बाघ और आदिवासी

एक अनुमान के अनुसार, ‘छोटानागपुर संथाल परगना आदिवासी विकास एजेंसी’ ने जो धन खर्च किया उसके हिसाब से तो प्रत्येक आदिवासी के बैंक खाते में बीस लाख रुपए हो सकते थे। दुर्भाग्य से सारा पैसा पानी की तरह बहा दिया गया और वनवासी घर-घर जाकर जलावन की लकड़ियाँ बेच रहे हैं। अब से तीन साल पहले अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) विधेयक सार्वजनिक हुआ। इससे ठीक पहले प्रधानमन्त्री ने एक पुस्तक विमोचन समारोह में कहा था, 'हमारे देश में आदिवासी और बाघ दोनों खुशी से रहेंगे।' किसी को मालूम नहीं था कि इस कथन के पीछे असली मकसद क्या है।

प्रधानमन्त्री ने बाघ कार्यबल का गठन करके अपने इरादे साफ कर दिए लेकिन इससे बाघ संरक्षकों को सदमा लगा। एक रिपोर्ट जिसमें आदिवासी और बाघ के सह-अस्तित्व की बात कही गई, उसमें इस बात पर विचार नहीं किया गया कि बाघ के प्रजनन और अस्तित्व के लिए विशिष्ट क्षेत्र की जरूरत पड़ती है। रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया गया था कि जहाँ सह-अस्तित्व सम्भव नहीं है, ग्रामीणों को चरणबद्ध तरीके से कहीं और बसा दिया जाए। इसका अर्थ था कि बैल के आगे बैलगाड़ी बाँध दी जाए।

लेकिन समिति के एक सदस्य ने सह-अस्तित्व की इस अवधारणा का मुखर विरोध किया था।

अन्ततः एक जनवरी, 2008 को अनुसूचित जनजाति और अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों को मान्यता) कानून नियमों की अधिसूचना जारी कर दिए जाने के साथ प्रभावी हो गया। ये तीन साल उठा-पटक के रहे और दोस्त दुश्मन बन गए। संरक्षण करने वाले समुदाय ने यह कहते हुए इसे विवादस्पद करार दे दिया कि इसमें संविधान में जो कुछ कहा गया है उसकी सक्रियतावादियों ने अनदेखी की है, जिन्हें भू-माफिया और राजनीतिज्ञों का समर्थन प्राप्त है। पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा को तोड़-मरोड़कर सह-अस्तित्व की अवधारणा को आगे बढ़ाया जा रहा है।

अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे विधेयक का समर्थन करने वालों और उन संरक्षकों की लड़ाई बताया जो बाघ के संकट के नाम पर इसका विरोध करते रहे हैं।

दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए लेकिन कोई भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को प्राप्त राजनीतिक समर्थन की कल्पना कर सकता है।

इस कानून को सख्त बनाने के लिए हर तरह के प्रयास किए गए थे जिसे संसदीय समिति की स्वीकृति के बाद आदिवासी विकास मन्त्रालय द्वारा तैयार अन्तिम प्रारूप में देखा जा सकता है। इस पर प्रधानमन्त्री कार्यालय में विचार-विमर्श किया गया और राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों को कानून के दायरे से बाहर रखने की आदिवासी विकास मन्त्रालय की प्रतिबद्धता का पालन नहीं किया गया।

मैं भली-भाँति जानता हूँ कि किसी भी पर्यावरणविद ने कभी भी आदिवासियों और वनवासियों को भूमि का मालिकाना हक देने का विरोध नहीं किया है बल्कि वे हमेशा चाहते रहे कि इसे धीरे-धीरे दिया जाए, एक झटके में नहीं दिया जाए।

आखिकार यह एक प्रयोग था और देश के तमाम प्राकृतिक संसाधनों को थोड़े से राजनीतिज्ञों और तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा लूटने की इजाजत नहीं दी जा सकती थी।

पर्यावरण संरक्षण समुदाय ने सदैव वनवासियों के अधिकारों का समर्थन किया है और इसे कई राज्यों में अधिकारों के रजिस्टर में रिकॉर्ड किया गया है। वन अधिकार कानून भी इसे मान्यता देता है।

दुर्लभ वन्य-जन्तुओं के रहने की जगहों की पहचान के लिए बनाई गई विशेषज्ञ समिति में शहरों में कुत्ते, बिल्ली बचाने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व दिया गया न कि वन में वन्य-प्राणियों को बचाने वालों को।हमें मालूम है कि पिछले 35 सालों की निरन्तर कोशिशों के बाद खतरनाक वन्य-जन्तुओं के रहने की जगहों की पहचान हो पाई है। इसके बाद अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और अन्य संरक्षित क्षेत्र आते हैं। अचानक से नये विचारों के साथ कुछ नये लोगों के समूह को पर्यावरण और वन मन्त्रालय ने इस कानून के प्रावधान के तहत सूचीबद्ध किया। दुर्लभ वन्य-जन्तुओं के रहने की जगहों की पहचान के लिए बनाई गई विशेषज्ञ समिति में शहरों में कुत्ते, बिल्ली बचाने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व दिया गया न कि वन में वन्य-प्राणियों को बचाने वालों को।

सौभाग्य से वन अधिकारों के कानून के नियमों को अधिसूचित करने की तारीख पहली जनवरी, 2008 से पहले दुर्लभ बाघ के प्राकृतिक वास के बारे में अधिसूचना जारी कर दी गई।

कोई भी राजनीतिक दल राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण बनाए जाने का विरोध नहीं कर सका क्योंकि इसे संसद के दोनों सदनों में वन्य-जन्तु संरक्षण कानून में एक संशोधन के रूप में लाया गया था (समझा जाता है कि सक्रिय लोगों के कुछ समूह दुर्लभ बाघ के रहने की जगह के बारे में अधिसूचना जारी करने के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की योजना बना रहे हैं)।

मैं यहाँ सरिस्का में अचानक हुई गड़बड़ी का उल्लेख करना चाहूँगा क्योंकि इसके बिना सह-अस्तित्व की अवधारणा को समझाया नहीं जा सकता। 1997 और 2004 के बीच सरिस्का बाघ संरक्षित क्षेत्र को बाघ संरक्षण में जनता की भागीदारी के लिए आदर्श माना जा रहा था। इतना ही नहीं, 1999-2000 में गाँव वालों की भलाई के लिए संवेदनशील क्षेत्र में कंक्रीट के बाँध बना दिए गए। ग्रामीणों ने गैर-सरकारी संगठनों द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में भाग लिया जिसमें भारत सरकार और राज्य सरकार के अधिकारी भी शामिल हुए। शुरू में तो ऐसा लगा कि सपना साकार हो रहा है और सरिस्का को आदर्श बताते हुए सैकड़ों लेख लिख दिए गए और कई किताबें छप गईं।

पहला झटका तब लगा जब ग्रामीणों ने अपने मवेशियों को चराने के लिए संवेदनशील क्षेत्र के भीतर पेड़ों को काट डाला। कंक्रीट का बाँध एक साल बाद भी पानी नहीं दे पाया क्योंकि जलभराव की समस्या का समाधान नहीं किया गया। इसके कारण 2004 के मध्य में सुरक्षित क्षेत्र से बाघ लुप्त होने लगे। गुप्तचर एवं जाँच एजेंसियों ने पुष्टि की कि जिन ग्रामीणों ने वन और बाघ को बचाने की कसमें खाई थीं वे शिकारियों के साथ मिल गए। देश में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिले हैं जब शिकारी गाँव वालों की मदद से फलने-फूलने लगे। इसके लिए गाँव वालों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वहाँ भयंकर गरीबी है और मामूली-सा लालच दिए जाने पर वनवासियों का दिमाग बदल जाता है।

इन सब चीजों के बावजूद आदिवासियों या वनवासियों को भूमि का मालिकाना हक दिए जाने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वाजिब लोगों को भूमि मिले और उनका जीवन-स्तर सुधरे।

मौजूदा कानून की खामियाँ


अर्जी देने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया कि भारत में ग्राम सभाओं में जातिवाद और राजनीति हावी है। गरीब वर्ग न्याय पाने के लिए इधर-उधर भटकता रह जाता है और उसे न्याय नहीं मिलता।

इस कारण सन्देह पैदा होता है कि जायज आदमी को इस कानून से फायदा मिल पाएगा। इसमें भी सन्देह है कि लाभान्वित व्यक्ति भू-माफिया की लालची नजरों से अपनी आवण्टित भूमि की रक्षा कर पाएगा और न ही इस तरह की भूमि को विकास कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण कानून के दायरे से बाहर रखने का कोई प्रावधान है।

वन संरक्षण कानून जैसे कड़े कानून होने के बावजूद लोगों ने वन-भूमि में घुसने का तरीका ढूँढ लिया है और भारत का उच्चतम न्यायालय भी अपनी उच्चाधिकार प्राप्त समिति के माध्यम से इस पर नियन्त्रण नहीं कर पाया है।आजादी के बाद से आदिवासी विकास के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं। एक अनुमान के अनुसार, ‘छोटानागपुर संथाल परगना आदिवासी विकास एजेंसी’ ने जो धन खर्च किया उसके हिसाब से तो प्रत्येक आदिवासी के बैंक खाते में बीस लाख रुपए हो सकते थे। दुर्भाग्य से सारा पैसा पानी की तरह बहा दिया गया और वनवासी घर-घर जाकर जलावन की लकड़ियाँ बेच रहे हैं। गर्मियों में वे जंगलों से कन्द-मूल, फल और पत्तियाँ बटोर कर जीवन-यापन करते हैं। भूस्वामी अपनी भूमि पर खेती करते है लेकिन पिछले पाँच दशक में उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हुई है। ऐसे 90 प्रतिशत गाँवों में पीने का पानी नहीं है। यहाँ तक कि राजीव गाँधी पेयजल मिशन सड़क किनारे बसे गाँवों तक नहीं पहुँच पाया है। अब हमने कानून पारित करके उनके मन में उम्मीद जगा दी है कि भोजन, पानी, शिक्षा, अस्पताल, बिजली या सड़क नहीं भी है तो क्या, मालिकाना हक जादुई छड़ी की तरह उन्हें सम्मान दिलाएगा।

बाघ और उसके रहने के ठिकाने का क्या होगा, इस पर और बहस जरूरी नहीं है लेकिन यह तय है कि वन अधिकार कानून को राजनीतिक दबाव में जल्दबाजी में लागू किया गया है जो सभी दलों के चुनावी घोषणापत्र का मुद्दा बन सकता है।

भारत को आजाद हुए 60 साल से भी अधिक हो चुके हैं, हम अभी भी आदिवासी जीवन के बारे में अनाप-शनाप बातों को बढ़ावा दे रहे हैं जिनके कारण वे वन में जंगली जानवरों जैसा जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर हैं और बुनियादी जरूरतों के लिए वन पर निर्भर हैं।

सवाल यह है कि क्यों एक आदिवासी को वन और वन्य-जीवों की रक्षा करनी चाहिए और इनको बनाये रखने का प्रबन्ध करना चाहिए जबकि चारों तरफ से वनों पर अत्यधिक दबाव है? भारत एक विकासशील देश है, उसे हर गतिविधि के लिए जमीन चाहिए। चाहे उद्योग लगाना हो, पनबिजली पैदा करनी हो, खनन, सड़क, रेलवे और ऐसे तमाम कामों के लिए उसे जमीन चाहिए। वन संरक्षण कानून जैसे कड़े कानून होने के बावजूद लोगों ने वन-भूमि में घुसने का तरीका ढूँढ लिया है और भारत का उच्चतम न्यायालय भी अपनी उच्चाधिकार प्राप्त समिति के माध्यम से इस पर नियन्त्रण नहीं कर पाया है। अगर इस जानकारी पर भरोसा किया जाए तो 2003 से 2007 के बीच भूमि हस्तान्तरण के अधिकतर रिकॉर्ड पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय से गायब हैं।

अन्त में मैं केवल यही दुआ कर सकता हूँ कि इस कानून से आदिवासियों और वनवासियों को वास्तव में लाभ मिले और वे सम्मान से जीवन बिता सकें।

(लेखक बाघ परियोजना के पूर्व निदेशक हैं)
ई-मेल : 1941sen@gmail.com

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