जनसत्ता/प्रसून लतांत/ दिल्ली: बिहार के अंग क्षेत्र में फिर बाढ़ आई है। बाढ़ में फंसे लाखों लोग अब जीने की उम्मीद भी छोड़ रहे हैं। वे किसी भी तरह की राहत के पहले अपनी जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर पहुँचना चाहते हैं। पिछले एक सप्ताह से उन्हें खाना नहीं मिल पा रहा है। चारों ओर पानी से घिरे होने के बावजूद वे पीने के पानी के लिए तरस रहे हैं। इस हालात में सबसे अधिक मुसीबत बच्चों और बूढ़ों को सामना करना पड़ रहा है। सरकारी इंतजामों का बेहद अभाव है।
बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है जिसकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो सकती। लाखों लोगों को बसेरे और रोजगार के लिए अपनी पुश्तैनी जगह छोड़ कर शहरों की ओर पलायन करने की मजबूरी सता रही है। हजारों लोग पानी के तेज बहाव में बह गए है। लापता हुए लोगों की संख्या का भी कोई अंदाजा नहीं लग रहा है।
कोसी को शोक मानने वाले इस इलाके के ज्यादातर लोग खेती-किसानी पर निर्भर थे और लगभग सभी घरों में माल मवेशी थी। इस बाढ़ में कितने मवेशी डूबे या मरे हैं इसका भी हिसाब लगाने की कोशिश अभी नहीं हुई है। अभी तो इंसानी लाशों को ही गिनना बाकी है।
ऐसा अक्सर होता है कि जब बाढ़ आती है तो कुछ दिन सभी का ध्यान इसकी तरफ जाता है। हेलिकॉप्टर आदि के दौरे होते हैं। राजनेताओं के बीच आपस में बयानबाजी होती है, फिर हम सारा कुछ भूल जाते हैं।
आओ तटबंध बनाएं
इस बार देश के विभिन्न राज्यों में बाढ़ आई है और बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है। देश के बीस राज्यों में बारह सौ लोग बाढ़ की वजह से मारे जा चुके हैं। तीन करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। सत्तर हजार से अधिक पशु बह गए हैं। करोड़ों की संपत्ति तबाह हो गई है। इन नुकसानों में सबसे बड़ा हिस्सा बिहार के अंग क्षेत्र का है।
पिछले साल बिहार में आई बाढ़ से प्रभावित बीस जिलों में केवल फसलों की क्षति तीस अरब से कहीं ज्यादा था। इसके अलावा जनता की चल-अचल संपत्ति, बुनियादी ढांचे व पूंजीगत परिसंपत्तिओं की क्षति इससे कई गुना अधिक थी। इन नुकसानों की भरपाई अभी तक नहीं हो पाई थी कि फिर से बाढ़ प्रदेश की जनता पर सवार हो गई।
बिहार में आजादी के बाद से बाढ़ नियंत्रण पर अब तक लगभग 1600 करोड़ से अधिक रुपये खर्च किए जा चुके हैं। लोग मानते हैं कि यह पैसा पानी में नहीं बहा, इस पैसे ने यहां बाढ़ को बढ़ाया है। ठेकेदारों की एक चाक-चौबंद जमात पैदा की है। इन ठेकेदारों की पीठ पर राजनीतिक दलों और योजनाकारों की भारी भरकम फौज पलती है, जो साल दर साल बाढ़ को बिहार की नियति बनाने का पक्का इंतजाम करती जाती है।
बाढ़ से बचने के लिए कुछ और हो या ना हो, नदियों पर तटबंध बनाने का काम हर साल चलता रहता है। हर साल सरकार इसे कर्मकांड मानकर पूरा करने में जुटी रहती है। बाढ़ से निपटने की सारी योजनाएं केवल तटबंध बनाने के नाम पर आकर सिमट जाती हैं जो बाढ़ को बढ़ाता ही है।
इस बार बिहार में इस विनाशकारक बाढ़ के आने की मुख्य वजह नेपाल के कुशहा में कोसी के तटबंध का टूटना बताया जा रहा है। कोसी नदी के तटबंधों के टूटने और इसके कारण बाढ़ आने का सिलसिला आजादी के बाद से न जाने कितनी बार चलता रहा है।
अब यह बात साफ हो चुकी है कि बार-बार भयंकर से भयंकर होती बाढ़ के आने की वजह तटबंध का टूटना ही है। बाढ़ विशेषज्ञों का भी मानना है कि यह तटबंध बनाना ही बड़ी भूल थी।
कोसी नदी पर किताब लिखने वाले डी के मिश्र का मानना है कि तटबंध के रखरखाव में बरती जाने वाली लापरवाही ने इस तटबंध को और कमजोर कर दिया है। भारतीय नदी घाटी मंच के नेता मानते हैं कि अब कोसी नदी को बांध पाना मुश्किल होगा, क्योंकि हरेक एक सौ साल बाद यह नदी अपनी धारा बदल लेती है।
सिफारिशें ? पानी में।।।
पर्यावरण विशेषज्ञ और नदियों के गहरे जानकार अनुपम मिश्र का कहना है कि हिमालय से फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से बिहार के अंग क्षेत्र में कोसी सहित अन्य छोटी-बड़ी दर्जनों नदियां उतरती हैं। इनमें कोसी ने तो पिछले कुछ सौ साल में 148 किलोमीटर क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है, जहां से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम किसी तरह से तटबंध या बांध से कैसे बांध सकते हैं ?
बिहार में 1955 में बाढ़ नियंत्रण बोर्ड गठित हुआ और पिछले दशकों में दर्जनों विशेषज्ञ समितियां बनाई जा चुकी हैं और उनके द्वारा की गई सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाली जाती रही है।
कोसी नदी जिस अंग इलाके में बाढ़ का तांडव रचती रहती है, वह इलाका कभी अपनी समृद्ध सभ्यता के लिए जाना जाता था। पहले बाढ़ आती थी तो लोग न सिर्फ उसका मुकाबला करने में सक्षम होते थे बल्कि बाढ़ के कारण आई मिट्टी के कारण उर्वर होने वाली जमीन पर अपनी खेती भी समृद्ध करते थे। लेकिन अब हालत वैसे नहीं हैं।
अकेले कोसी में हर साल तीन लाख पचास हजार टन से ज्यादा गाद बाढ़ के साथ आती है। समय के साथ पानी तो बह जाता है लेकिन गाद पीछे छूट जाती है। यह गाद उन तटबंधों के कारण स्थाई डेरा डाल देती है जिसे समाधान मान कर पेश किया गया था। अब साल दो साल में यह तटबंध ही बेकार हो जाता है। फिर एक नया तटबंध बनाने की जरूरत पड़ जाती है।
दूसरी तरफ इन तटबंधों के कारण हर साल आने वाली बाढ़ से प्रभावित लोग या तो गरीब होते हैं या बाढ़ के कारण गरीब हो जाते हैं। गरीबों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वे जमीन छोड़ दें और वे यही करते हैं। जाहिर है, इसके बाद उनके पास शहरों की ओर पलायन करने का रास्ता बचता है, जहां जीवन की भयावह मुश्किलें उनकी प्रतीक्षा कर रही होती हैं। बाढ़ का पानी भले कम हो जाए, इनकी जीवन की मुश्किलें कभी कम नहीं होतीं।
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