बाघ नहीं चिड़ियाएं भी हैं जंगल में

आंगन में फुदकती गौरैया के साथ हमारे मन भी फुदकते रहे हैं। तोता, मैना, कोयल और कबूतर हमारी और हम उनकी भाषा बोलते-समझते रहे हैं। बच्चों के आकर्षण के केन्द्र में रहने वाले पक्षी किसानों, प्रेमियों और योद्धाओं तक के मित्र और स्नेह भाजन रहे हैं। लेकिन हमारी अपनी ही करतूतों ने उनके लिये संकट खड़े कर दिये हैं। बिजली के तारों का जाल और टेलीफोन टॉवर इसके छोटे नमूने हैं। हमारी भोगवादी जीवनशैली एवं वैश्वीकरण की नीतियों के कारण प्रकृति का शोषण बढ़ा है, जिसके परिणामस्वरूप कई दुर्लभ प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर जा पहुंची हैं तो कई विलुप्त ही हो चुकी हैं।

बांधवगढ़ की चिरइंया’ प्रसिद्धि की नई-नई ऊचाइयां छू रही है। शौकिया छायाकार राजीव शर्मा के कैमरे ने उन्हें उड़ने का नया आकाश दिया है। सरकारी यायावरी ने राजीव को बांधवगढ़ का सानिध्य दिया तो उन्होंने इसे जीव जगत के और खासकर चिरइंयों के सानिध्य और सोहबत में बदल दिया। यह सिलसिला 2 साल तक इस समझौते के तहत चला कि चिरइयां उन्हें नई, रंगीन और संगीतमय सुबह देंगी और वे उन्हें पहचान और प्रसिद्धि का नया आकाश। ‘बांधवगढ़ की चिरइंया (बर्ड्स ऑफ बांधवगढ़)’ छायाचित्र प्रदर्शनी अपनी यात्रा के क्रम में बांधवगढ़, उमरिया और भोपाल होते हुए जबलपुर की पर्यावरणीय चेतना को झकझोर चुकी है। रानी दुर्गावती संग्रहालय में लगाई गई इस प्रदर्शनी को छात्रों, नागरिकों के अलावा पत्रकारों, साहित्यकारों और वन्यजीव प्रेमियों ने देखा-सराहा। प्रसिद्ध लेखक एवं संस्कृतिकर्मी अमृतलाल वेगड़ की उपस्थिति एवं टिप्पणी ने इसे और भी यादगार बना दिया। श्री वेगड़ ने कहा बर्स्स ऑफ बांधवगढ़ की उपस्थिति से जबलपुर ‘वैली ऑफ बर्ड’ बन गया।

बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व यूं तो बाघ पर्यटन के लिये ही जाना जाता है, किंतु यहां पर जैव विविधता का व्यापक संसार है। यहां पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां, जीव-जंतु और आनुवांशिक सामग्री जैव विविधता के ही घटक हैं। राजीव शर्मा को यह बात बेहद अखरती थी कि बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का विपुल वन वैभव और मोहक प्राणी जगत पर्यटकों की नजरों से ओझल हैं। बाघ केन्द्रित पर्यटन के कारण बाकी चीजों की तरफ उनकी नजर ही नहीं जाती। इसलिए वन एवं वन्य जीवन के प्रति लोगों का नजरिया बदलने की गरज से उन्होंने अपने कैमरे का फोकस बाघ से हटाकर पक्षियों की तरफ मोड़ दिया। एक अनुमान के मुताबिक बांधवगढ़ में पक्षियों की लगभग 270 प्रजातियां पाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि विश्व में पक्षी वर्ग में कुल 9026 प्रजातियां पहचानी गई हैं, उनमें से भारत में 1166 पाई जाती हैं। राजीव शर्मा की दो वर्षों की कोशिश के परिणामस्वरूप 70 चिरइंया उनके कैमरे में कैद हो गई। कहना न होगा कि आकाशचारी पक्षियों का रंग-बिरंगा संसार मनुष्य के लिए अत्यंत उत्सुकता का विषय रहा है।

आंगन में फुदकती गौरैया के साथ हमारे मन भी फुदकते रहे हैं। तोता, मैना, कोयल और कबूतर हमारी और हम उनकी भाषा बोलते-समझते रहे हैं। बच्चों के आकर्षण के केन्द्र में रहने वाले पक्षी किसानों, प्रेमियों और योद्धाओं तक के मित्र और स्नेह भाजन रहे हैं। लेकिन हमारी अपनी ही करतूतों ने उनके लिये संकट खड़े कर दिये हैं। बिजली के तारों का जाल और टेलीफोन टॉवर इसके छोटे नमूने हैं। हमारी भोगवादी जीवनशैली एवं वैश्वीकरण की नीतियों के कारण प्रकृति का शोषण बढ़ा है, जिसके परिणामस्वरूप कई दुर्लभ प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर जा पहुंची हैं तो कई विलुप्त ही हो चुकी हैं। पिछले दिनों यह कविता पढ़ने को मिली ‘मैंने पूछा - चिड़िया तुम हमसे दूर क्यूं गई? चिड़िया ने हंसकर कहा तुमने जिस तरह का जीवन चुना उसमें मेरी जगह कहां रह गई?’ बात सचमुच सौ टंच खरी है। यदि हम जैव विविधता का महत्व जान समझ पाये हों तो हमें अपना जीवन और सामाजिक आर्थिक व्यवस्था उसके अनुरूप बनानी होगी। पक्षियों के बिना मनहूस सुबह की कल्पना तक से हम डर जाते हैं। हमें पेड़ चाहिए, पेड़ों में शाखाएं और शाखों पर बैठे पक्षी, उनका कलरव-किलोल और किवदंतियां चाहिए। राजीव शर्मा ने कैमरे की आंख से इस जरूरत और हकीमत को उभारा है।

हमारे अंदर पक्षियों के प्रति नई जुगुप्सा जगाई है उनके व्यापक समाज और संसार से परिचित कराया है। इनके छायाचित्रों में दरजिन है, धोबिन है तो कोतवाल भी है। कला, संस्कृति साहित्य एवं मिथकों में वर्णित पक्षी उल्लू, मोर, गिद्ध और राजहंस से लेकर कौआ, कोयल और नीलकण्ठ तक हैं। इन छायाचित्रों में बाज के आंखों से टपकती क्रूरता है तो खंजन के नयनों की सुंदरता-सुकुमारता भी। दूर गगन से बातें करती चील हैं, तो आंखें मटकाता उल्लू भी। शर्मीली पहाड़ी बलालचस्म है तो चुलबुली शौबीजी भी है। बांधवगढ़ में पाये जाने वाले विलुप्त प्राय पक्षी राजगिद्ध के विराट रूप को देखकर रामायण के अमर पात्र जटायु का सहज ही स्मरण आता है। बांधवगढ़ की चिरइयां छायाचित्र प्रदर्शनी हमें हमारी समृद्ध विविधता के दर्शन कराती है। कई आकार, कई प्रकार, कई रंग और कई रूप के देश से परदेश तक के इन परिंदों को देखकर दुष्यंत का यह ‘शेर’-परिंदे पर तोले हुए हैं, हवा में सनसनी घोले हुए हैं, खूब याद आया। पर हमें कुछ और भी याद रखना है यह कि हमें लौटाना है परिन्दों को उनका आवास, उनका आकाश। निरापद बनाना है उनका दाना-खाना। बचाना है जगह-जगह नीर। इस प्रदर्शनी ने हमें जगाया है। हमें लौटाना है, क्योंकि हमें लौटना है। क्योंकि हमारे पास जो कुछ भी है वह सबका है, साझा है।

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