बांध, आपदा प्रबंधन और विस्थापन

प्रदेश सरकार को उत्तराखंड की आपदा से सबक लेना होगा और विद्युत परियोजना के संदर्भ में अपनी आपदा प्रबंधन नीति के साथ विस्थापन नीति की पुन: समीक्षा करनी होगी। ऐसा भी नहीं है कि बांधों ने देश के विकास में कोई योगदान नहीं दिया। आज बहुत कुछ विकास इन्हीं की देन है, परंतु इसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है।

प्राकृतिक आपदाओं का पूरी तरह से अनुमान लगाना आज भी संभव नहीं है। बादलों का फटना, भूकंप आना जैसी घटनाएं अप्रत्याशित है। नर्मदा घाटी अत्यन्त संवेदनशील मानी जाती है। नर्मदा के सीने को चीरकर उसके आंचल को तार-तार कर दिया गया है। यदि नर्मदा घाटी में भूकंप आया और इसका केन्द्र विध्यांचल रहा तो तीन बड़े बांध ओंकारेश्वर, महेश्वर और सरदार सरोवर भयंकर तबाही लेकर आएंगे।

मध्य प्रदेश में नर्मदा पर बंधे बांधों से न केवल उसका प्राकृतिक प्रवाह बाधित हुआ है अपितु लाखों की संख्या में डूब प्रभावित लोगों को उनका हक नहीं मिल पाया है। नर्मदा बांध के डूब प्रभावित आज भी अपने हक की लड़ा़ई लड़ रहे हैं। विस्थापितों की स्थिति यह बताती है कि बड़े बांध अब विकास के स्थान पर विनाश का पर्याय बनते जा रहे हैं।

आज से पांच दशक पूर्व यह विश्वास किया गया था कि बांध देश की गरीबी दूर करेंगे और भूखमरी को मिटाएंगे, परंतु वे विनाश का कारण बनते जा रहे हैं। हजारों एकड़ भूमि, जंगल और खेत डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। लोग अपना सब कुछ खो चुके हैं। आपदा प्रबंधन की खामियों को हम उत्तराखंड में देख चुके हैं।

आपदा प्रबंधन जैसी योजनाएं कागजों में ही हैं। देवास जिले में धारड़ी के हादसे को आज भी लोग भूले नहीं है। नर्मदा के लगभग 1300 किमी प्रवाह क्षेत्र में सैकड़ों बांध है। इसके साथ ही इसकी सहायक नदियों पर अनेक बांध बनाए जा चुके हैं। बरसात में ये नदियां जब अपने तटबंध तोड़कर बहती हैं और तटीय गांवों में त्राहि-त्राहि मचाती है तो प्रशासन आपदा प्रबंधन के नाम पर सिवाय दो-चार नावों के इंतजाम के कुछ नहीं कर पाता।

हर वर्ष अपार धन-जन की हानि होती है और सिवाय चंद रुपयों के मुआवजे के अलावा कुछ नहीं मिलता। यदि कोई बांध टूटता है तो यह सोच कर ही रुह कांप जाती है कि शासन प्रशासन इस मैदानी सुनामी से कैसे निपटेगा। नदी जोड़ो योजना के बाद यह समस्या और भी विकराल रूप धारण कर लेगी।

वर्षा ऋतु में लगभग सभी छोटी-बड़ी नदियां अपने पूरे शबाब पर होती हैं और सामान्य वर्षा में भी उनको उफान पर आते देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में नर्मदा का अतिरिक्त पानी क्या कहर ढहाएगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। अब बड़े बांधों का निर्माण अविलंब रोका जाना चाहिए और यदि ऐसा संभव नहीं है तो यहां आपदा प्रबंधन की व्यवस्था इस तरह की लागू होनी चाहिए कि बाढ़ आदि आने के पूर्व ही लोगों का समुचित विस्थापन किया जा सके।

प्रदेश सरकार को उत्तराखंड की आपदा से सबक लेना होगा और विद्युत परियोजना के संदर्भ में अपनी आपदा प्रबंधन नीति के साथ विस्थापन नीति की पुन: समीक्षा करनी होगी। ऐसा भी नहीं है कि बांधों ने देश के विकास में कोई योगदान नहीं दिया। आज बहुत कुछ विकास इन्हीं की देन है, परंतु इसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। यद्यपि अमेरिका जैसे देश में भी छोटे मोटे 300 बांध बनाएं गए हैं और बनाए जा रहे हैं, परन्तु वहां विस्थापन नाम का कोई समस्या नहीं है।

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