बाजार के खिलाफ एक औजार प्याऊ (Drinking water kiosk and alternative bottled water)


जो बोतलबन्द पानी आज हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है, उसकी शुरुआत लंदन में करीब चार सौ साल पहले हुई थी, लेकिन भारत में इसका प्रचलन नब्बे के दशक में हुआ। आज यह अरबों-खरबों का बाजार है, लेकिन इसके साथ ही पर्यावरण और सेहत के जो नुकसान इससे जुड़े हैं, उन पर कोई ध्यान नहीं देता। हमारा पारम्परिक प्याऊ इसका स्वस्थ विकल्प हो सकता है।

पानी को बोतल में बन्द करने का विचार, सबसे पहले वर्ष 1621 में यूनाइटेड किंगडम में आया। बोतलबन्द पानी के व्यवसायीकरण की शुरुआत, सबसे पहले सन 1767 में अमेरिका के बोस्टन शहर से हुई। बोतलबन्द का कारोबार पिछली सदी के आखिरी दशक में अस्तित्व में आया। शुरुआत, कुओं और झरने के पानी को काँच की बोतलों में बन्द करने से हुई।

आज बोतलें, काँच की जगह पॉलीथाइलीन टेरेफाइथोलेट (पेटा) यानी प्लास्टिक की हैं और उनमें बन्द पानी को ‘मिनरल वॉटर’ ‘डिस्टिल्ड वॉटर’ के टैग के साथ बेचा जाता है। मिनरल वॉटर तकनीक का सबसे पहला पेटेंट वर्ष 1809 में अमेरिका के जोसेफ हॉकिंस को हासिल हुआ। पानी में कार्बन डाइऑक्साइड गैस को घोलने का पुरस्कार (1773) ऑक्सीजन की खोज करने वाले जोसेफ प्रिस्टले ले आये। जोसेफ प्रिस्टले ने ही सबसे पहले नर्म शीतल पेयों में कार्बन डाइऑक्साइड को घोलने के प्रयोग को पानी में उतारा। शीतल पेयों को प्लास्टिक की बोतलों में इस तर्क के साथ उतारा गया कि प्लास्टिक की ये बोतलें, कार्बनयुक्त शीतल पेयों के साथ भी टिकी रहती हैं।

शीतल पेयों का बोतलबन्द कारोबार भारत में सन 1949 से था; बोतलबन्द पानी को बिसलेरी का ब्रांड 1965 में भारत ले आया। नब्बे के दशक तक ये बोतलें, बैठकों के मंच पर ही सजी दिखाई देती थीं। अपने से ऊँची आर्थिक हैसियतवाले समाज जैसा अपनाने की ख्वाहिश ने हमारी आदतें बदल दीं। आज पानी की बोतलें, भारतीय रेल की जनरल बोगी के हर हाथ में भी दिखाई देती हैं।

निःशुल्क पानी पिलाने के लिये पहले रेलवे स्टेशनों पर ‘पानी पाण्डे’ की नियुक्ति होती थी; आजकल पानी बेचने के लिये हर स्टेशन पर ‘वॉटर प्वाइंट’ खोल दिये गये हैं। सफर के दौरान पहले हम सुराही लेकर चलते थे, आज बोतलबन्द पानी खरीदकर पीने में यकीन रखते हैं। नतीजा यह है कि भारत में बोतलबन्द पानी का कारोबार, वर्ष 2013 में 60 बिलियन रुपये था। आज यानी वर्तमान वित्त वर्ष 2018-2019 के अन्त तक इसके बढ़कर 160 बिलियन रुपये का हो जाने की सम्भावना बताई गई है।

गौर करने की बात है कि महज पाँच वर्ष में हुई इस लगभग पौने तीन गुना बढ़ोत्तरी को हासिल करने के लिये हर अनैतिक कोशिश की गई। रेलवे स्टेशन, बस अड्डे-जैसे सार्वजनिक स्थलों से सार्वजनिक नल और हैंड पम्प हटाए गए। हमारे जलापूर्ति तंत्र ने पहले हमारे नलों में गन्दे पानी की आपूर्ति की; तत्पश्चात शुद्धता और सेहत की सुरक्षा का वादा देकर नल के पानी की जगह 20 लीटर के केन घरों तक पहुँचाए।

हकीकत यह है कि बोतलों में बन्द पानी 15 रुपए से लेकर 150 रुपए प्रति लीटर के हिसाब से बिक रहा है। हमारे क्रिकेट कप्तान विराट कोहली ‘इवियन’ नामक जिस फ्रांसीसी ब्रांड का पानी पीते दिखाई देते हैं, भारत में आकर उसकी कीमत 600 रुपए प्रति लीटर पड़ती है। यह जानकर तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं कि जापान में बेचे जाने वाले ‘कोना निगरी वाटर’ ब्रांड का पानी 2600 रुपए प्रति लीटर में बेचा जाता है। लागत थोड़ी-सी और मुनाफा कई गुना। बोतलबन्द पानी के बढ़ते बाजार और पानी के लिये हमारी कटती जेब का यह प्रमुख कारण है।

ताजा अध्ययनों ने मुझे बताया कि एक लीटर पानी को शोधित करने से लेकर बोतल में बन्द करने की प्रक्रिया में करीब आधा लीटर पानी अतिरिक्त खर्च होता है। बोतलबन्द शीतल पेयों के मामले में यह अतिरिक्त खर्च प्रति एक लीटर की बोतल पर डेढ़ लीटर तक है। बीयर की एक लीटर की बोतल, करीब पौने पाँच लीटर पानी अतिरिक्त खर्च का कारण बनती है। पानी की इस बर्बादी ने मुझे चिन्तित किया।

अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन का निर्देश है कि बोतलों में पानी को तभी उतारा जाए कि जब वह शुगर फ्री, कैलोरी फ्री, फ्लेवर फ्री यानि किसी अतिरिक्त कृत्रिम रसायन से मुक्त हो। कोल्ड ड्रिंक की हमारी बोतलें आज इस सुरक्षा निर्देश का खुलेआम उल्लंघन कर रही हैं। बोतलबन्द पानी में प्लास्टिक के कण मिलने की ताजा रिपोर्ट से अब यह पुष्टि भी हो गई है कि हमारी सेहत के साथ खिलवाड़ तो बोतलबन्द पानी भी कर रहा है। इस खिलवाड़ की खबरों ने मुझे और चिन्तित किया।

आज दुनिया में प्रतिवर्ष कम-से-कम 200 बिलियन पेटा बोतलों की खपत होती है। पेटा, यानी पॉलीथाइलीन टेरेफाइथोलेट का उत्पादन, प्राकृतिक गैस व पेट्रोलियम से होता है। इस तरह एक लीटर की पेटा बोतल बनाने में 3.4 मेगाजूल ऊर्जा खर्च होती है। हकीकत यह है कि एक टन पेटा बोतल की उत्पादन प्रक्रिया के दौरान तीन टन कार्बन डाइऑक्साइड निकलकर हमारे वातावरण में समा जाती है।

दूसरा पहलू यह है कि इतनी बड़ी संख्या में उत्पादित पेटा बोतलें, आज कचरा बनकर हमारे जल निकासी तंत्र को बाधित कर रही हैं। समुद्र में पहुँचकर समुद्री जीवों पर संकट ला रही हैं। समुद्र में पहुँचे इस पॉली कचरे के कारण समुद्र की वे अनमोल मूंगा भित्तियाँ भी नष्ट हो रही हैं, जो कार्बन को अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत्त सबसे नायाब और प्रथम सजीव प्रणाली है।

मेरे मन में एक चिन्ता इस बात को लेकर भी थी कि ‘रेल नीर’ से लेकर अन्य बोतल बन्द पानी के संयंत्र, आसपास की आबादी के हिस्से के भूजल को खींचकर मुनाफा कमाते हैं और बदले में उन्हें कुछ नहीं देते। मैंने सोचा कि मैं क्या कर सकता हूँ? क्या मैं बोतल बन्द पानी और शीतल पेय की कम्पनियों को बाध्य कर सकता हूँ कि वे जितना और जैसा पानी धरती से निकालें; कम-से-कम उतना और वैसी गुणवत्ता का पानी धरती की तिजोरी में पहुँचाने के लिये वर्षाजल संचयन की जवाबदेही उठाएँ। उन्हें बाध्य करने के लिये सामूहिक शक्ति की आवश्यकता होगी। क्या कुछ ऐसा नहीं, जो मैं अकेला कर सकता हूँ?

मुझे याद आया कि कभी महात्मा गाँधी जी ने ब्रितानी कम्पनी की लूट के खिलाफ चर्खे को औजार बनाया था; अतः मैंने पानी के बाजार के खिलाफ प्याऊ को औजार बनाने की ठानी। औजार को आस्था से जोड़ने के लिये मैंने लोगों को याद दिलाया कि श्री शीतलाष्टमी, अक्षय तृतीया और निर्जला एकादशी को प्याऊ लगाकर पानी पिलाने की परम्परा भारत में बहुत पुरानी है। भारत का गरीब-से-गरीब समुदाय भी जेठ-बैसाख के महीने में इंसान ही नहीं, पशु-पक्षी तक के पीने के पानी का इंतजाम करता रहा है; भारत की सनातनी परम्परा पानी को मुनाफा कमाने की वस्तु नहीं, अपितु पुण्य कमाने का प्रकृति प्रदत्त उपहार मानती रही है; तो क्यों न हम भी एक पुण्य करें? बस, बात बन गई।

इसी प्रकार मैंने खुद अपने क्षेत्र में एक ‘पौशाला’ लगाई। नाम रखा- ‘गंगा पौशाला’। पौशाला में पानी के साथ-साथ गुड़ की भी नि:शुल्क व्यवस्था की। पौशाला के चेहरे पर एक नारा लिखा- ‘पानी के बाजार के खिलाफ एक औजारः प्याऊ’। इस नारे ने लोगों में जिज्ञासा जगाई। मैंने उनकी जिज्ञासाओं के जवाब दिये। मिले जवाब ने पौशाला को मेरे द्वारा नहीं, जन-जन द्वारा संचालित बना दिया है। किसी ने पौशाला के लिये गुड़ का इंतजाम अपने जिम्मे लिया है, तो किसी ने मटके का और कोई पौशाला निर्माण में भूमिका निभाने लगा है।

पौशाला के पानी सेवक को दी जानेवाली सम्मान राशि स्थानीय सहयोग से ही जुटाई जाती है। लोगों ने इसे ‘जलदेव मन्दिर’ का रूप दे दिया है। ऐसे जलदेव मन्दिरों की संख्या, आज अकेले इलाहाबाद नगर में पचास से अधिक है। नतीजे में बोतलों और पानी पाउचों की बिक्री का घटना तय है। कहना न होगा कि अब यह एक लोक अभियान है। इसमें मेरा योगदान सिर्फ इतना है कि मैंने लोगों की आस्था को औजार बनाया। मैंने एक दीप जलाया था; लोगों ने अनेक दीप जला दिये। आप भी जलाइये। इस गर्मी एक पौशाला चलाइए।

(लेखक ‘प्याऊमैन’ के रूप में चर्चित हैं)

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