आज अमेरिका व इंग्लैंड की थालियों में परोसा जाने वाला भोजन औसतन प्रतिदिन डेढ़ से दो हजार किलोमीटर की यात्रा करके आता है। वहां किसानों की जेब में एक रुपए का केवल 19वां भाग ही जाता है। बाकी की राशि बिचोलिए, व्यापारी, परिवहन वाले और विज्ञापनदाता चाट जाते हैं। ऐसा भोजन महंगा भी है, बासा भी है। इसलिए अब वहां भी आसपास उगने वाले अनाज, फल और सब्जियों की मांग बढ़ रही है। अमेरिका के बड़े शहरों में भी छोटे-छोटे प्लॉट किराए पर लेकर वहां के जिम्मेदार नागरिक अपनी खुद की सब्जी उगाने की तैयारी कर रहे हैं।
बैंगन के पौधे किसने नहीं देखे? अलग-अलग प्रजातियां, अलग-अलग रंग, कुछ पौधे थोड़े छोटे तो कुछ जरा बड़े। पर ऐसा पौधा, जिसकी छांव तले बैठा जा सके? फिर वह पौधा हुआ कि पेड़! महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी के एक किसान भगवान बोवलेकर ने कोई 28 फुट ऊंचे वृक्ष से 4 क्विंटल बैंगन की फसल लेकर बी.टी. बैंगन का प्रचार करने वालों के मुंह पर ताला-सा जड़ दिया है। उसने अपने इस अनोखे काम से, बैंगन के उस पेड़ से कोई 500 ग्राम वजन के 857 बैंगन पैदा कर दिखाए हैं। जमाना रिकार्ड आंकड़ों का भी है तो श्री बोवलेकर का नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज हो गया है। उनका यह अजूबा देखने इस्तांबुल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन, कतर और स्पेन के कृषि वैज्ञानिक भी इस गांव में आ चुके हैं। श्री भगवान का उद्देश्य केवल रिकार्ड के लिए उत्पादन नहीं था। वे तो यह बताना चाहते थे कि रासायनिक खाद, कीटनाशकों के बिना भी ऐसा काम किया जा सकता है। बैंगन के इस अनोखे पेड़ में उन्होंने 17 विभिन्न वनस्पतियों का रस डाला था।वैसे सन् 2008 में इन्होंने इससे भी ऊंचा एक पेड़ तैयार किया था। 35 फुट! राजनीति, घोटाले की रद्दी, भद्दी खबरों के बीच श्री बोवलेकर के बैंगन की खबर कहां छपती पर उन्हें लगता था कि यह काम अच्छा है। इसकी जानकारी और लोगों को भी लगनी चाहिए। उन्होंने इस संदर्भ में अखबारों में विज्ञापन छपवाए। कई लोगों को बताया। किसी ने भी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया। लेकिन श्री भगवान ने जिद नहीं छोड़ी। 2 साल बाद उसने एक और ऐसा पेड़ खड़ा किया। इसकी ऊंचाई 28.5 फुट हो गई। दुनिया भर के रिकार्ड खोजे। तब उन्हें पता चला कि विश्व का सबसे ऊंचा बैंगन वृक्ष 21.1 फुट का ही दर्ज हुआ है। इधर देवास जिले के नेमावर गांव में नर्मदा के किनारे मालपानी ट्रस्ट के दीपक सचदेव ने प्राकृतिक खेती से एक ऐसा नारियल पेड़ खड़ा कर दिखाया है जिस पर 400 नारियल फले हैं। दो-दो एकड़ में फैले बरगद के पेड़ तो आपको देश में चाहे जिस कोने में मिल जाएंगे। यह सब बताने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि हमारी मिट्टी और गाय के गोबर में इतनी ताकत है कि वे आपको मनचाहा अन्न पैदा करके दे सकते हैं।
इस अभिनव प्राकृतिक खेती को छोड़ हमारे राजनेता और योजनाकार क्यों बी.टी. जैसी प्रौद्योगिकी से उगाई गई फसलों के पीछे भागे जा रहे हैं? बगैर किसी भी रसायन के प्राकृतिक खेती से रिकार्ड उत्पादन लेने वाले लाखों किसान हमारे यहां मिल जाएंगे। उनके इस मौन उद्यम को अंधेरे में रखकर देश की खेती को पिछड़ा, घटिया बताना लगातार जारी है। बरसों पहले खेती पर शोध करने वाले लंदन के ‘स्कूल फॉर डेवलपमेंटल स्टडीज’ के तीन युवकों ने भारत के अलग-अलग प्रांतों में अच्छी खेती करने वाले उद्यमी किसानों पर ‘फॉरमर्स फर्स्ट’ नाम की एक किताब लिखी थी। सैंकड़ों उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया था कि भारत में किसान ही सबसे बड़े अनुसंधानकर्ता हैं। ये लोग तरह-तरह की विपदाओं से लड़कर नई-नई चीजें खेतों में इजाद कर लेते हैं। उदाहरण के लिए धान की कुछ किस्में जो कृषि वैज्ञानिकों ने अपने काम से एकदम हटा ही दी थीं, उन्हें किसानों ने फिर से उगाकर लोकप्रिय बना दिया था।
इसी प्रकार पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों को लगा कि गेहूं की फसल के लिए भारी मात्रा में डाला जाने वाला एक खरपतवारनाशक रसायन बहुत ही महंगा है। इन लोगों ने उस रसायन को साधारण रेत में मिलाकर दानेदार खरपतवारनाशक के नाम से प्रचारित किया और वह चल पड़ा। इस दानेदार खरपतवारनाशक को पहले किसी भी अनुसंधान केन्द्र ने परखा नहीं था। यह सिद्ध करता है कि हमारे अनुसंधानकर्ता किस तरह आम किसानों से कटे हुए हैं और लोक परंपराओं से निकले अनुसंधान को स्वीकार करने में किस तरह हिचकिचाते हैं। खेती को अन्न नहीं बल्कि मुनाफा पैदा करने वाला उद्योग मानकर मानसेंटों, कारगिल, वालमार्ट, सिंजेटा और बायर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि हमारे खेतों पर पड़ी है। हमारे शासकों के सामने आई.टी. की थाली परोसकर बी.टी. जैसे प्रौद्योगिकी बीज फैलाने वाली इन भीमकाय शक्तियों के खिलाफ तो स्वयं अमेरिका के संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिकों ने भी कमर कस ली है।
बैंगन के पौधे किसने नहीं देखे? अलग-अलग प्रजातियां, अलग-अलग रंग, कुछ पौधे थोड़े छोटे तो कुछ जरा बड़े। पर ऐसा पौधा, जिसकी छांव तले बैठा जा सके? फिर वह पौधा हुआ कि पेड़! इन संगठनों ने सैकड़ों किताबों, मासिक पत्रिकाओं और फिल्मों के माध्यम से संसार के संवेदनशील नागरिकों को चेताया है। आज ये संगठन वहीं कर रहे हैं जो कभी हम जैसे देशों का गौरवशाली अतीत कर रहा था। उदाहरण के लिए भोजन का हर कौर बत्तीस बार चबाकर धीमा भोजन करो कहने वाली हमारी दादी मां का नुस्खा अब यूरोप, अमेरिका में भी प्रचलित हो रहा है। चटपट फुर्ती से बनने और गटगट खाए जाने वाले फास्ट फूड के बदले अब वहां कोई पांच हजार से ज्यादा छोटे किसानों ने ‘धीमा भोजन अभियान’ चलाया है। धीमे भोजन की यह बात बड़ी तेजी से कोई 130 देशों में फैल चुकी है। धरती मां की तरह वहां भी अब ‘टेरा मैडरे’ अभियान प्राकृतिक खेती की सिफारिश कर रहा है। अमेरिका में पाश्च्युराइज्ड दूध की थैलियों की जगह कच्चा दूध (रॉ मिल्क) मांगा जाने लगा है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि वहां इसके लिए डॉक्टर की पर्ची लगती है।
आज अमेरिका व इंग्लैंड की थालियों में परोसा जाने वाला भोजन औसतन प्रतिदिन डेढ़ से दो हजार किलोमीटर की यात्रा करके आता है। वहां किसानों की जेब में एक रुपए का केवल 19वां भाग ही जाता है। बाकी की राशि बिचोलिए, व्यापारी, परिवहन वाले और विज्ञापनदाता चाट जाते हैं। ऐसा भोजन महंगा भी है, बासा भी है। इसलिए अब वहां भी आसपास उगने वाले अनाज, फल और सब्जियों की मांग बढ़ रही है। अमेरिका के बड़े शहरों में भी छोटे-छोटे प्लॉट किराए पर लेकर वहां के जिम्मेदार नागरिक अपनी खुद की सब्जी उगाने की तैयारी कर रहे हैं। क्या हम उम्मीद करें कि कृषि प्रधान हमारे देश के कृषि वैज्ञानिक भी जी हुजूरी से बचकर और डर के खोल से बाहर निकलकर किसानों के और अंततः देश के हित में इस पर्यावरण नाशक खेती का विरोध करेंगे? भोजन का हर कौर बत्तीस बार चबाकर धीमा भोजन करो कहने वाली हमारी दादी मां का नुस्खा अब यूरोप, अमेरिका में भी प्रचलित हो रहा है। चटपट फुर्ती से बनने और गटगट खाए जाने वाले फास्ट फूड के बदले अब वहां कोई पांच हजार से ज्यादा छोटे किसानों ने ‘धीमा भोजन अभियान’ चलाया है। धीमे भोजन की यह बात बड़ी तेजी से कोई 130 देशों में फैल चुकी है।
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