हाल ही में कुछ किसान कार्यकर्ता मित्रों ने मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले का दौरा किया। वे वहां बैगा आदिवासियों की पारंपरिक बेंवर खेती को देखने गए थे। वे सभी बैगाओं की खेती, सरल व रंगीन जीवनशैली से बहुत प्रभावित हुए।
नरेश विश्वास जो इसी इलाके में बैगाओं की खेती पर काम कर रहे हैं, इस टीम के हिस्सा थे। इसके अलावा, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के किसान कार्यकर्ता भी शामिल थे।
जबलपुर से डिंडौरी तक गाड़ी से गए। रात्रि विश्राम के बाद दूसरे दिन गांव पहुंचे। गांव तक पहुंचने के लिए नदी पार करना पड़ा। हरे-भरे जंगल के बीच नदी में इत्मीनान से लोग नहा रहे थे। मवेशी चर रहे थे।
खेतों की बागड़ की गई थी, क्योंकि जंगली जानवरों से खेतों की सुरक्षा बहुत जरूरी है। जंगली सुअर और जंगली जानवर जरा सी देर में फसलों को चौपट कर देते हैं। बिल्कुल ऐसे जैसे कि नजर हटी और दुर्घटना घटी।
गौरा, बोना और ढाबा गांव में जाकर बैगाओं से मुलाकात की। उनके साथ दरी पर बैठकर बात की। बातचीत के दौरान महिलाएं, पुरुषों के पीछे बैठी थीं। कुछ शहरी मित्रों को यह लगा कि शायद महिलाएं यहां पीछे हैं लेकिन यह जानकर अच्छा लगा कि वे ही खेती के काम में सबसे आगे हैं।
नरेश विश्वास बताते हैं कि बेंवर खेती में हल चलाने की जरूरत नहीं है, इसलिए इस खेती को वे अकेली ही कर सकती हैं। छत्तीसगढ़ में पहाड़ी कोरवा महिलाएं भी कर रही हैं। खासतौर से ऐसी महिलाएं, जो विधवा हैं, उन्हें इस खेती ने सहारा दिया है।
बेंवर खेती को महिला आसानी से कर सकती हैं। जबकि उन्नत किस्म की खेती में मशीन या हल-बैल से जुताई की जरूरत होती है जो एक महिला के लिए बेहद कठिन तो होता ही है और सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसार बैगा समाज में महिलाओं का नांगर चलाने की मनाही भी है।
यहां कोदो, कुटकी, ज्वार, सलहार (बाजरा) मक्का, सांवा, कांग, कुरथी, राहर, उड़द, कुरेली, बरबटी, तिली जैसे अनाज बेंवर खेती में बोए जाते हैं। लौकी, कुमड़ा, खीरा आदि को भी बोया जाता है। कुल मिलाकर, 16 प्रकार के अनाज को बैगा बोते हैं। बैगानी राहर का बाजार में अच्छा भाव मिलता है।
बैगा महिलाएं यहां अपने नौनिहाल बच्चों को पीठ पर झोली बांधकर बैठी थीं। उनके घर-आंगन बहुत सुंदर लिपे-पुते थे। आंगन में कलात्मक ढंग से नक्काशी भी की गई थी। सादगी व सुंदरता की अनूठी छटा थी।
गांव के घर ऐसे हैं कि आमने सामने मकान और बीच में लंबा चौड़ा गोबर से लिपा-पुता सुंदर आंगन। एक मकान जिसमें उनका चूल्हा और रसोई थी यानी उनके रहने का। दूसरा मेहमानों के लिए। और बाजू में मवेशियों को बांधने के लिए सार। हालांकि उनके मकान कच्चे हैं वह पर सुघड़ता से रखी चीजें अपना सौंदर्य बिखेर रही थी।
बैगाओं के साथ भोजन किया। माहुल की पत्तल में भोजन परोसा गया। भोजन के बाद पत्तल को गाय ने खाया। गाय के गोबर से उपजाऊ खाद तैयार होती है, यह टिकाऊ विकास का अच्छा उदाहरण है।
झाबुआ से आए बहादुर कटारा कहते हैं कि हमारे क्षेत्र में भी पहले भील आदिवासी पत्तों में ही खाना खाते थे, लेकिन अब नहीं। दूरदराज के गांवों के लोग अब भी शादी-विवाह, सामाजिक और सार्वजनिक मौकों पर पत्तल दोना में भोजन परोसते हैं। वो कहते हैं हमारे यहां पेड़ों के पत्ते तो अब भी हैं, पर लोग बदल गए। जबकि डिंडौरी में बैगाओं को अपनी संस्कृति व परंपरा पर गर्व है।
परंपरागत खेती को बढ़ावा देने में सक्रिय राजीव खेड़कर कहते हैं कि कई इलाकों में अब भी यह संस्कृृति बची हुई है। लोग अपनी जमीन और खेती से जुड़ाव महसूस करते हैं। खेती से संस्कृति जुड़ी हुई है। वह जीवन पद्धति है। इस तरह की खेती से आदिवासी परंपराएं वापस लौट रही हैं।
पर्यावरणविद् विजय जड़धारी कहते हैं कि मौसम बदलाव के इस दौर में पारंपरिक खेती में ओला, पाला और अतिवृष्टि जैसी आपदाओं को सहने की क्षमता है। यही खेती टिकाऊ है।
इन दिनों मौसम बदलाव से काफी समस्याएं और चुनौतियां आ रही हैं, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बेंवर खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती पर किताब लिखने वाले नरेश विश्वास का कहना है कि सूखा अकाल में भी बैगाओं के पास कोई-न-कोई फसल होती है। उनकी खेती बहुत समृद्ध रही है।
किसान कार्यकर्ता, किसान और विजय जड़धारी जैसे पर्यावरणविद् मानते हैं कि मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। ऐसी पारंपरिक खेती को बढ़ाने की जरूरत है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पर्यावरण व विकास संबंधी मुद्दों पर लिखते हैं
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