यह सत्य है कि भारत ने असम, बिहार और तमिलनाडु में आये बाढ़ों से कोई सीख नहीं ली। अगर बाढ़ के कारणों का समुचित निदान नहीं किया गया तो इतिहास खुद को दोहराता रहेगा, केरल नहीं तो कहीं और सही।
इसके तीन मुख्य कारक हैं
प्रतिकूल बाँध प्रबन्धन
अन्य जगहों की तरह केरल में भी आपातकालीन रूप से बाँधों से पानी छोड़ा जाना राज्य में बाढ़ के प्रभाव को बढ़ाने का बड़ा कारण था। ज्यादा बारिश होने की पूर्व सूचना के बाद भी बाँधों से नियंत्रित ढंग से पानी नहीं छोड़ा गया। नेशनल हाइड्रोलॉजी प्रोजेक्ट (National Hydrology Project, NHP) को तैयार करते वक्त 2015 में विश्व बैंक (world bank) द्वारा किये गए विश्लेषण में कहा गया था कि भारत में मौसम के पूर्वानुमान की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन जलाशयों के नियंत्रण में नौकरशाही एक बड़ा रोड़ा है।
इस विश्लेषण में कहा गया कि नौकरशाह काफी एडवांस स्टेज में जलाशयों से पानी छोड़ने की बात पर अड़े रहते हैं। ऐसा इसलिये भी है कि भारत में जलाशयों के परिचालन वर्षा की सम्भावनाओं पर निर्भर नहीं करता। ऐसा माना जाता है कि मानसून काल के अन्त तक जलाशयों को पूरी तरह भर जाना चाहिए वहीं पूरे विश्व में जलाशयों का प्रबन्धन अब मौसम के पूर्वानुमान पर आधारित है।
बहुत सोच विचार के बाद भाखड़ा डैम प्रबन्धन ने मौसम के पूर्वानुमान पर आधारित पद्धति को अपनाया है। लेकिन अन्य डैमों का प्रबन्धन अभी भी पुराने तरीके से होता है क्योंकि मौसम के पूर्वानुमान की सूचना पर प्रबन्धन को भरोसा नहीं है। इसके साथ ही राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही भी इस सम्बन्ध में हुई किसी गलती को माफ नहीं करती इसीलिये डैम प्रबन्धक जलाशयों से पानी छोड़ने के लिये अग्रिम आदेश देने से कतराते हैं।
नेशनल हाइड्रोलॉजी प्रोजेक्ट ने पूरे भारत में जलविद्युत और मौसम के पूर्वानुमान की प्रणाली में सुधार किया है लेकिन जब तक जलाशयों के प्रबन्धक जोखिम लेने के लिये तैयार नहीं होंगे इसका उपयोग जलाशयों के संचालन में नहीं किया जा सकता है।
बेसिन-स्केल वॉटर मॉडलिंग (basin scale water modeling) और विश्लेषणात्मक आकस्मिक योजना के लिये इंटर बेसिन ट्रांसफर, इंटरमीडिएट स्टोरेज स्ट्रक्चर से नहरों को जोड़ने और उच्च प्राथमिकता वाले उपयोगों के लिये पानी का पुन: आवंटन आदि के लिये 'प्लान बी' की भी आवश्यकता है। इनमें से कोई भी आज भारत में मौजूद नहीं है।
अवरुद्ध जलमार्ग
बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित केरल चेंगानूर के तिरूवनवंदूर (प्रवीणकुड़ू से तिरूवनवंदूर) क्षेत्र में 23 छोटी धाराओं का आज कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। केवल एक बड़ी जलधारा (थोडू) जिसे मदनथोडू भी कहा जाता है अस्तित्व में है परन्तु उसका भी कई स्थानों पर अतिक्रमण किया जा चुका है। इसी के कारण पम्बा नदी सड़कों पर बहने लगी और बाढ़ का कहर और बढ़ गया।
कमोबेश यही कहानी केरल के अन्य भागों की भी है। रेलवे लाइन, आवासीय कॉलनियों आदि का निर्माण केवल औपचारिक नियोजन अनुमति के आधार पर बिना जलमार्गों का ध्यान रखे ही कर दिया गया है।
अन्तरदेशीय जलमार्ग विभाग केवल बड़े-बड़े जलमार्गों का ही ध्यान रखती है वहीं जिला और स्थानीय पंचायतों को छोटे जलमार्गों को बचाए रखने में कोई रुचि नहीं जबकि बाढ़ के जोखिम को कम करने के लिये ऐसा किया जाना आवश्यक है। इतना ही नहीं राज्य आपदा प्रबन्धन विभाग भी इनकी अनदेखी करता है।
जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए नदी बेसिन विशिष्ट के लिये मॉडल तैयार कर बाढ़ और उसके प्रभाव को समझा जाना पहला आवश्यक कदम है। जैसाकि हाल ही में छत्तीसगढ़ में महानदी के लिये यूनाइटेड किंगडम के डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (Department for International Development,UK) द्वारा इतिहास में हुई आज तक की सबसे ज्यादा बारिश से भी दोगुनी बारिश को आधार बनाकर एक मॉडल तैयार किया गया है। दूसरी सबसे बड़ी आवश्यकता है सरकार मध्यवर्ती जल भण्डारण, उसकी निकासी और आपातकाल की योजना बनाकर उनसे स्थानीय समुदाय को जोड़े।
यह सुनिश्चित करने के लिये कि हवाई अड्डे का विस्तार नदी के बाढ़ क्षेत्र में न हो बड़े स्तर पर जागरुकता फैलाने की जरूरत है। उदाहरणस्वरूप चेन्नई हवाई अड्डा और अड्यार नदी। रोड में पड़ने वाली पुलियाओं के माध्यम से तूफान का पानी बिना किसी रुकावट के हवाई अड्डा क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। यहाँ अतिरिक्त पानी को रोका नहीं जाता है बल्कि ढलान वाले मिट्टी के स्तर को सन्तृप्त करने के लिये उसे छोड़ दिया जाता है ताकि मिट्टी का धँसाव न हो।
नहीं तैयार थे लोग
संयुक्त राष्ट्र के सेंडाइ फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (Sendai Framework for Disaster Risk Reduction) के हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद भी भारत में इस सन्दर्भ में धरातल पर थोड़ा ही बदलाव हुआ है। आपदा प्रबन्धन में थोड़ा सुधार हुआ है। केरल में मानव और पशुओं की जान बचाने के लिये अभूतपूर्व प्रयास हुए।
इस आपदा के दौरान क्या सावधानी बरती जानी चाहिए जैसी सूचनाओं को सामाजिक और अन्य मीडिया के माध्यम से भी साझा किया गया लेकिन ज्यादातर लोगों को बाढ़ के प्रभाव की जानकारी नहीं थी। अगर यह जानकारी पहले दी गई होती तो शायद इसके प्रभाव को कम किया जा सकता था क्योंकि हर व्यक्ति इससे निपटने के लिये तैयार होता। अधिकांश आधुनिक शहरों में विस्तृत बाढ़ प्रबन्धन योजनाएँ हैं लेकिन भारत, बाढ़ के मैदानों, समुद्री तटों और झीलों के आस-पास के इलाकों में भी अवैध निर्माण और अतिक्रमण से रक्षा करने में नाकाम साबित हो रहा है।
हालांकि अतिक्रमण और अनियोजित निर्माण जैसे अन्य मुद्दे भी जलवायु और जल प्रबन्धन की दृष्टि से देखे जाने पर स्पष्ट प्राथमिकता वाले विषय हैं। वर्ष 2018 में दक्षिण एशिया में सीआरडब्ल्यूएम द्वारा तय किये गए मानकों के अनुसार इसके लिये तीन मानदंड निर्धारित किये गए हैं।
निर्णय लेने के लिये हमें सबसे बेहतर उपलब्ध जानकारी को इस्तेमाल करने की आवश्यकता है। इसका अर्थ है कि हमें हाइड्रोमेट सिस्टम और मौसम के पूर्वानुमान में सुधार के साथ ही जलग्रहण क्षेत्रों में मौसम में होने वाले बदलाव के अनुरूप अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार एक बेहतर योजना तैयार करने की जरूरत है। जिसमें विभिन्न सुरक्षा कारकों के साथ ही बिल्डिंग कोड को भी शामिल किया गया हो। इसके लिये हमें प्रतिरोधकों, अनुकूलता और लचीलापन का ही ध्यान रखना होगा। इसमें बाँधों और नहरों के वर्तमान सुरक्षा मानदंडों की समीक्षा करना, उच्च सुरक्षात्मक उपायों का इस्तेमाल कर इन्हें फिर से बनाना, नए मध्यवर्ती भण्डारण क्षमता का विकास और एक ठोस जलाशय प्रबन्धन की शुरुआत करना शामिल है।
इसके साथ ही उन गरीबों का भी ध्यान रखना होगा जो प्राकृतिक आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
केरल के पास जलवायु से जुड़े सम्भावित प्रभावों के बारे में लोगों को जागरूक करने के साथ ही भविष्य के लिये योजना तैयार करने का एक अनूठा अवसर है। भविष्य में ऐसी भीषण घटनाएँ और भी हो सकती हैं इसीलिये उनके बारे में पूरी तरह अनजान रहने के बजाय तैयार रहना बेहतर है।
लेखक, ए.जे. जेम्स दिल्ली में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्री हैं, जी आनन्द स्वच्छता और अपशिष्ट जल प्रबन्धन सलाहकार हैं।
अनुवाद- राकेश रंजन
अंग्रेजी में पढ़ने के लिये यहाँ देखें
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