बाढ़


बाढ़ को हमने मारक बना दिया हैछप-छप पतवार की आवाज चारों ओर फैली नि:शब्दता को तोड़ रही थी। नाव धीरे-धीरे अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। बाढ़ के कारण पानी का रंग मटमैला हो गया था पानी में मरे जानवर तैर रहे थे और उससे तीखी दुर्गंध का भभका उठ रहा था। सब कुछ जलमग्न था। इक्का दुक्का पेड़ या कहीं मकान सिर उठाये अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहे थे। कहीं कोई हलचल नहीं थी मनुष्य तो दूर पक्षी तक नजर नहीं आ रहे थे। हम अपनी मंजिल, पश्चिम बंगाल के मालदा तहसील के एक गाँव गाजीपुर की ओर बढ़े जा रहे थे। इस इलाके में कभी धान के हरे भरे खेत लहलहाते थे किंतु आज बाढ़ ने सब कुछ लील लिया था।

इस दृश्य को देख कर मेरे स्मृति पटल पर पाँच वर्ष पूर्व की एक ऐसी ही घटना पुन: उभरने लगी। उस वर्ष भी इंद्र देवता कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गये थे। कई दिनों तक लगातार बारिश होने से नदी नाले पूरे उफान पर थे। हाहाकार मचने लगा था। ऐसे में हमारे दल को सूचना मिली की तुम्हें बाढ़ में डूबे बिहार के एक आदिवासी गाँव कलंगा में तुरंत सहायता के लिये पहुँचना है। पटना से इसकी दूरी करीब 200 मील थी। समय कम था हमारा दल सहायता के लिये चल पड़ा। कुछ दूरी ट्रेन से पूरी की और बाकी की बैलगाड़ी में बैठकर हम सिरसा गाँव पहुँचे। गाँव ऊँचाई पर होने के कारण बाढ़ का कहर यहाँ ज्यादा नहीं था। बाढ़ का असली विकराल रूप हमारे गंतव्य आदिवासी गाँव कलंगा में था।

अगले दिन सुबह ही हम नाव से कलंगा गाँव की ओर बढ़ चले। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गये बाढ़ का विकराल रूप बढ़ता गया। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। हम लोगों को ढूँढ़ते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक एक पेड़ से चिल्लाने की आवाज आने लगी, पास पहुँचकर देखा तो कुछ लोग पेड़ पर चिपके बैठे थे। पेड़ आधे से अधिक पानी में डूबा हुआ था। हमने उन्हें उतारा और कुछ दूर एक टीले पर ले गये। उस टीले को हमने अस्थाई कैंप बना दिया। दिन भर हम लोगों को ढूँढ़ते और टीले पर लाकर छोड़ देते। अंधेरा होने पर कैंप वापस आकर देखा तो पाया कि करीब दो सौ लोगों को हमने सुरक्षित बचा लिया था। लोग सहमे हुए से टिन के नीचे बैठे चुपचाप रूखा सूखा खाना जो उन्हें मिला, खा रहे थे। बाहर मूसलाधार बारिश अभी भी हो रही थी। गाँव के बूढ़े लोग कह रहे थे घोर कलयुग आ गया है पहले सूखा पड़ा और अब ऐसा पानी जो हमने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा।

रात को किसी की रोने की आवाज से मेरी नींद टूट गई। रोने की आवाज सन्नाटे को और अधिक रहस्यपूर्ण बना रही थी मैं उठा और आवाज की दिशा में आगे बढ़ने लगा। देखा तो टिन शेड में जहाँ लोगों को ठहराया गया था वहाँ कोई रो रहा था। जब मैं पास पहुँचा तो देखा लगभग 9 वर्ष की दुबली पतली, सांवली सी लड़की बैठी रो रही है। मैंने उसका सिर सहलाया और प्यार से रोने का कारण पूछा तो वह मुझसे चिपक कर और जोर-जोर से रोने लगी। मैं उसे जितना चुप करता वह उतना ही ज्यादा रोती। वहाँ मौजूद लोगों ने बताया कि इसने खाना भी नहीं खाया। कुछ देर बाद जब उसका रोना शांत हुआ तो मैंने खाना मंगाकर उसे खिलाया और उसके बारे में पूछा।

उस लड़की का नाम पारो था। मासूम चेहरा, धूल मिट्टी में सने उलझे हुऐ खुले केश जो उसके चेहरे को ढक रहे थे। उसके बदन पर फटी हुई पुरानी फ्रॉक थी जो मिट्टी में सन कर मिट्टी के रंग की हो गई थी। वह भी हजारों बेघर हो चुके उसी कलंगा गाँव की थी। उसका पिता कमरू एक गरीब किसान था। दो बीघा पुश्तैनी जमीन पर फूस की झोपड़ी बनाकर अपने परिवार के साथ रहता था। परिवार के गुजर बसर के लिये वह जंगल से लकड़ी काटता और पास के गाँव में जाकर बेच आता जो दो पैसे मिलते उससे अपने परिवार का पेट पालता। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था एक बार जंगल में लकड़ी काटते उसका पाँव फिसल गया और वह नीचे गिर कर बेहोश हो गया। गाँव के कुछ लोग जंगल में पशु चरा रहे थे वे उठाकर उसे घर लाये। काफी देर बाद उसे होश आया तो देखा पाँव कई जगह से टूटा हुआ है। कर्ज लेकर इलाज के लिये शहर पहुँचा तो तब तक पाँव सड़ चुका था उसकी जान बचाने के लिये डाक्टर को उसका पैर काटना पड़ा। कमरू अब लाचार हो चुका था, दिन भर वह अपनी झोपड़ी में पड़ा रहता। कर्ज देने वाले तकाजा करने लगे। ऐसे में कमरू की पत्नी बिरक्षी के कंधों पर परिवार का भार आ पड़ा। अपाहिज पति, तीन छोटे बच्चे और अपना पेट भरने के लिये वह गाँव के लोगों के घर गोबर उठाना, फसल की निराई आदि काम करने लगी। रो धो कर किसी तरह गाड़ी खिंचती गई।

कमजोर शरीर, अधिक काम और खाने की कमी के कारण बिरक्षी की सेहत दिनों दिन गिरती चली गई। और कुछ समय बाद उसे तपेदिक हो गया। अब बीमारी के डर से कोई उसे अपने घर न बुलाता। बिरक्षी भी अब घर पर पड़ी रहती। उस दिन सुबह से ही मूसलाधार बारिश हो रही थी। गाँव के खेत खलिहान पानी से भरने लगे। शाम तक नदी का पानी बढ़ने से गाँव जलमग्न हो गया चारों ओर हाहाकार मच गया। किसी को कुछ नहीं सूझा अपनी-अपनी जान बचाने के लिये लोग गाँव छोड़ भागने लगे। ऐसे में बेचारा अपाहिज कमरू क्या करता। फिर भी उसने अपनी पूरी ताकत बटोरी और अपने परिवार की जान बचाने की ठानी। बैसाखी के सहारे कंधे पर किसी तरह एक बच्चे को ले गया और एक ऊँचे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया। एक-एक कर किसी तरह उसने तीनों बच्चों को झोपड़ी से दूर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पानी अब उसके कंधों को छू रहा था। उसे सुकून था कि उसने अपने तीनों बच्चों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया था। उसे अब आखिरी कोशिश करनी थी। अपनी दूसरी टांग अर्थात अपनी अर्धांगिनी को बचाने की। कमरू ने एक लंबी सांस छोड़ी और अपनी पूरी ताकत बटोर कर अब वह बैसाखी के सहारे बिरक्षी को लेने आगे बढ़ा। पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। अचानक जलस्तर बहुत बढ़ गया और कमरू फिर कभी नहीं लौटा। कमरू और बिरक्षी दोनों काल के गाल में समा गये।

इधर ऊँचे तट पर बैठे तीनों बच्चे अपने माँ बाप का इंतजार करते-करते रोने लगे। कई घंटे बीत गये बाढ़ का जल-स्तर लगातार बढ़ रहा था। जमीन भी नर्म होकर बैठने लगी। अचानक बच्चे पानी में बहने लगे। पारो को तब होश आया जब उसने अपने को एक पेड़ पर और लोगों के साथ पाया। पारो का दुख अब दुगना था एक ओर माँ-बाप जल में समा गये तो दूसरी ओर उसके भाई बहन बिछुड़ गये। उसे लगातार सिसकियां आ रही थीं। मैंने उसकी कमर पर हाथ फेरा और कहा तुम भाई बहन में सबसे बड़ी हो हिम्मत से काम लो। मेरी बात सुनकर वह सिसकते हुए बोली मेरे पिता भी यही कहते थे। पारो की दर्दनाक दास्तान सुन मेरी आँखे नम हो गर्इं और उसके खोये भाई बहन को ढूँढ़ने का आश्वासन मैंने उसे दिया।

पारो ने मुझे बताया उसकी छोटी बहन गारो लगभग सात वर्ष की है। अपने गले में पड़े एक आदिवासी ताबीज की ओर ईशारा कर कहा उसके गले में भी ऐसा ही ताबीज है। छोटे भाई का नाम गबरू है और उसके गले में ताबीज नहीं है। इस दशहरे में जब वह पाँच साल का हो जाता जब उसे ताबीज पहनाया जाता परंतु बाढ़ ने सब खत्म कर दिया।

राहत कार्य खत्म कर मैं पारो को साथ लेकर उसके भाई-बहन की खोज में निकल पड़ा। नाव से कई राहत शिविर गया परंतु उनका कुछ पता न चला। फिर सुनने में आया कुछ लोग एक ऊँची पहाड़ी पर भी हैं। अगले दिन फिर मैं पारो को लेकर वहाँ पहुँचा तो देखा लोगों की भीड़ में दो बच्चे अलग बैठे हैं। पास जाकर देखा तो दोनों गारो और गबरू थे। गबरू ने लोगों से मिली फ्राक पहनी हुई थी और वह लड़की लग रहा था। तीनों भाई बहन एक दूसरे को देख बिलख-बिलख कर रोने लगे। बड़ी मुश्किल से वे शांत हुए। अब तीनों के होठों पर बचपन की निश्छल हँसी खिल आई थी। परंतु आँखों में सबकुछ खोने का गम साफ झलक रहा था। तीनों बच्चों तथा और लोगों को लेकर मैं वापस राहत शिविर लौट आया।

स्थिति सामान्य होने पर मैं उन्हें अपने साथ पटना ले आया। परोपकारी संस्था द्वारा संचालित एक अनाथ आश्रम में मैंने उनका रहने तथा पढ़ाई लिखाई का इंतजाम कर दिया। इसके बाद मैं वापस घर लौट आया। बीच-बीच में उनके हाल-चाल मालूम करता रहता था।

नाविक के जोर से चिल्लाने से मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा हमारी नाव एक पेड़ से फँस गई थी। इस समय मैं बाढ़ में फँसे लोगों को बचाने मालदा के गाजीपुर गाँव जा रहा था। और सोच रहा था कि कहीं फिर से कोई भटका हुआ बच्चा मुझे मिलेगा और मैं उसे उसके अपनों से मिलाने की कोशिश करूँगा। पारो, गारो और गबरू के चेहरे अभी भी मेरी आँखों के आगे तैर रहे थे। धीरे-धीरे हमारी नाव गाजीपुर गाँव की ओर बढ़ने लगी।

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संजीव डबराल
वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, देहरादून


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