तो दूसरी तरफ उनसे बचने के प्रयास करती हैं। बांधों की निगरानी सही नहीं होती, मंत्रालयों के पास यह देखने के लिए स्टाफ तक नहीं है कि उसकी अपनी दी हुई स्वीकृतियों का पालन हुआ या नहीं? तब आंदोलन उनको दिखाते हैं कि सही स्थिति क्या है। इसके लिए भी संघर्ष है। अधिकारी मिलते नहीं। तो अदालत की शरण लेनी होती है। अदालत के आदेशों के पालन के लिए भी संघर्ष होता है। कई बार बांध कंपनियां मंत्रालय के आदेशों तक का पालन नहीं करती जैसे की उत्तराखंड में जीवीके कंपनी को जुलाई 2012 में आदेश किया गया की वो निमार्णाधीन श्रीनगर जलविद्युत परियोजना के बांध के दरवाज़े खोल दे ताकि जलाशय पीछे डूब ना आए। किंतु कंपनी ने नहीं माना। सरकार की ओर से कोई कार्यवाही भी नहीं हुई। यह प्रकरण बताता है कि यहां सरकारी मिलीभगत है।
जहां आंदोलन मजबूत है वहां लोग कंपनी को पकड़ते है। कुल मिलाकर तू डाल डाल मैं पात पात वाली स्थिति है। पर बड़े बांधों को इतिहास बनाने और पर्यावरण और पुनर्वास के नुकसान की पुरानी भरपाई करने के लिए अब आंदोलन कटिबद्ध है।
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