1992 में मथुरा में गोकुल बैराज के निर्माण के दौरान क्षेत्र के लगभग नौ सौ परिवारों के पच्चीस हजार किसानों की सात सौ एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई थी। 1998 में यह बाँध बनकर तैयार हुआ। लेकिन, फिर किसानों के विरोध के चलते इस बैराज का एक फाटक बन्द कर दिया गया, जिससे अधिग्रहित भूमि जलमग्न हो गई। किसानों का कहना है कि जब इस भूमि का अधिग्रहण हुआ तो इन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई और अब तक उस भूमि का उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला।
उत्तर प्रदेश के मथुरा के पच्चीस हजार किसानों ने सत्रह साल बाद भी अपनी ज़मीन का मुआवजा न मिलने पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पत्र लिखकर सामूहिक आत्महत्या के लिये अनुमति माँगी है। पिछले साल नवम्बर में इन किसानों ने मुआवजे की माँग को लेकर गोकुल बैराज पर धरना दिया तो पुलिस ने लाठी चार्ज और हवाई फायर कर दिया, जिसमें कई किसान घायल हो गए थे। इसके बाद पुलिस ने दर्जन भर किसानों को लूट, डकैती आदि के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था।1992 में मथुरा में गोकुल बैराज के निर्माण के दौरान क्षेत्र के लगभग नौ सौ परिवारों के पच्चीस हजार किसानों की सात सौ एकड़ भूमि अधिग्रहित की गई थी। 1998 में यह बाँध बनकर तैयार हुआ। लेकिन, फिर किसानों के विरोध के चलते इस बैराज का एक फाटक बन्द कर दिया गया, जिससे अधिग्रहित भूमि जलमग्न हो गई।
किसानों का कहना है कि जब इस भूमि का अधिग्रहण हुआ तो इन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई और अब तक उस भूमि का उन्हें मुआवजा भी नहीं मिला। उनका यह भी कहना है कि आगे चलकर सरकार ने अधिग्रहित भूमि के आस-पास का मूल्य भी बढ़ा दिया है।
ऐसे में उन्हें इस सत्रह साल की देरी और भूमि के बढ़े हुए मूल्य के अनुसार उचित मुआवजा मिलना चाहिए। किसानों के मुताबिक करीब सात सौ करोड़ रुपए की देनदारी सरकार के ऊपर है। इस मामले की गम्भीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि मथुरा से भाजपा सांसद हेमामालिनी इसे संसद में उठा चुकी हैं।
आरएसएस का किसान संगठन भी किसानों के समर्थन में आवाज उठा चुका है। लेकिन इन सब कवायदों का परिणाम कुछ भी नहीं निकला और आखिर आज ये पीड़ित किसान राष्ट्रपति से आत्महत्या की अनुमति माँग रहे हैं। यह तो एक मामला है। पूरे देश में किसानों की हालत ऐसी ही है या इससे भी बदतर है।
देश में किसानों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। आँकड़े बताते हैं कि देश के नब्बे फीसद किसान छोटी जोत के हैं। इनमें से बावन फीसद किसान परिवार भारी कर्ज में डूबे हुए हैं। अभी कुछ समय पहले भारतीय खुफिया ब्यूरो ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को देश के किसानों की समस्याओं और उनकी दुर्दशा सम्बन्धी एक रिपोर्ट दी है।
इस रिपोर्ट में किसानों की आत्महत्या को लेकर विशेष तौर पर सरकार को चेताया गया है। इसमें कहा गया है कि महाराष्ट्र, केरल, पंजाब आदि राज्यों में तो किसानों की आत्महत्याओं की दर ज्यादा है ही, अब उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में भी ऐसी स्थिति पैदा होने लगी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऋण माफी, बिजली बिल माफी जैसे पैकेज किसानों को फौरी राहत देते हैं न कि उनकी समस्याओं का स्थायी समाधान करते हैं। नतीजतन किसानों की समस्याएँ बनी रहती हैं, जो देर-सबेर उन्हें आत्महत्या को मजबूर करती हैं।
यह जानने के लिये आज किसी शोध की जरुरत नहीं कि किसान आत्महत्या काफी हद तक खेती की समस्याओं और गरीबी की वजह से करते हैं। अगर भारत के किसानों की समस्याओं पर नजर डालें तो उनकी एक लम्बी फेहरिस्त सामने आती है। भारत में खेती का मकसद व्यावसायिक नहीं, जीविकोपार्जन का है। इस नाते किसान की स्थिति तो हमेशा से दयनीय ही रहती आई है।
हालांकि, इसे व्यावसायिक रूप देने की कवायदें होती रही हैं मगर इसमें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इस पर भी खेती लगभग भाग्य भरोसे ही होती है। अगर सही समय पर वर्षा हो गई तब तो ठीक वर्ना फसल बेकार। आज पेड़-पौधों में कमी के कारण वर्षा का सन्तुलन बिगड़ रहा है और इसका बड़ा ख़ामियाज़ा किसानों को उठाना पड़ रहा है।
पिछले कई सालों से यह देखने में आ रहा है कि हर साल देश में कुछ इलाके पूरी तरह से तो कुछ आंशिक तौर पर सूखे की चपेट में रहते हैं। बोरिंग वगैरह से सिंचाई करने की तकनीक है, लेकिन वह नाकाफी है। एक तो यह सिंचाई काफी महंगी होती है, उस पर इस सिंचाई से फसल को बहुत लाभ मिलने की भी गुंजाईश नहीं होती।
सूखे की समस्या के अलावा कुछ हद तक जानकारी और जागरुकता का अभाव भी किसानों की दुर्दशा के लिये जिम्मेदार है। किसानों की जानकारी बढ़ाने के लिये केन्द्र सरकार की तरफ से किसान कॉल सेंटर जैसी व्यवस्था की गई है, मगर ज़मीनी स्तर पर यह व्यवस्था किसानों को बहुत लाभ दे पाई हो, ऐसा नहीं कह सकते।
ऐसे किसान जिनकी आर्थिक निर्भरता केवल खेती पर ही होती है, वे बैंक या साहूकार आदि से कर्ज लेते हैं। लेकिन मौसम की मार के चलते अगर फसल खराब हुई तो फिर उनके पास कर्ज से बचने के लिये आत्महत्या के सिवाय शायद और कोई रास्ता नहीं रह जाता।
इन दिनों देश में भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर लम्बा विमर्श चल रहा है। संसद में भी इस पर चर्चा हुई है। लेकिन, असल सवाल यह है कि पिछले सालों में जो भूमि अधिग्रहित की गई है, उस बारे में ही तमाम फैसले लटके हुए हैं। कई राज्यों में किसान आन्दोलन पर उतारू हो रहे हैं। ऐसे में, केन्द्र सरकार को चाहिए कि वह कोई समग्र नीति तैयार करे, जिससे किसानों को कुछ भला हो सके।
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Post By: RuralWater