मौसम का बदलाव नया नहीं है हजारों साल से उसमें बदलाव आता रहा है। दरअसल हमें खुद को बदलना है, मौसम को बदल नहीं सकते। देश में वर्षा पूरे साल समान रूप से नहीं होती। हमें हर परिस्थितियों के हिसाब से प्रबन्ध करना होता है।
एक महीने पहले मुम्बई के निवासी गर्मी से परेशान थे। इस साल बारिश भी देर से हुई। इस वजह से मुम्बई में ही नहीं समूचे भारत के उन इलाकों में जहाँ गर्मी पड़ती है, परेशानियाँ बढ़ गई। समुद्र के किनारे बसे चेन्नई शहर में पीने का पानी खत्म हो गया। स्पेशल ट्रेन से वहाँ पानी भेजा गया। 2015 में चेन्नई में भयानक बाढ़ आई थी, लेकिन इस साल गर्मी में वहाँ की 1.10 करोड़ आबादी को पानी की किल्लत से जूझना पड़ा। दुनिया में सबसे ज्यादा वर्षा वाले इलाकों में चेरापूँजी का नाम है। वहाँ पिछले कुछ साल से सर्दियों के मौसम में सूखा पड़ रहा है। दिल्ली और बेंगलुरु में तो अगले कुछ साल में जमीन के नीचे का पानी खत्म होने की चेतावनी दी गई है। पिछले 18 में से 13 साल देश में वर्षा सामान्य से कम हुई है। देश का करीब 40 फीसदी क्षेत्र सूखा पीड़ित है, यानी करीब 50 करोड़ आबादी इससे प्रभावित होती है। बहरहाल पिछले महीने गर्मी से परेशान मुम्बई शहर बारिश होते ही पानी में डूब गया। यह स्थिति दो साल पहले चेन्नई शहर की हुई थी।
असम का धेमाजी जिला बाढ़ और सूखे का बेहतरीन उदाहरण है। पिछले साल इस जिले में मानसून के दौरान यानी 1 जून से 29 अगस्त के बीच हुई बारिश सामान्य से 88 फीसदी कम थी। इतना ही नही मानसून शुरू होने के पहले यहाँ इतनी बारिश हुई कि बाढ़ की स्थिति आ गई। जब मानसून की वापसी का मौसम आया, तो 31 अगस्त को जिले की सियांग नदी में जबरदस्त बाढ़ आ गई, क्योंकि चीन ने उसमें काफी पानी छोड़ दिया था। यह एक नमूना है। ऐसी स्थिति देश के अनेक इलाकों में है। हाल में मौसम विज्ञानियों ने एक बात पर ध्यान दिया है कि भारत में मानसून अब देर से आने लगा है। उसकी वापसी की तारीखें भी अब आगे खिसक रही हैं। मौसम का बदलाव कोई नई परिघटना नहीं है। हजारों साल से उसमें बदलाव आता रहा है। दरअसल हमें खुद को बदलना है, मौसम को बदल नहीं सकते। देश में वर्षा पूरे साल समान रूप से नहीं होती। मानसून के चार महीनों और शेष आठ महीनों की परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं। हमें दोनों परिस्थितियों के हिसाब से प्रबन्ध करना होता है।
सूखे के दौरान पानी की किल्लत का एक बड़ा कारण है तालाबों, पोखरों और नदियों की उपेक्षा। सन् 2000 में दिल्ली में किए गए एक सर्वे से पता लगा कि शहर के 794 तालाबों में से ज्यादातर पर अवैध कब्जे हो चुके हैं, जो तालाब बचे थे, उनकी हालत खराब थी। सरकारी फाइलों में जो तालाब हैं, वहाँ अब कुछ नहीं है। बिहार के कोसी क्षेत्र में इन दिनों बाढ़ आ रही है। एक महीने पहले यहाँ पीने के पानी की किल्लत थी। दुर्भाग्य है कि प्राकृतिक सम्पदा हमारे लिए आपदा बनकर आती है। हमने प्रकृति के साथ रहना नहीं सीखा है, बल्कि प्रकृति को अपने तरीके से बदलने की कोशिश की है। मोटे तौर पर यह हमारे प्रबन्धन की कमजोरी है। जून 2013 में उत्तराखण्ड में आई बाढ़ के पीछे एक बड़ी वजह थी नदी के प्रवाह क्षेत्र की अनदेखी। केदारनाथ मन्दिर के करीब से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं। दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी। लोगों को लगा कि अब वह धारा में ही बहेगी। मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपने पुराने रास्ते यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी, पर लोगों ने उसके रास्ते में मकान बना लिए थे। सभी निर्माण बह गए। नदी में सैकड़ों साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है। इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है। इस छूटी हुई जमीन पर निर्माण कर दिया जाए तो खतरा हमेशा बना रहता है। ऐसा ही बिहार में नेपाल से निकलने वाली कोसी नदी के साथ हुआ है, जो बिहार से गुजरती है।
जब कोसी में तटबंध नहीं थे, तब भी बाढ़ आती थी। तब बड़ी नदियों का पानी छोटी सहायक नदियों, पोखरों और इनसे जुड़ी झीलों में चला जाता था, जिससे बाढ़ का प्रभाव कम हो जाता था। गर्मियों में बड़ी नदी में पानी घटता तो ये छोटी नदियाँ और पोखर बड़ी नदियों को पानी वापस कर देते थे। यह प्राकृतिक विनिमय था। नैसर्गिक व्यवस्था के साथ छेड़खानी ने समस्याएँ पैदा की हैं। हमारे जल-प्रबन्धन को प्रकृति-सम्मत और विज्ञान-सम्मत होना चाहिए, हमारा नगर-प्रबन्धन भी खराब है। मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में मामूली बारिश से शहर डूब जाता है। दोष शहरी ड्रेनेज प्रणाली का है, जो या तो है नहीं और है, तो दोषपूर्ण है। भारी वर्षा की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं। पिछले कई दशकों का डेटा बताता है कि बाढ़ की घटनाएँ तिगुनी हो गई हैं। हाल में शोध पत्रिका वॉटर रिसोर्सेज रिसर्च में अमरीका और आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने लिखा है कि वर्षा ज्यादा होने से बाढ़ का रिश्ता नहीं है। ज्यादा महत्त्वपूर्ण है जल निकासी की अव्यवस्था, नदियों के कैचमेंट यानी खादर क्षेत्र और इलाके में हुए निर्माण, नई कॉलोनियों के लिए जमीन की जरूरत हुई तो हमने तमाम विभागों की मंजूरी ली, प्रकृति की तरफ पीठ फेर ली। समस्या के लिए प्रकृति नहीं, हम जिम्मेदार हैं।
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