बाढ़ नदी की मूल प्रवृत्ति है

अगर मानव जाति के विकास क्रम को देखें तो वर्तमान समय ‘जलवायु परिवर्तन के प्रभाव' का दौर है‚ जिसकी शुरुआत ‘एंथ्रोपोसीन' युग‚ जिसमें मानव के कार्यकलाप के कारण धरती के भौमिकी और उसके पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं‚ से मान सकते हैं। हाल में आईआईपीसीसी की छठी आंशिक रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि जलवायु परिवर्तन न सिर्फ मानव जनित है‚ बल्कि अनुमान से काफी तेज गति से जलचक्र‚ मौसमचक्र‚ और पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहा है‚ जो मानव जीवन के आधार स्तंभ हैं। धरती के तापमान में वृद्धि के तय मानक 1.5 .C हैं‚ जिनसे अधिक तापमान बढ़ने से हुए प्रभाव न सिर्फ भयानक और दीर्घकालिक होंगे‚ बल्कि स्थायी होंगे और ये मानक भी अगले दो दशकों में ही पार जाना अवश्यंभावी है। बढ़ते तापमान के कारण अत्याधिक बारिश जनित विनाशकारी बाढ़‚ सुखा‚ समुद्र के सतही तापमान में वृद्धि से उपजी विषुवतीय चक्रवात और जंगल की आग की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि अब एक न्यू नॉर्मल बन चुका है। अगर वैश्विक नेतृत्व अब भी शायद‚ अगर-मगर‚ किन्तु-परन्तु करते रहे तो शायद पृथ्वी का चक्र तो चलता रहेगा पर मनुष्य के बिना। 

ऐसे हालात में जरूरत है पीछे मुड़ के देखने की‚ मानव की सभ्यतागत यात्रा के पूर्वावलोकन की ताकि प्रकृति के साथ सहजीवन की अब तक की संपूर्ण मानवीय समझ को तकनीक से जोड़ के इस अभूतपूर्व संकट का सामना किया जा सके‚ जिसे हम नेपथ्य में छोड़ चुके हैं। सेपियन्स: मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास के लेखक नोवाल युवा हरारी मानव के अब तक के विकास को तीन महत्वपूर्ण क्रांति के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। संज्ञानात्मक क्रांति (कॉग्निटिव रेवोलुशन‚ 70000 वर्ष पूर्व के आसपास) ने मानव को उच्चतम समझ और संप्रेषण से नवाजा जो आगे चल के भाषा के रूप में विकसित हुई। 12000 वर्ष पूर्व कृषि का विकास हुआ हालांकि उसके पहले आग की तकनीक आ चुकी थी। कृषि के साथ विकसित हुई मानव सभ्यता‚ जिसकी परिणति वैज्ञानिक या औद्योगिक क्रांति के रूप में हुई और जिसने बहुत कम समय में परिवर्तनों की अंतहीन शृंखला को जन्म दिया‚ वर्तमान जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का दौर शायद उसी की एक कड़ी भर है।

 मानव विकास के पड़ाव 

मानव विकास के इन पड़ावों के इतर मानव ने अपने आप को पारिस्थितिकी भोजन शृंखला में त्वरित गति से शिखर पे जा पहुंचा था। और ये सब इतनी जल्दी हुआ कि इकोसिस्टम में मानव के लिए उन संतुलनों और नियंत्रणों को विकसित करने का मौका ही नहीं मिला‚ जिनसे भोजन श्रृंखला के शीर्ष के अन्य जीवों (जैसे शेर‚ शार्क) को तबाही मचने से रोकती है। इस अति उतावली भोजन श्रृंखला की छलांग के नतीजों में वीभत्स युद्ध से लेकर पर्यावरण संबंधी तबाहियां जिनमें प्रदूषण‚ जैव विविधता का क्षय और जलवायु परिवर्तन को शामिल किया जा सकता है। 

कृषि क्रांति से औद्योगिक क्रांति का समय मानव और प्रकृति के बीच तालमेल के आधार पे सभ्यता और तकनीक के विकास का दस्तावेज है। इस बीच सभ्यता मुख्य रूप से अपेक्षाकृत गर्म और पानी की उपलब्धता वालों स्थानों में फली फूली‚ मौसम और मिट्टी के हिसाब से पौधे और पशु पालतू बने‚ नदी घाटी में कृषि के साथ–साथ खाद्य प्रणाली और सभ्यता विकसित हुई। वहीं प्रतिकूल जगहों पे (ठंडे प्रदेशों‚ मरू भूमि) भी मनुष्य ने संसाधनों के साथ तालमेल के साथ जीने की पद्धति का विकास किया। विषम प्राकृतिक परिस्थितियों में भी खाद्य प्रणाली‚ जल प्रणाली और पारिस्थितिकी तंत्र के अनुरूप विकसित लचीलापन ने एक खास किस्म का अनुकूलन को पनपने का मौका मिला। भारत इस मामले में एक आदर्श प्रदेश हो सकता है‚ जहां पानी की उपलब्धता के आधार पे अनेक किस्म के फसल चक्र‚ खानपान की पद्धति‚ सतत रूप में विद्यमान रही‚ जहां पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधन केवल महत्वपूर्ण उपयोग की वस्तु न हो के सांस्कृतिक उपादान बन गए जिनके महत्व की समझ समाज के हरेक व्यक्ति को हाल तक रहा। प्राकृतिक संसाधनों का सतत संरक्षण व्यक्तिगत‚ सामाजिक या फिर धाÌमक मान्यताओं का हिस्सा बना‚ तभी तो अलग से प्रकृति के प्रति जागरण की जरूरत नहीं महसूस की गई। नदियों की पूजा‚ पक्षियों के लिए पानी‚ गाय के लिए रोटी किसी न किसी रूप में आज भी हमारी मान्यताओं में शामिल हैं।  

यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के आधार पे एक उपभोक्तावादी संभ्यता की नींव रखी जिसमें संसाधनों को सांस्कृतिक उपादान न मान कर इकोसिस्टम के इतर केवल मनुष्य मात्र के उपयोग की वस्तु के रूप में देखा गया। तकनीक और अभियांत्रिकी के बेजा इस्तेमाल से प्रकृति के साथ तालमेल को नये सिरे से परिभाषित किया जाने लगा‚ शुरुआती सफलता भी मिली‚ पहले आर्थिक विकास‚ विज्ञान ने काफी प्रगति की‚ फिर ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का दौर आया पर इस बीच हर पहलू में प्रकृति के साथ साहचर्य बुरी से बिगड़ा है‚ जिस पे मानव जीवन टिका है। वैज्ञानिक क्रांति से उपजी इस सोच को पानी को केंद्र में रख के बखूबी समझा जा सकता है। खेती और सभ्यता नदी घाटी में फली फूली और उसका आधार बनी नदियों में आने वाली बाढ़ और उपजाऊ निक्षेप। 

बाढ़ और मनुष्य का रिश्ता पुराना 

बाढ़ और मनुष्य का रिश्ता सभ्यता जितना पुराना है‚ और समय के साथ एक बेहतर तालमेल की निशानी आज भी हरेक नदी घाटी में बसे समाज में देखी जा सकती है‚ यह एक तरह से नदी और मानव के बीच समझौते जैसा था कि दो हफ्ते की बाढ़ को पूरी तैयारी के साथ झेल के वर्ष भर संसाधनपूर्ण रहा जाए। बाढ़ को कभी आपदा के रूप न देख के कृषि की आवश्यकता और समृद्धिके रूप में देखा गया। पर तकनीक का दौर आया‚ आनन फानन में हमने नदियों पे नकेल कस के अदद ढाई दिन से दो हफ्तों के लिए आने वाली बाढ़ को भी नियंत्रित करने का प्रयोजन विकसित किया। पानी को सांस्कृतिक उपादान से अब संसाधन के रूप में देखने की ज्ञान प्रणाली वजूद में आई। बाढ़–नदियां‚ जो कभी समृद्धि की प्रतीक थीं जिसके आने की कामना की जाती थी‚ को अब शोक का प्रतीक मान लिया गया और फिर दौर शुरू हुआ बड़े पैमाने पे बांध‚ बैराज‚ जलाशय‚ नहर‚ जिनमें ‘पानी के विज्ञान' तक को ठंडे़ बस्ते में डाल दिया गया। नदियों का न सिर्फ बहाव नियंत्रित हुआ‚ बल्कि उनका फैलाव भी सीमित हुआ और नतीजा बरसात के दिनों में जलस्तर में वृद्धि‚ तेज बहाव के चलते दोमट मिट्टी के बदले बालू का निक्षेपण‚ नदी में तलछट के चलते सतह में भराव। 

अब बाढ़ धीरे–धीरे आपदा का स्वरूप लेने लगी। वर्ल्ड़ रिसोर्स इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में लगभग वही सारे देश हैं‚ जहां–जहां नदी और पानी के साथ तालमेल का मानवीय इतिहास रहा है‚ जहां नदियों के किनारे सभ्यता पनपी है‚ जिसमें भारत और बांग्लादेश शिखर पे हैं पर पिछले सात–आठ दशकों में नदी और बाढ़ की हमारी पारंपरिक समझ को दरकिनार कर केवल अभियांत्रिक तरीकों से जल संसाधन के विकास की सरकारी प्रवृत्ति ने बाढ़ को आपदा के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया है। अकेले बिहार में तमाम तकनीकी प्रयास के वावजूद 1952 से लेकर अब तक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है (25 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 73 मिलियन हेक्टेयर)। पूरे देश के स्तर पे ये दायरा दो गुना का है। वहीं नदियों के प्रवाह को संकुचित करने के कारण नदी की तली में असामान्य रूप से तलछट का भराव हो रहा है। ऐसी आशंका जाहिर की गई है कि फरक्का बराज के कारण फरक्का से पटना तक गंगा नदी में तेजी से गाद का जमाव हुआ है‚ जिससे गंगा सहित नेपाल से आने वाली सभी सहायक नदियों की पानी ढोने की क्षमता में कमी आई है। कोसी नदी में तो गाद जमाव 12 सेमी/वर्ष तक मापी गई है। 

 बाढ़ की चपेट में आते शहर 

जलवायु परिवर्तन के मौजूदा दौर में बारिश में होने वाले बेतहाशा परिवर्तन से बाढ़ का प्रकोप न सिर्फ नदी के प्रवाह क्षेत्र में‚ बल्कि शहर भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक 2000–18 के बीच बाढ़ के संपर्क में आने वाले लोगों का प्रतिशत पहले की तुलना में 10 गुना अधिक बढ़ गया है‚ और जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ प्रभावितों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि के आसार हैं। 2000–2018 के दौरान बाढ़ संभावित क्षेत्रों में जनसंख्या में अनुमानित 34.1 फीसद की वृद्धि हुई। इसके विपरीत‚ इसी अवधि में वैश्विक जनसंख्या में केवल 18.6 फीसद की वृद्धि हुई। वर्ल्ड़ रिसोर्स इंस्टीट्यूट के मुताबिक 2030 तक बाढ़ प्रभावित लोगों की संख्या वर्तमान के 21 मिलियन से बढ़ के 54 मिलियन हो जाने की संभावना है। परिस्थितियां चाहे कुछ भी हों नदी पे नकेल कस के‚ बाढ़ के फैलाव को रोक के बाढ़ को आपदा बनने से रोका नहीं जा सकता। जरूरत है नदी की मूल प्रवृत्ति को समझने की जिसमें पानी का बहाव‚ बाढ़ और साथ बहने वाली वाली गाद उसके मूल में हैं‚ इसमें बड़े पैमाने अभियांत्रिकी छेड़छाड़ पूरी नदी घाटी को प्रभावित कर सकती है। अब तक बाढ़ नियंत्रण के सारे प्रकल्प के मूल में बाढ़ को आपदा मान के उसका निदान किया जाता रहा है‚ पर बाढ़ नदी की मूल प्रवृत्ति है। बाढ़ का समाधान केवल अभियांत्रिक समाधान नहीं हो सकता‚ हमें प्रकृति सम्मत समाधान ढूंढना होगा‚ तकनीक के साथ पारंपरिक ज्ञान के पहलू को भी जोड़ना होगा। क्षेत्रीय मानकों के परिप्रेक्ष्य में नदी में आने वाली बाढ़ प्राकृतिक रूप से नियंत्रित होती आई है। उत्तर बिहार में झीलों‚ तालाबों‚ चौर‚ मन की सामानांतर शृंखला मौजूद है‚ जिसे हम फ्लड वाटर हार्वेस्टिंग भी कह सकते हैं‚ जो शहरीकरण और विकास की भेंट चढ़ रही है‚ जिसे मौजूदा दौर में पुनर्जीवित करने की जरूरत है। यही जरूरत तेजी से फैलते शहरों की चपेट में आते वेटलैंड़‚ तालाब‚ नदियों आदि को बचाने की भी है‚ जो शहरों को अचानक आई बाढ़ से बचाती आई है‚ नहीं तो हर साल बिहार‚ असम‚ बंगाल‚ मुंबई‚ चेन्नई‚ गुड़गांव डूबते रहेंगे।

परिस्थितियां चाहे कुछ भी हों नदी पे नकेल कस के‚ बाढ़ के फैलाव को रोक के बाढ़ को आपदा बनने से रोका नहीं जा सकता। जरूरत है नदी की मूल प्रवृत्ति को समझने की जिसमें पानी का बहाव‚ बाढ़ और साथ बहने वाली वाली गाद उसके मूल में हैं‚ इसमें बड़े पैमाने पर अभियांत्रिकी छेड़छाड़ पूरी नदी घाटी को प्रभावित कर सकती है। अब तक बाढ़ नियंत्रण के सारे प्रकल्प के मूल में बाढ़ को आपदा मान के उसका निदान किया जाता रहा है‚ पर बाढ़ नदी की मूल प्रवृत्ति है।

  • डॉ. कुशाग्र राजेंद्र ‘एमिटी स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट साइंसेज’ में हेड ऑफ डिपार्टमेंट हैं। 
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