कुछ समय पहले तक सूखे और गर्मी से बेहाल हुए देश का आधा भूभाग भीषण बाढ़ की चपेट में है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और मध्य प्रदेश में बाढ़ की विभीषिका चरम पर है। राजस्थान के दक्षिणी जिलों में हालात बदतर हैं। इस क्षेत्र का अक्सर बरसात में सूखा रहने वाला रेगिस्तानी इलाका बाढ़ के पानी से लबालब है।
गुजरात के बड़ौदा में भी लगातार बारिश की वजह से कई इलाकों में पानी भर गया है। जुलाई माह में ऐसे ही हालातों से रूबरू होते हुए हमने आधुनिक और वास्तुशिल्प की दृष्टि नए रूप से विकसित किये गए गुड़गाँव, बंगलुरु को जुलाई में देखा था।
पिछले साल यही हालात चेन्नई की थी। इस बाढ़ से अकेले बिहार में जहाँ 127 लोगों को प्राण गँवाने पड़े हैं, वहीं 31 लाख लोग, विस्थापित हुए हैं। मध्य प्रदेश में 110 लोगों को प्रलय मेें तब्दील हुईं लहरों ने लील लिया। कुल 300 लोग मारे जा चुके हैं और 61 लाख बेघर हुए हैं। इन विषम स्थितियों से उन सवालों की पुनरावृत्ति हुई है, जिन्हें सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, अनुपम मिश्र और राजेंद्र सिंह जैसे पर्यावरण के संरक्षक उठाते रहे हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जल प्रबन्धन में लगातार हो रही चूक के प्रति आगाह करते हुए कहा है कि फरक्का बाँध की वजह से गंगा नदी मेें लगातार गाद जम रही है, जिसके चलते नदी उथली हो गई। राज्य के 12 जिलों में आई बाढ़ का यही मुख्य कारण है। इसलिये इस बाँध को जल्द-से-जल्द तोड़ देना चाहिए। यह एक बड़ा प्रश्न है।
इस प्रश्न ने एक बार फिर जहाँ छोटे बाँध और तालाबों की ओर ध्यान खींचा है, वहीं नदियों के प्रवाह को अविरल बनाए रखने की चिन्ता भी इस प्रश्न में शामिल है।
इस समय बिहार में बूढ़ी गंडक, गंगा, सोन, कोसी पुनपुन और घाघरा नदियाँ उफान पर हैं। 20 जिलों के 1115 गाँव जलमग्न हैं। 127 लोगों की मौत हो चुकी है और एक करोड़ 40 लाख लोगों को सुरक्षित स्थलों पर सेना और आपदा प्रबन्धन तंत्र ने पहुँचाने की ऐतिहासिक पहल की है।
उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना, घाघरा एवं राप्ती प्रलय-लीला में बदल गई हैं। 45 लोग इस काल के गाल में समा गए हैं। 8 लाख लोगों को बचाया गया है। करीब 30 हजार हेक्टेयर में फसलें बर्बाद हो गई हैं।
इलाहाबाद, बनारस, गाजीपुर, गोंडा और मथुरा में हालात बदतर हैं। मध्य प्रदेश मेें नर्मदा, बेतवा, केन, चंबल और क्षिप्रा ने किनारे लाँघकर 110 लोगों को लील लिया है और 23 जिलों के करीब 25 हजार लोग बुरी तरह प्रभावित हैं। रीवा और सतना में बचाव व राहत की बागडोर सेना को सम्भालनी पड़ी है।
राजस्थान में चंबल नदी में आई अप्रत्याशित बाढ़ की चपेट में 8 लोगों की मौत हुई, वहीं दक्षिण-पूर्वी जिलों प्रतापगढ़, बारां, चित्तौड़गढ़ और झालावाड़ की एक लाख हेक्टेयर में खड़ी फसल बर्बाद हो गई है।
इन नदियों में से नर्मदा को छोड़ सभी नदियाँ यमुना और गंगा में विलय होती हैं। चंबल, यमुना में मिलती है और यमुना प्रयाग में जाकर गंगा में मिल जाती है। यहाँ से बहती गंगा बिहार व पश्चिम बंगाल में होती हुई बंगाल की खाड़ी में समा जाती है। बिहार के बाढ़ग्रस्त इलाकों में दौरे के बाद नीतीश को कहना पड़ा कि फरक्का बाँध बनने से पहले तक बिहार में बाढ़ इस तरह से जल प्रलय का रूप नहीं लेती थी।
1975 में इस बाँध का निर्माण पूरा होने के बाद गंगा की तलहटी में निरन्तर गाद जमा हो रही है। इसकी वजह से नदी की गहराई कम हो गई है। नतीजतन बरसात में कुछ दिनों की ही बारिश से गंगा उफनने लगती है। लिहाजा इस बाँध का नुकसान बिहार को उठाना पड़ रहा है। नीतीश का यह भी कहना है कि वे पिछले एक दशक से इस मुद्दे को उठा रहे हैं, लेकिन अब तक केन्द्र की किसी भी सरकार ने मुद्दे को गम्भीरता से नहीं लिया।
बिहार में बूढ़ी गंडक, गंगा, सोन, कोसी पुनपुन और घाघरा नदियाँ उफान पर हैं। 20 जिलों के 1115 गाँव जलमग्न हैं। 127 लोगों की मौत हो चुकी है और एक करोड़ 40 लाख लोगों को सुरक्षित स्थलों पर सेना और आपदा प्रबन्धन तंत्र ने पहुँचाने की ऐतिहासिक पहल की है। उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना, घाघरा एवं राप्ती प्रलय-लीला में बदल गई हैं। 45 लोग इस काल के गाल में समा गए हैं। 8 लाख लोगों को बचाया गया है। करीब 30 हजार हेक्टेयर में फसलें बर्बाद हो गई हैं।नीतीश ने बेहिचक कहा है कि इस गाद को साफ करने का एकमात्र तरीका है कि फरक्का बाँध को तोड़ दिया जाये। यदि केन्द्र के पास इस विकल्प के अलावा कोई दूसरा विकल्प है तो उसे तुरन्त नदी मेें जमा गाद की सफाई का काम शुरू कर देना चाहिए।
नीतीश कुमार ने यह मुद्दा दिल्ली में अन्तरराज्यीय परिषद की 11वीं बैठक में पुरजोरी से उठाया कि बैठक में मौजूद जल संसाधन विभाग के आला अधिकारी और अभियन्ता कोई जवाब नहीं दे पाये।
दरअसल साल 1975 में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में गंगा पर बना 2.62 किमी लम्बा फरक्का बाँध अस्तित्व में आने के समय से ही नर्मदा सागर और टिहरी बाँधों की तरह विवादास्पद रहा है।
इस बाँध को बनाने का मुख्य उद्देश्य गंगा से 40 हजार क्यूसेक पानी हुगली में छोड़ना था, जिससे हुगली और कोलकाता के बीच बड़े जहाज आसानी से चल सकें।
बाँध मेें कुल 109 दरवाजे हैं। बाँध के शिल्पकारों ने ऐसा अन्दाजा लगाया था कि जल से लबालब भरे बाँध के जब द्वार खोले जाएँगे तो इस जल प्रवाह से न केवल हुगली और कोलकाता के बीच गंगा की तलहटी में जो गाद जमा हो जाती है, वह बह जाएगी, साथ ही कोलकाता बन्दरगाह पर भी गाद जमा नहीं होगी। लेकिन परिणाम इस सोच के अनुरूप नहीं निकले। गंगा की तलहटी में तो भरपूर गाद जमती ही रही, कोलकाता बन्दरगाह की हालत भी जस-के-तस रहे।
इसके उलट फरक्का बाँध में जब पानी लबालब हो जाता है तो गंगा का पानी बिहार से उत्तर प्रदेश तक थमने लगता है। इस थिर-स्थिरता के कारण गंगा के बहने की विपरीत दिशा में तेजी से गाद जमने लग गई, जिस कारण नदी की गहराई लगातार कम हो रही है।
इस लिहाज से नीतीश का बाँध तोड़ने का सवाल न केवल इस बाँध के सन्दर्भ में प्रासंगिक है, बल्कि बड़े बाँधों के निर्माण के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है? यही नहीं फरक्का के चलते बांग्लादेश, जिसकी सीमा इस बाँध से महज 16 किमी दूर है, की ओर से बाँध के औचित्य पर पुनर्विचार की माँग तेज हो रही है।
बाँध में जब जल भर जाता है, तब बांग्लादेश के सीमान्त गाँवों में डूब का खतरा मँडारने लगता है। बांग्लादेश के नदी विशेषज्ञ और सरकार अर्से से फरक्का बाँध से आम जन-जीवन पर प्रतिकूल असर का मुद्दा उठा रहे हैं। उनका आरोप है कि बाँध में जमा गाद पानी का बहाव तो धीमा करता ही है, गंगा के पानी को भी बांग्लादेश के डेल्टा से दूर कर देता है।
इसका असर लाखों स्थानीय किसानों और मछुआरों को उठाना पड़ता है। बांग्लादेश का यह भी कहना है कि जल बँटवारे पर संधि के बावजूद उसे गंगा से उतना पानी नहीं मिल पा रहा है।
हुगली नदी में गाद जमने की समस्या आजादी से पहले की है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद दामोदर नदी घाटी पर बने बाँध के चलते यह समस्या और गम्भीर हो गई। फरक्का बाँध के निर्माण का मकसद इसी समस्या से छुटकारा पाना था।
19वीं सदी में सर आर्थर कॉटन ने पहली बार इस समस्या से निजात के लिये फरक्का बाँध बनाने का सुझाव दिया था। लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बाँध बन नहीं पाया। देश के आजाद होने के बाद कोलकाता बन्दरगाह में लगातार गाद जमती रही। नतीजतन इसकी गहराई कम होती चली गई।
एक वक्त ऐसा भी आया, जब तलहटी में गाद जमते जाने की वजह से कोलकाता तक बड़े जहाजों की आवाजाही रोकनी पड़ी। इसी दौरान आर्थर कॉटन के प्रस्ताव पर नए सिरे से विचार करके फरक्का बाँध के निर्माण की बुनियाद रख दी गई।
नीतीश का बाँध तोड़ने का सवाल न केवल इस बाँध के सन्दर्भ में प्रासंगिक है, बल्कि बड़े बाँधों के निर्माण के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है? यही नहीं फरक्का के चलते बांग्लादेश, जिसकी सीमा इस बाँध से महज 16 किमी दूर है, की ओर से बाँध के औचित्य पर पुनर्विचार की माँग तेज हो रही है। बाँध में जब जल भर जाता है, तब बांग्लादेश के सीमान्त गाँवों में डूब का खतरा मँडारने लगता है। बांग्लादेश के नदी विशेषज्ञ और सरकार अर्से से फरक्का बाँध से आम जन-जीवन पर प्रतिकूल असर का मुद्दा उठा रहे हैं।लेकिन निर्माण के 40 साल बाद इसके औचित्य पर चौतरफा सवाल उठ रहे हैं। नदी विशेषज्ञों का मानना है कि यह बाँध हुगली की तलहटी व किनारों पर जमा कचरे और कोलकाता बन्दरगाह से गाद साफ करने के एकमात्र उद्देश्य में विफल रहा है।
कोलकाता बन्दरगाह न्यास के आँकड़ों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। यहाँ तैयार किये जाने वाले आँकड़ों से पता चला है कि बाँध बनने के पहले हुगली में गाद जमा होने की रफ्तार 6.40 मिलियन क्यूबिक मीटर सालाना थी, जो अब बढ़कर 21.88 मिलियन क्यूबिक मीटर वार्षिक दर से बढ़ रही है।
हुगली नदी में ताजे पानी के साथ आने वाली गाद की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उसे फरक्का से छोड़े जाने वाले 40 हजार क्यूसेक पानी से बहाना सम्भव ही नहीं है।
गंगा में गाद के जमा होने का विपरीत असर भारत के आम ग्रामीणों को भी झेलना पड़ रहा है। तट-कटाव में तेजी आई है। इसी बाढ़ में गंगा के किनारे कटने से उत्तर प्रदेश और बिहार के कई तटवर्ती गाँवों ने नदी में समाकर अपना अस्तित्व खो दिया है। इन सवालों की परछाईं में नीतीश द्वारा बाँध को तोड़ने का प्रश्न विचार योग्य है।
सच्चाई तो यह है कि गाद से केवल नदियाँ ही नहीं भरी हैं, बल्कि तालाब, झील, झरने, बरसाती नाले और कुएँ भी पट गए हैं या पाट दिये गए हैं। शहरों, कस्बों और महानगरों का इस कारण जल-निकासी तंत्र अवरुद्ध हुआ है। दो साल पहले देव-भूमि केदारनाथ में हुई भयावह त्रासदी, कुछ ऐसे कारणों का परिणाम थी। किन्तु हमने इस त्रासदी से कोई सबक नहीं लिया।
उत्तराखण्ड के इस हिमालयी क्षेत्र में जल विद्युत परियोजना और पर्यटन विकास अभी भी जारी हैं। जबकि इसी साल गर्मियों में यहाँ के हजारों हेक्टेयर जंगल, जल उठे थे। ग्लोबल वार्मिंग के ऐसे ही प्रभावों के चलते यहाँ लगातार पहाड़ों में भूस्खलन हो रहा है। बादल फट रहे हैं।
पहाड़ों में बारिश के साथ, ज्यादा मिट्टी जल के साथ प्रवाहित होकर एक तरफ पहाड़ी नदियों की दिशा बदल रही है, वहीं दूसरी तरफ यही गाद गंगा-यमुना में जाकर इनकी गहराई कम कर रही है। इन वजहों से गोमुख और हिमखण्ड निरन्तर पीछे खिसक रहे हैं।
हिमखण्ड टूटने के साथ काले भी पड़ रहे हैं। हिमखण्डों में दरारों की संख्या बढ़ रही है। बावजूद पर्यटकों के रूप में पहाड़ पर मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है। बर्फीली सतह पर ये पर्यटक इतना कचरा फैला रहे हैं कि भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा-बलों तक को इस कचरे की सफाई में लगाना पड़ा है। सीमा की सुरक्षा में लगे जवानों से सफाई का काम हैरानी में डालने वाला है।
इन भयावह चेतावनियों के मद्देनजर यदि हम अब भी नहीं चेते तो सुरक्षित भविष्य की कामना कुदरत से रखने का अधिकार खो देंगे। वैसे ही धरती के बढ़ते तापमान से वर्षा-चक्र प्रभावित हो रहा है। गोया, बाढ़ का खतरा पहले से कहीं ज्यादा भयावह रूप में हमारे सामने है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस कारण बाढ़ की प्रकृति और निरन्तरता में बदलाव आएगा और इनकी आवृत्ति में वृद्धि होगी। इसीलिये पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों का कहना है कि पारम्पारिक जलस्रोतों के उद्धार की ओर हमें ध्यान देना होगा। इसके लिये आधुनिक विकास के स्वरूप को बदलने की एक बड़ी चुनौती है।
यह तभी सम्भव है, जब जल प्रबन्धन को राष्ट्रीय एजेंडे में दर्ज करके दूरगामी नीतियाँ बनाकर, सख्ती से क्रियान्वित की जाएँ। अन्यथा देश को विकसित राष्ट्र बनाने की परिकल्पनाएँ हर साल बाढ़ की चपेट में इसी तरह से चौपट तो होंगी ही, फरक्का बाँध की तरह अप्रासंगिक भी होती चली जाएँगी। हमने औद्योगिक विकास का जरिया बड़े बाँधों को माना हुआ, चीन में ऐसे ही 3.5 किमी लम्बे तटबन्ध को बारूद लगाकर इसी बरसात में उड़ाना पड़ा है।
समय रहते इस बाँध को नहीं तोड़ा जाता तो इसके जल दबाव से टूटने का खतरा बढ़ गया था। लिहाजा लाखों लोगों के मारे जाने और तबाही की बड़ी आशंका चीन के सामने पैदा हो गई थी।
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Post By: RuralWater